स्वस्थ्य तथा लाभदायक डेयरी फार्मिंग हेतु पशुपालकों को महत्वपूर्ण सुझाव

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स्वस्थ्य तथा लाभदायक डेयरी फार्मिंग हेतु पशुपालकों को महत्वपूर्ण सुझाव

उत्पादन के दृष्टि से पशु स्वास्थय का बड़ा महत्व है। एक स्वस्थ पशु से ही अच्छे एवं स्वस्थ बच्चे (बछड़ा – बछिया) एवं आधिक दुग्ध उत्पादन की आशा की जा सकती है। केवल स्वस्थ पशु ही प्रत्येक वर्ष ब्यात दे सकता है। प्रतिवर्ष ब्यात से पशु की उत्पादक आयु बढ़ती है। जिससे पशुपालक को अधिक से अधिक संख्या में बच्चे एवं ब्यात मिलते है। इससे उसके सम्पूर्ण जीवन में अधिक मात्रा दूध मिलता है और पशुपालक के लिए पशु लाभकारी होता है।

पशुओं में बीमारी होने के मुख्य कारण

पशु के बीमार होने के कारणों में गलत ढंग से पशु का पालन – पोषण करना, पशु प्रबंध में ध्यान न देना, पशु पोषण की कमी (असंतुलित आहार), वातावरण (मौसम) का बदलना, पैदाइशी रोगों का होना (पैत्रिक रोग), दूषित पानी तथा अस्वच्छ एवं संक्रमित आहार का ग्रहण करना, पेट में कीड़ों (कृमि) का होना, जीवाणुओं, विषाणुओं एवं किटाणुओं का संक्रमण होना, आकस्मिक दुर्घटनाओं का घटित होना आदि प्रमुख है।

रोगी पशु के प्रति पशुपालक का कर्तव्य

बीमार पशु की देखभाल निम्नलिखित तरीके से किया जाना आवश्यक होता है –

क. रोगी पशु की देख – रेख के लिए उसे सबसे पहले स्वस्थ पशुओं से अलग कर स्वच्छ एवं हवादार स्था पर रखना चाहिए। शुद्ध एवं ताज़ी हवा के लिए खिड़की एवं रोशनदान खुला रखना चाहिए। रोगी पशु को अधिक गर्मीं एवं अधिक सर्दी से बचाया जाना चाहिए तथा अधिक ठंडी एवं तेज हवाएं रोगी को न लगने पाए,  इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए।

ख. पशु के पीने के लिए ताजे एवं शुद्धपानी का प्रबंध करना चाहिए।

ग. पशुशाला में पानी की उचित निकास व्यवस्था की जानी चाहिए।

घ. पशु के बिछावन पर्याप्त मोटा, स्वच्छ एवं मुलायम होना चाहिए।

ङ. पशु को बांधने की जगह पर पर्याप्त सफाई का ध्यान दें तथा मक्खी, मच्छर से बचाव हेतु आवश्यक कीटाणुनाशक दवाओं का छिड़काव करते रहना चाहिए।

च. रोगी पशु को डराना अथवा मारना नहीं चाहिए तथा पशु को उसकी इच्छा के विरूद्ध जबरन चारा नहीं खिलाया जाना चाहिए। पशु को हल्का, पौष्टिक एवं पाचक आहार दिया जाना चाहिए। बरसीम, जई, दूब घास एवं हरे चारे तथा जौ का दाना जाना ठीक होता है।

कई बार पशु बीमार होते हैं और पशुपालक समझ नहीं पाते हैं, बाद में उन्हें पता चलता है तब तक बीमारी बढ़ गई होती है। इसकी वजह से कई पशुपालकों को आर्थिक रूप से नुकसान भी उठाना पड़ता है। ऐसे में पशुपालन कुछ बातों का ध्यान रखकर नुकसान से बच सकते हैं। एक किसान के रूप में, आपको अपने पशु में बीमार स्वास्थ्य के संकेतों को देखने की समझ होनी चाहिए। आपको यह बताने में सक्षम होना चाहिए कि क्या जानवर को अच्छी तरह से खिलाया जा रहा है, और पर्याप्त रूप से स्वच्छ और आरामदायक वातावरण में रखा जा रहा है। आपको यह भी पहचानने में सक्षम होना चाहिए कि कब जानवर को उसके आहार से पर्याप्त पोषण नहीं मिल रहा है, या जब वह किसी बीमारी या परजीवी संक्रमण का शिकार हो गया है। कैसा है आपके पशु का व्यवहार एक स्वस्थ जानवर अपने परिवेश के प्रति सतर्क और जागरूक हैं। ये देखना होता है कि पशु अपने सिर को ऊपर रखता है और देखता है कि उसके आसपास क्या हो रहा है। वो अच्छे से खड़ा है कि नहीं, अगर कोई पशु दूसरे पशुओें के झुंड से अलग खड़ा है तो समझिए आपका पशु बीमार है। एक जानवर जो अपने परिवेश में दिलचस्पी नहीं रखता है और स्थानांतरित नहीं करना चाहता है, उसे स्वास्थ्य समस्याएं हैं। बहती हुई नाक या सुस्त आंखें भी बीमारी का संकेत होती हैं।

एक स्वस्थ जानवर अपने सभी पैरों पर अपने वजन को संतुलित करते हुए आसानी से और स्थिर रूप से चलेगा। नियमित होना चाहिए। पैरों या अंगों में दर्द के कारण अनियमित आंदोलनों का परिणाम होता है। यदि आप किसी ऐसे जानवर के पास जाते हैं जो लेटा हुआ है, तो उसे जल्दी खड़ा होना चाहिए – अगर यह नहीं होता है, तो इससे स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं। कोई भी जानवर जो ठीक से नहीं चल सकता है या ठीक से नहीं देखा जा सकता है, क्योंकि वह बीमार स्वास्थ्य से पीड़ित हो सकता है। जब आप देखते हैं कि जानवर चलने पर एक पैर का सहारा ले रहा है, तो यह महत्वपूर्ण है कि आप इसे रोकें जब तक कि आपको इसका कारण पता न चले, और प्रभावी ढंग से इसका इलाज करें। सुअर के शरीर के तापमान को उसके कान को छूकर जांचा जा सकता है।

नाक बिना किसी डिस्चार्ज के साफ होनी चाहिए। मवेशी और भैंस के थूथन को सूखा नहीं होना चाहिए। स्वस्थ जानवर अक्सर अपनी जीभ से अपनी नाक चाटते हैं। मुंह से कोई लार टपकना नहीं चाहिए। यदि चबाना धीमा या अधूरा है, तो दांतों के साथ कोई समस्या हो सकती है। क्या आपका पशु चारा खा रहा है? स्वस्थ जानवरों को भोजन की अच्छी भूख होती है और आम तौर पर वे अपनी संतुष्टि को खिलाना पसंद करते हैं। बीमार जानवरों को भोजन की कोई भूख नहीं है। यदि आप ध्यान दें कि आपके जानवर ने अचानक भोजन के लिए अपनी भूख खो दी है, तो ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि वह बीमार पड़ गया है। ये हैं आसान लक्षण स्वस्थ जानवरों का कोट साफ, चिकना और चमकदार होना चाहिए और पूरा कवर दिखाना चाहिए। बीमार स्वास्थ्य के संकेत हैं: कोट सुस्त दिखता है और बाल बाहर गिरते हैं। ठंडी, शुष्क और झुलसी त्वचा बीमारियों का संकेत देती है। जब आप अपने जानवर को अचानक एक त्वचा विकार के लक्षण दिखाते हैं, तो आपको तत्काल ध्यान देना चाहिए। छोटे बालों वाले जानवरों में, उदा। मवेशी, स्वस्थ जानवर के बाल या कोट चिकने और चमकदार होंगे। स्वस्थ मवेशी और उनके बछड़े अपना कोट चाटते हैं और चाट के निशान दिखाएंगे। यदि कोई गाय या भैंस अपने पेट पर देखती है या पेट पर लात मारती है तो पेट में दर्द होता है।

जब पशु आराम कर रहा हो, तब सांस लेना सहज और नियमित होना चाहिए। याद रखें कि चलने-फिरने और गर्म मौसम में सांस लेने की दर बढ़ जाएगी। यदि जानवर छाया में आराम कर रहा है, तो छाती को हिलाने के लिए सांस लेना मुश्किल है। पशु की जांच करते समय नाड़ी लेना महत्वपूर्ण है। मवेशियों की नब्ज पूंछ के आधार के नीचे एक बिंदु पर ली गई है। एक वयस्क में सामान्य दर 40-80 बीट प्रति मिनट है। भैंस में नाड़ी की दर 40-60 बीट प्रति मिनट होती है। याद रखें कि नाड़ी की दर युवा जानवरों में अधिक होगी। नाड़ी लेने के लिए आपको अपने हाथ की पहली दो उंगलियों के साथ इसके लिए महसूस करना चाहिए। लामाओं, अल्फ़ाका और सूअरों में ऐसा कोई बिंदु नहीं है जिस पर नाड़ी ली जा सके; दिल की धड़कन को ही महसूस किया जाना चाहिए।
मल का कोई विचलन यानी बहुत कठोर, बहुत पानीदार, कीड़ा सेगमेंट से दूषित या खून से सना हुआ, स्वास्थ्य को इंगित करता है। यदि आपका जानवर अपने स्वयं के शरीर पर शौच करना शुरू कर देता है, तो यह एक संकेत है कि उसे अपने सहायक नहर में समस्या है और तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। एक स्वस्थ जानवर की बूंदें दृढ़ होंगी। बहुत नरम बूंदें (दस्त) बीमार स्वास्थ्य का संकेत है। यदि जानवर को शौच (कब्ज) में कठिनाई होती है तो यह भी खराब स्वास्थ्य का संकेत है। पेशाब का सामान्य रंग हल्का पीला होता है। गहरे पीले रंग का, खून से सना हुआ, या बादल वाला मूत्र बीमार स्वास्थ्य को दर्शाता है। जब आपका जानवर पेशाब करते समय दर्द दिखाता है, तो इसके मूत्र प्रणाली में कुछ गड़बड़ हो सकती है। मूत्र स्पष्ट होना चाहिए, और जानवर को पेशाब में दर्द या कठिनाई के कोई लक्षण नहीं दिखाई देने चाहिए।

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यदि फ़ीड उपलब्ध है, तो एक स्वस्थ जानवर के पास एक पूर्ण पेट होगा। मवेशी प्रत्येक दिन 6 से 8 घंटे तक जुगाली (जुगाली करना) करते हैं। यह बीमार होने का संकेत है जब ये जानवर जुगाली करना बंद कर देते हैं। दुधारू पशु में, उत्पादित दूध की मात्रा में अचानक परिवर्तन एक स्वास्थ्य समस्या का संकेत दे सकता है। दूध में रक्त या अन्य पदार्थ का कोई भी संकेत, यूडर में संक्रमण का संकेत देता है। छूने पर उबटन की सूजन और दर्द का कोई संकेत नहीं होना चाहिए। चूची पर चोट नहीं होनी चाहिए। जब कोई जानवर लगातार खांसता है, तो इसका मतलब है कि कोई चीज उसके गले में जलन कर रही है। जब तक यह लगातार या पुरानी खांसी नहीं है, तब तक खांसी जरूरी रूप से बीमार होने का संकेत नहीं है। स्वस्थ जानवरों में दर्द का कोई लक्षण दिखाई नहीं देता है। जब जानवर अपने दाँत पीसने या कराहने से दर्द के लक्षण दिखाने लगते हैं, तो यह एक संकेत है कि कुछ गलत है।

कैसे पहचाने बीमार पशुओ के लक्षण ?

बीमारी को पहचानना व उसकी रोकथाम करने के लिए सबसे जरूरी है बीमार पशु की पहचान करना। इससे किसान को दो फायदे होंगे एक तो बीमारी फैलेगी नहीं क्योंकि बीमार पशु को बाकि पशु से अलग करके ऐसा किया जा सकता है और दूसरा फायदा होगा जल्दी पता चलने से इलाज भी जल्दी शुरू होगा जो पशु के जल्दी स्वस्थ्य होने के लिए लाभदायक रहेगा।

कुछ ऐसे लक्षण होते है जिन्हें आराम से किसान देख के पता लगा सकते है कि पशु बीमार है या स्वस्थ। लक्षणों को देखकर यह भी बताया जा सकता है कि पशु को शरीर में कौन-से हिस्से में तकलीफ है। लक्षण व उनका विवरण कुछ इस प्रकार है-

  1. बीमार पशु सबसे अलग, सुस्त और झुंड से अलग खड़ा मिलेगा। यह एक ऐसे लक्षण होता है जो सब बीमारियों में न भी मिलें।
  2. बीमार पशु दाना, हरा चारा व तुड़ी कम खाता है। इस लक्षण को पहचानने के लिए किसान को चाहिए की वह हिसाब रखे की कितना चारा डाला और कितना बचा हुआ रहा ताकि यह अंदाजा लगाया जा सके की पशु ने कितना खाया। ऐसे नहीं है कम खाना ही बीमारी का अन्देशा देता है बल्कि जब पशु सिर्फ दाना खाता है और तूड़ी नहीं खाता तब भी वो एक बीमारी जिसका नाम कीटोसिस होता है उससे ग्रसित होता है। कई बीमारियाँ ऐसी भी होती है, जिसमें पशु के आहार में कोई भी गिरावट नहीं आती है, परन्तु वो फिर भी कमजोर होता जाता है जैसे दस्त। चबाने या निगलने में तकलीफ भी एक कारण हो सकता है पशु का कम खाना। चबाने में तकलीफ होना दाँतों में समस्या का अन्देशा देता है और कई बार पशु के मुँह में भी चारा मिलता है या बीच-बीच में पशु चारा चबाना बंद कर देता है ऐसी अवस्था में पशु को दिमागी समस्या होने का अन्देशा होता है। निगलने में पशु दर्द महसूस करे या मुँह से आधा चबाया हुआ चारा बाहर निकाले तो यह संकेत होते है कि पशु के गले में इन्फेक्शन या कोई चोट है जो कि गलत तरीके से नाल देने की वजह से भी हो सकता है या कोई नुकीले चीज के गले में अटके होने के कारण भी हो सकता है।
  3. गोबर का पतला होना या बन्धा लगना भी पशु के बीमारी का एक मुख्य लक्षण होता है। स्वस्थ पशु 10 से 16 बार गोबर कर सकता है परन्तु अगर गोबर पतला और पानी की तरह और इससे ज्यादा बार करे तो यह बीमारी का लक्षण होता है। दस्त लगना पशु में बैक्टीरियल, वाॅयरल या पैरासिटिक बीमारी का संकेत होता है। दस्त का रंग, उसमें खून का होना, बदबू का आना अलग-अलग बीमारियों के होने का अन्देशा देता है जैसे कि अगर गोबर में खून आ रहा है या खूनी दस्त लगे है तो यह कॉक्सीडीओसिस होने के संकेत हो सकते है जिसकी पुष्टि गोबर की जाँच करा कर किया जा सकता है। ऐसे ही सफेद रंग के पानी जैसा दस्त आना ईकाॅली से होने वाली बैक्टीरियल बीमारी के संकेत होते हैं।
  4. पेशाब को देख के भी बीमारी का अंदाजा लगाया जा सकता है जैसे अगर पेशाब में खून आ रहा है तो यह तीन कारण से हो सकता है बबैसिओसिस नाम के रोग में भी पेशाब का रंग लाल होगा इसके साथ पशु को बुखार मिलेगा और चिचड़ भी शरीर पर होंगे या पहले से लगे हुए होंगे। खून की जाँच करा कर बबैसिओसिस की पुष्टि की जा सकती है। Post Parturient Haemoglobinuria में भी पेशाब का रंग लाल हो जाता है पर इसमें पशु को बुखार नहीं मिलेगा साथ ही इसमें फास्फोरस की कमी मिलेगी। फॉस्फोरस के लेवल की जाँच करवा कर रोग की पुष्टि की जा सकती है। किडनी के रोगों में भी पेशाब का रंग लाल हो जाता है और पथरी की समस्या हो तो पशु बार-बार और जोर लगा कर पेशाब करता है। ऐसे में पेशाब की जाँच करवा कर या अल्ट्रासाउंड करवाना चाहिए। पेशाब का रंग अधिक पीला होना भी जिगर की बीमारी होने का लक्षण है।
  5. पशु को ज्यादा ठंडा पसीना आना भी बताता है कि वह दर्द में है और इसके साथ किसान देखते है कि पशु बार-बार उठक-बैठक करेगा। पसीने का गर्म होना भी यह बताता है कि पशु को बुखार है।
  6. पशु की आँख की परत (झिली) को देख के बीमारी का पता लगाया जा सकता है। पशु में खून की कमी मे आँख की झिली का रंग फीका पड़ जाता है जैसे (theileriois, babesiosis) चिचड़ से होने वाली बीमारी का अन्देशा होता है। पशु की आँख का रंग पीला पड़ना पीलिया होने की सम्भावना जताता है। बैक्टीरियल इन्फेक्शन में यही झिली का रंग अधिक लाल हो जाता है।
  7. पशु के आँख, नाक व बच्चेदानी से रेशा या मवाद आना भी बीमारी होने के संकेत होते है। नाक से अधिक पानी, रेशा, बुखार होना व खांसी करना पशु में नीमोनिया होने के लक्षण होते है। बच्चेदानी से मवाद आना बच्चेदानी में इन्फेक्शन होने के लक्षण होते है ऐसे में न तो पशु दोबारा गर्मी में आता और साथ ही दूध उत्पादन में भी गिरावट आ जाती है इस अवस्था में पशु को अति तीव्र बुखार मिलेगा।
  8. पशु को उठने-बैठने में व पानी पीने के लिए झुकने में दर्द का अहसास होना भी बीमारी के लक्षण होते हैं।
  9. व्यवहारिक लक्षण- किसी पशु के व्यवहार में किसी भी तरह का बदलाव आना जैसे कि पशु का अति सक्रिय, सुस्ती या किसी अन्य असामान्य लक्षण जैसे कि अत्यधिक सिर हिलाने, खरोंच करना (मारना) या शरीर के कुछ हिस्सों का काटने भी बीमारी के लक्षण होते है।
  10. श्वसन की दर और जिस तरह से पशु साँस लेते हैं व भी बीमारी के बारे में बता सकते है। इसके अलावा दर्द या संक्रमण के साथ श्वास अधिक तेजी से हो जाता है।
  11. थोड़ा बढ़ा हुआ पल्स दर दर्द का सुझाव देती है, जबकि एक तेज पल्स से बुखार का पता चलता है। एक अनियमित पल्स दिल की समस्या का संकेत कर सकता है।
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स्वस्थ एवं रोगी पशु की पहचान

निम्न तालिका में स्वस्थ पशु तथा रोगी पशु के तुलनात्मक लक्षण  दिए जा रहे है –

 

स्वस्थ एवं रोगी पशु के तुलनात्मक लक्षण

क्र. स्वस्थ पशु रोगी (बीमार) पशु
1 सदैव सजग व सर्तक रहता है। इतना सतर्क नहीं होआ है, सुस्त रहता रहता है चमड़ी खुरदरी व बिना चमक की होती है।
2 चमड़ी चमकीली होती है इतना सतर्क नहीं होता है, सुस्त रहता है।
3 पीठ को छूने से चमड़ी थरथराती है। कोई भी चेतना नहीं होती।
4 सीधी तरह उठता – बैठता है। उठने बैठने में कठिनाई होता है।
5 आँखे चमकीली एवं साफ होती है। आंख में कीचड़ बहता है।
6 श्वांस (सांस) सामान्य गति से चलती है। श्वांस लेने में कठिनाई महसूस होती है।
7 गोबर व मूत्र का रंग एवं मात्रा सामान्य रहती है। गोबर एवं मूत्र का रंग सामान्य नहीं रहता है।
8 गोबर नरम और दुर्गंधरहित रहता है। गोबर पतला या कड़ा या गाठयुक्त एवं प्राय: दुर्गंध युक्त होता है।
9 नाक पर पानी की बूँदें जमा होती है। नाक पर पानी की बूंदे नहीं होता।
10 चारा सामान्य रूप से खाता है। चारा कम या बिलकूल नहीं खाता।
11 जुगाली क्रिया चबा – चबाकर करता है। जुगाली कम करता है या बिलकूल नहीं करता है।
12 मूत्र सहजता से होता है। मूत्र कठिनता से या रूक – रूक कर होता है।
13 पानी सदैव की भांति पीता है। पानी कम अथवा नहीं पीता है।
14 खुरों का आकार सामान्य होता है। खुरों का आकार बाधा होता है।
15 गर्भाशय में कोई खामी नहीं होती है। गर्भाशय में दोष होता है।
16 शरीर पर छूने से तापमान में कोई कमी नहीं पायी जाती है। छूने पर शरीर का तापमान ज्यादा  गर्म या ठंडा महसूस होता है।
17 थन और स्तन सामान्य होते है। थन और स्तन असामान्य होते है।
18 पशु अपने शरीर पर मक्खियाँ नहीं बैठने देता। शरीर पर मक्खियाँ बैठने पर पशु ध्यान नहीं देता है।
19 नाड़ी की गति सामान्य होती है। नाड़ी की गति मंद या तेज चलती है।

रोगी पशु की देखभाल

रोगी पशु की चिकित्सा में उनकी उचित देखभाल व रख – रखाव का विशेष महत्व होता है। बिना उचित रख रखाव व देखभाल के औषधि भी कारगर नहीं होती है। पशु के सही प्रकार के रख – रखाव एवं पौष्टिक चारा देने से उनमें रोग रोधक क्षमता का विकास होता है और पशु स्वस्थ रहता है। पशुओं के स्वस्थ रखने के लिए पशुपालकों को निम्नलिखित बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए।

क. सफाई तथा विश्राम व्यवस्था – पशु के रहने के स्थान, बिछावन, स्वच्छ हवा एवं गंदे पानी की निकासी तथा सूर्य के प्रकाश की अच्छी व्यवस्था हो। बीमार पशु को पूरा विश्राम दें तथा उसके शरीर पर खरहरा करें, जिससे गंदगी निकल सके।

ख. समुचित आहार (चारा व दाना) – बीमार पशु को चारा – दाना कम मात्रा में तथा कई किस्तों में दें। पेट ख़राब होने पर पतला आहार दे। आहार का तापक्रम भी पशु के तापमान से मिलता – जुलता हो। रोगी पशु को बुखार में ज्यादा प्रोटीन युक्त आहार न दे।

रोगी पशुओं का आदर्श आहार

क. भूसी का दलिया – गेहूं की भूसी को उबालने के पश्चात् ठंडा करके इसमें उचित मात्रा में नमक व शीरा मिलाकर पशु को दिया जा सकता है।

ख. अलसी व भूसी का दलिया – लगभग १ किलोग्राम अलसी को लगभग 2.5  (ढाई)  लिटर पानी में अच्छी तरह उबालकर व ठंडा करके उसमें थोड़ा  सा नमक मिलाकर पशु को देना चाहिए।

ग. जई का आटा – 1 किलो ग्राम जई के आटे को लगभग 1 लिटर पानी में १० मिनट तक उबालकर धीमी आंच में पकाकर इस दूध अथवा पानी मिलाकर पतला करके उसमें पर्याप्त मात्रा में नमक मिलाकर पशु को दिया जाता है। जई के आते के पानी में सानकर इसमें उबलता पानी पर्याप्त मत्रा में मिलाकर, जब ठंडा हो जाए तो उसे भी पशु को खिलाया जा सकता है।

घ. उबले जौ – 1 किलोग्राम जौ को लगभग 5 लिटर पानी में उबालकर उसमें भूसी मिलाकर पशु को खिलाया जा सकता है।

ङ. जौ का पानी – जौ का पानी में लगभग 2 घंटे उबालकर तथा छानकर जौ का पानी तैयार किया जाता है, यह पानी सुपाच्य एवं पौष्टिक होता है। इसके अतिरिक्त रोगी पशु को हरी बरसीम व रिजका का चारा तथा लाही या चावल का मांड आदि भी दिया जा सकता है।

 

पशु रोगों pashu ki bimari के कारण होता है।

उसका मुख्य कारण:-

  • अच्छी नस्ल के पशु न होना।
  • सही रखरखाव  और management का ना होना।
  • संतुलित पशु आहार की जानकारी ना होना।
  • गाँव में या आसपास अच्छे पशु चिकित्सक ना मिलना।
  • पशु रोगों के प्रति जानकारी का अभाव होना।और इन कारणों में सबसे ज्यादा नुकसान

क्यों की समय समय पर हम उनका उचित टीकाकरण नही करवा पाते है जिससे पशु में दूध घट जाता है। पशुओं में कही तरह के रोग होते है। और सभी रोगों के लक्षण भी अलग अलग तरीके के होते है। जिनकी पहचान करने के लिए हमें चिकित्सक की आवश्यकता होती है। लेकिन पशु मे बीमारी कोई भी हो यदि पशु पालक इन tips का ध्यान दे तो वो इतना पता तो कर ही सकता है की उसका पशु बीमार है।
आपकी गाय भैस आपको बोल कर तो नही बता पायेगी की उसको बुखार है या जुकाम या पेट दर्द लेकिन  यदि आप थोड़ी सी सतर्कता रखो तो आपको पता ज़रुर चल जायेगा की आपके पशु बीमार है।

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पशुपालक को पशुओं की इन हरकतों पर ज़रुर ध्यान रखना चाहिए।

  • बीमार पशु उदास दिखाई देने लगता है।
  • उसके कान सीधे तने हुए न हो कर लटक जाते है।
  • वो अन्य पशुओं के झुंड से अलग अलग या पीछे पीछे चलता है।
  • उसकी चंचलता में कमी आ जाती है।
  • उसके बालों की चमक खो जाती है ।
  • आँखो की हलचल कम हो जाती है उनकी चमक भी कम हो जाती है।
  • वह जुगाली कम कर देता है या फिर बंद कर देता है।
  • दुधारू पशु के दूध में अचानक कमी आ जाती है।
  • जल्दी थक जाता है और बैठ जाता है।
  • गोबर पतला या कड़ा (ठोस) करने लगता है।
  • उनके पेशाब में बदबू आने लगती है।
  • उसके खान पान में कमी आ जाती है।
  • पानी और चारा खाना छोड़ देता है।
  • उसकी सांसों की गति या तो ज्यादा या बहुत धीमी हो जाती है।
  • पशु के कान पकड़ने पर बहुत ठन्डे लगते है।
  • पशु के मुहँ से लार बहने लगती है
  • यदि पशु अपने सीगों को दीवार पे बार बार भडकता हे तो उसके सीगो में कीड़े पड़ने की सम्भावना होती है।
  • पशु दुबला होने लगता है। पशु के नथुने के आसपास पानी की छोटी छोटी बुँदे बनना बंद हो जाती है।

दुधारू पशुओं को समय समय कौन से टिके लगवाये?

दुधारू पशुओं के लिए टीकाकरण सारणी

दुधारू पशुओं के लिए टीकाकरण सारणी

क्रम संख्या

उम्र

टीका

1.

  • चार माह
  • 2-4 सप्ताह बाद
  • साल में दो या तीन बार (उच्च रोग ग्रस्त क्षेत्रों में)
मुँह व खुर रोग टीका- पहला डोज
मुँह व खुर रोग टीका- दूसरा डोज
मुँह व खुर रोग टीका- बूस्टर

2.

छह माह एन्थ्रैक्स टीका
ब्लैक क्वार्टर टीका

3.

छह माह बाद हेमोरेजिक सेप्टीकेमिया टीका

4.

वार्षिक बी.क्यू (BQ), एच.एस (H.S) व एन्थ्रैक्स

 

पशुओं के प्रमुख रोग

खुरपका मुंहपका रोग

यह मुख्यतः गाय, भैंस बकरी, भेड़ एवं शुकर जाति के पशुओं में होने वाल विषाणुजनित अत्यंत संक्रामक, छुतदार एवं अतिव्यापी रोग अहि। छोटी उम्र के पशुओं में यह रोग जानलेवा भी हो सकता है। संकर नस्ल के पशुओं में यह रोग अत्यंत तीव्रता से फैलता है। इस रोग का फैलाव पशुपालन को अत्यधिक आर्थिक हानि पहुंचता है। इस रोग से प्रभावित पशुओं में बुखार होने के बाद उनके मुँह व जीभ पर छाले पड़ जाते हैं, जिसके कारण पशु के मुँह से लार टपकता है और चारा आदि खाना बंद कर देता है। इस रोग पशु की मृत्यु तो नहीं होती, पंरतु दूध उत्पादन व पशु स्वास्थ्य पर बुरा असर होता है। इस रोग के रोकथाम के लिए वर्ष में एक बार टीका लगवाना जरुरी होता है, जो चमड़ी के नीचे या मांसपेशियों में लगाया जाता है।

 

गलाघोंटू

अन्य नाम: घुड़का, नाविक बुखार, घोंटूआ, गरगति, पास्चुरेल्लोंसिस इत्यादि। गलाघोंटू (हेमोरेजिक सेप्टीसीमिया) पश्चुरेला नाम जीवाणु से फैलने वाल एक प्राणघातक स्नर्क्रमं रोग है, हालाँकि यह रोग प्रायः सभी पशु प्रजातियों में होता है, परन्तु इसका अधिक प्रकिप गोवंश एवं भैंसवंश के पशुओं में रहते  है। इसके अलावा यह कभी-कभी ऊंट, बकरी, भेड़ इत्यादि में भी पाया जाता है। एक बार लक्षण प्रकट हो जाने पर लगभग 80-90% पशुओं की मृत्यु हो जाती है। मौसम में परिवर्तन और थकान से उत्पन्न तनाव के कारण पशुओं की प्रतिरोधात्मक क्षमता में कमी आने से इक रोग का प्रकोप तथा प्रसारण बढ़ जाती है। गर्मी एवं वर्ष ऋतु वाले वातावरण में होने वाली अधिक नमी के समय पशु इस रोग से ज्यादा प्रभावित होते हैं। इस रोग पशु का बुखार 104-107 डिग्री फैरनहाईट तक तक चला जाता है तथा निमोनिया होने के कारण पशु को साँस लेने में भी तकलीफ होने लगती है। इस रोग के प्रकोप से पशु के गले में सुजन हो जाने के कारण उसका साँस भी बंद हो जाता है तथा 24 घंटे के अंदर पशु की मृत्यु भी हो जाती है। इस रोग के बचाव के लिए पशु को वर्ष में दो बार टीका, अप्रैल-मई एवं अक्तूबर-नवम्बर के महीने में लगवाना जरुरी होता है, जो चमड़ी के नीचे लगाया जाता है।

 

बीमारी टीका डोज टीकाकरण
खुराक मुंहपका रोग टेटरावालेंट 10 मिली चमड़ी के नीचे ३ माह या कम के उम्र में
गलाघोंटू एलम 5 मिली चमड़ी के नीचे ६ माह के अंतराल में
संक्रमक गर्भपात कोटन -19 स्ट्रेन 5 मिली चमड़ी के नीचे ६-8 माह के उम्र
लंगड़ा बुखार एलम 5 मिली चमड़ी के नीचे ६ माह के अंतराल में

 

संक्रमक गर्भपात

गाय और भैंस में ब्रूसेलोसिस नामक जीवाणु से होने वाली यह बीमारी मनुष्यों को भी लग सकती है। इसका संक्रामण मनुष्यों में दूध एवं पशुश्रव के द्वारा होता है। इस बीमारी में पशु की प्रजनन क्षमता समाप्त हो जाती है तथा गर्भित पशु का 6-9 महीने के बीच गर्भपात हो जाता है। इस रोग के कारण पशु स्वस्थ बच्चा पैदा करने में अक्षम हो जाता है। इस रोग से बचाव के लिए 4-8 महीने तक की केवल मादा बाल पशु को टीका चमड़ी के नीचे  लगवाना चाहिए।

 

लंगड़ा बुखार

अन्य नाम: जहरवाद, काला बुखार आदि। यह मुख्यतः गाय भैसों में पाया जाने वाल जिवाणु विष जनित रोग है, जिसमें भारी भरकम शरीर वाले पशु के कंधे या पुट्ठे की मांसपेशियों में गैस भरी सुजन होती है,  जिसके कारण पशु लंगड़ाने लगते हैं। गिअस भरी सुजन वाली जगह को दबाने पर चरचराहट की आवाज आती है। तेज बुखार तथा सेप्टीसीमिया से स्फू की मौत भी हो जाती अहि। यह ओर्ग गोवंश के पशुओं में अधिक होता है लेकिन यह छूत का रोग नहीं है। रोग का विशिष्ट कारण क्लोस्ट्रीडियम सेवियाई नमक जीवाणु है। लंगड़ा बुखार समान्यतः कम आयु के गोवंशीय पशुओं का रोग है। वर्षा ऋतु में  इस रोग का प्रकोप अधिक होता है तथा इसमें मृत्यु दर बहुत अधिक होती है। इस रोग से बचाव के लिए साल में एक बार बरसात से पहले छोटे व बड़े पशुओं को चमड़ी के नीचे अवश्य लगवाना चाहिए।

उपरोक्त सभी संक्रामक रोग बरसात के दिनों में अधिक फैलते है, इसलिए किसान भाइयों को यह सलाह दी जाती है कि अपने पशु में टीकाकरण मानसून आने से पहले अवश्य करवा लें। यह रहे कि इन रोगों से न केवल किसान भाइयों का नुकसान होता है बल्कि हमारे देश को भी आर्थिक क्षति होती है।

 

स्वास्थ्य तथा लाभदायक डेयरी फार्मिंग हेतु पशुपालकों को महत्वपूर्ण सुझाव से संबंधित विशेष जानकारी के लिए आप निम्नलिखित पुस्तकों को पीडीएफ में डाउनलोड कर सकते हैं:

 

उत्तम पशुधन प्रबंधन कैसे करें

 

बीमार पशु की देखभाल

 

डॉ जितेंद्र सिंह
पशुचिकित्सा अधिकारी
कानपुर देहात, उत्तर प्रदेश

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