दुधारू पशुओं में ऐनाप्लाजमोसिस रोग की लक्षण, रोकथाम एवं उपचार
डा0 पंकज कुमार1, डा0 राज कि’kksर शर्मा1, डा0 सुधा कुमारी2, डा0 अनिल कुमार3 एवं डा0 अर्चना कुमारी4
1 – सह प्राध्यापक, पशु परजीवी विज्ञान विभाग, बिहार पशु चिकित्सा महाविद्यालय, पटना – 800014.
2 – सह प्राध्यापक, पशु सूक्ष्मजीव विज्ञान विभाग, बिहार पशु चिकित्सा महाविद्यालय, पटना – 800014.
3 – सह प्राध्यापक, पशु औषधी विज्ञान विभाग, बिहार पशु चिकित्सा महाविद्यालय, पटना – 800014.
4 – सह प्राध्यापक, पशु शल्य एवं विकिरण विज्ञान विभाग, बिहार पशु चिकित्सा महाविद्यालय, पटना –
परिचय –
यह गाल सिकनेस (Gall Sickness) येलो बुखार (Yellow Fever) के नाम से भी जाना जाता है। विशेषकर गोवंश के भेंस, हिरन तथा भेड़, बकरी आदि को ज्यादा प्रभावित करते है। सम्पूर्ण संसार में विशेषकर आर्द्र (नम) जलवायु में यह रोग ज्यादा होता है।
कारण –
ऐनाप्लाज्मा माजिनिल (Anaplasma marginale) एवं ऐनाप्लाज्मा सेनटिरियल (Anaplasma centriale) नामक कीटाणुओं जो बुफीलस, रीपीसेफालस, हायोलोमा, आइक्सोडेस और डरमा-सेंटर नामक किलनियों के काटने से पशुओं में रोग उत्पन्न करता हैं और रोग प्रसार में अति सहायक है। यह ध्यान रहे कि किलनी के साथ- साथ, सीधे मक्खियों तथा मच्छरों के काटने से भी यह रोग हो जाता है।
लक्षण –
शंकर नस्ल के साथ- साथ देशी नस्ल के पशु में भी यह बीमारी होता है। एक वर्ष की आयु से कम के पशु (बच्चें) इस रोग से कभी-कभी प्रभावित होते हैं। किन्तु प्रौढ़ पशु इससे अधिक प्रभावित होते हैं।
प्रौढ़ पशु में अति तीव्र, कम तीव्र या जीर्ण प्रकार का यह रोग पाया जाता है। युवा पशु प्रायः इस रोग का अवरोध करने में समर्थ होता है। आरम्भ में अवसाद, भूख की कमी और तापमान 103 डिग्री फॉ़ से 107 डिग्री फॉ़ तक हो जाता है। दूध देने वाली गाय का दूध देना अचानक कम हो जाता है। रोग वृद्धि होने पर रक्त की कमी हो जाती है। पशु सुस्त एवं उदास हो जाता है। रक्त में लाल रक्त कणों की संख्या घट जाती है। मुत्र में हीमोग्लोबिन प्रायः नहीं होते है। अन्त में पशु को कामला रोग हो जाता है। त्वचा एवं ष्लेष्मिक पीला रक्तहीन हो जाती है। जिसे इक्टेरिक रोग कहते हैं। जो पशु इस रोग से पीडित है उनको जल का अभाव तथा कब्ज हो जाती है। इश रोग में ज्वर 107 डिग्री फॉ़ तक हो जाता है। देशी मवेशी इस रोग को झेलने में समर्थ होते हैं किन्तु विदेशी एवं संकर नस्ल के मवेशी इस रोग से गम्भीर रूप से ग्रस्त हो जाते हैं। अन्तिम अवस्था में पाण्डू रोग हो जाता है।
सुरक्षा –
स्वच्छता के साथ किलनियों पर नियन्त्रण रखें। अफ्रीका में मृत वैक्सीन का प्रयोग किया जाता है। अब भारत में भी इसका प्रयोग प्रारम्भ हो गया है।
रोकथाम एवं उपचार –
- ऑक्सीटेट्रासाइक्लीन लॉग एक्टिंग (Oxytetracycline Long Acting) – 20 मि. ग्रा. प्रति किलोग्राम शारीरिक भार के रूप में गहरे मॉंस में इंजेक्शन लगाएं। यदि गम्भीर संक्रमणों में आवश्यकता पड़े तो 72 घण्टे बाद दोबारा पूर्वक्त् मात्रा में इंजेक्शन लगाएं।
सावधान। – घोड़े, कुत्ते और बिल्लियों में इसका प्रयोग वर्जित है।
- नियोमाइसिन (Neomycin) आवष्यकतानुसार 15 से 30 मि.ली. का इझट्रावेनस (I.V.) या मॉंस में इंजेक्शन लगाएं।
- एविल (Avil) इंजेक्षन – 10 मि.ली. का मॉंस में 12 – 12 घंटे बाद इंजेक्शन लगाएं।
- ग्लूकोज सैलाइन – आवष्यकतानुसार 500 से 1000 मि.ली. इण्ट्रावेनस (I.V.) मार्ग से दें।
- बेलामील (Belamyl) इंजेक्शन – 10 मि.ली. का गहरे मॉंस में सप्ताह में 2 – 3 बार दें। यह दुर्बलता व रक्त की कमी में लाभप्रद है।
- इम्फरॉन (Imferon) – 10 मि.ली. का इंजेक्शन सावधानी से मॉंस में सप्ताह में 2 बार लगाएं।
- कब्ज होने पर मैग. सल्फ 300 से 400 ग्राम उबालकर ठंडा किए जल में मिलाकर पिलांए। पौष्टिक चारा – दाना एवं टॉनिक्स उचित मात्रा में दें।