गौ आधारित  संस्कृति  एवं अर्थव्यवस्था

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गौ आधारित  संस्कृति  एवं अर्थव्यवस्था
डाॅ. उपासना चंद्राकर, डाॅ. क्रंाति शर्मा, डाॅ मुकेश शर्मा, डाॅ. श्रद्धा नेटी
दाऊ श्री वासुदेव चंद्राकऱ कामधेनु विश्वविद्यालय, अंजोरा, दुर्ग (छ.ग.)

भारतीय संस्कृति में गौ को परम सात्विक जीव माना गया है। इसे माॅं का दर्जा दिया गया हैं। समुद्र मंथन के दौरान निकले 14 रत्नो में से एक कामधेनु गाय भी थी। जिसे भगवान श्री कृष्ण अपना स्वरूप बताते है। गौपालन वैदिक समाज एवं संस्कृति का केन्द्रीय तत्व था। गौमाता का दुग्ध, दही, घृत, गोबर एवं गेामूत्र से तैयार पंचगव्य को साधना एवं औषधि के एक प्रमुख घटक के रूप में प्रयोग किया जाता था, जिसका चलन आज भी जारी है। ग्रामीण जीवन का तो यह आधारस्तंभ भी है। शारीरिक स्वास्थ्य एवं निरोगिता में गोदुग्ध, घृत एवं दही के सेवन का महत्व सर्वविदित है। गाय के गोबर में परमाणु विकिरणों तक को निरस्त करने की क्षमता को वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित किया जा चुका है। गोमूत्र औषधीय गुणो से भरा हुआ है। ऐसे ही गौ का संग सानिध्य एवं इसके उत्पादो का सेवन मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से व्यक्ति का कायाकल्प करने वाला पाया गया है। गोपालन पर आधारित संस्कृति के माध्यम से परिवार एवं सामाज में सात्विक भावों का प्रसार, आज के वैचारिक प्रदूषण से दूषित होते युग में एक बहुत बड़ा कार्य है। साथ ही गौ-उत्पाद आर्थिक स्वावलंबन के सुदृढ़ आधार हो सकते है। शोध के आधार पर जैविक कृषि की सर्वांगिण सफलता देशी नस्ल की गाय पर केन्द्रित मानी जा रही है, जिसमें गाय के गोबर से लेकर गोमूत्र का बहुतायत में उपयोग किया जाता है। इन सब लाभो के आधार पर ग्रामीण जीवन के उत्थान से जुड़े कार्यक्रमो की केन्द्रीय धूरी के रूप में गोपालन की उपयोगिता स्वयंसिद्ध है, लेकिन देश में इसकी वर्तमान स्थ्तिि बहुत संतोषजनक नही है।
आज भी व्यापक स्तर पर गोपालन उपेक्षा का शिकार है। शहरो में अवारा पशु के रूप में जहाॅं-तहाॅ इसे टहलते देखा जा सकता है। कुछ अज्ञानतावश तो कुछ व्यक्ति की अदूरदर्शिता एवं लोभवृत्ति के कारण गोपालन में विकृति आ चली है। गाय से अधिक से अधिक दूध एवं लाभ लेने की वृत्ति के चलते पारंपरिक रूप से उपलब्ध देसी गायों की उपेक्षा हो रही है तथा कुछ नस्ले तो विलुप्त के कगार पर है।
इनके स्थान पर ऐसी नस्लो की गायों के पालन का चलन बढ़ चला है, जिनसे अधिक दूध एवं तात्कालिक आर्थिक लाभ मिलता हो, लेकिन दूरगामी दृष्टि से इनसे लाभ की तुलना में हानि अधिक हो रही है। न इसके दुग्ध में वो स्वास्थ्यवर्धक गुण रहते है, न ही सात्विकता का भाव, जिस कारण इसका स्वास्थ्यवर्धक एवं आध्यात्मिक महत्व माना जा रहा है। इस परिस्थिति में शुद्ध देशी नस्लों के गोधन के संवर्द्धन एवं प्रसार की आवश्यकता है। आवश्कयता हर घर में गोपालन तथा हर ग्राम में गोशालाओं की स्थापना की है। तथा इनको सवंर्द्धित करने की है, जिससे स्वावलंबी ग्रामीण जीवन का सपना साकार हो सके।
गाय के दूध, दही, घी, गोमूत्र और गोबर के पानी को सामूहिक रूप से पंचगव्य कहा जाता है। आयुर्वेद में इसे औषधि की मान्यता है। पंचगव्य द्वारा शरीर में रोगनिरोधक क्षमता को बढ़ाकर रोगो से दूर किया जाता है। गौमूत्र में प्रति आॅक्सीकरण की क्षमता के कारण डी.एन.ए. को नष्ट होने से बचाया जा सकता है। गाय के गोबर का चर्म रोगो में उपचारीय महत्व सर्वविदित है। दही एवं घी के पोषण मान की उच्चता से सभी परिचित है। दूध का प्रयोग विभिन्न प्रकार से भारतीय संस्कृति में पुरातन काल से होता आ रहा है। घी का प्रयोग शरीर की क्षमता को बढ़ाने एवं मानसिक विकास के लिये किया जाता है। दही में सुपाच्य, प्रोटीन एवं लाभकारी जीवाणु होते है जो क्षुधा को बढ़ाने में सहायक करते है। पंचगव्य का निर्माण देशी मुक्त वन विचिरण करने वाली गायो से प्राप्त उत्पादो द्वारा ही करना चाहिए। आयुर्वेद में पंचगव्य से केंसर जैसे भयानक रोग तक का निदाय किया जाता है।

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सूर्य नाड़ी वाली गायें ही पंचगव्य के निर्माण के लिये उपर्युक्त होती है। देशी गाय इसी श्रेणी में आते है। इनके उत्पादो में मानव के लिये जरूरी सभी तत्व पाये जाते है। महर्षि चरक के अनुसार गौमूत्र कटु तीक्ष्ण एवं कषाय होता है, इसके गुणो में उष्णता, रास्ययुक्ता, अग्निदीपक प्रमुख है। गौमूत्र में नाइट्रोजन, सल्फर, अमोनिया, काॅपर, लौह तत्व, यूरिक एसिड, यूरिया , फाॅस्फेट , सोडियम, पोटेसियम,, मैग्निज, कार्बोलिक एसिड, विटामिन बी, विटामिन डी, विटामिन ए, विटामिन ई मुख्य रूप से पाये जाते है।
भारत में गाय के गोबर का उपयोग कृषि में एक सह-उत्पाद के रूप में भी किया जाता है, जैसे की खाद्य, जैव उर्वरक, जैव कीटनाशक, कीटनाशक और उर्जा के स्त्रोत के रूप में। आयुर्वेद के अनुसार यह प्रकृति के सभी अपशिष्टो के शोधक के रूप में भी कार्य कर सकता है। इसलिये भारत में गाय न केवल दुग्ध उत्पादक पशु है बल्कि सही मायने में गोमाता और कामधेनु भी मानी जाती हैं।
गोबर भारत में बायोगैस या गोबर गैस उत्पादन का एक प्रमुख स्त्रोत है। भारत में 2019 पशुधन संगणना के अनुसार मादा गायों की कुल आबादी 145.12 मिलियन है, जिसमें से 142.11 मिलियन देशी नस्ल है जबकि 50.42 मिलियन संकर नस्ल है। प्रतिदिन 3-5 मवेशियों से उत्पन्न गाय का गोबर एक साधारण 8-10 मी3 बायोगैस संयंत्र चलाता है जो प्रतिदिन 1.5-2 मी3 बायोगैस का उत्पादन करने में सक्षम है जो 6-8 व्यक्तियों के परिवार के लिये पर्याप्त है जो 2-3 बार भोजन पका सकता है या पुरे दिन के लिये रेफ्रिजरेटर चला सकता है और एक घंटे के लिये 3 किलोवाॅट मोटर जनरेटर भी संचालित कर सकता है।
संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (एफ.ए.ओ.) के अनुसार इस ग्रह पर पशु अपशिष्ट लगभग 55 से 65 प्रतिशत मीथेन पैदा करता है, जो वातावरण में रिलीज होने पर कार्बनडाइ आॅक्साइड की दर से 21 गुना अधिक ग्लोबल वार्मिंग को प्रभावित कर सकता है। बायोगैस मेथोजेनिक बैक्टीरिया से कार्बोनिक पदार्थो के अवायवीय क्रिण्वन द्वारा उत्पन्न विभिन्न गैसो का मिश्रण मुख्य रूप से मीथेन (50-65ः) और कार्बनडाइ आॅक्साइड (25-45ः) का गठन करता है।
24-26 डिग्री सेन्टीग्रेड के परिवेश के तापमान पर समान मात्रा में पानी के साथ मिश्रित होने पर एक किलो गाय की खाद्य 35-40 लीटर बायोगैस का उत्पादन कर सकती है। हरे बैैक्टीरिया जैसे स्यूडोमोनास प्रजाति, एजोटोबैक्टर प्रजाति और अन्य बैगनी सल्फर या बैगनी गैर सल्फर बैक्टीरिया गाय के गोबर में मौजूद अन्य प्रकाश संश्लेषक बैक्टीरिया की तुलना में मीथेन गैस की अधिकतम मात्रा का उत्पादन करने के लिये जाने जाते है। गाय का गोबर अलग-अलग गुणों में भिन्न-भिन्न प्रकार के सूक्ष्मजीवों की मेजबानी करता है।
गाय का गोबर माइक्रोफ्लोरा का दोहन स्थायी कृषि और उर्जा आवश्यकताओं में महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है। यह दुनिया के जैव स्त्रोतो मे से एक है जो बड़े़ पैमाने पर उपलब्ध है और अभी भी पूरी तरह से उपयोग नही किया गया है। गोबर को आसानी से उपलब्ध जैव संसाधन के रूप में माना जा सकता है जो निकट भविष्य में सतत विकास के लिये अधिक क्षमता रखता है।

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देशी गोवंश

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