वर्षा ऋतु : निरंतर दुग्ध उपलब्धता हेतु पशुओं में सावधानिय
शिवेष सिंह सेंगर , राजपाल दिवाकर , ऋषि कांत
सहायक प्राध्यापक , पशु चिकित्सा विज्ञान एवं पशुपालन महाविद्यालय
आचार्य नरेंद्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय ,कुमारगंज अयोध्या
वर्षा ऋतु के प्रारम्भ होते ही गाय, भैंस तथा जुगाली करने वाले अन्य पशुओें में अनेकों रोग होने का खतरा बना रहता है। जिससे पशुपालकों को काफी हानि उठानी पड़ती है। इसलिए पशुपालकों को वर्षा ऋतु में होने वाले रोगों की चिकित्सा की जानकारी होना बहुत आवष्यक है। जिससे रोगी पशु की हालत अधिक खराब होने से रोकी जा सके। वर्षा ऋतु में होने वाले रोगों के बचाव की जानकारी प्रस्तुत लेख में दी जा रही है।
पशुओंं में वर्षा ऋतु में खराब परिस्थितियों के कारण अनेक रोग होने की सम्भावना रहती है। इन दिनों चारा कम मिलने के कारण वर्षा प्रारम्भ होते ही अनेक जीवाणुओं व परजीवियों के अधिक मात्रा में उत्पन्न होने के कारण अनेक रोग हो जाते है जिनका प्रभाव सीधे रूप से दुग्ध उत्पादन पर पड़ता है । वर्षा ऋतु से जुड़ी बीमारियों को पांच रूप में बांटा गया है जिनके प्रभाव से वर्षा ऋतु में दुग्ध उत्पादन में कमी आ जाती है प्
परजीवी रोग –
अंतः परजीवी जो प्रमुख्यतः यकृत कृमि व गोल कृमि है इनसे बचाव हेतु गोबर की जांच वर्षा ऋतु के पूर्व व उपरांत करा लेनी चाहिए तथा गोवर की जांच के अनुसार उन्हें कृमि नाषक दवाएं देनी चाहिए।
छः माह से छोटे पशुओंं को प्रत्येक माह कीटनाषक दवा अवश्य देनी चाहिए। वर्षा प्रारम्भ होते ही बाह्य परजीवी प्रजनन हेतु उचित वातावरण मिलने के कारण अधिक मात्रा में उत्पन्न हो जाते है। ये स्वयं तथा कुछ कीटाणु इनके द्वारा रोग फैलाते है। बाह्य परजीवी से पषु को बचाने के लिए पषुषाला एवं पशु को साफ व स्वच्छ रखना चाहिए। बाह्य कृमि नाषक दवाओं का समय-समय पर छिड़काव करना चाहिए। प्रमुख बाह्य कृमिनाषक दवायें निम्न है जैसे ब्यूटोक्स, मैलाथिओन, बी0एच0सी0डी0डी0टी0 आदि।
संक्रामक रोग –
वर्षा ऋतु प्रारम्भ होते की अनेक संक्रामक रोग पशु को हो सकते है। इन संक्रामक रोगों से बचाव हेतु विभिन्न संस्थाएं टीकाकरण कार्यक्रम भी चलाती है। जहां ऐसी सुविधा नहीं है, पशु पालकोंं को टीकाकरण हेतु उत्प्रेरित करना चाहिए। कुछ प्रमुख संक्रामक रोग है खुरपका, मुंहपका, गलघोंटू व लंगड़ी । इन रोगों से बचाव हेतु अप्रैल से जून माह के मध्य तीन माह से बड़ी उम्र के प्रत्येक पषु को पहले खुरपका मुंहपका फिर गलघोंटू तत्पष्चात लंगड़ी रोग रोधक टीका 15-20 दिन के अन्तराल से अवष्य लगाया जाना चाहिए।
त्वचा सम्बन्धी रोग –
वातावरण में अधिक नमी, जगह-जगह वर्शा का पानी इकटठा होने के कारण तथा असंतुलित आहार आदि के कारण इस ऋतु में त्वचा सम्बन्धी रोग भी बहुतायत से होते है। इनका प्रकोप नवजात पशुओं में ज्यादा पाया जाता है। इनसे बचाव हेतु निम्न उपाय करने चाहिए –
पशुओं को स्वच्छ रखें।
पशुशाला को स्वच्छ रखें।
वर्षा का पशुशाला के आस-पास न इकट्ठा होने दें।
पशुओं को संतुलित आहार दें।
पशु शाला मे कीटाणु नाशक दवाओं का समय-समय पर प्रयोग करें।
प्रबंध संबधी रोग –
पशु शाला में अस्वच्छता तथा आस-पास वर्शा का पानी इकट्ठा होने के कारण पशु को अनेक रोग होने की संभावना है जिनमें मुख्यतः त्वचा संबधी रोग, पाचन तंत्र संबधी तथा परजीवी रोग होने की संभावना बढ़ जाती है। अतः पशुशाला तथा पशुओं में स्वच्छता का इस ऋतु में विषेश ध्यान देना चाहिए।
पोषण संबधी रोग –
बरसात में हरे चारे के अत्यधिक सेवन से दस्त होने का खतरा बना रहता है। पहली बरसात के बाद ज्वार का अपरिपक्व चारा खिलाने से साइनाइड विशाक्ता हो सकती है अफरा भी इस ऋतु मे अधिक होता है। इसका कारण मई-जून में फूल वाली बरसीम खिलाना व वर्शा के बाद नई पत्तियों वाला चारा अधिक खिलाना है जो पेट में गैसे अधिक बनाता है। इसके अतिरिक्त इस ऋतु में नवजात शिशुओंं की साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखना चाहिए। उन्हे नाभि रोग से बचने हेतु कटी हुई नाभि पर टिंचर आयोडीन या अन्य किसी एंटीसेप्टिक दवा का प्रयोग करना चाहिए।
पशुपालक अगर समय.समय पर पशुओं का टीकाकरण ए कृमि नाशक दवाओं का उपयोग करते हैं व प्रबंध एवं पोषण संबधी सावधानियां रखते हैंए तो इनका प्रभाव दुग्ध उत्पादन पर वर्षा ऋतु में बहुत हद तक कम किया जा सकता है ।