फसल अवशेष न जलाने के लाभ: अतिरिक्त धनोपार्जन
के.एल. दहिया1, आदित्य2 एवं जे.एन. भाटिया3
1पशु चिकित्सक, राजकीय पशु हस्पताल, हमीदपुर (कुरूक्षेत्र) हरियाणा
2स्नातकोतर छात्र (पादप रोग), बागवानी एवं वानिकी महाविद्यालय नेरी, हमीरपुर (हिमाचल प्रदेश)
3सेवानिवृत प्रधान वैज्ञानिक (पादप रोग), कृषि विज्ञान केन्द्र, कुरूक्षेत्र, हरियाणा
फसल पकने के बाद इसकी कटार्इ की जाती है व दानों को अलग कर लिया जाता है। दानों को अलग करने के बाद बचे हुए अवशेषों को कृषि अवशेष कहा जाता है। फसल कटाई के बाद अनाज का तो सुरक्षित भंडारित कर लिया जाता है लेकिन अवशेषों को खेत में ही जला दिया जाता है। अब चाहे यह मजबूरी हो या अज्ञानता लेकिन उचित प्रबंधन न होने के कारण किसान को अगली फसल की बिजाई हेतु खेत को तैयार करने के लिए इनको जलाना ही पड़ता है। औद्योगीकरण किसी भी राष्ट्र की उन्नति का द्योतक है और यही कारण है कि खेती ने भी गति हासिल की है लेकिन इसी के साथ-साथ फसल अवशेषों/बायोमास जलाने की प्रवृति ने भी गति पायी है। इसी औद्योगीकरण के साथ फसल अवशेषों/बायोमास का समुचित प्रबंधन भी आवश्यक है और जिसे किया भी जा सकता है। फसल अवशेषों/बायोमास को जलाने से होने निम्नलिखित नुकसान हैं:
- आग लगाने से वातावरण में हानिकारक गैसों व अवशेषों की मात्रा बढ़ जाती है। जिससे मनुष्य, पशु-पक्षियों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
- अवशेषों को जलाने से पशुओं के लिए चारे की उपलब्धता कम हो जाती है। खेत में आग लगाने से 25 से 35 किग्रा प्रति एकड़ गेहूँ व धान की भी हानि होती है।
- अवशेषों को जलाने से लाभदायक कीडे़ एवं सूक्ष्म जीवों की भी मौत हो जाती है जो कि मिट्टी की उपजाऊ शक्ति व रोग प्रतिरोधक क्षमता बनाए रखने के लिए अति आवश्यक है।
- लाभदायक या मित्र कीटों के मरने के साथ-साथ शत्रु कीटों को फलने फूलने व उनकी संख्या में वृद्धि होने में सहायता मिलती है।
- खेत में खड़ी फसल के अवशेषों के साथ-साथ मिट्टी के उपजाऊ तत्व व खनिज पदार्थ जल कर भस्म हो जाते हैं तथा मिट्टी में उपजाऊ शक्ति का हृास होता है।
- कृषि अवशेषों को जलाने से राजमार्गों पर व अन्य जगह धुएं की अधिकता होने से कुछ नहीं दिखाई देता जिससे अनेक दुर्घटनाओं का डर हमेशा बना रहता है।
- आग लगाने से भूमि की उपरी सतह जलकर कठोर हो जाती है तथा इस पर राख भी जम जाती हैं जिससे इसमें वायु संचार व जलग्रहण की क्षमता घट जाती है।
- इन सभी गुणवत्ता संबंधी नुक्सान के साथ-साथ खेतों में लगाई गई यह आग शुष्क मौसम, तेज हवाओं व आसपास खड़ी तैयार फसलों के कारण कई बार विकराल रूप धारण कर लेती है जिससे कई बार अमूल्य संपति, पशु, फसल व मनुष्यों को भी नुकसान उठाना पड़ता है।
- फसल अवशेष/बायोमास जलाने से हानिकारक गैसों का वायुमंडल में उत्सर्जन होता है। इनमें सबसे अधिक उत्सर्जन होने वाली गैस कार्बनडाई आक्साईड है। एक टन बायोमास जलाने से 1460 किग्रा कार्बन डाइऑक्साइड, 60 कार्बन मोनोऑक्साइड, 2.70 मिथेन, 3.83 नाइट्रस ऑक्साइड, 2.0 सल्फर डाइऑॅक्साइड गैसें और 0 किग्रा धूलकण उत्सर्जित होते हैं (अमित कुमार एवं मुकेश कुमार 2018)।
- ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन से ग्लोबल वार्मिंग (भूमण्डलीकरण तापमान) में वृद्धि होती है। इन गैसों में सबसे अधिक उत्सर्जन कार्बन डाईक्साईड का होता है। यह अकेली गैस भूमण्डलीय तापमान बढ़ाने में 63% योगदान करती है। इन गैसों का भूमण्डलीय स्तर वर्षों से लगातार बढ़ रहा है जिससे पिछले 100 वर्षों में धरती की सतह पर 74 सैल्सियस की बढ़ोतरी हुई है। संभावना है कि सन् 2100 तक इस तापमान में 1.8 से 4.0 सैल्सियस की वृद्धि हो जाएगी जो मानवता के लिए खतरनाक हो सकता है।
- भुमण्डलीय तापमान के बढ़ने का दूसरा खतरा यह है कि इससे पहाड़ों के ऊपर की बर्फ पिघलेगी जिस कारण समुद्र के पानी का स्तर भी ऊपर आएगा। पिछले 110 वर्षों (1901-2010) में समुद्र तल का स्तर 19 मीटर बढ़ा है और संभावना है कि इस शताब्दी के अन्त तक यह जल स्तर 28-43 सें.मी. बढ़ जाएगा। ऐसा होने से भारत के तटीय क्षेत्र, बाग्लादेश, जापान आदि देशों का कुछ हिस्सा जलमग्न हो सकता है।
- एक आंकलन में पाया गया है कि गेहूँ में फूल व दाना बनने के समय यदि 0 डिग्री सैल्सियस तापमान में वृद्धि होती है तो देश में गेहूँ की पैदावार 4.5 मिलियन टन तक कम हो सकती है।
- विश्व स्तर पर आंकलन किया गया है कि जलवायु परिवर्तन से फसलों की पैदावार में 16 प्रतिशत तक गिरावट आ सकती है। इस गिरावट का स्तर एशिया, अफ्रीका, अविकसित देशों एवं विकसित राष्ट्रों में क्रमशः 19, 28, 26 एवं 6 प्रतिशत तक हो सकता है।
- पिछले 134 वर्षों में जो 10 वर्ष सबसे गर्म रहे हैं उनमें से 9 वर्ष 21वीं शताब्दी के पहले 14 वर्षों में से हैं।
- फसल अवशेषों को जलाने के कारण मृदा तापमान में वृद्धि होती है। जिसके फसलस्वरूप मृदा की ऊपरी सतह सख्त हो जाती है एवं मृदा की सघनता में वृद्धि होती है जिससे आगे चलकर बंजर होने का खतरा बढ़ जाता है।
- फसल अवशेषों के जलाने से मृदा में उपलब्ध तत्व जैसे कि फास्फोरस, पोटाश आदि अघुलनशील हो जाते हैं जिससे भूमि की पी.एच. बढ़ जाने से उसकी उर्वरा शक्ति का ह्रास होता है।
- फसल अवशेषों के जलाने से उत्पन्न उष्मा से भूमि का तापमान 8 – 42.2 डीग्री सेल्सियस तक बढ़ जाने से मृदा की ऊपरी सतह सख्त हो जाती है जिससे मृदा की श्वसन प्रक्रिया कम (Hobbs and Morris 1996) होने से उसकी उर्वरा शक्ति का ह्रास होता है।
- फसल अवशेष जलने से मृदा का तापमान बढ़ता है जिससे भूमि की जल स्थिरीकरण की शक्ति कम होती है व साथ ही भूमिगत केंचुए जो भूमि में गहराई तक अन्नत छेद करते है, भी मर जाते हैं जिससे भूमि की जल पुनर्भरण शक्ति कम होने से भूमिगत जल में कमी होती है (Wuest et al. 2005)।
- फसल अवशेषों को खेतों में जलाने से उत्पन्न राख खरपतवारनाशक दवाओं को सोख लेती है जिससे उनकी दक्षता कम हो जाती है एवं खरपतवारों का उचित नियन्त्रण न होने के कारण फसल उपज कम हो जाती है (अमित कुमार एवं मुकेश कुमार 2018)।
- सड़क किनारें खेतों में फसल अवशेषों के जलाने से उत्पन्न धुआं दृश्यता को कम करता है जिससे सड़क दुर्घटना होने की संभावानाएं बढ़ जाती हैं।
यह जानकारी दर्शाती है कि हम कितनी खतरनाक दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। कृषि अवशेषों का जलाना वर्तमान की इस अवस्था को और भी जोखिम भरा बना सकता है। अतः फसल अवशेषों का उचित प्रबंधन समय की आवश्यकता है।
सदियों से मानव पेड़-पौधों के अवशेषों का दैनिक जीवन में परम्परागत उपयोग करता आया है। पक्के या कच्चे मकानों में रहने से पहले मानव पेड़-पौधों के अवशेषों का उपयोग करके तेज धूप या वर्षा से झोपड़ी बनाकर अपने आपको प्राकृतिक आपदाओं से बचाता था। आज मानव जिनके पास पर्याप्त संसाधन नहीं है वे भी पेड़-पौधों के अवशेषों से अपना आशियाना बनाते हैं। आशियाना बनाने के साथ-साथ ही वे अपने घर को सजाने के लिए भी कृषि अवशेषों का उपयोग सदियों से करते आये हैं। आज भी ग्रामीण आँचल में कच्चे घर देखने को मिल जाते हैं। वर्षा काल शुरू होने से पहले इन घरों के अन्दर वर्षा का जल टपकने से बचाने के लिए गेहूँ की तूड़ी को मिट्टी में मिलाकर लिपाई की जाती है और इस प्रकार अच्छे रखरखाव के कारण यही कच्चे मकान वर्षा के कारण होने वाले नुकसान से बचे रहते हैं। खेतों में खाद के रूप में, आहार के रूप में पशुओं के चारे के तौर पर एवं घरों को सजाने के लिए सजावटी रचनाएं बनाने के लिए कृषि अवशेषों को सदियों से उपयोग में लाया जा रहा है।
कृषि अवशेषों के भूमि में मिलाने के लाभ
कृषि अवशेष एक महत्त्पूर्ण प्राकृतिक संसाधन है न कि अपशिष्ट पदार्थ। पिछले कई दशकों से कृषि पर हो रहे रासायनों के प्रयोग से भूमि की भौतिक, रासायानिक और जैविक गुणवत्ता पर गहरा असर पड़ा है। लगातार अन्धा-धुन्ध उपयोग किये जा रहे रासानिक खादों एवं दवाओं के कारण मिट्टी एवं भू-जल दूषित होते जा रहे हैं। मिट्टी के लिए स्वास्थ्य और सरंचना के लिए आवश्यक जैविक कार्बन का विघटना हुआ है। कृषि भूमि को दोबारा जैविक बनाने के लिए आवश्यक गोबर की खाद एवं दूसरे जैविक स्त्रोतों की कमी के मध्यनजर कृषि अवशेष एक बहुत अच्छा विकल्प हैं। कृषि भूमि की बिगड़ी दशा एवं हो रहे जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखेते हुए किसानों को कृषि अवशेषों का खेत में ही प्रबन्धन कर कृषि भूमि का सुधार करना चाहिए। खेत में कृषि अवशेष प्रबन्धन में खर्चा अवश्य ही होता है लेकिन लंबे समय में, इन उपायों से मिट्टी के स्वास्थ्य में आश्चर्यजनक सुधार देखने को मिलते हैं।
फसल लेने के बाद देश में प्राप्त अवशेष प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। इन अवशेषों में पोषक तत्व भी काफी मात्रा में विद्यमान रहते हैं। यदि इन अवशेषों का समुचित प्रयोग किया जाए और वापिस जमीन में मिला दिया जाए तो भूमि की उर्वरा शक्ति में काफी हद तक इजाफा किया जा सकता है। विभिन्न अवशेषों में विद्यमान पोषक तत्वों की मात्रा (प्रतिशत) :
फसल अवशेष |
नाइट्रोजन |
फासफोरस |
पोटाश |
गेहूँ का भूसा |
0.53 |
0.10 |
1.10 |
धान का पुआल |
0.36 |
0.10 |
1.70 |
जौं का भूसा |
0.57 |
0.26 |
1.20 |
गन्ने की पतियां |
0.35 |
0.10 |
0.60 |
गन्ने की खोई |
2.25 |
1.12 |
– |
राई (सरसों) |
0.57 |
0.2 |
1.40 |
आलू |
0.52 |
0.09 |
1.85 |
मूंगफली का छिलका |
0.70 |
0.48 |
1.40 |
मक्का की कडबी |
0.47 |
0.50 |
1.65 |
बाजरे की कडबी |
0.65 |
0.7 |
1.50 |
मटर की सूखी पतियां |
0.35 |
0.12 |
1.36 |
कृषि अवशेषों में कार्बन-नाइट्रोजन अनुपात ज्यादा होता है जिस कारण आगामी फसल को शुरूआत में नाइट्रोजन की अनुपलब्धता हो जाती है लेकिन खेत में नमी के साथ अलग से यूरिया के रूप में नाइट्रोजन देकर इस अनुपात को कम किया जा सकता है जिससे अवशेषों के गलने की प्रक्रिया तीव्र हो जाती है और फसल को नाइट्रोजन की उपलब्धता सुचारू हो जाती है। कृषि अवशेषों का जमीन में मिलाने से लाभ (अमित कुमार एवं मुकेश कुमार 2018):
- भूमि की सरंचना में सुधार : फसल अवशेष मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ को बढ़ाते हैं, जिससे मिट्टी में सूक्ष्म जीवों की सक्रियता बढ़ने के साथ-साथ उसकी भौतिक एवं रासायनिक सरंचना में सुधार होता है।
- सूक्ष्म पर्यायवरण : कृषि अवशेषों को भूमि में मिलाने से सूक्ष्मजीवों को भोजन एवं आवास मिलने के साथ-साथ उनकी संख्या में भी वृद्धि होती है जिससे प्राकृतिक चक्र जैसे कार्बन चक्र, नाइट्रोजन चक्र आदि सुचारू रूप से चलते हैं।
- मृदाक्षरण : भूमि कटाव एवं जल कटाव प्रतिरोधक क्षमता एवं भूमि की बाहरी वातावरण को झेलने की शक्ति बढ़ाने के साथ-साथ पौधों के लिए आवश्यक तत्वों की उपलब्धि को बढ़ाते हैं।
- पोषक तत्व : फसल अवशेषों में पाए जाने वाले पोषक तत्वों से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है जिससे रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम होती है। कृषि अवशेषों के भूमि में मिलाने से पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्व जैसे फास्फोरस, कैल्शियम, पोटाशियम, मैगनीश्यिम आदि बढ़ते हैं व साथ में नमी की उपलब्धता भी बढ़ती है जिससे रासायनिक उर्वरकों एवं सिंचाई के पानी की बचत बढ़ती है।
- वायु संचार : कृषि अवशेषों को खेतों में जलाने से मिट्टी ऊपरी सतह कठोर होती है जिससे वायु का संचार अवरूध हो जाता है एवं उत्पादन प्रभवित होता है। कृषि अवशेषों के भूमि में समावेश से मिट्टी भूरभूरी हो जाती है जिससे उसमें वायु का आवागमन अच्छी प्रकार होता है। चिकनी एवं कठोर भूमि में पपड़ी जमने की समस्या भी नहीं रहती है।
- जल धारण क्षमता : कृषि अवशेषों के वापिस भूमि में मिलाने से यह भूरभूरी हो जाती है जिससे भूमि की जल धारण क्षमता बढती है।
- पी.एच. मान : अत्याधिक रसायनों के उपयोग से भूमि का पी.एच. मान बढ़ता है जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति का ह्रास होता है लेकिन कृषि अवशेषों को मिट्टी में मिलाने से उसका पी.एच. मान ठीक रहता है जिससे उर्वरकों की उपलब्धि व स्थिरीकरण अधिक समय तक रहता है।
- आच्छादन : कृषि अवशेषों को खेतों में आच्छादन के रूप में उपयोग करने से सहनशील पौधों को वातावरण की विषम परिस्थितीयों जैसे कि ठण्ड एवं लू से बचाया जा सकता है। आच्छादन से भूमि में मौजूद पानी का वाद्दीकरण कम हो जाता है जिससे नमी ज्यादा समय तक बनी रहती है, खरपतवार नहीं पनपते और भूमि का तापमान भी अनुकूल बना रहता है।
- वैश्विक तापमान : फसल अवशेष जलाने से वायुमंडल में हानिकारक गैसों का उत्सर्जन होता है जिससे वायुमण्डल का तापमान बढ़ता है और फसलों की उत्पादकता पर असर पड़ता है। अवशेषों को वापिस जमीन में मिलाने से इस दुष्प्रभाव से बचा जा सकता है।
- प्रदूषण : कृषि अवशेषों के जलाने से उत्पन्न धुएं के वातावरण में मिलने से प्रदूषण होता है जिससे श्वास रोग पैदा होते हैं। यदि कृषि अवशेषों को वापिस भूमि में मिला दिया जाता है तो इस प्रदूषण से बचा जा सकता है।
- आर्थिक लाभ : किसी भी पौधे के विकास के लिए मुख्य पोषक तत्वों जैसे कि नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश, सल्फर के साथ सूक्ष्म पोषक तत्वों जैसे जिंक, लोहा, मैंगनीज इत्यादि की आवश्यकता होती है। इनकी कमी के कारण भूमि की उर्वरा शक्ति भी कम हो जाती है जिसको पूरा करने के लिए पूरक तत्वों के रूप में बाजार से खरीदकर खेतों में डाला जाता है जिससे उत्पादन लागत बढ़ने के साथ-साथ किसान का शुद्ध लाभ भी कम हो जाता है। लेकिन कृषि अवशेषों में मुख्य पोषक तत्वों जैसे कि नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश, सल्फर के साथ सूक्ष्म पोषक तत्वों जैसे जिंक, लोहा, मैंगनीज इत्यादि प्रचूर मात्रा में होते हैं। अतः कृषि अवशेषों को पुनः भूमि में मिला देने से इन तत्वों की काफी हद तक भरपाई हो जाती है जिससे फसल का उत्पादन लागत कम होने से किसान का शुद्ध लाभ बढ़ जाता है।
कृषि अवशेषों का पशु आहार में उपयोग
फसल पकने के बाद इसकी कटार्इ की जाती है व दानों को अलग कर लिया जाता है। दानों को अलग करने के बाद बचे हुए अवशेषों को कृषि अवशेष कहा जाता है व इनमें नमी की मात्रा न के बराबर होती है। इन सूखे अवशेषों जिन्हें पुआल (स्ट्रा – Straw) भी कहा जाता है, को पशुओं को खिलाने में प्रयोग किया जाता है। भारत का भूगौलिक क्षेत्र 24 प्रतिशत है जबकि 15 प्रतिशत विश्व के पशुओं की आबादी अकेले भारत में ही है जबकि कुल चारा के अधीन क्षेत्र 4.8 प्रतिशत ही है। इसलिए पशुओं के व्यवस्थित आहार के लिए हरे चारे के साथ-साथ सूखे चारे का प्रबन्धन अति आवश्यक हो जाता है ताकि सभी पशुओं के लिए चारा हर समय मौजूद हो सके। इसके कृषि अवशेष मुख्य भूमिका निभाते हैं। अत: सूखे चारे के रूप में पशुओं के लिए कृषि अवशेष प्रबन्धन और अधिक महत्त्पूर्ण हो जाता है।
पशुओं के लिए सूखे चारे का एक विशेष महत्त्व है। हालांकि कृषि अवशेषों खासतौर से धान की पुआल में पौष्टिक तत्वों की मात्रा बहुत ही कम होती है फिर भी पुआल को पशुओं के पेट भरने (Filler) के रूप में खिलाया जाता है ताकि अन्य सामग्री आमाश्य में ज्यादा समय तक रह सके व उसका सही पाचन हो सके।
कृषि अवशेषों का पोषक मान (शुष्क पदार्थ के आधार पर विश्लेषण) |
||||||||
कृषि अवशेष |
शुष्क पदार्थ |
दुग्धोत्पादन के लिए शुद्ध ऊर्जा |
कच्ची प्रोटीन |
वसा |
कच्चे रेशे |
NDF |
कैल्शियम |
फास्फोरस |
(%) |
(MJ/kg) |
(%) |
(%) |
(%) |
(%) |
(%) |
(%) |
|
गेहूँ की तूड़ी |
91.6 |
3.27 |
3.1 |
1.3 |
44.7 |
73 |
0.28 |
0.03 |
धान की पुआल |
83.3 |
4.11 |
3.7 |
1.6 |
31 |
64.4 |
0.11 |
0.05 |
जौं की पुआल |
88.4 |
3.69 |
5.5 |
3.2 |
38.2 |
80.1 |
0.06 |
0.07 |
जई की पुआल |
93 |
4.52 |
7 |
2.4 |
28.4 |
72.3 |
0.18 |
0.01 |
मक्की की कड़बी |
91.8 |
5.23 |
6.5 |
2.7 |
26.2 |
70.4 |
0.43 |
0.25 |
ज्वार की कड़बी |
95.2 |
4.69 |
3.9 |
1.3 |
35.6 |
74.8 |
0.35 |
0.21 |
सोयाबीन की पुआल |
89.7 |
3.85 |
3.6 |
0.5 |
52.1 |
74 |
0.68 |
0.03 |
बाजरा की पुआल |
90.7 |
4.61 |
5 |
1.3 |
35.9 |
74.8 |
0.37 |
0.03 |
मूंगफली की पुआल |
90 |
5.7 |
12 |
2.7 |
24.6 |
88.8 |
0.13 |
0.01 |
आलुओं की पुआल |
91.7 |
5.53 |
8.4 |
2.6 |
19.8 |
36.6 |
1.47 |
0.48 |
SOURCES: Qingxiang M., 2002 : – Chinese Feeding Standard for Dairy Cattle (Anon., 2000); Xing, 1995; Xiong, 1986. |
कृषि अवशेषों खासतौर से धान की पुआल या गेहूँ की भूसी अधिकतम 1.0 से 1.2 किलोग्राम प्रति 100 किलोग्राम पशु के शारीरिक भार की दर से बिना उपचारित खिलायी जा सकती है जिसकी मात्रा उपचारित करने के बाद बढ़ायी जा सकती है। बिना उचारित किये कुछ कृषि अवशेषों अर्थात पुआल में पशुओं में कुल पचाने योग्य प्रोटीन एवं कुल पचाने योग्य पोषक तत्व इस प्रकार हैं:
विभिन्न प्रकार के पुआल |
कुल पचाने योग्य प्रोटीन (प्रतिशत) |
कुल पचाने योग्य पोषक तत्व (प्रतिशत) |
धान की पुआल |
0.62 |
45.9 |
गेहूँ की तूड़ी/भूसी |
2.72 |
48.3 |
ज्वार की पुआल |
1.2 |
56.4 |
रागी की पुआल |
0.2 |
50.0 |
बाजरा की पुआल/कड़बी |
0.9 |
53.4 |
चने की भूसी |
2.2 |
21.0 |
धान की पराली में गेहूँ से तैयार की गर्इ तुड़ी से कम पोषक तत्त्व होते हैं फिर भी आमतौर पर पराली को साबुत या इसकी कुट्टी बनाकर पशुओं को खिलाया जाता है। पराली को पशुओं को खिलाने में निम्नलिखित चुनौतियाँ हैं :
- पराली की स्वादिष्टता कम होने के कारण इसको पशु कम खाना पसन्द करते हैं। फसल कटार्इ के 10 दिन के अन्दर-अन्दर यदि पराली के गट्ठर बनाकर रखे जाएं तो पशु अधिक मात्रा में खाते हैं। पराली की पत्तियों के ऊपर होने वाले बारीक रोएं पशु को प्रारम्भ में खाने में परेशानी करते हैं।
- पराली में अन्य चारे की तुलना में लिग्निन की मात्रा कम व सिलिका की मात्रा ज्यादा होती है। तने की अपेक्षा पत्तियों में सिलिका की मात्रा ज्यादा होती है। सिलिका की अत्याधिक मात्रा होने के कारण पराली कम पाचक होती है।
- पशुओं के लिए पराली ऊर्जा का अच्छा स्त्रोत है परन्तु इसमें प्रोटीन की मात्रा कम (2-7 प्रतिशत) ही होती है।
- पराली में आक्जेलेट्स की मात्रा (1 – 2 प्रतिशत) अधिक होती है जो शरीर में कैल्शियम की मात्रा को कम कर देते हैं।
- पराली में फास्फोरस, कॉपर, जिंक, कैल्शियम एवं सोडियम जैसे खनिज-तत्त्व कम मात्रा में होते हैं।
- पराली में अन्य सूखे चारे की अपेक्षा कम पोषक तत्त्व होते हैं। अत: इसे सम्पूर्ण आहार के रूप में पशुओं को नहीं खिलाया जा सकता है।
- पराली में निष्पक्ष रूप से घुलनशील रेशों (Neutral Detergent Fiber) की अत्याधिक मात्रा होने के कारण शुष्क पदार्थ की अन्त:ग्रहण मात्रा (Dry matter intake) कम होती है जिस कारण पशु द्वारा दुग्ध उत्पादन भी कम होता है तथा दूध कम वसा वाला होता है।
ऊपर वर्णित चुनौतीयां होने के बावजूद भी पराली को कुट्टी काटकर या बारीक करके यदि पशुओं का खिलाया जाता है तो इसकी पाचकता बढ़ जाती है जिससे निम्नलिखित लाभ होते हैं:
- पशु अधिक मात्रा में चारा खाता है।
- पशु के मुँह में पाचक रस ज्यादा मात्रा में बनते हैं।
- पशु के पेट में चिकनार्इ करने वाले वाष्पशील एसीड (Volatile fatty acids) अधिक मात्रा में उत्पन्न होते हैं।
- पशु 20-25 प्रतिशत तक पराली को भी खा जाते हैं।
मशरूम उत्पादन में सहयोगी कृषि अवशेष
मशरूम को खुम्ब, खुम्बी, पहाड़ी फूल, च्यू या कुकुरमुत्ता भी कहते हैं जो बरसात के दिनों में गले-सड़े कार्बनिक पदार्थ पर अनायास ही दिखने लगता है। यह एक मृतोपजीवी है जो हरितपर्ण के अभाव के कारण अपना भोजन स्वयं संश्लेषित नहीं कर सकता है। इसका शरीर थैलीनुमा (Thalus shaped) होता है जिसको जड़, तना और पत्ती में नहीं बाँटा जा सकता है। वैज्ञानिक रूप से मशरूम पादपवर्गीय हरितपर्णरहित अर्थात क्लोरोफिलरहित फफूँद श्रेणी का वह पौधा जो स्वयं भोजन नहीं बना सकता जिस कारण पोषण तत्वों की आवश्यकता पूर्ति के लिए ये कई प्रकार के कार्बनिक पदार्थों पर प्राकृतिक रूप में उगते दिखायी देते हैं। खुम्ब की सरंचना मशरूम प्रदत्त बीजाणुओं (Mushroom spawn) से धागे के समान कवक जाल (Fungus mycelium) से होती है ।
मशरूम एक पौष्टिक, स्वादिष्ट, स्वास्थ्यवर्धक एवं औषधीय गुणों से भरपूर रोगरोधक सुपाच्य खाद्य पदार्थ है। इसमें प्रोटीन, खनिज-लवण, विटामिन जैसे पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में होने के साथ-साथ लाभकारी रेशे (Fibers) भी खूब मात्रा में विद्यमान होते हैं जो कि मानव जाति के लिए पौष्टिक, स्वादिष्ट व स्वास्थ्यवर्धक पाए गए हैं। इसीलिए, खाद्य एवं कृषि संगठन ने भी मशरूम को सम्पूर्ण आहार का दर्जा दिया हुआ है (राणा 2007)। चीन के लोग इसे महा-औषधी एवं रसायन सदृश्य मानते हैं जो जीवन में अदभुत शक्ति का संचार करने में सक्षम है। शुरूआती दौर में मशरूम को केवल इनकी स्वादिष्टता के कारण ही सेवन किया जाता था लेकिन औषधीय गुणों के कारण अब यह गुणकारी आहार के रूप में स्थापित हो चुकी है (राणा 2007)।
कृषि फसलों से प्राप्त होने वाले अवशेषों जैसे कि गेहूँ की भूसी, धान का पराली (पुआल), ज्वार, बाजरा, गन्ने की पत्तियाँ एवं मक्का की कड़बी का उपयोग मशरूम उत्पादन के लिए किया जा सकता है। धान की पराली का उपयोग मशरूम उत्पादन के साथ-साथ उसके उत्पादन कक्ष के रूप में झोपड़ी बनाने में भी किया जाता है। कृषि अवशेषों खासतौर से गेहूँ की भूसी एवं चौकर, धान की पराली (छोटे टुकड़ों में काटी हुई) उपयोग मशरूम उत्पादन के लिए कम्पोस्ट बनाने में भी किया जाता है। भिन्न-भिन्न प्रकार की मशरूम को उगाने के लिए अलग-अलग कम्पोस्ट एवं विधियाँ हैं।
कृषि अवशेषों का आच्छादन के रूप में उपयोग
आच्छादन (मल्चिंग) हमारे द्वारा पहने हुए उन कपड़ों की तरह है जो हमें गर्मी-सर्दी, धूप-ठण्ड से बचने में सहायता करते हैं। ठीक उसी प्रकार आच्छादन भी भूमि की रक्षा करता है। इस आच्छादन में विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तु निवास करते हैं। यही जीव-जन्तु आच्छादन के साथ मिलकर भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
फसल में पराली व अन्य फसलीय अवशेषों को आच्छादन के रूप में उपयोग करने से न सिर्फ भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है बल्कि अन्य खरपतवार के रूप में ऊगने वाले अवाँनीय पौधे भी नहीं पनपते हैं। आच्छादित की पराली सड़कर भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाती है। आच्छादन खेतों से पानी को वाष्पित होने से भी बचाता है। इस प्रकार आच्छादन खरपतवार नाशक दवाईयों के उपयोग को रोकता है व पानी की बचत करता है जिससे उपज की उत्पादन लागत कम होती है।
वर्मीकम्पोस्ट बनाने में उपयोगी
केंचुओं की सहायता से जैव-विघटनशील व्यर्थ पदार्थों के भक्षण तथा उत्सर्जन से तैयार की गई कार्बनिक या जैविक खाद को वर्मीकम्पोस्ट कहते हैं। वर्मीकम्पोस्ट को वर्मीकल्चर या केंचुआ पालन भी कहते हैं। केंचुओं के मल से तैयार खाद को ही वर्मीकम्पोस्ट हैं। इसको किसी छायादार पेड़ या छप्पर के नीचे गोबर, कृषि अवशेषों, कूड़ा-कर्कट, वृक्षों के पत्तों, खेत की मिट्टी, पुरानी बोरीयों आदि से ढके हुए व फव्वारे एवं नालियों द्वारा पानी के उपयोग से तैयार किया जाता है (ओम प्रकाश नेहरा एवं अन्य 2010)। यह सब प्रकार की फसलों के लिए प्राकृतिक, सम्पूर्ण एवं संतुलित पोषक तत्वों से भरपूर होती है।
कृषि अवशेषों का खाद के रूप में उपयोग
पराली के खाद के रूप में उपयोग करने से भूमि में जैविक कार्बन का स्तर बढ़ने से उसकी उर्वरा शक्ति में बढ़ोत्तरी होने होती है जिससे अच्छी फसल पैदा होती है। पराली को खेतों में खाद के रूप में निम्नलिखित तरीकों से उपयोग किया जा सकता है।
- फसल की कटाई के बाद पराली व अन्य प्रकार के अवशेषों को जलाने के बजाय उनको खेत में ही मिलाया जाता है और भूमि में गल-सड़ कर मिट्टी में आस्मसात हो जाते हैं जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति भी बढ़ती है।
- पराली को गोबर के साथ मिलाकर एकत्रित रखने से यह कुछ ही महीनों में कम्पोस्ट खाद में रूपान्तरित हो जाती है। इस कम्पोस्ट खाद को खेतों में उपयोग कर भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाया जाता है।
बायोमास इष्टिका बनाने में उपयोग
कृषि अवशेषों जैसे कि धान का पुआल अर्थात पराली का उपयोग धुंआ-मुक्त ईंधन की इष्टिका (Briquette) तैयार करने में किया जाता है जिससे लोगों को रोजगार भी मिलता है और ईंधन के रूप में लकड़ी, कोयले तथा गोबर के कन्डों की खपत भी कम की जा सकती है (Chou et al. 2009)।
चारकोल इष्टिका बनाने में उपयोगी
चारकोल अर्थात बायोमास काष्ठ इष्टिका प्रौद्योगिकी का प्रयोग कर कृषि अवशेषों का उपयोग वैकल्पिक ईंधन उत्पन्न करने में किया जा सकता है। जो किफायती होने के साथ.साथ पर्यावरण उन्मुखी भी हो सकता है (अज्ञात 2018)। चारकोल इष्टिका बनाने के लिए स्थानीय स्तर पर उपलब्ध बायोमास जैसे कि धान की पुआल, गन्ना एवं जूट से प्राप्त अपशिष्ट, मूँगफली के छिलकों का उपयोग किया जाता है।
कृषि अवशेषों से बायोइथेनॉल एवं बिजली का उत्पादन
विश्व में बहुत ज्यादा मात्रा में कृषि अवशेष पैदा होते हैं। लगभग एक किलोग्राम अनाज के साथ एक किलोग्राम कृषि अवशेष भी पैदा होते हैं (Dawson and Boopathy 2007)। इन कृषि अवशेषों में सेलूलेज बहुत अधिक मात्रा में होता है जिसका उपयोग अक्षय संसाधनों रूप में बायोईथेनॉल एवं अन्य मूल्यवर्धित उत्पादों के निर्माण में किया जा सकता है। कृषि अवशेषों में धान की पराली, गेहूँ की तूड़ी, मक्का की कड़बी, गन्ना की पात्ती ज्यादा मात्रा में उत्पन्न होती है जिसमें सेलूलोज एवं लिग्निन की भरपूर मात्रा होती है (Gould 1984)। बायोमास प्लांट के विशेषज्ञों का कहना है कि 9 लाख टन कृषि अवशेष से 4 हजार मेगावाट बिजली और 10 टन कृषि अवशेष से 3000 लीटर इथेनॉल बनाया जा सकता है। किसान इन कृषि अवशेषों को इथेनॉल बनाने वाली कम्पनी को बेच कर अतिरिक्त आजीविका अर्जित कर सकते हैं। हरियाणा प्रदेश में 90 लाख टन कृषि अवशेष जलाये जाते हैं जिनमें 65 लाख टन पराली व 25 लाख टन फाने हैं जिनसे प्रति वर्ष 40 हजार मैगावाट बिजली बनाई जा सकती है।
कृषि अवशेषों से कागज एवं गत्ता बनाना
विभिन्न प्रकार के कृषि उत्पाद (अनाज एवं अवशेष) ग्रामीण आँचल में ही उत्पादित होते हैं इसलिए ग्रामीण आँचल में हाथ कागज उद्योग लगाकर कागज तैयार किया जा सकता है जिससे कृषि अवशेष प्रबन्धन के साथ-साथ ग्रामीण पृष्ठ भूमि के लोगों का अतिरिक्त रोजगार भी मिल सकता है। कागज एवं गत्ता बनाने हेतु बाँस वुडग्रास, धान एवं गेहूँ का पुआल, पटसन,
फटा एवं रद्दी कागज जैसे कच्चे माल आसानी से उपलब्ध हो जाते है। भारतीय लुगदी एवं कागज उद्योग ने वर्तमान में हाथ कागज पर एम्ब्रोडरी जैसी मूल्यवर्धित गतिविधियों के कारण व्यापक वृद्धि की है। भारत में हाथ कागज उद्योग पर्यावरणीय दृष्टि से कागज उत्पाद की मांग बढ़ाने हेतु विचारणीय संभावना प्रदान करता है। हाथ कागज के उत्पादन में कम पूँजी का विनिवेश होता है। इससे स्थानीय उद्यमिता की प्रोन्नति होती है। इससे अधिक से अधिक स्थानीय रोजगार का सृजन होता है। यह कागज कारखानों की तुलना में कम संसाधनों का उपयोग तथा प्रदूषण कम करने के कारण पर्यावरणीय दृष्टि से सही तकनीकी है।
कृषि अवशेषों से बना फर्नीचर
आमतौर पर फर्नीचर बनाने के लिए वृक्षों की लकड़ी का उपयोग किया जाता है। बढ़ती जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ खाद्यान की मांग भी बढ़ रही है लेकिन इसी के साथ कृषि अवशेषों की उत्पादित मात्रा भी बढ़ रही है। इस बढ़ी हुई कृषि अवशेषों की मात्रा का सदुपयोग कार्डबोर्ड बनाने में किया जा सकता है जिनसे फर्नीचर भी बनाया जा सकता है। हालांकि, कृषि अवशेषों खासतौर से धान एवं गेहूँ में मौजूद रेशों की लम्बाई, परम्परागत रूप से उपयोग की जा रही लकड़ी से छोटे होते हैं लेकिन कुछ रसायानिक प्रक्रियाओं की सहायता से इनका उपयोग संभव है। इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि बढ़ती लकड़ी की मांग एवं वृक्षों की कटाई की संभावना कम हो सकती है जिसका सीधा लाभ प्रदूषित हो रहे वातावरण को बचाने में सहायक सिद्ध होगा।
उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि फसल अवशेष अपशिष्ट नहीं बल्कि उपयोगिता से भरपूर अवशेष हैं जिनका सद्दुपयोग मानव जीवन, पर्यायवरण के सृजनात्मक कार्यों के लिए किया जा सकता है। फसल अवशेषों को भूमि में मिलाने से जहां एक ओर भूमि की उर्वतकता में बढ़ोतरी होती है तो वहीं दूसरी ओर आज के इस परिवर्तनकाल में जलाए जा रहे फसल अवशेषों को उचित प्रबंधन से खेत में मिलाने से लेकर इनको बेचकर किसान धनोपार्जन कर अतिरिक्त आमदनी कर सकता है। फसल अवशेषों अर्थात बायोमास को अग्नि की भेंट न चढ़ाकर मानवीय हित में उपयोग करना सर्वोपरि होगा।
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