अफारा पशुओं का एक जानलेवा रोग
डॉ संजय कुमार मिश्र
पशु चिकित्सा अधिकारी चोमूहां मथुरा
यह पशुओं का एक ऐसा रोग है जो पशुपालकों की थोड़ी सी लापरवाही के कारण भयावह रूप धारण कर लेता है और देखते ही देखते कुछ ही समय में स्वस्थ पशु अचानक मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। यह रोग प्राय: जुगाली करने वाले, पशुओं में अधिक आहार खाने या दूषित खाने के सड़ने से होती है, जिसके कारण कुछ दूषित गैसें, जैसे अमोनिया, मीथेन, कार्बन डाइऑक्साइड आदि उत्पादित होती हैं और पेट के मुख्य भाग रूमैन में भरकर पेट को फुला देती है इस स्थिति को अफारा कहते हैं। यदि हाथ से पेट के बाईं ओर को थपथपाया जाए तो, ढम ढम की आवाज आती है। यह अफारा दो प्रकार का होता है-
१.गैस वाला अफारा– इसमें रूमेन के अंदर उपरोक्त गैसे उत्पन्न हो जाती है। इसका उपचार सरल है।
२. झागदार गैस वाला अफारा – इसमें उपरोक्त गैसों के साथ साथ झाग भी बनते हैं जिनमें गैस फंस जाती है। इसका उपचार कठिन होता है।
रोग के कारण –
१.बासी एवं निम्न स्तर का चारा एवं कटे-फटे दाने को खिलाने के कारण।
२. अनाज की मात्रा आवश्यकता से अधिक खिलाने से।
३. हरा चारा अत्याधिक मात्रा में खिला देने के कारण।
४. पशु के खानपान में अचानक परिवर्तन के कारण।
५. अोसयुक्त हरा चारा खिलाने के कारण।
६. शारीरिक श्रम के कार्य के तुरंत बाद पानी पिला देने से।७. आसपास के वातावरण में परिवर्तन के कारण।
८. शादी विवाह में बचे हुए बासी खाने को अधिक मात्रा में खिलाने से।
इस रोग की मुख्यता दो अवस्थाएं होती हैं –
१. अल्प तीव्र अवस्था –
इस अवस्था में उपरोक्त वर्णित गैसें पेट के अंदर चारे में ना मिलकर स्वतंत्र रूप से एकत्रित हो जाती हैं। इसका उपचार आसानी से पेट में ट्रोकार एवं केनूला के उपयोग से किया जा सकता है।
२. तीव्र अवस्था या फिर झाग युक्त अफारा – यह अवस्था अत्यंत खतरनाक होती है जिसमें जहरीली गैसे पेट में ही चारे के साथ मिश्रित हो जाती हैं और कोशिश करने पर भी आसानी से नहीं निकल पाती है।
उपचार :
१. अल्प तीव्र अवस्था में पशुपालकों को अपने स्तर से कुछ देसी उपचार प्रारंभ कर देना चाहिए जैसे-
हींग 10 ग्राम, सौठ 30 ग्राम, अजवायन 30 ग्राम, एवं काला नमक 30 ग्राम इन सब को हल्के गुनगुने आधा लीटर पानी मैं मिलाकर पिलाना चाहिए।
२. टायरल या ब्लॉटोसील 100 मिलीलीटर, टिंपोल 50 ग्राम एवं डीपी स्ट्रांग चूर्ण 10 ग्राम एवं मैगसल्फ 500 ग्राम हल्के गुनगुने पानी में घोलकर एक बार में ही सावधानीपूर्वक पिला देना चाहिए।
३. कोल एल 500ml सावधानी पूर्वक पिलाना चाहिए और यदि आवश्यकता हो तो 6 घंटे बाद दोबारा पिला सकते हैं।
बचाव के उपाय:
१. पशु को इस तरह खड़ा करना चाहिए कि उसका मुंह ऊंचाई पर हो और पेट का दबाव फेफड़ों पर ना पड़े।
२. उसके मुंह में लगभग 2 फीट लंबी एवं 1 से 2 इंच मोटी लकड़ी का टुकड़ा या नीम की टहनी इस तरह फसा देना चाहिए की पशु जीभ चलाता रहे जिससे गैस बाहर निकलती रहे।
३. तीव्र अवस्था के झागदार अफारे में पशु को तत्काल पशु चिकित्सक को दिखाना चाहिए।
४. यह भी अत्यंत आवश्यक है दाने एवं हरे चारे को महीन करके ही पशुओं को दिया जाना चाहिए।
५. खनिज लवणों के समुचित समावेश को प्रत्येक पशु को अवश्य देना चाहिए एवं साथ ही साथ स्वच्छ जल की उचित मात्रा पशुओं को समय-समय पर देना चाहिए।
उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए पशुपालक बंधु अपने पशुओं को इस जानलेवा बीमारी से बचा सकते हैं क्यों कि यह बीमारी पशु की असमय मृत्यु का कारण बनती है।