ग्रीष्मकाल में पशुओं की देख भाल
डा0 के0 पी0 सिंह1 और डा0 प्रणीता सिंह2
1 पशु चिकित्साधिकारी, राजकीय पशु चिकित्सालय, देवरनियाँ बरेली उ0प्र0
2ण्हायक प्राध्यापक, पशुधन उत्पाद, प्रौद्योगिकी विभाग पशु चिकित्सा एवं पशु विज्ञान महाविद्यालय, गो0 ब0 पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, पन्तनगर, ऊधम सिंह नगर, उत्तराखण्ड
ग्रीष्मकाल में पशु गर्मी के कारण तनाव में आ जाते हैं जिससे वे पर्याप्त मात्रा में आहार नहीं ले पाते। इससे उनके शरीर एवं उत्पादन क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस लिए गर्मी में जरूरी है कि पशुओं के लिए स्वच्छ एवं आरामदेह आवास का प्रबंध हो जिसमे पशुओं को सूरज की सीधी किरणों एवं गर्म हवा के थपेड़ों से बचाया जा सके।
पशु घर में प्रत्येक गाय/भैस के लिए कम से कम 5.5 फिट चौड़ी एवं 10 फिट लम्बी पक्की जगह होनी चाहिए। फर्स खुरदुरा होना चाहिए। नाली की सुविधा और उसके लिए सही ढलान होना चाहिए
पशु घर की छत 10 फिट ऊंॅची होनी चाहिए। यह एसबेस्टस सीट या फूंस की हो सकती है।
पशु घर तीन तरफ से खुला होना चाहिये केवल पश्चिम दिशा मे दीवार होनी चाहिए। हर पशु के लिये छत की ऊंॅचाई पर 3 फिट ’ 1.5 फिट के खुले रोशनदान होने चाहिए।
पशु घर की पश्चिमी दीवार पर 2 फिट चौड़ा और 1.5 फिट गहरा नाद बनाना चाहिए। नाद का आधार भूमितल से 1 फिट ऊपर होना चाहिये नाद के साथ स्वच्छ जल की व्यवस्था होना भी आवश्यक है।
पशु घर की पूर्वी दिशा में पशुओं के घूमने का क्षेत्र (Free Loafing area) होना चाहिए इस क्षेत्र में 2-3 छायादार वृक्ष लगाने चाहिए।
ग्रीष्मकाल में पशुओं के शरीर पर 15-20 मिनट के अंतर पर पानी छिड़कने से उन्हे राहत मिलती है। गर्मी से बचाव के लिये बाजार में ।Animal cooling system भी उपलब्ध है। एक cooling system 3.10 जानवरों के लिए पर्याप्त होता हैं।
सामान्यतः एक वयस्क जानवर को प्रतिदिन 6 किलो सूखा चारा और 15-20 किलों तक हरा चारा खिलाना चाहिये। फलीदार और बिना फली दार हरे चारे को समान अनुपात मे मिलाकर खिलाना चाहिए। हरे चारे की फसल को जब आधी फसल में फूल आ जाए तब काटकर खिलाना उपयुक्त रहता है। चारे को काटकर खिलाना लाभदायक होता है। सूखा, हरा चारा, पशु आहार व खनिज मिश्रण मिलाकर सानी बनाकर प्रतिदिन 3-4 बार में देना चाहियें। इससे चारे की बर्बादी कम होती है और चारा सुपाच्य हो जाता हैं।
चारा प्रबंधन
पशुओं के स्वास्थ्य एवं दुग्ध उत्पादन हेतु हरा चारा व पशु आहार एक आदर्श भेजन है, किन्तु हरा चारा पूरे वर्ष उपलब्ध नही हो सकता एवं पशु आहार की अधिक कीमत किसान के लिए एक समस्या है इसलिए जरुरी है कि गर्मियों में उपलब्ध धान एवं गेहू के भूसे से काम चलाया जाये लेकिन भूसे में पोषक तत्व बहुत कम होते है जैसे कि प्राटीन की मात्रा सिर्फ 4 प्रतिशत होती है। इसलिए जरुरी है कि भूसे का यूरिया से उपचार कर उसकी पौष्टिकता बढ़ा कर गर्मी के मौसम में जब चारे का अभाव हो उस समय उपयोग में लाया जाय। यूरिया उपचारित भूसे में प्रोटीन की मात्रा लगभग 9 प्रतिशत हो जाती है। पशु को उपचारित चारा खिलाने पर उसको दिए जाने वाले पशु आहार में 30 प्रतिशत तक की कमी की जा सकती है।
यूरिया उपचार की विधि
4 किलो यूरिया को 40 लीटर पानी में घोलें यह मात्रा 100 किलो भूसे के लिये पर्याप्त होती है। 100 किलो भूसे को कच्चे फर्श या पक्के फर्श पर प्लास्टिक की सीट के ऊपर इस तरह फैलाये कि पर्त की मोटाई लगभग 3-4 इंच रहे, इसके ऊपर यूरिया का घोल छिड़कें फिर इसे पैरों से चल -चल कर या कूद-कूद कर दवायें। इस दवाये गये भूसे के ऊपर 100 किलो. भूसा और डालकर पुनः यूरिया का घोल छिड़कें। इस तरह से सौ-सौ किलो की 10 पर्ते डाले। इस उपचारित भूसे को अब प्लास्टिक शीट से ढक दें और जमीन में छूने वाले किनारों पर मिट्टी डाल दें जिससे अंदर बनने वाली गैस वाहर न आ सके। यदि प्लास्टिक की शीट उपलब्ध नही है तो ढेर के ऊपर थोड़ा सा सूखा भूसा डाल कर उस पर थोड़ी सूखी मिट्टी/पुआल डाल दें एवं गोबर से लीप दें।
इस तरह से उपचारित भूसे के ढेर को गर्मी में 21 दिन व सर्दी में 28 दिन के बाद खोलें। खिलाने से पहले भूसे को लगभग 10 मिनट तक खुली हवा मे फैला दे जिससे उसकी गैस उड़ जाए। शुरुआत में पशु को उपचारित भूसा थोड़ा-थोड़ा दें बाद में आदत पड़ने पर पशु बड़े चाव से यह भूसा खाने लगता हैं।
गर्मी के मौसम में संरक्षित चारे का उपयोग
वर्षा ऋतु के बाद जब हरा चारा प्रचुर मात्रा मे उपलब्ध रहता है तो उसे साइलेज अथवा हे बनाकर संरक्षित किया जा सकता है और गर्मी के मौसम मे जब हरे चारे का आभाव हो उसे हरे चारे के विकल्प के रुप मे इस्तेमाल किया जा सकता है।
साइलेज बनाने की विधि
साइलेज अचार की भांति हरा चारा है जो कि विभिन्न एक दल वाली फसलों जैसे ज्वार, मक्का, बाजरा, संकर नेपियर, इत्यादि से बनाया जा सकता है, क्योंकि इसमे कारबोंहाइड्रेट की मात्रा अधिक होती है। चारे वाली फसल को फूल आने पर खेत से काटकर छोटे-छोटे टुकड़ों में कुट्टी करके ऐसी जगह जहां पानी एकत्र न होता हो गड्ढे में दवा कर साइलेज बनाया जा सकता है। एक घन मीटर गड्ढे में लगभग 5 कुंटल चारा दवाया जा सकता है। गड्ढे को चारों तरफ से अच्छी तरह दवाकर भरना चाहिए ताकि वीच की हवा निकल जाये। जमीन के एक फिट ऊपर तक चारा भरकर पोलीथीन से ढककर उसके ऊपर मिट्टी डाल दे, और गोबर से लिपाई कर दे। कुछ दिन वाद यदि मिट्टी धसती या फटती है तो ऊपर और मिट्टी डालकर छेद बंद कर दें। जिससे गड्ढे में हवा न घुसे। 40-45 दिन में साइलेज तैयार हो जाता है। खिलाने के लिये आवश्यक मात्रा ही निकालें तथा एक बार गड्ढा खोलने के बाद यथाशीघ्र उसका उपयोग कर लें।
हे बनाने की विधि
मुलायम तने वाली घासे जैसे जौ, लूसर्न, इत्यादि को सुखाकर हे बनाया जाता है हरी फसल को काटकर 5 से 10 किलो. के बंडल बनाते है इन बंडलो को एक दूसरे के सहारे खड़ा करके धूप मे सुखाया जाता है। बंडल सुखाते समय इस बात का ध्यान रखें कि फूल वाला हिस्सा ऊपर रहे। सुखाने की प्रक्रिया में जगह बदले ताकि बंडल ठीक से सूख जाएं।
पशुओं के लिए पानी का महत्व
पशुओं के लिये पानी बहुत ही महत्वपूर्ण है, आम तौर पर एक स्वस्थ वयस्क पशु दिन में लगभग 75-80 लीटर पानी पीता है। चूंकि दुग्ध में 85 प्रतिशत तक पानी होता है अतः एक लीटर दूध देने के लिए ढाई लीटर अतिरिक्त पानी की आवश्यकता होती है। पानी गमिर्या में पशु के शरीर के तापमान को नियंत्रित करने के भी काम आता है। गर्मी में भैस तथा संकर गाय को दो बार अवश्य नहलाना चाहिये। पानी पशु आहार और चारे को पचाने के लिये, पोषक तत्वों को शरीर के विभिन्न अंगों तक पहुचाने तथा मूत्र द्वारा अवांछित एवं जहरीले तत्वों की निकासी के लिये भी उपयोगी हैं।
गर्मी के दिनों में पशुओं मे कौन-कौन से रोग होते है?
थनैला(Mastitis)
थनैला रोग थनों की सूजन अथवा संक्रमण को कहते है, यह रोग मुख्यतः ज्यादा दूध दने वाली गायों/भैसों में होता है तथा बरसात के मौसम में इसके होने की संभावना अधिक होती हैं। इस रोग से बचाव के लिये जरुरी है कि पशु को साफ एवं सूखे फर्श पर रखा जाए, समय-समय पर चूने का छिड़काव कर मक्खियों पर नियंत्रण बहुत जरुरी है। दूध दुहने से पहले थनों को खूब अच्छी तरह से साफ पानी से धो लें। थनैला बीमारी से ग्रस्त थन का दूध अंत में एक अलग बर्तन में दुहें तथा उसे उपयोग में न लाये। दूध दुहने के बाद थनों को कीट नाशक घोल में डुबोये या ऐसे घोल का स्प्रे करें।
गलघोंटू(Haemorrhagic septicaemia)
यह एक जानलेवा संक्रामक रोग है, जो प्रायः गायों और भैसों में वर्षा ऋतु में फैलता है एवं इसमें मृत्यु दर अघिक होती है। इस रोग की पहचान तेज बुखार, जबड़ों एवं गले के नीचे सूजन, सांस लेने में कठिनाई के कारण घुर्र-घुर्र सी आवाज होती है।
लंगड़ा बुखार/चुरचुरिया(Black Quarter)
इस रोग का प्रकोप वर्षा ऋतु में अधिक होता है इसके कीटाणु खाने के साथ या घाव के द्वारा शरीर में घुसते हैं इस रोग के लक्षणों में अचानक तेज ज्वर ;107.108°थ्द्धए पिछले पुट्ठे पर सूजन, लंगड़ाना शामिल हैं। सूजन को दवाने पर चुर्र-चर्रु की आवाज आती है।
खुरपका मुंहपका रोग(FMD)
यह एक संक्रामक रोग है जो रोग ग्रस्त पशुओं से स्वस्थ्य पशुओं में न केवल संपर्क से बल्कि चारा, दाना, पानी एवं हवा से भी फैलता है। इसमें मृत्यु की संभावना तो बहुत कम होती है परंतु पशुआें की उत्पादन एवं प्रजनन क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
इस रोग में तेज बुखार, मसूडों, जीभ एवं खुरों पर छाले आना, मुंह से झागदार लार गिरना इत्यादि लक्षण पाये जाते हैं।
पशुआें को इन संक्रामक रोगों से कैसे बचायें
1ण् पशुआें को इन संक्रामक रोगों से बचाने के लिये नियमित टीकाकरण अति आवश्यक है। खुरपका मुंहपका रोग, लंगड़ा बुखार एवं गल घोंटू से बचाव के लिये छः माह की उम्र में तीनों रोगों का संयुक्त टीका लगवाया जा सकता है तथा प्रति वर्ष बूस्टर डोज लगवाना चाहिए। यह बीमारियां मुख्यतः वर्षा ऋतु में होती है अतः वर्षा पूर्व ही इन बीमारियों का टीकाकरण करवा लेना चाहिए।
2ण् बीमार जानवरों को स्वस्थ्य जानवरों से अलग कर, साफ सुथरे एवं सूखे स्थान पर रखना चाहिए।
3ण् यदि संक्रामक रोगों से किसी पशु की मृत्यु हुई है तो पशु को गहरे गड्ढे में चूना डाल कर दफना देना चाहिए अथवा जला देना चाहिए।
4ण् स्वस्थ्य पशुओं को दिये जाने वाले आहार, पानी, चारे इत्यादि को रोगी पशु से दूर रखना चाहिए।
5ण् पशु आवास को साफ सुथरा रखें एवं पशुओं को मक्खियों के प्रकोप से बचायें।
ग्रीष्म ऋतु में उपरोक्त उपायों को अपनाकर पशु पालक पशुओं से उचित उत्पादन प्राप्त कर सक सकते हैं एवं गर्मियों में हेने वाली उत्पादन क्षमता में कमी से भी बच सकता है।
https://www.pashudhanpraharee.com/%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%82-%E0%A4%AA%E0%A4%B6/#:~:text=%EF%82%A7%20%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%A4%20%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%20%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82%20%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%AB,%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80%20%E0%A4%B9%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A4%BE%20%E0%A4%89%E0%A4%AA%E0%A4%B2%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%A7%20%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%A8%E0%A4%BE%20%E0%A4%9A%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%87%E0%A5%A4&text=%EF%82%A7%20%E0%A4%AA%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%93%E0%A4%82%20%E0%A4%B8%E0%A5%87%20%E0%A4%A6%E0%A5%82%E0%A4%A7%20%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%82,%E0%A4%95%E0%A4%AE%20%E0%A5%A8%20%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B0%20%E0%A4%A8%E0%A4%B9%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE%20%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%87%20%E0%A5%A4
https://www.dairyknowledge.in/article/managing-dairy-animals-during-summer