पशुओं में एंथ्रेक्स प्रकोप: फील्ड स्तर पर पहचान और सुरक्षित शव निपटान के प्रभावी उपाय

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Anthrax Outbreak in Animals: Field-Level Diagnosis and Safe Carcass Disposal Measures

पशुओं में एंथ्रेक्स प्रकोप: फील्ड स्तर पर पहचान और सुरक्षित शव निपटान के प्रभावी उपाय

भारत में पशुओं में एंथ्रेक्स प्रकोप: निदान, उपचार, और रोकथाम रणनीतियाँ

एंथ्रेक्स (Anthrax) एक घातक जीवाणुजनित रोग है, जो Bacillus anthracis नामक जीवाणु के कारण होता है। यह रोग मुख्यतः शाकाहारी पशुओं, विशेषकर मवेशियों, भेड़ों, बकरियों, और घोड़ों को प्रभावित करता है, लेकिन यह मनुष्यों में भी संक्रमित हो सकता है। भारत में, एंथ्रेक्स प्रकोप पशुधन स्वास्थ्य और सार्वजनिक स्वास्थ्य दोनों के लिए गंभीर चिंता का विषय है। इस लेख में, हम भारत में पशुओं में एंथ्रेक्स के प्रकोप, उसके निदान, उपचार, और रोकथाम रणनीतियों पर विस्तृत चर्चा करेंगे।

एंथ्रेक्स का परिचय

एंथ्रेक्स एक जूनोटिक रोग है, अर्थात् यह पशुओं से मनुष्यों में फैल सकता है। Bacillus anthracis जीवाणु मिट्टी में लंबे समय तक निष्क्रिय बीजाणुओं के रूप में जीवित रह सकता है, जो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सक्रिय होकर संक्रमण फैला सकता है। पशु आमतौर पर संक्रमित मिट्टी, चारा, या पानी के माध्यम से इस रोग के संपर्क में आते हैं।

भारत में एंथ्रेक्स का प्रसार

भारत में एंथ्रेक्स के प्रकोप मुख्यतः आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, ओडिशा, कर्नाटक, और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में देखे गए हैं। इन क्षेत्रों में गर्म और आर्द्र जलवायु, साथ ही मिट्टी की विशेषताएं, एंथ्रेक्स बीजाणुओं के संरक्षण में सहायक होती हैं। इसके अलावा, पशुपालन प्रथाओं में कमी, टीकाकरण की कमी, और जागरूकता की कमी भी इस रोग के प्रसार में योगदान करती हैं।

एंथ्रेक्स के लक्षण

पशुओं में एंथ्रेक्स के लक्षण तेजी से प्रकट होते हैं और इनमें शामिल हैं:

  • अचानक मृत्यु बिना पूर्व लक्षणों के
  • उच्च बुखार
  • सांस लेने में कठिनाई
  • रक्तस्राव, विशेषकर नाक, मुंह, और मलाशय से
  • शरीर के विभिन्न हिस्सों में सूजन

इन लक्षणों की तीव्रता के कारण, एंथ्रेक्स का शीघ्र निदान और उपचार अत्यंत आवश्यक है।

निदान

एंथ्रेक्स का निदान निम्नलिखित तरीकों से किया जा सकता है:

  1. माइक्रोस्कोपिक परीक्षण: रक्त या ऊतक के नमूनों में Bacillus anthracis जीवाणु की पहचान।
  2. कल्चर: विशेष माध्यमों पर जीवाणु की वृद्धि और पहचान।
  3. पीसीआर (PCR) परीक्षण: डीएनए आधारित तकनीक से जीवाणु की पुष्टि।
  4. सीरोलॉजिकल परीक्षण: रोग प्रतिरोधक प्रतिक्रिया की जांच।

इन परीक्षणों के माध्यम से एंथ्रेक्स की सटीक पहचान संभव है, जो उचित उपचार के लिए आवश्यक है।

उपचार

यदि प्रारंभिक अवस्था में पहचाना जाए, तो एंथ्रेक्स का उपचार संभव है। उपचार में शामिल हैं:

  1. एंटीबायोटिक्स: पेनिसिलिन, टेट्रासाइक्लिन, सिप्रोफ्लोक्सासिन, या डॉक्सीसाइक्लिन जैसे एंटीबायोटिक्स का उपयोग किया जाता है। उपचार शीघ्र शुरू करना अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि विलंब से मृत्यु का खतरा बढ़ जाता है।
  2. सपोर्टिव थेरेपी: तरल पदार्थों का प्रशासन, सूजन कम करने के लिए दवाएं, और अन्य सहायक उपचार।

गंभीर मामलों में, विशेषकर जब दिमाग या मेनिंजेस प्रभावित होते हैं, कॉर्टिकोस्टेरॉइड्स का उपयोग किया जा सकता है। इसके अलावा, फेफड़ों में तरल पदार्थ जमा होने पर, उसे निकालने के लिए चेस्ट ट्यूब का उपयोग किया जाता है।

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रोकथाम रणनीतियाँ

एंथ्रेक्स की रोकथाम के लिए निम्नलिखित रणनीतियाँ अपनाई जा सकती हैं:

  1. टीकाकरण: एंडेमिक क्षेत्रों में पशुओं का नियमित टीकाकरण अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह रोग की रोकथाम में सबसे प्रभावी उपायों में से एक है।
  2. सर्विलांस और रिपोर्टिंग: संदिग्ध मामलों की निगरानी और तुरंत रिपोर्टिंग से रोग के प्रसार को नियंत्रित किया जा सकता है।
  3. क्वारंटाइन: प्रभावित झुंडों को अलग करना और संक्रमण के प्रसार को रोकने के लिए उचित कदम उठाना आवश्यक है।
  4. मृत पशुओं का निपटान: संक्रमित शवों को बिना खोले गहराई में दफनाना या जलाना चाहिए, ताकि बीजाणुओं का प्रसार रोका जा सके।
  5. स्वच्छता: उपकरणों और पर्यावरण की उचित सफाई और कीटाणुशोधन से संक्रमण के जोखिम को कम किया जा सकता है।
  6. जागरूकता कार्यक्रम: पशुपालकों और ग्रामीण समुदायों में एंथ्रेक्स के लक्षण, प्रसार और रोकथाम के बारे में जागरूकता फैलाना आवश्यक है। यह उन्हें समय पर उचित कदम उठाने में सक्षम बनाता है।
  7. नियमित निगरानी: पशु स्वास्थ्य अधिकारियों द्वारा नियमित निगरानी और जाँच से एंथ्रेक्स के संभावित प्रकोपों का शीघ्र पता लगाया जा सकता है, जिससे त्वरित कार्रवाई संभव होती है।

मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव:

एंथ्रेक्स एक जूनोटिक रोग है, अर्थात यह जानवरों से मनुष्यों में फैल सकता है। संक्रमित पशुओं या उनके उत्पादों के संपर्क में आने से मनुष्यों में त्वचा, श्वसन या आंत संबंधी संक्रमण हो सकता है। इसलिए, पशुपालकों, कसाईयों और पशु उत्पादों से जुड़े अन्य व्यक्तियों को विशेष सावधानी बरतनी चाहिए। संक्रमित सामग्री के संपर्क से बचना, व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों का उपयोग और उचित स्वच्छता उपाय अपनाना आवश्यक है।

भारत सरकार ने पशुओं में संक्रामक और सांसर्गिक रोगों के निवारण, नियंत्रण और उन्मूलन के लिए “पशुओं में संक्रामक और सांसर्गिक रोगों का निवारण और नियंत्रण अधिनियम, 2009” लागू किया है।

यह अधिनियम पशु रोगों के प्रकोप को रोकने और नियंत्रित करने के लिए कानूनी ढांचा प्रदान करता है।

इसके अतिरिक्त, पशुपालन और डेयरी विभाग (DAHD) ने “पशुधन स्वास्थ्य और रोग नियंत्रण” (LH&DC) जैसी केंद्र प्रायोजित योजनाएँ शुरू की हैं, जो राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों को वित्तीय सहायता प्रदान करती हैं। इन योजनाओं का उद्देश्य आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण और ज़ूनोटिक रोगों के नियंत्रण के लिए टीकाकरण कार्यक्रमों का संचालन, राज्य पशु चिकित्सा जैविक उत्पादन इकाइयों और रोग निदान प्रयोगशालाओं को सुदृढ़ करना, और पशु चिकित्सकों एवं पैरा-पशु चिकित्सकों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करना है।

इन पहलों के माध्यम से, सरकार का उद्देश्य पशु स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करना और एंथ्रेक्स जैसे घातक रोगों की रोकथाम और नियंत्रण सुनिश्चित करना है।

भारत में पशुओं में एंथ्रेक्स के प्रकोप के दौरान प्रभावी नियंत्रण और रोकथाम के लिए निम्नलिखित कार्यप्रणाली और प्रोटोकॉल अपनाए जाते हैं:

  1. त्वरित पहचान और सूचना:
  • पशु चिकित्सक और पशुपालक किसी भी संदिग्ध एंथ्रेक्स मामले की तुरंत पहचान करें और संबंधित अधिकारियों को सूचित करें।
  1. संक्रमित क्षेत्र का पृथक्करण:
  • प्रभावित क्षेत्र को अन्य क्षेत्रों से अलग करें ताकि संक्रमण का प्रसार रोका जा सके।
  1. संक्रमित पशुओं का निपटान:
  • संक्रमित पशुओं के शवों को सुरक्षित रूप से जलाना या गहरे गड्ढों में दफनाना चाहिए, ताकि बीजाणु मिट्टी में न फैलें।
  1. टीकाकरण:
  • प्रभावित और आस-पास के क्षेत्रों में स्वस्थ पशुओं का एंथ्रेक्स टीकाकरण सुनिश्चित करें।
  1. एंटीबायोटिक उपचार:
  • संक्रमित और जोखिमग्रस्त पशुओं को उचित एंटीबायोटिक दवाएं प्रदान करें।
  1. स्वच्छता और सुरक्षा उपाय:
  • पशुपालक और कर्मचारी व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों का उपयोग करें और संक्रमित सामग्री के संपर्क से बचें।
  1. जागरूकता और प्रशिक्षण:
  • पशुपालकों और समुदाय को एंथ्रेक्स के लक्षण, रोकथाम और नियंत्रण के बारे में शिक्षित करें।
  1. निगरानी और रिपोर्टिंग:
  • प्रकोप के बाद निरंतर निगरानी रखें और किसी भी नए मामले की तुरंत रिपोर्ट करें।
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इन प्रोटोकॉल का पालन करके, एंथ्रेक्स के प्रकोप को नियंत्रित किया जा सकता है और पशुओं एवं मानव स्वास्थ्य की रक्षा सुनिश्चित की जा सकती है।

भारत में फील्ड स्तर पर एंथ्रेक्स प्रकोप का निदान और शव निपटान के प्रोटोकॉल

एंथ्रेक्स (Anthrax) एक गंभीर संक्रामक रोग है, जो Bacillus anthracis नामक बैक्टीरिया के कारण होता है। यह मुख्य रूप से पशुओं को प्रभावित करता है और मनुष्यों में भी फैल सकता है। भारत में पशुपालकों और फील्ड पशु चिकित्सकों के लिए इस रोग का त्वरित निदान और उचित शव निपटान आवश्यक है ताकि संक्रमण को नियंत्रित किया जा सके।

  1. फील्ड स्तर पर एंथ्रेक्स का निदान

एंथ्रेक्स के प्रमुख लक्षण

फील्ड स्तर पर, निम्नलिखित लक्षणों के आधार पर एंथ्रेक्स की पहचान की जा सकती है:

  1. अचानक मृत्यु:
    • बिना किसी स्पष्ट बीमारी के पशु की अचानक मृत्यु हो जाना एंथ्रेक्स का एक मुख्य संकेत है।
  2. अतिरिक्त रक्तस्राव:
    • मृत पशु के नाक, मुँह, गुदा और जननांगों से गहरा, काला और बिना जमे (unclotted) रक्त निकलना।
  3. शरीर में सूजन:
    • गर्दन, छाती और पेट में असामान्य सूजन देखी जा सकती है।
  4. तेज़ बुखार और साँस लेने में कठिनाई:
    • संक्रमित पशु में मरने से पहले अत्यधिक तेज़ बुखार और तेज़ साँस लेने के लक्षण देखे जाते हैं।
  5. रिगर मॉर्टिस (Rigor Mortis) अनुपस्थिति:
    • सामान्यतः मृत्यु के बाद शरीर कठोर हो जाता है, लेकिन एंथ्रेक्स से मरे पशु में यह कठोरता नहीं आती।
  6. पेट और शरीर का तेज़ी से फूलना:
    • मृत्यु के तुरंत बाद शरीर तेजी से फूल सकता है।

फील्ड डायग्नोसिस की प्रक्रिया

  1. ब्लड स्मीयर टेस्ट (Blood Smear Test):
    • मृत पशु के कान या पूंछ की नोंक से रक्त का नमूना लेकर ग्राम-स्मियर या माइक्रोस्कोपिक परीक्षण के लिए भेजा जाता है।
  2. पोल्क टेस्ट (Polk Test):
    • Bacillus anthracis बैक्टीरिया की पहचान के लिए प्रयोगशाला में परीक्षण किया जाता है।
  3. रैपिड फील्ड टेस्ट (Rapid Field Test):
    • कुछ मामलों में पोर्टेबल किट द्वारा त्वरित निदान किया जा सकता है।
  4. पोस्टमॉर्टम प्रतिबंध:
    • एंथ्रेक्स की पुष्टि होने पर मृत पशु का पोस्टमॉर्टम नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह बैक्टीरिया के बीजाणुओं (spores) को पर्यावरण में फैला सकता है।
  1. एंथ्रेक्स से मरे पशु के शव का निपटान (Carcass Disposal Protocols)
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एंथ्रेक्स बैक्टीरिया मिट्टी में दशकों तक जीवित रह सकता है, इसलिए शव के निपटान के लिए विशेष सावधानियाँ बरतनी आवश्यक हैं।

शव निपटान के प्रमुख प्रोटोकॉल:

  1. पोस्टमॉर्टम न करें:
    • शव को कभी भी खोलना या चीर-फाड़ नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इससे बैक्टीरिया के बीजाणु हवा में फैल सकते हैं।
  2. गहरे गड्ढे में दफनाना (Deep Burial Method):
    • शव को कम से कम 6-8 फीट गहरे गड्ढे में दफनाया जाना चाहिए।
    • गड्ढे की सतह पर चूना (lime) या ब्लीचिंग पाउडर डालना आवश्यक है ताकि बैक्टीरिया निष्क्रिय हो जाए।
  3. शव को जलाना (Incineration Method):
    • यदि संभव हो, तो शव को पूरी तरह से जलाकर नष्ट करना चाहिए।
    • इसके लिए हाई-टेम्परेचर इंसीनरेटर या खुली आग (Open Pyre) का उपयोग किया जाता है।
  4. संक्रमित क्षेत्र का कीटाणुशोधन (Disinfection of Contaminated Area):
    • मृत पशु के आसपास की मिट्टी और फर्श को 5% फॉर्मलिन, 10% ब्लीच या 1% सोडियम हाइपोक्लोराइट से अच्छी तरह से कीटाणुरहित करें।
    • दूषित चारा, पानी और उपकरणों को भी नष्ट किया जाना चाहिए।
  5. व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों (PPE) का उपयोग:
    • शव निपटान करने वाले सभी व्यक्तियों को ग्लव्स, मास्क, गॉगल्स और बूट्स पहनने चाहिए।
    • बाद में सभी उपकरणों और हाथों को साबुन और गर्म पानी से अच्छी तरह धोना आवश्यक है।
  6. संदिग्ध क्षेत्र को क्वारंटाइन करें:
    • प्रभावित क्षेत्र में पशुओं और मनुष्यों की आवाजाही सीमित की जानी चाहिए।
    • नए पशुओं को क्षेत्र में लाने से पहले कम से कम 2 महीने तक निगरानी रखें।
  7. नजदीकी पशु चिकित्सा अधिकारियों को सूचित करें:
    • राज्य पशुपालन विभाग और स्थानीय पशु चिकित्सकों को तुरंत रिपोर्ट करना आवश्यक है ताकि उचित निगरानी और नियंत्रण उपाय किए जा सकें।

फील्ड स्तर पर एंथ्रेक्स के त्वरित निदान और उचित शव निपटान से रोग के प्रसार को रोका जा सकता है। पशुपालकों, पशु चिकित्सकों और सरकारी एजेंसियों के सहयोग से इस बीमारी को नियंत्रित किया जा सकता है।

भारत में एंथ्रेक्स-प्रवण क्षेत्रों में नियमित टीकाकरण, जैव-सुरक्षा उपाय, और उचित जागरूकता कार्यक्रमों के माध्यम से इस रोग को रोका जा सकता है। यदि किसी भी पशु में संदिग्ध लक्षण दिखें, तो बिना देरी किए पशु चिकित्सक से संपर्क करें और दिए गए प्रोटोकॉल का पालन करें।

 

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