बछड़ो की मृत्यु  दर को रोकने हेतु देखभाल

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बछड़ो की मृत्यु  दर को रोकने हेतु देखभाल

डॉ आनंद कुमार जैन, डॉ आदित्य मिश्रा, डॉ पूर्णिमा सिंह, डॉ प्रगति पटेल, डॉ अनिल गट्टानी, डॉ संजू मंडल, डॉ वंदना गुप्ता, डॉ सचिन जैन और डॉ ब्रजेश सिंह

पशु शरीर क्रिया  विज्ञान और जैव रसायन विभाग

पशु  चिकित्सा और पशु पालन महाविद्यालय  जबलपुर मध्य प्रदेश

 वित्तीय वर्ष 2022-23 में भारत के दूध उत्पादन में 4% की बढ़ोतरी हुई, जो कुल 230.58 मिलियन टन तक पहुंच गया। पिछले नौ वर्षों की अवधि में, भारत ने अपने दूध उत्पादन में 58% की वृद्धि देखी है। भारत के दूध उत्पादन मामले में शीर्ष स्थान पर होने के बावजूद भी बछड़ो की मृत्यु दर बहुत ज्यादा है। जिसके कारण पशुपालकों को बहुत नुकसान उठाना पड़ता है। बछड़े की मृत्यु के कारणों को संक्रामक और गैर-संक्रामक में विभाजित किया जा सकता है। संक्रामक कारण बैक्टीरिया, वायरस या प्रोटोजोआ के कारण होने वाला दस्त और निमोनिया हैं। प्रमुख गैर-संक्रामक कारण डिस्टोसिया, कोलोस्ट्रम का अनुचित आहार, जन्म के समय कम वजन और खराब प्रबंधन हैं।

प्रसव के समय पशु की देखभाल

डिस्टोसिया या ब्याने में कठिनाई बछड़े की मृत्यु का प्रमुख कारण है और बछड़े की मृत्यु के लगभग 50% मामलों के लिए जिम्मेदार है। इस स्थिति में माता पशु को चिकित्सक की सहायता से बछड़े को बाहर निकलने की आवश्यकता होती है। यदि ध्यान नहीं दिया गया तो बछड़े के मृत्यु की आशंका बन सकती है। वे सभी कारक जो डिस्टोसिया का कारण बनते हैं, जीवित रहने की दर को कम करते हैं। जन्म के समय बछड़े के वजन का भी मृत्यु दर पर  प्रभाव पड़ता है। इस समय बछड़े का कम और अधिक वजन दोनों ही महत्वपूर्ण कारक है। प्रसव के समय प्रबंधन का भी विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है। जन्म के तुरन्त बाद बछड़े के नाक व मुंह से श्लैष्मा व झिल्ली को साफ कर देना चाहिए, बच्चे की नाभि को ऊपर से 1/2 इंच छोडकर किसी साफ कैंची से काट देना चाहिए तथा उस पर टिंचर आयोडीन लगानी चाहिए। बच्चे के पैदा होने के बाद, उसकी नाभि को काटे गए स्थान पर नियमित रूप से एंटीसेप्टिक ड्रेसिंग करने तथा इसे साफ स्थान पर रखने से इस बीमारी को रोका जा सकता है। नाल गिरने के बाद नाभि को किसी कीटाणुनाशक दवा के साफ करके प्रतिदिन टिंचर आयोडीन या बीटाडीन आदि उस समय तक लगाते रहना चाहिए जब तक नाभि बिलकुल सुख न जाए।

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पोषण: जन्म के 2 घंटे के भीतर बच्चे को माँ का पहला दूध (खीस) अवश्य पिलाना चाहिए| खीस पशु के ब्योने के बाद थन से प्राप्त होने वाला पहला पदार्थ है, जिसमें रोग प्रतिरोधक गुण होते हैं। खीस को बछड़े के शरीर भार का दसवां भाग देना चाहिए है। इसमें साधारण दूध की अपेक्षा विटामिन्स, खनिज तथा प्रोटीन्स की मात्रा अधिक होती है, इसमें रोग निरोधक पदार्थ जिन्हें एन्टीवाडीज कहते हैं भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं| खीस में दस्तावर गुण भी होते हैं जिससे नवजात बच्चे की आंतों में जन्म से पहले का जमा मल (म्युकोनियम) बाहर निकल जाता है तथा उसका पेट साफ हो जाता है| खीस विटामिन इ, ए, प्रोटीन, शर्करा तथा वसा का भी महत्वपूर्ण स्रोत है। खीस में खनिज तत्व-कैल्शियम, फास्फोरस, मैग्नीशियम, सोडियम, पोटेशियम तथा जिंक पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं तथा आयरन, कॉपर कम मात्रा में पाए जाते हैं। ऐसा देखा गया है कि जिन बछड़ों को पैदा होने के बाद कम मात्रा में खीस मिली, उनमें मृत्यु दर पर्याप्त मात्रा में खीस पीने वाले बछड़ों की अपेक्षा अधिक थी। यदि सही मात्रा में तथा सही समय पर बछड़ों को खीस दी जाए तो बछड़ों में बीमारियों की संभावना तथा मृत्यु दर को काफी हद तक कम किया जा सकता है। बछड़े को बाद के दिनों में, स्वच्छ दूध या दूध का विकल्प, एवं स्टार्टर प्रदान करना चाहिए। बछड़ों को उनके शरीर के वजन और विकास के अनुसार भोजन देंना चाहिए एवं अधिक भोजन करने से बचाना चाहिए, जिससे दस्त ना हो सकते हैं।

आवास: खराब वायु-संचार, भीड़भाड़, अनियमित सफाई से विभिन्न बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं। बछड़ों को स्वच्छ, सूखा एवं आरामदायक वातावरण प्रदान करना चहिए। बछड़ों को विशेष रूप से सर्दियों में हीटिंग व्यवस्था एवं ऐसा बिस्तर उपलब्ध कराएं जो पानी को अच्छी तरह सोख ले, जैसे कि लंबे गेहूं का भूसा। बछड़ों को सूखा एवं गर्म रखने हेतु, एक हॉटबॉक्स या हीट लैंप भी सहायक हो सकते है। बछड़ों को साफ व हवादार कमरे में रखें जिसमें सीलन न हो और तेज हवा के झोंके न आते हो। गंदे बिस्तर और अपशिष्ट पदार्थो को नियमित रूप से हटाएँ। यदि संभव हो तो बछड़ों को अलग-अलग बाड़ों में रखा जाना चाहिए।

कृमि मुक्ति: बछड़े के स्वास्थ्य के लिए कृमि मुक्ति महत्वपूर्ण है क्योंकि आंतरिक परजीवी बछड़े की पोषक तत्वों के अवशोषण क्षमता को कम कर सकते हैं। जब बछड़े 1-2 सप्ताह के हो जाएं तो उन्हें कृमिनाशक दवा दी जाती है और उसके बाद हर तीन महीने में दी जाती है। बढ़ते हुए बछड़ों को भी बाहरी परजीवियों जैसे जूँ, किलनी, घुन आदि से बचाने के लिए जानवरों और पशुधन शेडों में नियमित रूप से एक्टोपैरासिटिसाइड का छिड़काव करना चाहिए।

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टीकाकरण: टीकाकरण बछड़ों के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वे संक्रमण और बीमारियों को रोकने में मदद करते हैं। एफ.एम.डी, एच.एस, ब्लैक क्वार्टर, थिलेरियोसिस, ब्रुसेलोसिस, एंथ्रेक्स के टीकाकरण इनके जानलेवा भयानक बीमारियों से बचाते है।

पशुपालको को दिन में कम से कम दो बार बछड़ों की जांच करनी चाहिए और बीमारी के शुरुआती लक्षणों को रिकॉर्ड करनी चाहिए। आवश्यक होने पर अपने पशुचिकित्सक से चर्चा करके रोग का उपचार कराये। बछड़ों की प्रमुख बीमारियां निम्नलिखित है:

नाभि का सडना: कई बार बछड़े की नाभि में संक्रमण हो जाता है, इसे नवैल इल भी कहा जाता है। यह बीमारी हाल ही में पैदा हुए बच्चों में होती है। इस बीमारी में नाभि सूज जाती है तथा नाभि में मवाद पड़ जाता है। रोग के आंरभ में बछड़ा सुस्त हो जाता है, दूध नहीं पीता, तेज बुखार आता है एवं वह साँस जल्दी-जल्दी लेता है, नाभि गीली व चिपचिपी दिखलाई पड़ती है, एक दो दिन सुजन बढ़ने पर नाभि गर्म व् सख्त हो जाती है एवं उसमें बहुत दर्द होता है। इनमे अक्सर मक्खियों के बैठने से कीड़े(मेगिट्स) भी हो जाते है। इस बिमारी के होने पर नजदीकी पशुचिकित्सालय से इसका ठीक प्रकार से ईलाज कराना चाहिए अन्यथा कई और जटिलतायें उत्पन्न हो सकती है एवं नवजात पशु की म्रत्यु होने का खतरा रहता है।

निमोनियां: बछड़ो का यदि खासतौर पर सर्दियों तथा बरसात में पूरा ध्यान ना रखा जाए तो उनको निमोनिया होने संभावना होती है। यह बीमारी 3 सप्ताह से लेकर चार माह के बछड़ो में ज्यादा देखी जाती है। इस बीमारी में बछड़े को ज्वर के साथ खांसी तथा सांस लेने में तकलीफ होती है तथा वह दूध पीना बंद कर देता है, रोग बढ़ने पर नाक से बहने वाला पानी गाढ़ा व चिपचिपा हो जाता है, साँस लेने में कठिनाई होती है, खांसी तेज हो जाती है यदि समय पर इसका इलाज ना करवाया जाए तो इससे मृत्यु भी हो जाती है| एंटीबायोटिक अथवा अन्य रोगाणु निरोधक दवाईयों के उचित प्रयोग से इस बीमारी को ठीक किया जा सकता है| स्वस्थ बछड़ों को रोगी बछड़ों से अलग रखें।

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काफ डायरिया : दस्त लगने के अनेक कारण हो सकते हैं जिनमें अधिक मात्रा में दूध पी जाना, पेट में संक्रमण होना, पेट में कीड़े होना आदि शामिल हैं| बछड़े को दूध उचित मात्रा में पिलाना चाहिए| यह मात्रा बच्छे के वज़न का 1/10 भाग पर्याप्त होती है, अधिक दूध पिलाने से बच्चा उसे हज़म नहीं कर पाता और वह सफेत अतिसार का शिकार हो जाता है| पेट के कीड़ों के उपचार के लिए पिपराजीन दवा का प्रयोग किया जा सकता है l

बछड़े का टायफड (साल्मोनेल्लोसिस): यह संक्रामक रोग है जो कि बैक्टीरिया द्वारा फैलता है| इसमें पशु को तेज़ बुखार तथा खुनी दस्त लग जाते हैं| इस बीमारी में एंटीबायोटिक्स अथवा एंटीबैक्टीरीयल  दवायें प्रयोग  की जाती है| इसके लिए आवश्यक है कि पशुशाला कि उचित सफाई रखी जाए एवं संक्रमित पशुओ को स्वास्थ्य पशुओ से अलग रखा जाएl

मुंह व खुर की बीमारी (फुट एंड माउथ डिजीज): बड़े उम्र के पशुओं में तेज़ बुखार होने के साथ-साथ मुंह व खुर में छाले व घाव होने के लक्षण पाए जाते हैं लेकिन बछड़ो में मुंह व खुर के लक्षण बहुत कम देखे जाते हैं| बछड़ो में यह रोग उनके हृदय पर असर करता है जिससे थोड़े ही समय में उनकी मृत्यु  हो जाती है| हालांकि वायरस (विषाणु) से होने वाली इस बीमारी का कोई ईलाज नहीं है लेकिन बीमारी हो जाने पर पशु चिकित्सक की सलाह से बीमारी पशु को द्वितीय जीवाणु संक्रमण से अवश्य बचाया जा सकता है| यदि मुंह व खुर में घाव हो ती उन्हें पोटैशियम परमैगनेटके 0.1 प्रतिशत घोल से साफ करके मुंह में बोरो-ग्लिसरीन तथा खुरों में फिनायल व तेल लगाना चाहिए| रोग के नियन्त्रण के लिए स्वस्थ बछड़ो को बीमार पशुओं से दूर रखना चाहिए तथा बीमार पशुओं की देखभाल करने वाले व्यक्ति को स्वस्थ पशुओं के पास नहीं आना चाहिए| बछड़ो को सही समय पर रोग निरोधक टीके लगवाने चाहिए|

सामान्यतः किसी भी पशुशाला के लिए बछड़े की मृत्युदर 3-5% स्वीकार है, हमारा प्रयास मृत्युदर को इस दर से कम रखने का रहना चाहिए। अच्छा प्रबंधन, रोग नियंत्रण प्रणाली एवं बछड़े की उचित देखभाल पर विशेष ध्यान दे कर, पशुपालक बछड़ो की मृत्यु से होने वाले नुकसान से बच सकते है।

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