*अपनी दुधारू गाय खुद तैयार कीजिये – भाग 19*
आज बात करते हैं गाय के अन्तःपरजीवियों की। गाय में मुख्यतः तीन तरह के अंतःपरजीवी लग सकते हैं जैसे
1 गट वर्म: इन्हें गोल कृमि भी कहते हैं। ये कीड़े गाय की आंतों में रहते हैं और इन्हीं के कारण नवजात बछड़े बछड़ियों की मृत्यु तक हो जाती है।
2 लंग वर्म: ये कीड़े गाय के फेफड़ों में पाए जाते हैं
3 लीवर फ्लूक: ये कीड़े गाय के जिगर में पाए जाते हैं
गाय में किसी भी प्रकार का अन्तःपरजीवी लगने पर उनकी भूख समाप्त हो जाती है। वृद्धिशील पशुओं में बढ़वार रुक जाती है। दुधारू गायों में दूध का उत्पादन घट जाता है और गायों की प्रजनन क्षमता प्रभावित होती है। गाय का गोबर कभी पतला हो जाता है और कभी बहुत सख्त हो जाता है और गोबर से भयंकर बदबू आती है। गोबर का नजदीक से निरीक्षण करने पर गोबर में कीड़ों के अंडे और कीड़े तक दिखाई देते हैं।
छोटे बछड़े बछड़ियों में दस्त लग सकते हैं, उनका वजन कम हो जाता है और पेट में कीड़े अत्यधिक होने से आंतों में रुकावट तक हो सकती है जो अक्सर उनकी मृत्यु का कारण बनती है।
गाय में कीड़े क्यों लगते हैं, कैसे लगते हैं, इसका एक पूरा विज्ञान है। यहां संक्षेप में मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि पशुओं के पोषण और उनमें अन्तःपरजीवी लगने के बीच गहरा सम्बन्ध है।
यह एक प्रकार का दुष्चक्र है। पशु का पोषण ठीक नहीं हुआ तो वह कमजोर हो जाएगा। कमजोर पशु में अन्तःपरजीवी ज्यादा लगते हैं। कमजोर पशु में अन्तःपरजीवी लगने पर वह उसका खून चूसते रहते हैं, इनके कारण पशुओं की भूख समाप्त हो जाती है और पशु और भी कमजोर होता जाता है। पशु के और कमजोर होने पर अन्तःपरजीवियों का हमला और तेज हो जाता है और पशु इस दुष्चक्र में फंस जाता है।
अन्तःपरजीवी अगर पेट में और आंतों में हैं तो पशु का पाचन खराब हो जाएगा। अगर यह फेफड़ों में है तो उसके फेफड़े ठीक से काम नहीं करेंगे तो पशु हांपने लगेगा। अगर यह परजीवी उसके लीवर में हैं तो पशु का लीवर सही से काम नहीं करेगा और पशु कमजोर होता चला जाएगा।
गायों में अगर अन्तःपरजीवी लगे हैं तो ऐसे पशुओं में चारे या दाने में उपस्थित फॉस्फोरस का अवशोषण कम होगा और पशु को फॉस्फोरस की कमी हो जाएगी जिसके कारण गाय की प्रजनन क्षमता प्रभावित होगी और वह समय पर गर्मी में नहीं आएगी।
अंतः परजीवियों को समाप्त करने के चार उपाय हैं…
1 पोषण प्रबंधन: अगर पशु का पोषण सन्तुलित होगा तो अन्तःपरजीवियों के अंडे या लार्वे अगर पशु के शरीर में चले भी गए तो वह इन्फेक्शन नहीं कर पाएंगे और बाहर आ जाएंगे।
2 खेत में खाद का प्रबंधन: जिन पशुओं को अन्तःपरजीवी लगे होते हैं उनके गोबर में इनके अंडे और परजीवी बाहर निकलते रहते हैं। जब यह गोबर खेत में डाला जाता है तो यह अंडे और परजीवियों के लार्वे चारे पर पर लग जाते हैं। फिर यह चारा पशु खाता है तो उसके पेट में जाकर इन्फेक्शन कर देते हैं। इसलिए खेत में साफ सुथरा पका हुआ गोबर या फिर वर्मीकम्पोस्ट डालकर इस चक्र को तोड़ा जा सकता है।
3 दवाओं का प्रयोग: अगर पशु को अन्तःपरजीवियों का प्रकोप हो ही जाए तो इसके लिए विभिन्न दवाएं प्रयोग करके इन्हें समाप्त किया जा सकता है। किस पशु को कौन सी दवा कितनी मात्रा में कितनी बार देनी है इसका फैसला एक योग्य पशुचिकित्सक ही कर सकता है।
4 टीकाकरण: फेफड़ों में होने वाले लंग वर्म्स से बचाव के लिए टीकाकरण भी करवाया जा सकता है।
सबसे महत्वपूर्ण है कि पशुओं का पोषण सन्तुलित रखा जाए ताकि उनके अंदर अन्तःपरजीवियों के अंडे या लार्वा जाकर भी कुछ ना बिगाड़ पाएं।
स्वस्थ पशु के अंदर पहले तो अन्तःपरजीवी लगेंगे ही नहीं। अगर लग भी गए तो उसकी सेहत पर बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं डाल पाएंगे।
पशुओं में अन्तःपरजीवी ना लगने देने के लिए सबसे महत्वपूर्ण रोल होता है प्रोटीन का। प्रोटीन मिलती है खलियों से। अगर रातिब मिश्रण बनाते समय उसमें उचित अनुपात में खलियाँ डालेंगे और पशु की आवश्यकतानुसार उसे हरा चारा और रातिब मिश्रण देंगे तो उसके अंदर प्रोटीन की कमी नहीं होगी और उसकी इम्युनिटी बेहतर होगी और स्वस्थ पशु में अन्तःपरजीवी नहीं लगेंगे। जैसे ही पशु के चारे दाने में प्रोटीन की मात्रा घटेगी तो पशु को तुरंत ही अन्तःपरजीवी लग जाएंगे।
चारे और रातिब में कॉपर और कोबाल्ट की कमी होने पर भी अन्तःपरजीवी ज्यादा लगेंगे।
कुलमिलाकर यह कहा जा सकता है कि पशुओं को अगर सन्तुलित पोषण उपलब्ध कराया जाए तो उनमें अन्तःपरजीवी लगने की सम्भावना कम हो जाएगी और अन्तःपरजीवी होने की स्थिति में दवा पर होने वाला खर्चा भी बचेगा।
अगर अन्तःपरजीवी हो ही जाये तो फिर दवा देना जरूरी हो जाता है। वैसे भी वर्ष में कम से कम एक बार अन्तःपरजीवी मारने की दवा सभी पशुओं को देने की सलाह दी जाती है।
आज के लिए बस इतना ही। कल बात करेंगे गाय के बाह्य परजीवियों के विषय में।
क्रमश:
*डॉ संजीव कुमार वर्मा*
*प्रधान वैज्ञानिक (पशु पोषण)*
*केंद्रीय गोवंश अनुसंधान संस्थान, मेरठ*