ब्यांत के समय घोड़ी एवं नवजात का प्रबंधन

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ब्यांत के समय घोड़ी एवं नवजात का प्रबंधन
मोहित कुमार, नेहा चौधरी, गरिमा सिंह, बबिता कुमारी, अनुज कुमार
मादा पशु रोग विज्ञान विभाग, पशुचिकित्सा विज्ञान विश्वविद्यालय मथुरा

घोड़ों का उपयोग ना केवल खेलों के लिए, फौज में विभिन्न कार्यों के लिए बल्कि व्यवसाय एवं परिवहन के लिए भी किया जाता है । इसलिए ब्यांत के समय घोड़ी एवं नवजात का प्रबंधन अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाता है । घोड़ी के ब्याने कि प्रक्रिया आमतौर पर तेजी से होने वाली प्रक्रिया है जो अधिकतर रात में होती है। घोड़ी के ब्यांत की प्रक्रिया अधिकतर वसंत ऋतू के आखिरी दिनों में जब तापमान सामान्य रहता है। इस समय चारा ठीक ठाक मात्रा में उपलब्ध रहता है। ब्यांत के समय घोड़ी एवं उसके नवजात का उचित प्रबंधन ना होने से नवजात मृत्यु दर में बढोत्तरी हो सकती है । मादा पशु भी उचित प्रबंधन के अभाव में कई तरह की परेशानियाँ जैसे दूध ना देना, गर्भाशय में संक्रमण हो जाना इत्यादि समस्याओं से ग्रसित हो जाती है । अंततः पशुपालक को आर्थिक हानि होती है । अतः घोड़ी के ब्यांत के लक्षण पहचानना एवं उचित प्रबंधन करना साथ ही साथ नवजात की उचित देखभाल करना अति आवश्यक है।
घोड़ी कि गर्भावधि सामान्यतः 11 महीने 11 दिन कि होती है । अंत के 1 महीने में घोडियो के स्तन ग्रंथियों का विकास होने लगता है,उनका आकर बढ़ता है व ब्यांने के 6 से 48 घंटो पहले थनों के सिरे पर गाढ़ा पदार्थ जमा हो जाता है जिसे वैक्सिंग कहते हैं। ब्याने से कुछ दिनों पहले योनी के आस पास के स्नायु शिथिल एवं ढीले होने लगते है । बच्चे देने की प्रक्रिया सामान्यतः 1-5 घंटे की होती है। गर्भाशय का द्वार खुल जाता है एवं गर्भाशय में संकुचन बढ़ जाता है । इस दौरान घोड़ी पेट दर्द के लक्षण के साथ साथ बार बार पेशाब करना, बार बार उठना बैठना, पसीना आना जैसे लक्षण दिखाती है । भ्रूण की पानी की थैली फट जाती है एवं नवजात शिशु बहार आ जाता है । अंत में जेर ( भ्रूण की झिल्लियाँ) लगभग 3 घंटो के अन्दर निकल जाती है। किसी भी प्रक्रिया में अत्यधिक देर होने पर यथाशीघ्र पंजीकृत पशुचिकित्सक से संपर्क तथा इलाज कराना चाहिए।
घोड़ी के ब्याने के समय की जाने वाली कुछ तैयारियां व इससे जुड़े महत्वपूर्ण सुझाव –
1. घोड़ी का प्रजनन करवाने से पहले टीकाकरण व डीवार्मिंग करानी चाहिए, गर्भावस्था के शुरु के 90 दिनों में कोई भी वैक्सीन नहीं की जाती है व बच्चे के जन्म के बाद 48 घंटे के भीतर घोड़ी कि डीवार्मिंग कर देनी चाहिए ताकि बच्चे को परजीवियों से बचाया जा सके।
2. गर्भावस्था के दौरान घोड़ी को सूखा चारा एवं घास के साथ साथ खनिज लवण मिश्रित संतुलित आहार देना चाहिए । अंत के 3 महीनो में अधिक पोष्टिक आहार देना चाहिए क्योकि इस समय बच्चे का आकार व घोड़ी का वजन दोनों ही बढ़ते है।
3. घोड़ी के ब्याने की संभावित तिथि से 3-4 हफ्ता पहले उसे अलग से फोलिंग पेन में रखना चाहिए ताकि उस वातावरण में घोड़ी सुरक्षित बच्चा पैदा कर सके (फोलिंग) । एवं उपस्थित रोगजनक कारकों से भी बच सके । अन्य पशुओं के द्वारा लगने वाली संभावित चोटों से भी बचा जा सके।
4. फोलिंग एरिया के अंदर हवा की समुचित आवाजाही, साफ़ सफाई एवं फर्श पर भूसा व सूखी घास का बिछौना आदि की व्यवस्था होनी चाहिए। लकड़ी के बुरादे को प्रयोग में नहीं लेना चाहिए क्योकि यह बच्चे कि श्वांस नली में जा सकता है और घोड़ी के जननांगों के अंदर जाकर इन्फेक्शन कर सकता है ।
5. पशु पैदाश के समय किसी भी तरह का तनावग्रस्त वातावरण, शोर शराबा अथवा किसी व्यक्ति की उपस्थिति नहीं होनी चाहिए अन्यथा बच्चा पैदा होने की प्रक्रिया विलंभ से होती है।
6. कुछ घोड़ीयो में फोलिंग के बाद पेट में भी दर्द होने लगता है , इसको कम करने के लिए कम मात्रा में एनल्जेसिक( दर्द को कम करने कि दवा )का प्रयोग किया जा सकता है।
7. घोड़ी में प्रसव के बाद टिटेनस एंटीटोक्सिन का टीका लगवाना लाभप्रद रहता है।
8. प्रसव के कुछ दिनों तक मादा पशु के जननांगों से आने वाले द्रव्य पर ध्यान देना चाहिए और इस द्रव्य के बदबूदार अथवा पीले रंग या रक्त मिश्रित होने पर तुरंत पशुचिकित्सक से सलाह एवं उपचार करवाना चाहिए
नवजात भ्रूण की प्राथमिक चिकित्सा पर कुछ सुझाव –
1. नवजात के नाक से भ्रूण झिली को हटा देनी चाहिए ताकि उसका दम ना घुटे और वह आराम से साँस ले सके।
2. हमे नवजात के छाती वाले हिस्से में मालिस करनी चाहिए ताकि उसे साँस लेने में मदद मिल सके ।
3. बच्चे का जन्म होने के 2-4 घंटे के अंदर उसे कोलोस्ट्रम पिला देना चाहिए क्योंकि इसके अंदर मौजूद एंटीबाडी नवजात को रोग प्रतिरोधक क्षमता प्रदान करते है ।
4. नवजात शिशु दिन में 20-25 बार दूध पीता है अतः यदि वह दूध ग्रंथि ढूढ़ने या दूध पीने में असमर्थ हो तो उसे ऐसा करने में मदद करनी चाहिए। कमजोर शिशु को दूध बोतल के माध्यम से पिलाया जा सकता है परन्तु सिरिंज अथवा जग का प्रयोग नहीं करना चाहिए वरना निमोनिया होने एवं म्रत्यु होने का ख़तरा होता है ।
5. नवजात की गर्भनाल को जब तक आवश्यकता ना हो नहीं काटना चाहिए। यह स्वतः ही समय के साथ सूख जाती है । गर्भनाल के टूटे हिस्से पर 2-3 दिनो के लिए क्लोरहेक्सिडीन (0-5 प्रतिशत) व आयोडीन (1 प्रतिशत) लगाना चाहिए। अत्यधिक खून आने पर ही धागे से बाधना चाहिए।
6. नवजात के शरीर के हर अंग को ध्यान पूर्वक परीक्षण करना चाहिए। मल त्याग करने के छिद्र का बंद होना, पलको का अन्दर या बहार की तरफ मुड़ा होना, पैरों में कोई विकृति होना इत्यादि की दशा में पशुचिकित्सक से सलाह एवं इलाज़ कराना चाहिए।
7. अगर नवजात का मिकोनिअम (जन्म के बाद का पहला मल) शरीर से बहार नहीं निकल पता है तो हमे गर्म साबुन पानी या सोडियम फॉस्फेट या ग्लिसरीन से बने एनीमा का प्रयोग करना चाहिए।
यदि उपर्युक्त में चर्चा किये गए प्रबंधन को वैज्ञानिक द्रष्टिकोण रखते हुए अनुपालन करना सुनिश्चित किया जाये तो निश्चित ही ब्यांत के समय होने वाली नवजात मृत्युदर एवं मादा पशु को होने वाली विभिन्न समस्यायों को काफी हद तक कम किया जा सकता है। इन सुझावों को ध्यान में रखकर ब्यांत प्रबंधन करने से पशुपालक अधिकाधिक लाभ कमा सकते है ।

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