पशुओं में होने वाले प्रमुख संक्रामक रोग एवं उनका बचाव

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पशुओं में होने वाले प्रमुख संक्रामक रोग एवं उनका बचाव
पशुओं में होने वाले प्रमुख संक्रामक रोग एवं उनका बचाव

पशुओं में होने वाले प्रमुख संक्रामक रोग एवं उनका बचाव
विक्रम सिंह देवल एवं तनुजा परमार
सह-आर्चाय,
अरावली पषुचिकित्सा महाविधालय, सीकर

Email – vikramdewal21@gmail.com

दुधारू पषुओं में अनेक प्रकार के रोग होने की संभावनाएं निरंतर बनी रहती है। ये रोग संक्रामक तथा असंक्रामक प्रकार के हो सकते हैं। संक्रामक रोग विभिन्न प्रकार के जीवाणुओं, विषाणुओं, परजीवियों तथा फफूंद या कवक जनित हो सकते हैं। संक्रामक रोगों में कुछ रोग ऐसे होते हैं जिनका कोई उपचार नहीं होता, ऐसी स्थिति में उस रोग से बचाव ही एक मात्र रास्ता रहता है। संक्रामक रोगों से पीड़ित पषुओं की चिकित्सा भी पषुपालक पर अतिरिक्त वित्तिय बोझ डालता है। जिससे पषुपालकों को आर्थिक हानि उठानी पड़ती है। संक्रामक रोगों की रोकथाम के लिए आवष्यक है कि पषुओं में समय-समय पर रोग रोधक टीके लगवाये जायें। यहां पर कुछ प्रमुख संक्रामक रोग तथा उनसे बचाव के उपायों का उल्लेख किया जा रहा है।
1. खुरपका-मुंहपका रोगः- यह एक विषाणु जनित रोग है जो कि मुख्यतः गाय, भैंस, बकरी एवं सूकर जाति के पषुओं में होता है। यह एक अत्यंत संक्रामक छूतदार एवं अतिव्यापी रोग है। छोटे पषुओं में यह रोग जानलेवा होता है। बड़े पषुओं में इस रोग से मृत्युदर तो कम रहती है लेकिन दुधारू पषुओं का दुग्ध उत्पादन बहुत कम हो जाता है। इस रोग का फैलाव पषुपालकों को अत्यधिक आर्थिक हानि पहुंचाता है। यह रोग संक्रमित पषु के स्त्रावों जैसे लार, मल-मूत्र आदि से फैलता है। इस रोग में शरीर का तापमान अधिक हो जाता है तथा पषु के मुख गुहा तथा पैरों पर खुरों के बीच छाले हो जाते है। ये छाले थनों तक भी फैल जाते हैं। इससे पषुओं में दूध निकालने में परेषानी आती है। यह रोग मुख्यतः विदेषी नस्ल तथा संकर नस्ल के पषुओं में अधिक घातक होता है। पषु हांफने लगता है तथा दूध उत्पादन में एकदम से कमी आ जाती है। इस रोग से प्रभावित पषुओं के मुख तथा खुर के घावों को प्रतिदिन फिटकरी या लाल दवा के हल्के घोल से साफ करना चाहिए। पैरों के घावों में कीड़े पड़ने पर उन पर फिनाइल व मीठे तेल की बराबर मात्रा में मिलाकर उपयोग करें अथवा तारपीन का तेल लगावें। उपरोक्त उपलब्ध न होने पर नीम के पत्ते उबालकर ठंडे किये पानी से भी जख्मों को साफ किया जा सकता है। इस रोग में पषु की रोग-प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। अतः अन्य रोगों से बचाने के लिए पषुचिकित्स की सलाह से उपचार करावें।
रोकथाम एवं बचावः- पषुओं में वर्ष में दो बार टीकाकरण करवायें। संक्रमित पषुओं को स्वस्थ पषुओं से अलग रखना चाहिए तथा चारे पानी व बांटे की व्यवस्था भी अलग करनी चाहिए। रोगी पषुओं को पोखर, तालाब व पषु खेली आदि में पानी न पीने देवें। पषुषाला में साफ सफाई का विषेष ध्यान देना चाहिए। रोग फैलने की सूचना तुरंत नजदीकी पषुचिकित्सालय में देनी चाहिए।
2. गलघोंटू रोगः- यह एक जीवाणुजनित रोग है जो कि मुख्यतया गाय, भैंस, भेड, बकरी व सूकर प्रजाती के पषुओं में होता है। यह रोग उन पषुओं में अधिक होता है जो नमीयुक्त वातावरणमें रहते हैं इसलिए बरसात के दिनों में इस रोग के होने की संभावना अधिक होती है। अधिक कार्य करने तथा लम्बी दूरी की यात्रा करने वाले पषुओं में भी इसके होने की संभावनाएं अधिक होती है। यह रोग दूषित चारे दाने व पानी के सेवन से फैलता है। इस रोग के प्रमुख लक्षणों में तेज बुखार, श्लेष्मा झिल्लियों का लाल होना, आंख, नाक व मुंह से स्त्राव, गर्दन, सिर व आगे की दोनों टांगों के बीच सूजन होना है। रोगी पषु में सांस लेने में तकलीफ होती है तथा घुर्र-घुर्र की आवाज की आती है और दम घुटने की वजह से पषु की मृत्यु हो जाती है।
रोग का बचाव एवं उपचारः- प्रतिवर्ष मानसून से पूर्व इस रोग का टीका लगवाना चाहिए। रोग के लक्षण दिखने पर पषु का तुरंत उपचार कराना चाहिए, अन्यथा पषु की मृत्यु हो सकती है। रोगी पषु को स्वस्थ पषुओं से अलग रखना चाहिए। बीमारी से मृत पषु के शव का निस्तारण वैज्ञानिक तरीके से गहरा गड्ढा खोदकर नमक या चूना डालकर अथवा जलाकर करें।
3. लंगड़ा बुखार रोगः- यह जीवाणु जनित रोग मुख्यतः गाय, भैंस में ज्यादा पाया जाता है। इसे काला बुखार तथा ब्लैक लेग आदि नामों से भी जाना जाता है। वर्षा ऋतु में इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। यह रोग मिट्टी द्वारा फैलता है। इस रोग के जीवाणु संक्रमित प्राणियों के मल द्वारा या उसकी मृत्यु होने पर उसके शव द्वारा मिट्टी में पहुंचते हैं। जीवाणु दूषित चारागाह में चरने वाले पषु के आहार के साथ के शरीर में प्रवेष कर जाता है। इसके अलावा शरीर पर मौजूद घाव के जरिये भी इसका संक्रमण होता है। इसमें पषु के कंधे व पुट्ठे की मांसपेषियों में गैसभरी सूजन हो जाती है जिससे पषु लंगड़ाकर चलने लगता है। सूजन वाले भाग को दबाने पर चर-चराहट की आवाज आती है। तेज बुखार व सेप्टीसिमिया के कारण पषु की मौत हो सकती है।
रोग का बचाव एवं उपचारः- रोग के लक्षण दिखाई देने पर पषुचिकित्सक से उपचार कराना चाहिए। इस रोग की रोकथाम के लिए मानसून से पहले टीकाकरण कराना चाहिए। पषु के शव का निस्तारण वैज्ञानिक तरीके से गहरा गड्ढा खोदकर नमक या चूना डालकर अथवा जलाकर करें। सूजन वाली जगह पर चीरा नहीं लगाना चाहिए क्योंकि खुले घाव से जीवाणु बाहर निकलकर वातावरण में संक्रमण फैलाते हैं।
4. ब्रुसेल्लोसिस (संक्रामक गर्भपात)ः- यह जीवाणु जनित रोग मुख्यतः मादा प्राणियों को प्रभावित करता है। इस रोग का फैलाव संक्रमित चारा, दाना, पानी व दूध से, बच्चेदानी तथा योनि के स्त्राव से तथा संक्रमित नर द्वारा प्राकृतिक परिसेवा द्वारा होता है। इस रोग का प्रमुख लक्षण पषु द्वारा समय से पूर्व गर्भपात, जो कि अधिकांषतया अंतिम तिमाही में होता है। इस रोग के होने पर गर्भपात के पष्चात् समय पर जेर न गिरना तथा तेज बुखार होना आम समस्याएं हैं। नर पषुओं में बुखार, जोड़ों का रोग व वृषणकोष में सूजन आदि मुख्य लक्षण पाये जाते हैं। यह रोग मनुष्यों में भी पषुओं से फैलता है। अतः इस रोग में बचाव का विषेष ध्यान रखना चाहिए।
रोग का बचाव एवं उपचारः- इस रोग से बचाव हेतु 6 से 12 माह की आयु में बछियों में कॉटन स्ट्रेन-19 नामक टीके का उपयोग करना चाहिए। गर्भपात के समय हुए स्त्रावों, मृत बछड़ों व जेर से इस रोग का प्रसार होता है, अतः इन पदार्थों को विषेष सावधानी से गड्ढा खोदकर गाड़ देना चाहिए। रोगी पषुओं को स्वस्थ पषुओं से अलग रखना चाहिए। जेर आदि समय पर न गिरने या पषु द्वारा उपरोक्त लक्षण प्रदर्षित करने पर तुरन्त पषुचिकित्सक को दिखाना चाहिए।
5. फिड़किया रोग (ET)ः- भेड़-बकरियों में होने वाली यह प्रमुख जीवाणु जनित बीमारी है। यह बीमारी हर उम्र की भेड़-बकरियों में हो सकती है तथा मुख्यतः जुलाई से अगस्त माह में होती है। यह रोग अधिक प्रोटीन युक्त खुराक लेने अथवा ताजी फसल कटे हुए खेत में चरने से अधिक होती है। स्वस्थ पषु इस रोग की चपेट में जल्दी आते हैं। इस रोग में प्रभावित पषु की मृत्यु दर बहुत अधिक होती है। यह रोग 3-10 सप्ताह की उम्र के मेमनों में अधिक होता है। इसके प्रमुख लक्षण तीव्र पेट दर्द, मांसपेषियों में खिंचाव, दस्त, पषु का जल्दी-जल्दी सांस लेना तथा टांगे व सिर का छटपटाना है। इसमें रेवड़ का सबसे स्वस्थ मेमना सबसे पहले प्रभावित होता है। इन लक्षणों के प्रकट होते ही कुछ ही समय में पषु की अचानक मृत्यु हो जाती है।
रोग का बचाव एवं उपचारः- पषुओं अधिक प्रोटीन युक्त चारा कम मात्रा में खिलाना चाहिए। इस रोग से बचाने के लिए भेड़-बकरियों में वर्ष में दो बार टीकाकरण करवाना चाहिए। यह टीके प्रसव के 2 से 4 सप्ताह पहले लगाने से मादा के साथ-साथ नवजात में भी रोग से बचाव की शक्ति आ जाती है। ताजी फसल कटे खेतों में पषुओं को कम चराना चाहिए और अधिक चारा/खाद्य पदार्थ खाने से रोकना चाहिए। पषु बाड़े को साफ-सुथरा रखना चाहिए तथा बीमार पषु को स्वस्थ पषुओं से अलग रखना चाहिए।
6. रेबीज (हिड़काव)ः- यह समस्त पालतु पषुओं व मनुष्यों में पाया जाने वाला एक विषाणु जनित रोग है। यह अत्यंत घातक संक्रामक लाईलाज जानलेवा रोग है जो मुख्यतः पागल कुत्ते के काटने से फैलता है। यह रोग शरीर के तंत्रिका तंत्र पर प्रभाव डालता है। इस रोग का फैलाव रोगी पषु की लार से स्वस्थ पषु को काटने पर होता है। चमगादड़ तथा जंगली जानवर जैसे भेड़िया, लोमड़ी आदि के काटने पर भी इस रोग का प्रसार होता है। इस रोग के मुख्य लक्षणों में प्रभावित पषु के मुंह से अत्यधिक लार गिरना, निचले जबड़े का लटकर जीभ का बाहर निकल जाना, अवांछित वस्तुओं को काटने की चेष्टा करना, पषु के खाने की नली का लकवाग्रस्त होना तथा शरीर के विभिन्न अंगों में लकवा होना तथा व अंततः पषु की मृत्यु हो जाना है।
रोग का बचाव एवं उपचारः- पागल पषु के काटने के तुरंत बाद कटे हुए घाव को साबुन से अच्छी तरह धोना चाहिए तथा जहां तक संभव हो उस पर टांके नहीं लगाने चाहिए। कटे हुए भाग पर पोटेषियम परमेगनेट या अन्य ऐन्टीसेप्टिक लगानी चाहिए। पागल कुत्तों को एकांत स्थान पर बांध देना चाहिए तथा कम से कम 10-15 दिन नजर रखनी चाहिए। पालतू कुत्तों को प्रतिवर्ष रेबीज के टीके लगाने चाहिए। एक बार लक्षण प्रकट हो जाये तो इस रोग का इलाज असंभव है। अतः आवारा कुत्तों की संख्या कम करें एवं पालतू पषुओं को उनके संपर्क में न आने दें।
7. सर्रा रोग (तिबरसा)ः- रक्त परजीवी द्वारा होने वाला यह एक घातक रोग है जो मुख्यतः ऊंटो, गाय, भैंस, घोड़ो तथा कुत्तों में पाया जाता है। यह रोग अधिकांषतः मानसून और उसके बाद होता है। इस रोग का संचरण कीटों, मक्ख्यिं, मच्छर आदि से होता है जैसे घुड़षाला की मक्ख्यि, टेबेनस इत्यादि। इस रोग का प्रमुख लक्षण पषुओं में एक अन्तराल से ज्वर, खून की कमी, आंखों का लाल होना, पीलिया, लिम्फ ग्रंथियों और शरीर के भागों पर सूजन आना प्रमुख है। इस रोग में रोगी पषु की हालत में लगातार गिरावट होती है तथा पषु को दस्त लगते हैं।
रोग का बचाव एवं उपचारः- इस रोग का बचाव कीटों का नियंत्रण करके किया जा सकता है। जानवरों को बांधन के स्थान को मक्खियों से मुक्त रखना चाहिए। जिस पषु में यह लक्षण दिखाई दे उसके रक्त के प्रयोगषाला में परीक्षण कराना चाहिए तथा रोग की पुष्टि होने पर पषुचिकित्सक से उपचार कराना चाहिए।
8. टिटेनसः- यह एक जीवाणुजनित रोग है जो मुख्यतः सभी पालतू जानवरों में होता है यह रोग मुख्यतः अष्व वंष को अधिक प्रभावित करता है। इस रोग के जीवाणु शरीर के घावों द्वारा शरीर में प्रवेष करते हैं। जो घाव ऊपर से बंद हो जाते हैं उन में इस जीवाणुओं का विष अत्यधिक फैलता है। बधियाकरण, नाभि में संक्रमण, पूंछ काटना तथा ऊन काटते समय घावों द्वारा भी इस रोग के जीवाणुओं का संचरण हो सकता है। इस रोग के प्रमुख लक्षणों में प्रभावित पषु की गर्दन व पैर अकड़ जाते हैं, पषु की आंख की तृतीय झिल्ली में पक्षाघात उत्पन्न हो जाता है तथा चेहरे व उदर की मांसपेषियों में अकड़न आ जाती है। पषु के मुंह से निरंतर लार गिरती रहती है।
रोग का बचाव एवं उपचारः- पषुओं को लोहे की चोटों से व अन्य चोटों से बचाना चाहिए। अगर कील व अन्य किसी वस्तु से हुए घाव को हाइड्रोजन परोक्साइड के घोल से धोना चाहिए। रोग की प्रारम्भिक अवस्था में इसका उपचार कराना चाहिए। पषुओं को टिटेनस के टीके लगवाने चाहिए।

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