गौ-आधारित प्राकृतिक खेती
डा0 अमित बरनवाल’, डा0 नवीन कुमार सिंह’’, डा0 यतेन्द्र कुमार’’’, डा0 रूचि बरनवाल £
‘विषय वस्तु विशेषज्ञ पशुचिकित्सा एवं पशुपालन कृषि विज्ञान केन्द्र प्रतापगढ़ उ0प्र0
’’ विषय वस्तु विशेषज्ञ शस्य, कृषि विज्ञान केन्द्र प्रतापगढ़ उ0प्र0
’’’ कार्यक्रम सहायक मृदा, कृषि विज्ञान केन्द्र प्रतापगढ़ उ0प्र0
£ सहायक अध्यापिका (संस्कृत) राजकीय हाईस्कूल, कोट, फतेहपुर उ0प्र0
भारतीय संस्कृति में आदिकाल से ही कृषि में गौ उत्पादों जैसे गोबर और गौमूत्र का प्रयोग होता रहा है ऋग्वेद में कहा गया है- ‘‘गावो विश्वस्य मातरः‘‘ अर्थात गाय विश्व की माता है और यह विश्व का पोषण करने वाली है। विष्णु पुराण में कहा गया है- ‘‘सर्वेषामेव भूताना गावः शरणमुत्तमम्‘‘ अर्थात सभी प्राणियों के लिए सर्वोत्तम आश्रय है। भारत की समयांतर में कृषि पद्धति में अत्यधिक परिवर्तन हुआ है। भारत की लगातार बढ़ती जनसंख्या के कारण उत्पादन क्षमता बढ़ाने के दबाव में अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों, हानिकारक कीटनाशकों एवं अधिकाधिक भूजल उपयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति, उत्पादन, भूजल स्तर और मानव स्वास्थ्य में निरंतर गिरावट आई है।
किसान बढ़ती लागत एवं बाजार पर निर्भरता के कारण खेती छोड़ रहे हैं और आत्महत्या तक करने पर मजबूर हो रहे हैं। वर्मी कंपोस्ट, कंपोस्ट बायोडायनामिक का निर्माण एवं प्रयोग भी जटिल होने के कारण अन्ततः किसान को बाजार पर ही निर्भर बनाती है। वर्तमान समय में ऐसे कृषि पद्धति की आवश्यकता बनती है जिसमें लागत कम हो, उपज अधिक हो, उत्पन्न खाद्यान्न की गुणवत्ता उच्च कोटि की हो, मानव स्वास्थ अच्छा बना रहे एवं पर्यावरण भी समृद्ध बना रहे। गौ-आधारित प्राकृतिक खेती में खेत के लिए बाजार से कुछ भी नहीं खरीदना अपितु कृषक के पास उपलब्ध संसाधनों द्वारा देसी गाय आधारित कृषि पर बल देना है। इसलिए इस प्रकार की खेती का नामकरण शून्य लागत प्राकृतिक खेती भी है।
ध्यान देने योग्य बातें
ऽ प्राकृतिक कृषि में देशी बीज ही प्रयोग करें। हाइब्रिड बीजों से अच्छे परिणाम नहीं मिलेंगे।
ऽ प्राकृतिक कृषि में भारतीय नस्ल का देसी गोवंश ही उपयोग करें। जर्सी या होलस्टीन आदि हानिकारक है।
ऽ पौधों व फसल की पंक्ति की दिशा उत्तर-दक्षिण हो। दलहन फसलों की सह फसलें करनी चाहिए।
ऽ यदि किसी दूसरे स्थान पर बनाकर खाद (कंपोस्ट) लाकर खेतों में डाला जाएगा तो, मिट्टी में पाए जाने वाले सूक्ष्म जीवाणु निष्क्रिय हो जाएंगे। पौधों का भोजन जड़ के निकट ही बनना चाहिए तब भोजन लेने के लिए जड़े दूर तक जाएंगी और लंबी व मजबूत बनेगी परिणामस्वरूप पौधा भी लंबा और मजबूत बनेगा।
प्राकृतिक खेती का सिद्धान्त
प्रकृति में सभी जीव एवं वनस्पतियों के भोजन की एक स्वावलंबी व्यवस्था है, जिसका प्रमाण है बिना किसी मानवीय सहायता (खाद, कीटनाशक आदि) के जंगलों में खड़े हरे-भरे पेड़ व उनके उनके साथ रहने वाले लाखों जीव जंतु।
पौधों के पोषण के लिए आवश्यक सभी 16 तत्व प्रकृति में उपलब्ध रहते हैं, उन्हें पौधे के भोजन रूप में बदलने का कार्य मिट्टी में पाए जाने वाले करोड़ों सूक्ष्म जीवाणु करते हैं। इस पद्धति में पौधों को भोजन ना देकर भोजन बनाने वाले सूक्ष्म जीवाणु की उपलब्धता पर जोर दिया जाता है (जीवामृत, घन जीवामृत द्वारा)।
पौधों के पोषण की प्राकृतिक में चक्रीय व्यवस्था है। पौधा अपने पोषण के लिए मिट्टी से सभी तत्व लेता है। फसल के पकने के बाद कास्ठ पदार्थ (कूड़ा-करकट) के रूप में मिट्टी में मिलकर, अपघटित हो कर मिट्टी को उर्वरा शक्ति के रूप में लौटाता है।
वस्तुतः प्राकृतिक खेती का मूल सिद्धांत यह है कि जल, वायु एवं भूमि खेती के लिए आवश्यक सभी पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। यह प्राकृतिक खेती अनुकूल स्थानीय परिस्थितकी का निर्माण कर आवश्यक पोषक तत्वों की उपलब्धता सुनिश्चित करती है साथ ही साथ मित्र कीट-पतंगों की संख्या में वृद्धि द्वारा फसलों को कीट-पतंगों एवं बीमारियों से सुरक्षा करती है।
इसे मुख्यतः 4 विन्दुओं में परिभाषित कर सकते है।
1. बहुफसली पद्धति-फसल चक्र
उचित मिश्रित फसलों को लेने पर फसलों की जड़े सह-अस्तित्व के आधार पर रोगों एवं कीटों से बचाव तथा प्राकृतिक संसाधनों (नाइट्रोजन, प्रकाश, जल, क्षेत्र आदि) का बंटवारा कर लेती है। एक दलीय के साथ द्वि-दलीय, दलहन के साथ अनाज व तिलहन, गन्ना के साथ प्याज एवं सब्जियां, पेड़ों की छाया में हल्दी, अदरक, अरबी जैसे प्रयोगों से भूमि को नाइट्रोजन स्वतः प्राप्त हो जाता है।
2. बेड व नाली व्यवस्था द्वारा जल की बचत
वर्षा जल संग्रहण के खेतों में मेड़ें और नालियां बनाई जाती हैं जिससे लंबे समय तक खेत में नमी बरकरार रहे अति बृष्टि में यह नालियां और मेड़ें जल निकासी में मदद करती हैं।
3. देशी केचुओं का कृषि में महत्व
केंचुआ मिट्टी, बालू, पत्थर (कच्चा व चूना) खाता हुआ 15 फुट गहराई तक नीचे जाता है। नीचे से पोषक तत्वों को ऊपर लाता है तथा पौधे की जड़ के पास अपनी विष्टा के रूप में छोड़ता है जिसमें सभी आवश्यक तत्वों का भंडार होता है। केंचुआ जिस छेद से नीचे जाता है कभी उससे ऊपर नहीं आता है। भूमि में दिन-रात करोड़ों छिद्र कर भूमि की जुताई कर मुलायम बनाता है इन्ही छिद्रां से पूरा वर्षा जल भूमि में संग्रहित होता है।
4. देशी गाय का कृषि में महत्व
एक ग्राम देशी गाय के गोबर में 300-500 करोड़ उपरोक्त सूक्ष्म जीवाणु पाये जाते हैं। गाय के गोबर में गुड़ एवं अन्य पदार्थ डालकर किण्वन संग सूक्ष्म जीवाणु बढ़ा कर तैयार किया गया जीवामृत/घनजीवामृत जब खेत में पड़ता है, तो करोड़ों सूक्ष्म जीवाणु भूमि में उपलब्ध तत्वों से पौधों का भोजन निर्माण करते हैं।
गौ-आधारित प्राकृतिक खेती के प्रयोग
1. बीजामृत (बीज शोधन)
देसी गाय के गोबर, मूत्र एवं बुझा चूना आधारित मिश्रण का बीज एवं पौध जड़ों पर लेपन, पौधों के बीज और भूमि जनित रोगों से सुरक्षा करती है। इसके अतिरिक्त वीजामृत के उपयोग से बीज अंकुरण क्षमता में वृ़द्ध होती है।
निर्माण एवं प्रयोग विधि
5 किलो गोबर, 5 लीटर गोमूत्र, 50 ग्राम चुना, एक मुट्ठी उपजाऊ मिट्टी, 20 लीटर पानी में मिलाकर 24 घंटे रखें। दिन में दो बार लकड़ी से घड़ी की सुई की दिशा में चलाकर घोलें। इसे 100 किलो बीजों पर उपचार करें। छांव में सुखाकर बुआई करें।
2. जीवामृत
किसी भी भारतीय नस्ल की गाय के गोबर, गुड, बेसन तथा अदूषित या सजीव मिट्टी के मिश्रण से बनाया हुआ घोल भूमि में सूक्ष्म जीवाणुओं, स्थानीय केचुओं की संख्या एवं सक्रियता बढ़ाकर पौधों के लिए आवश्यक सभी तत्वों की उपलब्धता सुनिश्चित करता है। जीवामृत सूक्ष्म जीवाणुओं का महासागर है जो पेड़ पौधों के लिए कच्चे पोषक तत्वों को पकाकर पौधों के लिए भोजन तैयार करते हैं।
निर्माण एवं प्रयोग विधि
गोमूत्र 5 से 10 लीटर, गोबर 10 किलो, गुड़ 1 से 2 किलो, दलहन आटा (बेसन) 1 से 2 किलो, एक मुट्ठी जीवाणुयुक्त मिट्टी (100 ग्राम), पानी 200 लीटर, मिलाकर ड्रम को जूट की बोरी से ढक कर छाया में रखें। सुबह-शाम डंडा से घड़ी की सुई की दिशा में घोलें। 48 घंटे बाद छानकर 7 दिन के अंदर ही प्रयोग करें।
एक एकड़ खेत में 200 लीटर जीवामृत पानी के साथ टपक विधि से या धीमे-धीमे बहा दें। छिड़काव विधि से पहला छिड़काव बुवाई के 1 माह बाद 1 एकड़ में 100 लीटर पानी 5 लीटर जीवामृत मिला कर दें। दूसरा छिड़काव 21 दिन बाद 1 एकड़ में 150 लीटर पानी व 10 लीटर जीवामृत मिलाकर दें। तीसरा व चौथा छिड़काव 21-21 दिन बाद 1 एकड़ में 200 लीटर पानी व 20 लीटर जीवामृत मिलाकर दें। आखरी छिड़काव दाने में दूध की अवस्था में प्रति एकड़ में 200 लीटर पानी 5-10 लीटर खट्टी छाछ (मट्ठा) मिलाकर छिड़काव करें।
3. घन जीवामृत
घन जीवामृत जीवाणु युक्त सूखा खाद है, जिसे बुवाई के समय या सिंचाई के 3 दिन बाद भी दे सकते हैं।
निर्माण एवं प्रयोग विधि
गोबर 100 किलो, गुड़ 1 किलो, आटा दलहन 1 किलो, मिट्टी जीवाणुयुक्त 100 ग्राम, उपर्युक्त सामग्री में इतना गोमूत्र (लगभग 5 लीटर) मिलाएं जिससे हलवा/पेस्ट जैसा बन जाए, इसे 48 घंटे छाया में बोरी से ढक कर रखें। इसके बाद छाया में ही फैलाकर सुखा लें, बारीक करके बोरी में भरें। इसका 6 माह तक प्रयोग कर सकते हैं। 1 एकड़ में 1 कुंतल तैयार घन जीवामृत देना चाहिए।
4. अच्छादन भूमि को ढकना
देसी केंचुआ एवं सूक्ष्म जीवाणुओं के कार्य करने के लिए आवश्यक ‘‘सूक्ष्म पर्यावरण’’ एवं भूमि की नमी को सुरक्षित करने हेतु भूमि को ढका जाता है। स्वच्छ पर्यावरण का आशय है कि पौधों के बीच हवा का तापमान 250 से 320 सेन्टीग्रेड, नमी 65 से 72 प्रतिशत व भूमि सतह पर अंधेरा हो। जब हम भूमि का फसल अवशेषों से या अन्य प्रकार से आच्छादन करते हैं, तो सूक्ष्म पर्यावरण का निर्माण होता है व देसी केंचुओं, सूक्ष्म जीवाणुओं को उपयुक्त वातावरण मिलता है एवं भूमि की नमी का वाष्पन नहीं हो पाता। बाद में आच्छादन भूमि में अपघटित होकर उर्वराशक्ति का निर्माण करता है। सह फसलों द्वारा भी भूमि को सजीव आच्छादन के द्वारा ढका जा सकता है।
5. भूमि में वायु प्रवाह
जड़ें सीधे पानी ना लेकर मिट्टी कणों के बीच वाफसा (50 प्रतिशत हवा व 50 प्रतिशत वाष्प) को लेती हैं। ऊंचे तैयार बेड पर फसलों को नालियों द्वारा पौधों की सिंचाई वाफसा के रूप में उपलब्ध कराने से पानी बहुत कम लगता है। नालियों को भी अच्छादन से ढक दिया जाता है, जिससे वाष्पन ना हो।
फसल सुरक्षा/कीट प्रबन्धन
1. नीमास्त्र (रस चूसने वाले कीड़े, छोटी सुंडी/इल्लियॉं होने पर नियंत्रक)
ऽ 5 किलो नीम की पत्ती/फल।
ऽ देसी गाय का मूत्र 5 लीटर।
ऽ 1 किलो देसी गाय का गोबर।
ऽ 100 लीटर पानी।
नीम की पत्ती और सूखे फलों को कूटकर पानी में मिलाएं तत्पश्चात देसी गाय का गोबर और गोमूत्र मिला लें। मिश्रण को 48 घंटे बोरे से ढक कर छाया में रखें। सुबह शाम लकड़ी से घड़ी की सुई की दिशा में घुमाएं। कपड़े से छान कर फसल पर छिड़काव करें।
2. अग्नि-अस्त्र (रस चूसने वाले कीड़े, छोटी सुंडी/इल्लियॉं होने पर नियंत्रक)
ऽ 20 लीटर देसी गाय का मूत्र।
ऽ नीम के पत्ते 5 किलोग्राम।
ऽ तंबाकू पाउडर 500 ग्राम।
ऽ 500 ग्राम तीखी हरी मिर्च की चटनी।
ऽ 500 ग्राम देसी लहसुन की चटनी।
कुटे हुए नीम के पत्ते व अन्य सामग्री गौमूत्र में मिलाकर धीमी आंच पर एक उबाल आने तक उबालें। मिश्रण को 48 घंटे तक छाया में रखें व सुबह शाम घोले। इसे कपड़े में छानकर 6 से 8 लीटर घोल 200 लीटर पानी में मिलाकर 1 एकड़ की फसल पर छिड़काव करें। 3 माह के अंदर ही प्रयोग करें।
3. ब्रह्मास्त्र (बड़ी सुण्डियों/इल्लियों के नियंत्रक)
ऽ 10 लीटर देसी गाय का मूत्र।
ऽ नीम के पत्ते 5 किलोग्राम।
ऽ अमरूद, पपीता, अरंडी की चटनी दो 2 किलोग्राम।
इन वनस्पतियों की चटनी को गोमूत्र में मिलाकर धीमी आंच पर एक उबाल आने तक उबालें। इसके बाद 48 घंटे तक ठंडा होने के लिए रख दें। 2.5-3.0 लीटर घोल को 100 लीटर पानी में मिलाकर 1 एकड़ की फसल पर छिड़काव करें। घोल का प्रयोग 6 माह तक किया जा सकता है।
4. दशपर्णी अर्क (सभी प्रकार की सुंडी/इल्लियों के नियंत्रक)
ऽ 200 लीटर पानी।
ऽ देसी गाय का गोबर 2 किलोग्राम।
ऽ वनस्पतियां-नीम/करंज/अरंडी/सीताफल/बेल/गेंदा/तुलसी/धतूरा/आम/मदार/अमरूद/अनार/कड़वा करेला/गुड़हल/कनेर/अर्जुन/हल्दी/अदरक/पवाड़/पपीता इनमें से किन्हीं 10 के दो दो किलोग्राम पत्ते।
ऽ 500 ग्राम हल्दी पाउडर।
ऽ 500 ग्राम अदरक की चटनी।
ऽ 10 ग्राम हींग पाउडर।
ऽ एक किलोग्राम तंबाकू।
ऽ एक किलोग्राम हरी मिर्च की चटनी।
ऽ एक किलोग्राम देसी लहसुन की चटनी।
इन सब को मिलाकर लकड़ी से अच्छे से घोले बोरी से ढककर छाया में 30 से 40 दिन रखें व दिन में दो बार घोले। इसके बाद कपड़े से छानकर इसका भंडारण करें। 6 माह तक इसका प्रयोग कर सकते हैं। प्रति एकड़ 200 लीटर पानी में 10 लीटर दशपर्णी अर्क मिलाकर प्रयोग करें।
फफूंद नाशक (फंजीसाइड)
200 लीटर पानी में 5 लीटर खट्टी छाछ/मट्ठा (3 दिन पुरानी) मिलाकर छिड़काव करें। यह विषाणु नाशक भी है।