पशुपालक भी समझें पशुओं का लाभप्रद मौलिक स्वास्थ्य निरीक्षण

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पशुपालक भी समझें पशुओं का लाभप्रद मौलिक स्वास्थ्य निरीक्षण

के.एल. दहिया

पशु चिकित्सक, पशुपालन एवं डेयरी विभाग, कुरूक्षेत्र, हरियाणा

पशुधन भारतीय अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है जिसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि पशुधन का छोटे ग्रामीण परिवारों की आय में 16%, जबकि कुल ग्रामीण परिवारों में औसतन 14% योगदान है। पशुधन ग्रामीण समुदाय के दो-तिहाई लोगों को आजीविका लगभग भारत में लगभग 8.8% आबादी को रोजगार भी प्रदान करता है। भारत में विशाल पशुधन संपदा है। पशुधन क्षेत्र में सकल घरेलू उत्पाद का 4.11% और कुल कृषि जीडीपी का 25.6% योगदान है।

स्वस्थ पशुधन, पशुपालक की खुशहाली का प्रतीक है। सभी पशुपालक चाहते हैं कि उनका पशुधन स्वस्थ रहे और रोगों पर खर्च होने वाले धन को बचाया जा सके। इसके लिए पशुचिकित्सक भी उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर पशुधन को रोगमुक्त करने में तत्पर रहते हैं। बेशक, पशु एक मूक प्राणी है और रोगी होने की दशा में वह अपना दु:ख तो नहीं बता सकता है लेकिन शारीरिक अवस्थाओं के माध्यम से अवश्य व्यक्त करता है जिन्हें समझकर पशुपालक उसके दर्द के लक्षणों को जानकर पशु चिकित्सक से साझा कर इलाज में सहयोग कर सकता है। जब भी पशुपालक चिकित्सक के पास अपने पशु को लेकर पहुँचता है तो चिकित्सक उससे ऐसे लक्षण पूछने की कोशिश करता है जिन्हें पशुपालक ने अपने घर पर रोगी पशु में देखा है। इन लक्षणों के आधार पर रोगी पशु का इलाज आसान हो जाता है। वैसे भी आज का युग सूचना प्रौद्योगिकी का युग है और पशुपालक दूरभाष पर ही पशुचिकित्सक से बातचीत कर ही अपने पशु का इलाज करने की सोचता है। इसलिए पशुपालक को रोगी पशु के लक्षणों का ठीक-ठीक पता होना जरूरी हो जाता है ताकि उसका पशु जल्दी स्वस्थ हो जाए। अत: पशुपालकों को इन लक्षणों को पता ‌‌‌होना जरूरी है जिन्हें तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है:

  1. सामान्य (दूर से) निरीक्षण
  2. पशु के शरीर के विभिन्न भागों का निरीक्षण
  3. अन्य निरीक्षण
1. सामान्य (दूर से) निरीक्षण

आमतौर पर पशु के पास कुछ दूरी पर खड़े रहकर निरीक्षण पर जोर नहीं दिया जाता है और इसकी अनदेखी कर दी जाती है। सामान्य निरीक्षण में पशु के पास कुछ दूर से किये गये आंकलन महत्त्वपूर्ण होते हैं। कुछ ऐसे लक्षण होते हैं जिनको पशु की शान्ति भंग होने के बाद आंकलन नहीं किया जा सकता है। सामान्यत: निरीक्षण करने वाले चिकित्सक के पशु अभ्यस्त नहीं होते हैं।  इसलिए चिकित्सक के पास जाने से पशु के सही लक्षणों का पता नहीं लगाया जा सकता है। इसमें पशुपालक अच्छी भूमिका निभा सकता है।

  1. पशु का व्यवहार सामान्य उपस्थिति
  • स्वस्थ पशु हमेशा चौकन्ना रहता है और हर समय चुस्त दिखायी देता है। जैसे ही कोई उसके पास जाता तो वह सतर्क हो जाता है। जब भी उसके शरीर पर कोई कीट-पतंगा या पक्षी बैठता है तो वह चमड़ी और पूँछ को हिला कर उन्हें उड़ा देता है।
  • रोगी पशु का चौकन्नापन कम हो जाता है और हर समय सुस्त दिखायी देता है। वह अन्जान व्यक्ति के पास आने से भी वह सतर्क नहीं होगा। वह कीट-पतंगों व पक्षियों को उड़ाने में असमर्थ होता है।

पशु के पास कुछ दूरी पर खड़े होकर उसके व्यवहार एवं शारीरिक अवस्था का ध्यानपूर्वक निरीक्षण करना चाहिए।

व्यवहार

पशु का व्यवहार उसके स्वास्थ्य का प्रतिबिंब है। उसका अन्य पशुओं से अलग होने का अभिप्रायः आमतौर पर यह होता है कि वह बीमार हो सकता है। यदि ऐसा पशु बाह्य उत्तेजकों जैसे कि आवाज या हलचल से प्रतिक्रिया करता है तो उस पशु का स्वास्थ्य ठीक माना जाता है। यदि वह बाह्य उत्तेजकों के प्रति सुस्त है और उदासीनता दिखाता है तो वह बीमार हो सकता है। इस प्रकार के लक्षण कार्बोहाईड्रेट अतिपूरणता (एन्गोर्जमेंट) में हो सकते हैं जिसमें पशु को चलने-फिरने में परेशानी होती है। यदि पशु बहुत ज्यादा सुस्त है तो वह खड़ा रहता है, चल-फिर नहीं सकता हो और बाह्य उत्तेजकों के प्रति भी प्रतिक्रिया नहीं दिखाता और बुत की तरह ही खड़ा रहता है इसे डमी सिंडरोम भी कहते हैं, ऐसे लक्षण शीशे की हल्की विषाक्तता (लेड पॉयजनिंग), लिस्टिरिओसिस, एसीटोनिमिया, मस्तिस्क-सुशुम्नाशोथ (एनसेफलो-मायलायटिस) व यकृत अधितंतुरुजा (लिवर सिर्होसिस) में पाए जाते हैं।

उत्तेजतक अवस्था

पशुओं में उत्तेजना की अवस्था बदलती रहती है। आकुलता या व्याकुलता उसके बीमार होने के हल्के से लक्षण हैं। ऐसी स्थिति में वह उत्तेजक रहता है और लगातार देखता रहता है लेकिन व्यवहार में सामान्य दिखायी देता है। इस तरह का व्यवहार आमतौर पर लगातार होने वाले हल्के दर्द या असामान्य अनुभूति का सूचक है जैसे कि आसन्नप्रसवा आंशिकघात (पेरीपार्चुरिएंट पैरालिसिस) या हाल ही में पैदा हुआ अन्धापन। बेचैनी भी एक गंभीर अभिव्यक्ति है जिसमें पशु अचानक से नीचे बैठता है और फिर खड़ा हो जाता है और उसके बाद असामान्य गति से चलता है। कोख की तरफ देखना, पेट पर लात मारना, बार-बार घूमना व रंभाना इत्यादि लक्षण बेचैनी के हो सकते हैं। इस प्रकार का व्यवहार आमतौर पर दर्द का सूचक होता है।

अत्याधिक उत्तेजना में पशु बहुत ज्यादा उन्मादी हो जाता है जिसमें वह बहुत ज्यादा ताकत से पागलों की तरह व्यवहार करने लगता है। वह अपने पेट पर बहुत जोर से पैर मारने लगाता है, अखाद्य वस्तुओं को चाटने या चबाने लगता है (चित्र 1) या वह अपने सिर को आगे की तरफ विशिष्ट तरीके से दीवार या अन्य वस्तु के सहारे दबाने लगता है (चित्र 2)। उत्तेजित अवस्था में वह पशुपालक या अन्य किसी को भी मारने की कोशिश करता है (चित्र 3)। इस प्रकार के लक्षण सर्रा, रेबीज, शीशे की विषाक्तता या नर्वस एसिटोनीमिया में हो सकते हैं।

  1. पशु द्वारा उत्पन्न आवाज
  • पशु द्वारा उत्पन्न आवाज की विषमता पर ध्यान देना चाहिए। रेबीज में यह कर्कश होती है तो कई पशुओं में कोई आवाज नहीं होती है, आंत्र शोथ में पशु की आवाज कमजोर हो सकती है तो यकृत शोथ में ‌‌‌बिना आवाज की जभाई (यानिंग) हो सकती है।
  1. चारादाना
  • स्वस्थ पशु चारा-दाना आदि चाव से खाता है और जब भी उसको खाने के लिए कोई नई वस्तु दी जाए तो वह उसे बड़े उत्साह से खाने के लिए झपटता है।
  • रोगी पशु चारा-दाना आदि खाना बन्द कर देता है और यदि वह खाता भी है तो बहुत ही कम और अनिच्छा से खाता है।
  • ऐसा पशु जो दूसरे पशु का मल-मूत्र व अखाद्य वस्तुऐं खाता है, दीवार/खुरली/खुंटे को चाटता है, तो उसके पेट में कृमि और खनिज तत्वों की कमी हो सकती है।
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यह जानना भी जरूरी होता है कि पशु हर रोज कुल कितना चारा खाता है। यदि पशु चारा कम खाता है तो उसे जुगाली करने में परेशानी हो सकती है। जुगाली करते समय पशु खाये गये चारे का परिग्रहण (प्रीहेंसन) कर उसे चबाता है व ‌‌‌चबाने के बाद उसे दोबारा फिर निगलता है।

  • स्वस्थ पशु खाये गये दाने-चारे को भली-भान्ति जुगाली करके घण्टों तक चबाता रहता है, ताकि वह अच्छी प्रकार पच जाये व उसके शरीर को आवश्यक शक्ति दे सके।
  • रोगी पशु जुगाली करना बन्द कर देता है। यदि थोड़ी बहुत जुगाली करता भी है तो इतने धीरे से करता है जैसे कि उसको जुगाली करने में कष्ट हो रहा हो। यह उसके रोगी होने का मुख्य लक्षण है।

पशु चारे का कम परिग्रहण तब करता है जब वह चारे के पास जाने में असक्षम हो, उसमें जीभ का पक्षाघात, अनुमस्तिस्क गतिभंग (सेरेब्रेल एटेक्सिया), मेरुरज्जुशोथ (ऑस्टियोमायलायटिस), व गर्दन की अन्य दर्द करने वाली समस्याओं से ग्रस्त होता है। यदि पशु के मुँह में किसी भी कारण से दर्द हो तो प्रभावित पशु कुछ चुनिन्दा प्रकार के नरम चारे को ही खा पाता है।

कई बार पशु परिग्रहित किये गये चारे को पूरा नहीं चबाता या जबड़े के एक तरफ से चबाता है तो पशु के मुँह की सरंचनाओं (जैसे कि दान्तों का घीसना या छोटे-बड़े हो जाना) में परेशानी हो सकती है। चबाने की प्रक्रिया (जब चारा पशु के मुँह में होता है) में बार-बार रूकावट, डमी सिंडरोम व मष्तिस्क एवं मेरूरज्जाशोथ होने पर हो सकती है।

पशु के निगलने में यदि परेशानी हो तो गले या आहार नली में सूजन हो सकती है जैसा कि कॉफ डिप्थीरीया या अव्यवहारिक तरीके से दी गई नाल जिससे मुँह या गले में जख्म हो जाते हैं।

चबाए हुए चारे को निगलते समय खाँसी करने के उपरान्त कई बार चारा नाक से बाहर निकलने लगता है या पशु उलटी कर देता है जो एक गंभीर समस्या हो सकती है। ऐसा तभी होता है जब गले में अवरोधकता या पक्षाघात हो जाए।

  1. गोबर
  • स्वस्थ पशु का गोबर गाढ़ा व कड़ा होता है (चित्र 4) और वह अधिक पतला नहीं होता। साथ ही स्वस्थ पशु के गोबर में चमक भी होती है।
  • रोगी पशु का गोबर अधिक पतला (चित्र 5) या कभी–कभी अधिक कड़ा तथा रक्तयुक्त लाल रंग (चित्र 6) या मटमैले रंग का चमक विहिन और तीव्र दुर्गन्ध वाला होता है, जिससे सहज ही पता चल जाता है कि पशु बीमार है।

कब्ज या गुदा पक्षाघात या गुदा का संकरापन होने से पशु को गोबर करने में परेशानी होती है और गोबर करते समय पशु को ऐंठन होती है। पशु के पेट में दर्द होने या श्लेष्मत्वक संगम (म्यूकोक्यूटेनियस जंक्शन) कटा-फटा होने से गोबर करते समय पशु को दर्द होता है। अनैच्छिक (इनवोल्ंटरी) ढंग से मल त्याग, गंभीर दस्तों व गुदा संकुचन मांसपेशी पक्षाघात में होता है। यदि पशु थोड़ा गोबर करता है तो आमाश्य में समस्या हो सकती है।

  1. गुदा द्वार
  • स्वस्थ पशु की गुदा द्वार, गोबर करने के बाद पश्चात भी बिल्कुल साफ रहती है। उसका गोबर गुदा के आस-पास नहीं चिपकता है।
  • रोगी पशु का गुदा द्वार, गोबर करने के बाद साफ नहीं रहता है गोबर उसकी गुदा के पास चिपका रहता है क्योंकि बीमार पशु का गोबर लेसदार होता है।
  1. मूत्र
  • स्वस्थ पशु के मल-मूत्र में किसी प्रकार की असह्य दुर्गन्ध नहीं होती है।
  • रोगी पशु बहुत कम मूत्र करता है या बहुत अधिक या बार-बार करता है। मूत्र का रंग लाल या भूरे रंग का हो सकता है (चित्र 7, 8)।

पशु को पेशाब करने में परेशानी होती है तो मूत्रमार्ग में आंशिक अवरोधकता होती है व दर्द तब होता है जब मूत्रमार्ग में सूजन होती है। पेशाब की थैली में शोथ (सिस्टाइटिस) या मूत्रमार्गशोथ होने से पेशाब करने की आवृति बढ़ जाती है लेकिन पेशाब की मात्रा कम होती है। मूत्र त्यागने के बाद वह मूत्र त्यागने की स्थिती में ही रहता है। यदि मूत्र बूँद-बूँद करके लगातार बहता है तब मूत्र मार्ग में अवरोधकया मूत्रमार्ग की संकुचन मांसपेशियों का पक्षाघात हो सकता है।

  1. पशु की मुद्रा

खड़ा होने की मुद्रा

  • स्वस्थ पशु बहुत ही आराम से खड़ा रहता है।
  • रोगी पशु को खड़ा होने में परेशानी होती है। यदि पशु एक टांग से लंगड़ा होता हैं तो वह दूसरी टांगों पर खड़ा होने की कोशिश करता है। यदि पशु के पेट में दर्द होता है तो वह पेट पर लात मारता है।

यदि पशु असामान्य मुद्रा में हो तो यह जरूरी नहीं है कि वह बीमार हो लेकिन इसके साथ अन्य लक्षण दिखायी दे तो हो सकता है कि वह गंभीर बीमारी से ग्रसित हो। उदाहरण के तौर पर यदि पशु एक टांग से आराम कर रहा हो तो उस टांग में दर्द हो या यदि पशु बार-बार टांगों को बदलकर आराम कर रहा है तो उस पशु को लेमिनाइटिस (चित्र 9) या ऑस्टियोस्टोड्रोफिया फाइब्रोसा हो सकता है। यदि पशु पीठ को मोड़कर व चारों टांगों को पेट के नीचे सिकोड़कर खड़ा हो तो उसके पेट में दर्द या लंगड़ापन हो सकता है। ऐसा कार्बोहाइड्रेट अतिपूर्णता से भी हो सकता है। यदि पशु के शरीर में अकड़न हो तो टेटनस हो सकता है।

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बैठने की मुद्रा

  • स्वस्थ पशु आराम लेकिन चौकन्ना होकर बैठता है व जुगाली करता है।
  • रोगी पशु सुस्त दिखायी देता है। सिर व गर्दन का सन्तुलन बनाने में उसे परेशानी होती है। यदि पशु में लंगड़ापन होगा तो वह खड़ा होने पर परेशान होगा।

जब पशु के जोड़ों में दर्द होता है तो वह टांगों को मोड़कर पेट के नीचे नहीं रख पाता है व टांग को सीधे बेढंगे तरीके से बाहर की तरफ ही सीधे रखता है (चित्र 10)। आसन्नप्रसवा पक्षाघात में, बैठा हुआ पशु गर्दन को मोड़कर रखता है (चित्र 11)। ऐसे पशु में कैल्शियम तत्व की कमी हो सकती है।

  1. चाल
  • स्वस्थ पशु की चाल-ढाल हमेशा सही रहती है।
  • रोगी पशु की चाल-ढाल कम हो जाती है। वह लंगड़ाकर चलने लगता है। पशु को गतिभ्रम हो सकता है। यदि पशु पैरों को जमीन पर पटकता है या पैरों से रेशा बहता है तो उसके खुरों में जख्म व कीड़े हो सकते हैं।

पशु की चाल को उसकी चलने की दर, कदमों की दूरी, ताकत व दिशा के द्वारा व्यक्त किया जाता है। अनुमस्तिस्क गतिभंग (सेरेब्रेल एटेक्सिया) में चारों टाँगों की दर, दूरी, ताकत व दिशा प्रभावित होती हैं। गठिया में जोड़ों व लेमिनाईटिस के कारण दर्द होने से दूरी प्रभावित होती है। मस्तक अपसरण (हेड डेविएशन), एसीटोनिमिया में पशु गोल-गोल धूमता है। मस्तिस्क मेरूरज्जाशोथ व यकृत में कमी के कारण पशु विवशतापूर्वक सीधा अवरोधक की परवाह किये बिना चलता है।

  1. शारीरिक दशा
  • स्वस्थ पशु देखने में न ज्यादा भारी होता है और न ही वह कमजोर दिखायी देता है।
  • रोगी पशु बहुत मोटा या पतला व कमजोर हो सकता है।

कमजोर पशु की त्वचा खुरदरी व बाल और रोएं खड़े रहते हैं व उसकी कार्य शक्ति कम हो जाती है। पतले पशु शारीरिक तौर पर सामान्य होते हैं उनमें वसा कम होती है। यदि पशु में वसा का भण्डारण ज्यादा होता है तो उसकी उत्पादन क्षमता भी प्रभावित हो जाती है। दोनों ही परिस्थितीयों – कमजोरी व अत्यधिक भार बढ़ने से दूधारू पशु की दुग्ध उत्पादन क्षमता कम हो जाती है। इसलिए समय-समय पर शरीर के हालात का आंकलन किया जाना जरूरी होता है।

  1. शारीरिक आकृति
  • स्वस्थ पशु तिकोने आकार का (वेज शेप्ड) होता है।
  • रचना या आकार का मूल्यांकन शरीर के विभिन्न भागों की समरूपता पर आधारित है। कई पशुओं में पेट अपेक्षाकृत छाती व पुट्ठों से बड़ा हो जिसे शारीरिक व्याधि कहा जाता है। इसलिए पशु के शरीर का आंकलन किया जाना आवश्यक होता है ताकि पशु के शरीर में समरूपता दिखायी दे।
  1. बाल, रोम त्वचा
  • स्वस्थ पशु के बालों, रोम तथा त्वचा में हर समय चमक-सी रहती है (चित्र 12)।
  • रोगी पशु के बाल व रोम खड़े हो जाते हैं तथा बालों व त्वचा की चमक भी कम हो जाती है व त्वचा खुरदरी (चित्र 13) सी दिखायी देती है।
2. पशु के शरीर के विभिन्न भागों का निरीक्षण
  1. सिर
  • स्वस्थ पशु सिर को सही हिलाता-डुलाता है। उसके पास जाने से वह एक दम चौकन्ना होकर सिर को उठा लेता है (चित्र 14)।
  • रोगी पशु सिर को हिलाने-डुलाने में असमर्थ होता है। उसका सिर झुका-झुका व मुरझाया हुआ सा रहता है (चित्र 15)।

मुँह

  • स्वस्थ पशु का मुँह हमेशा साफ रहता है (चित्र 16)।
  • रोगी पशु के मुँह से लार बहती रहती है (चित्र 17, 18)। मुँह में छाले या जख्म हो सकते हैं।

थूथन (मज्जल)

  • स्वस्थ पशु की थूथन गीली व चमकीली रहती है (चित्र 16)।
  • रोगी पशु की थूथन सूखी-सूखी सी दिखायी देती है व उसकी चमक भी कम हो जाती है।

नथुने (नोस्टि्रल)

  • स्वस्थ पशु के नथुने हमेशा चमकीले रहते हैं।
  • रोगी पशु के नथुने सूखे-सूखे से रहते हैं व उनकी चमक कम हो जाती है। उसके नाक से श्लेष्मा बहता है या सूखकर पपड़ी की तरह जम जाता है।

कान

  • स्वस्थ पशु अपने कानों को हर समय स्वभाविक रूप से हिलाता रहता है और समय चौकन्ना तथा चुस्त दिखायी देता है।
  • रोगी पशु कान हिलाना बन्द या कम कर देता है। उसके कान नीचे लटक जाते हैं। कई बार कानों पर सूजन आ जाती है।

आँखें

  • स्वस्थ पशुओं की आँखों में हमेशा चमक व तेज पाया जाता है।
  • रोगी पशु की आँखों की चमक कम हो जाती है। आँखों से पानी बहता रहता है। आँखें गन्दली सी रहती हैं। आँखों से दिखना कम या ​बिल्कुल दिखायी नहीं देता।

जीभ

  • स्वस्थ पशु की जीभ हमेशा मुँह में ही रहती है।
  • कभी-कभी रोगी पशु जीभ बाहर निकालता रहता है ऐसे पशु की जीभ पर छाले या जख्म हो सकते हैं।
  1. गर्दन
  • रोगी पशु की गर्दन में खासतौर से जबड़े के पास या गले में सूजन (चित्र 19, 20) हो सकती है। पशु गर्दन का सन्तुलन नहीं रख पाता है।
  • लार ग्रन्थि में भी सूजन हो सकती है।

लसीका ग्रन्थि (लिम्फ नोड)

  • लसीका ग्रन्थि को बहुत बार अनदेखा किया जाता हैं लेकिन कई बार इसकी सूजन (चित्र 21, 22) से चिचड़ी रोग जैसे गंभीर रोग उत्पन्न होते हैं जिनका देरी से इलाज होने पर पशु की जान भी चली जाती है।
  • कंठ नाड़ी (जुगलर पल्स) व कंठ की नस (जुगलर वीन) को हमेशा अनदेखा किया जाता है। आमतौर पर कंठ नाड़ी में कंपन दिखायी नहीं देती है लेकिन कंठ नाड़ी में तेज कंपन और कंठ की नस में सूजन (चित्र 23) का संबंध दिल के रोग से होता है। इसी प्रकार ग्रास नली में सूजन कोई भी खाद्य पदार्थ जैसे कि आलू इत्यादि के फंस जाने या सूजन हो जाने पर भी पशु को परेशानी होती है और ऐस पशु में अफारा भी देखने को मिलता है। अत: कंठ की नस व ग्रास नली की सूजन को भी जांचना चाहिए।
  1. छाती
  • स्वस्थ पशु का स्वस्न गति, लय, गहराई, संतुलन ​बिना आवाज के होती है।
  • रोगी पशु की स्वस्न गति, लय, गहराई, संतुलन ठीक नहीं रहता व स्वस्न क्रिया में आवाज आती है।
  • छाती में अगली टांगों के बीच में सूजन होना यह दर्शाता है कि पशु के पेट में नुकीली वस्तु हो सकती है।
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श्वसन गति

रोगी पशु की स्वस्न गति कम या ज्यादा हो सकती है। गायों में स्वस्न गति 10 से 30 प्रति मिनट होती है। उच्च तापमान या आर्द्र एवं उच्च तापमान में यह गति दोगुनी हो सकती है व पशु मुँह खोलकर साँस लेता है। रोगी पशु को सांस लेने में तकलीफ हो सकती है। वह नाक फुलाकर सांस लेने लगता है। कई बार रोगी पशु छाती व पेट को सिकोड़कर सांस लेता है। इस प्रकार की समस्या में देरी से इलाज होने पर पशु की जान को हमेशा खतरा बना रहता है।

  1. पेट
  • स्वस्थ पशु का पेट सामान्य आकार का होता है।
  • ज्यादा चारा खाने से, पानी पीने, गोबर जमा होने, पेट में वसा जमा होने, पेट में उत्पन्न वायु, गर्भस्थ शिशु के कारण व पेट में सूजन होने से पेट के आकार में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है। ज्यादा दिनों ग्याभिन होने से पशु के पेट में बच्चे की हरकत को भी देखा जा सकता है।
  • यदि पशु की बांयी कोख सामान्य से ज्यादा उभरी हुई हो तो, प्रथम आमाश्य (रूमेन) में अफारा होता है (चित्र 24)। यदि पेट नीचे से, एक समान रूप से फुला हुआ हो तो अंतड़ियों में अफारा हो सकता है, ऐसा ज्यादा पानी पीने के बाद भी होता है।
  • दुबले-पतले पशु का पेट आकार में छोटा हो जाता है जो कि पशु को भूख कम लगने, अत्यधिक दस्तों व पुराने रोग जिससे पशु को भूख कम लगती है, देखने में मिलता है।
  • उदर शोफ (वेंट्रल इडिमा) (चित्र 25) अग्रिम गर्भावस्था, गैंग्रीनस मास्टिटिस, कोंजेस्टिव हर्ट फेल्योर, (चित्र 26) जलोदर (चित्र 27), मूत्र मार्ग में अवरोधक से मूत्राशय (यूरिनरी ब्लेड्डर) के फटने से होता है।
  • पेट के बगल में सूजन अंतड़ीयों का हर्निया हो सकता है।
  • कुंभाकार पेट होने से कृमि हो सकते हैं।
  1. जननांग
  • रोगी पशु के जननांगों से मवाद (चित्र 28) या रक्त (चित्र 29) का आना जननेन्द्रियों के संक्रमण को दर्शाता है। पशु का मद में नहीं आना या बार-बार मद में आना शरीर में कमी को दर्शाता है।
  1. दुग्ध ग्रन्थि

लेवटी

  • स्वस्थ पशु की लेवटी में कोई दोष दिखाई नहीं देता है।
  • थनैला रोग में अनुपातहीनता लेवटी की सूजन, अपक्षय (एट्रोफी) या अतिवृ​द्धि (हाइपरट्रोफी) के कारण होती है। रोगी पशु में खासतौर से थनैला रोग से ग्रसित पशु की लेवटी में सूजन आ जाती है (चित्र 30)।

थन (Teats)

  • स्वस्थ पशु के थन साफ-सुथरे होते हैं।
  • रोगी पशु के थन कटे-फटे व जख्मी हो सकते हैं (चित्र 30)। शुरू में पशु पालक थनों व लेवटी के छोटे-छोटे जख्मों को अनदेखा कर देते हैं लेकिन समय बीतने के साथ-साथ जख्म ठीक न होने पर ज्यादा जख्म बढ़ने के साथ-साथ थनैला रोग होने की संभावना भी बढ़ जाती है।

दूध

  • स्वस्थ पशु का दुग्ध उत्पादन, स्वच्छता व गुणवत्ता सही रहती है।
  • रोगी पशु के दुग्ध उत्पादन में कमी या ​बिल्कुल बन्द हो जाता है व उसकी गुणवत्ता भी कम हो जाती है। कई बार दूध धीरे-धीरे कम होने लगता है। उसके दूध में धब्बे हो सकते है, दूध लेसदार हो सकता है। दूध लाल रंग का या उसमें दुर्गन्ध हो सकती है।
  1. टांगें
  • स्वस्थ पशु की टांगें साफ-सुथरी रहती हैं।
  • रोगी पशु की टांगें साफ-सुथरी नहीं रहती हैं। उसकी टांगों में सूजन हो सकती है। पशु को उठने-बैठने में परेशानी होती है।
  1. पूँछ
  • स्वस्थ पशु स्वभाविक रूप से पूँछ हिलाता रहता है।
  • रोगी पशु पूँछ हिलाना बन्द कर देता है। कभी-कभी वह विवश हो कर पूँछ हिलाता है। कई बार पूँछ की नसें फूल जाती हैं जिस कारण उसका हिलना कम हो जाता है।
3. अन्य निरीक्षण
  1. अन्य पशुओं के साथ मेलजोल
  • स्वस्थ पशु हमेशा अन्य पशुओं के साथ रहना पसन्द करता है और सामूहिक रूप से चरने, घूमने तथा आपस में लड़-लड़कर खेलने में विशेष आन्नद पाता है।
  • रोगी पशु अन्य पशुओं को छोड़कर चुपचाप अलग खड़ा होता है और अन्य पशुओं से अलग रहना पसन्द करता है। यह लक्षण देखकर तुरन्त समझ लेना चाहिए कि पशु बीमार है।
  1. पानी
  • स्वस्थ पशु दिनभर में कम से कम दो बार पेट भरकर पानी पीता है और यह पानी की मात्रा उसके आकार के अनुसार प्रर्याप्त होती है। एक गाय या भैंस प्रतिदिन लगभग 35 – 40 लीटर पानी पीती है। अत: स्वस्थ पशु काफी पानी पीते हैं।
  • रोगी पशु पानी पीना ​बिल्कुल छोड़ देता है या फिर कुछ विशेष रोगों में पशु की प्यास इतनी बढ़ जाती है कि वह बार-बार पानी पीना चाहता है। सामान्य रोगों में वह 2-4 घूंट पानी पीकर ही रह जाता है।
  1. सूजन
  • स्वस्थ पशु के शरीर में कहीं पर भी सूजन दिखायी नहीं देती है।
  • रोगी पशु के शरीर के विभिन्न हिस्सों जैसे कि जबड़े के नीचे, टांगों पर, अगली टांगों के बीच व शरीर के अन्य भागों पर सूजन आ जाती है। कई बार ग्याभिन पशु के शरीर के निचले हिस्से जैसे कि लेवटी, पेट व छाती पर सूजन आ जाती है।
  1. शारीरिक तापमान
  • रोगी पशु के शरीर का तापमान पशु के वातावरण के हिसाब से कम या ज्यादा हो सकता है। कई बीमारियों में भी शरीर का तापमान लगभग सामान्य रहता है। पशु के शरीर का तापमान लेने के लिए उसकी गुदा में थर्मामीटर लगाकर जांचा जाता है।

उपरोक्त सभी बातों को ध्यान में रखते हुए यदि पशुपालक अपने पशुओं खासतौर से रोगी पशुओं को प्रतिदिन कुछ समय के लिए ध्यानपूर्वक देखें और असामान्य लक्षण दिखायी दे तो वह पशुचिकित्सक से मिलकर उसका समय पर इलाज करवा कर अपने पशु को जल्दी स्वस्थ करने में मददगार सिद्ध होता है।

 

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