डेयरी पशुओं में लाभप्रद कृत्रिम गर्भाधान के लिए आवश्यक है मद के लक्षणों की सही पहचान
के.एल. दहिया पशु चिकित्सक, पशुपालन एवं डेयरी विभाग, कुरूक्षेत्र, हरियाणा।
प्रजनन ऐसी क्रिया जिसके द्वारा मादा के जननांगों में नर द्वारा प्राकृतिक तौर पर संभोग अथवा कृत्रिम रूप में नर वीर्य सेचन के बाद गर्भधारण होता है और मादा नये जीव अर्थात ‘संतान’ को जन्म देती है। डेयरी पशुओं की लाभप्रदता आनुवंशिक रूप से उच्च उत्पादक मादा संतान के उत्पादन पर निर्भर करती है। सफल गर्भाधान एवं पूर्ण रूप से गर्भ धारण करने योग्य होने के लिए मादा पशुओं के शारीरिक विकास के साथ-साथ उसके जननांगों का विकास भी बहुत आवश्यक है।
मादा जननांगों की सरंचना
प्रजनन संबंधी समस्याओं के समाधान तथा उचित प्रबंधन के लिए पशुओं के जननेन्द्रिय अंगों की रचना तथा उनके कार्यों का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। डेयरी पशुओं (गाय/भैंसों) के जननांगों में निम्नलिखित भाग सम्मिलित होते हैं।
- भगोष्ठ: इसको योनि द्वार भी कहते हैं जो गुदा के नीचे स्थित होती है। यह जननांगों का बाहर से दिखायी देने वाला दीर्घ वृत्ताकार (एलिप्टिकल) द्विखण्डी भाग है जो अन्दर की ओर यह योनि से जुड़ा होता है। यह त्वचा के बड़े उभार हैं जिसके बाहर दिखायी देने वाले भाग पर बाल होते हैं। इनकी अन्दर की सतह पर छोटी-छोटी ग्रन्थियां होती हैं। मद में आयी गाय/भैंस में भगोष्ठ का आकार बढ़ जाता है व उन पर स्थित बाल खड़े हुए दिखायी देते हैं। यह योनि एवं मूत्र नली के बाहरी भागों को ढक कर रखता है जो मादा प्रजनन अंगों एवं मूत्र मार्ग के बाहरी संक्रमण को रोकने में सहायक होता है।
- योनि: भगोष्ठ के बाद अन्दर की ओर योनि होती है जो अनैच्छिक मांसपेशियों से बनी होती है। इसकी आंतरिक सतह श्लेष्मा झिल्ली से ढकी रहती है। योनि का बाहरी छिद्र एक पतली श्लेष्मा झिल्ली से ढका होता है जिसे सतीच्छद कहते हैं। कभी-कभी सतीच्छद योनि के बाहरी छिद्र को पूर्ण रूप से ढके रहता है। इस स्थिति को छिद्रहीन सतीच्छद कहते हैं। योनि मादा प्रजनन तंत्र का प्रमुख भाग है क्योंकि यह नर से सेमिनल द्रव व वीर्य ग्रहण करती है तथा मद स्राव को बाहर निकलने में भी मदद करती है। मद में आयी हुई गाय/भैंस की योनि से श्लेष्मा निकलता है जो उसके गर्भाधान करवाने का लक्षण होता है।
- ग्रीवा: ग्रीवा (सर्विक्स), योनि एवं गर्भाशय के बीच एक सख्त एवं संकरी नली होती है जो योनि एवं गर्भाशय को आपस में जोड़ती है। इसे गर्भाशय का प्रवेश द्वार भी कहते हैं। ग्रीवा में योनि की अपेक्षा कई गुणा ऊतक होते हैं जिस कारण यह सख्त होती है। इसकी छल्ले जैसी आकृति होती है जिन्हें गर्भाशय ग्रीवा के छल्ले कहते हैं। यह योनि की अपेक्षा कम चिकनी होती है। अमदकाल में अवरूधप्रायः अर्थात बन्द जैसी होती है लेकिन मदकाल के समय इसमें थोड़ा सा लचीलापन आ जाने से खुल जाती है। प्राकृतिक संभोग के समय यह योनि से शुक्राणुओं को गर्भाशय तक पहुंचाने में सहायक होती है। गर्भावस्था के दौरान उत्पादित श्लेष्मा ग्रीवा में यह गाढ़े श्लेष्मा को एक प्लग बनाती है। यह गर्भाशय संक्रमण को रोकने में सहायक होती है।
- गर्भाशय : गर्भाशय के दो भाग होते हैं – अखण्डी गर्भाशय एवं 2. द्विखण्डी गर्भाशय। मदकाल के समय गर्भाशय में सख्तपन (टोनीसीटी) आ जाता है।
- अखण्डी गर्भाशय: यह ग्रीवा एवं द्विखण्डी गर्भाशय के बीच अनैच्छिक माँसपेशियों से बना गर्भाशय का सबसे मोटा एवं मुख्य भाग है। ग्रीवा की ओर इसका आकार पतला जबकि अग्रभाग मोटा होता है। यह भाग गर्भाशय को मजबूती प्रदान करता है।
- द्विखण्डी गर्भाशय : शरीर में अखण्डी गर्भाशय दो भागों में विभाजित हो जाता है जिसे द्विखण्डी गर्भाशय कहते हैं।
- डिंब वाहिनियाँ (ओविडक्ट): गर्भाशय के द्विखण्डी भागों के दोनों ओर से निकलती है। इनकी लम्बाई लगभग 10 सेंमी. और मोटाई लगभग आधा सेंमी. होती है। डिंब ग्रंथियों की ओर इनका आकार एक कीप (Funnel) की तरह का होता है लेकिन यह डिंब ग्रंथियों से जुड़ा नहीं होता है। इस कीप का अंतिम छोर लंबी-लंबी अंगुलियों की तरफ होता है जिनको झल्लरिका कप (Fimbrial cup) कहते हैं। इनका प्रमुख कार्य डिंब ग्रंथियों से निकले अण्डे को घेरकर उसे डिंबवाहिनियों मे भेजना होता है। यह नलियाँ मांसपेशियों से बनी, तथा इनके अंदर की दीवार एक झिल्ली की बनी होती है जिसको श्लेष्मा झिल्ली कहते है।
- डिंब ग्रंथियाँ: इनको अण्डाशय भी कहते हैं। ये द्विखण्डी गर्भाशय के दोनों ओर होती हैं। ये देखने में बादाम के आकार की लगभग 5 से.मी. लम्बी और 2 से.मी. चौड़ी होती हैं। इनके ऊपर ही डिंब वाहिनियों के झल्लरिका कप होते हैं जो अण्डों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। डिंबग्रंथियों का रंग गुलाबी होता है जो आयु बढ़ने के साथ-साथ हल्के सफेद रंग का हो जाता है। वृद्वावस्था में यह सिकुड़कर छोटी हो जाती है। इनका प्रमुख कार्य डिंब (अण्डे) तथा उत्तेजित द्रव और हार्मोन्स बनाना होता है। डिंबग्रंथियों के मुख्य हार्मोन्स एस्ट्रोजन और प्रोजैस्ट्रोन हैं। मदकाल के समय इनमें प्रत्येक 21वें दिन डिंब बनते और मुक्त किये जाते हैं, जो शुक्राणुओं के साथ मिलकर गर्भधारण करते हैं।
गाय या भैंस के मद में आने के लक्षण
डेयरी व्यवसाय में उचित लाभ अर्जित करने के लिए गाय व भैंस में मद के लक्षणों की पहचान होना एक अतिआवश्यक कार्य है। यदि मद में आई मादा पशुओं के लक्षण समय पर नहीं पहचाने जाते हैं तो वह 21 दिन तक दोबारा उसके मद में आने का इन्तजार करने के साथ-साथ पशुपालकों को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है। इसलिए सही समय पर पशु की सही मदावस्था की पहचान अनिवार्य है ताकि गाय/भैंस सही समय पर ग्याभिन हो सके। जब गाय/भैंस मद में आती है तब वह अन्य पशुओं से अलग हो जाती है और खाना-पीना कम (या छोड़) कर देती है। दुधारू मादाओं का दुग्ध उत्पादन कम हो जाता है। आमतौर पर मद में आई गाय/भैंस रंभाने लगती है लेकिन कुछ मादाओं में रंभाने की प्रक्रिया सुनने को नहीं मिलती है। वह अन्य पशुओं को सूंघती है और योनि से तरल चिपचिपा पदार्थ (जिन्हें आमतौर तारें कहते हैं) निकलने लगता है जो आमतौर पर लंबा, पारदर्शी, योनि द्वार से लटकता हुआ दिखायी देता है। योनी के बाह्य भागों में सूजन आ जाती है तथा योनी अंदर से नम व लालिमायुक्त हो जाती है। 12 घण्टे बाद गाय या भैंस दूसरे पशुओं को ऊपर चढ़ने देती है और खड़ी हो जाती है। यह पशु का मद में आने का सही समय होता है। गाय व भैंस में मद में थोड़ा अन्तर होता है। गाय की मदावस्था का समय अधिक और भैंस की मदावस्था छोटी होती है और जल्दी ही खत्म हो जाती है। गायों/भैंसों में अलग-अलग समय में मद के अलग-अलग लक्षण इस प्रकार हैं:
गाय में मद के लक्षण
लक्षण | मद का प्रथम चरण | मद का द्वितीय चरण | मद का तृतीय चरण |
समय | 0 से 8 घण्टे | 8 से 18 घण्टे | 18 से 24 घण्टे |
खड़े होना/चढ़ना | दूसरे पशुओं पर चढ़ना | रूकना | दूर होना |
उत्तेजना | शुरू होती है | बढ़ जाती है | शांत हो जाती है |
तौर–तरीके | बेचैन, दूसरों से अलग | पशुओं में जाना | चुप होना |
रंभाना | थोड़ा | ज्यादा | कभी-कभी |
भूख | कम | नहीं खाती | सामान्य |
दुग्ध उत्पादन | कम | कम | सामान्य |
दूसरे पशुओं से मेल | सामान्य | ज्यादा | कभी-कभी |
शरीर की गर्मी | थोड़ी अधिक | ज्यादा | सामान्य |
योनी श्राव | पानी की तरह साफ, पारदर्शी, पूंछ व कूल्हों पर चिपका हुआ | गाढ़ा, रस्सी की तरह लंबा और जाले की भांति मरोड़ीदार | कम ही दिखाई देती है |
योनी द्वार पर सूजन | सूजन होती है | ज्यादा | कम हो जाती है |
योनि द्वार के बाल | कम सीधे खड़े | सीधे खड़े | कम सीधे खड़े |
पेशाब करना | बार-बार | बार-बार | सामान्य |
बच्चेदानी | सख्त व कठोर | पूरी कठोर | कठोरता कम हो जाती है |
लक्षण | मद का प्रथम चरण | मद का द्वितीय चरण | मद का तृतीय चरण | |
समय | 0 से 12 घण्टे | 12 से 20 घण्टे | 20 से 24 घण्टे | |
उत्तेजना | शुरू होती है | बढ़ जाती है | शांत हो जाती है | |
रंभाना | कभी-कभी | ज्यादा | चुप हो जाती है | |
योनी द्वार | सूजन व थोड़ा खुला | सूजन ज्यादा व पूरा खूला | सूजन कम व सख्त हो जाता है | |
योनि द्वार के बाल | कम सीधे खड़े | लगभग सीधे खड़े | कम सीधे खड़े | |
साँड के करीब होना | कम होती है | पूरी होती है | कम होती है | |
भूख | सामान्य | कम | सामान्य | |
योनि स्राव | पानी की तरह साफ, पारदर्शी, पूंछ व कूल्हों पर चिपका हुआ | गाढ़ा, रस्सी की तरह लंबा और जाले की भांति मरोड़ीदार | कम ही दिखाई देती है
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दुग्ध उत्पादन | कम | कम | सामान्य | |
शरीर की गर्मी | थोड़ी अधिक | ज्यादा | सामान्य |
डेयरी व्यवसाय में मादा पशुओं की उत्पादकता उनके द्वारा संतान पैदा करने के साथ-साथ उनके पालन-पोषण पर निर्भर करती है। सही पालन-पोषण होने के बावजूद भी मादा गायध्भैंस का गर्भधारण न हो पाना पशुपालकों के लिए आर्थिक नुकसान का कारण बनता है। गर्भाधान करवाने के बाद यदि मादा गर्भ धारण नहीं होता है तो पशुपालकों को प्रतिदिन कम से कम 50 से 60 रूपये का नुकसान होता है। इस नुकसान से बचने के लिए पशुपालक गाय/भैंस में मद के सही लक्षणों की पहचान करके दूर कर सकते हैं। अतः मादा पशुओं में मद के सही लक्षणों को जानने के लिए पशु पालकों को सवेरे-शाम, पशु-शाला का चक्कर अवश्य लगाना चाहिए और मद में आई मादाओं की पहचान करके उनका कृत्रिम गर्भधान करवाना चाहिए।
डेयरी पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान
डेयरी पशुओं में गर्भाधान दो प्रकार अर्थात प्राकृतिक एवं कृत्रिम विधि से होता है। प्राकृतिक गर्भाधान में परिपक्व नर पशुओं द्वारा नैसर्गिक रूप से मादा पशु के साथ संभोग अर्थात नर और मादा के मिलन से मादा पशुओं में गर्भधारण होता है। प्राकृतिक संभोग में एक साँड द्वारा एक वर्ष में केवल 50 – 60 मादाओं को ही गर्भित किया जा सकता है। अत: प्राकृतिक गर्भाधान के द्वारा केवल कुछ चुनिंदा उत्कृष्ट साँडों का उपयोग केवल कुछ ही मादाओं के लिए संभव है। इस विधि के प्रचलन से मादाओं के लिए एक साँड की आवश्यकता हर समय होती ही है जिसका पशुपालक को अतिरिक्त खर्च उठाना पड़ता है। पशुओं में आंतरिक प्रजनन (Inbreeding) को नियंत्रित करने के लिए पशुपालकों को हर तीन वर्ष बाद साँड को बदलना पड़ता है। इस विधि में साँड के संक्रमित होने पर मादाओं में भी संक्रमण फैलने का खतरा रहता है। समय के साथ-साथ परिवर्तनशील औद्योगीकरण के इस दौर में पशुओं के रखरखाव में बढ़ता खर्च एवं कृत्रिम गर्भाधान की लगातार बढ़ती आवृति के कारण प्राकृतिक गर्भाधान की प्रवृति बहुत ही कम रह गई है।
पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान एक ऐसी कला या विधि है जिसमें साँड से वीर्य लेकर उसको विभिन्न क्रियाओं के माध्यम से संचित किया जाता है। यह संचित किया हुआ वीर्य तरल नाइट्रोजन में कई वर्षों तक सुरक्षित रखा जा सकता है। इस संचित किए हुए वीर्य को मद में आई मादा के गर्भाश्य में रखने से मादा पशु का गर्भाधान किया जाता है। गर्भाधान की इस विधि को कृत्रिम गर्भाधान कहा जाता है। कृत्रिम गर्भाधान उच्च आनुवंशिक क्षमता वाले पशुधन प्रदान करने वाली चल रही तकनीकों का परिणाम है। प्रारंभ में कृत्रिम गर्भाधान योनि विधि द्वारा किया जाता था जिसमें वीर्य को योनि वीक्षणयंत्र (वैजाइनल स्पेकुलम) की सहायता से केथेटर द्वारा पशु के गर्भाशय ग्रीवा में रखा जाता था। लेकिन अब पूरे विश्व में मलाशय-योनि (रेक्टो वैजाइनल) विधि द्वारा किया जाता है। निम्नलिखित लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान किया जाता है:
- नस्ल सुधारीकरण।
- बीमारियों को नियन्त्रित करना।
- गर्भधारण क्षमता को बढ़ाना।
- नस्ल सुधारीकरण का खर्च कम करना।
पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान का इतिहास
- हालांकि, यह प्रलेखित नहीं है लेकिन कृत्रिम गर्भाधान का पहला ज्ञात प्रयोग अरब देशों में घोड़ों की ब्रीडिंग में किया बताया जाता है। 14वीं शताब्दी (1322) में प्रकाशित एक अरबी पुस्तक के अनुसार, डारफुर के एक प्रमुख सरदार ने दुश्मन की एक घोड़ी जो रात के समय में एक प्रसिद्ध घोड़े के साथ बंधी थी, की योनि में कपास की एक गेंद डाल दी। 24 घंटे के बाद, वह जल्दी-जल्दी अपने घर चला गया और कपास की उस गेंद को अपनी घोड़ी की योनि में रख दिया। घोड़ी गर्भवती हुई और उसने एक बच्चे़ को जन्म दिया (Herman & Ragsdale 1946)।
- 1677 में प्रजनन फिजियोलॉजी के अध्ययन में एक प्रमुख तकनीकी सफलता वान लीउवेनहोएक नामक एक डच वैज्ञानिक द्वारा हासिल की, जिन्होंने एक साधारण माइक्रोस्कोप विकसित किया और वीर्य के परीक्षण के दौरान इसमें स्थानांतरित होते छोटे कण होने की पुष्टि की। उन्होंने इन कणों को ‘एनिमलक्यूल्ज’ नाम से संदर्भित किया और 1677 में एक पत्र प्रकाशित किया।
- 1780 में इटली के शरीरक्रिया वैज्ञानिक लाज्जारो स्पल्लनजानी ने कुत्तिया में कृत्रिम गर्भाधान के लिए शारीरिक तापमान पर वीर्य का उपयोग कर गर्भधारण में सफलता हासिल की। उन्हें आधुनिक कृत्रिम गर्भधान का जनक कहा जाता है (Herman & Ragsdale 1946, Patel et al. 2017)। ऐसा माना जाता है कि स्पल्लनजानी ने सबसे पहले मानव शुक्राणु पर ठण्डक के प्रभावों की रिपोर्ट की थी, 1776 में, उन्होंने बताया कि बर्फ से ठंडा होने पर शुक्राणु गतिहीन हो जाते हैं (Ombelet & Van Robays 2015)।
- 1876 में यूरोप में प्लानिस ने कृत्रिम गर्भाधान से एक कुत्तिया को गर्भित किया था।
- 1899 में रूस में सेना के लिए घोड़ों की आवश्कता को पूरा करने के लिए अश्वों में कृत्रिम प्रजनन आरंभ हुआ (Ivanoff 1922, Foote 2002)।
- 1896 में अमेरिका में 19 कृत्तियों की योनि में वीर्य सेचन किया गया, जिनमें से 15 गर्भित हुई और बच्चे जन्मे।
- 1907 में इवानोव ने घरेलू पालतु पशुओं, कुत्तों, लोमड़ियों, खरगोशों और मुर्गों में कृत्रिम गर्भाधान का अध्ययन किया जिनके खासतौर से घोड़ों पर हुए शोध, जॉनरल ऑफ एग्रीकल्चरल सांईंस के जुलाई 1922 के अंक में प्रकाशित हुए (Foote 2008)।
- 1909 में रूस में घोड़ियों को कृत्रिम विधि से वीर्य सेचन किया गया (Herman & Ragsdale 1946)।
- 1914 में रोम विश्वविद्यालय में मानव शरीर विज्ञान के प्रोफेसर जी. अमंतिया ने कुत्ते से वीर्य संग्रह के लिए पहली कृत्रिम योनि विकसित की।
- 1922 में, ई. आई. इवानोफ, एक प्रख्यात रूसी अन्वेषक और कृत्रिम गर्भाधान में अग्रणी, गायों और भेड़ों में कृत्रिम गर्भाधान को सफलतापूर्वक करने वाले पहले व्यक्ति थे (Patel et al. 2017)।
- 1928 में रूस में गायों में कृत्रिम गर्भाधान शुरू किया गया और 1938 तक लगभग 15 लाख गायों में इसका उपयोग किया (Herman & Ragsdale 1946)।
- 1937 में डेनिश पशु चिकित्सकों ने कृत्रिम गर्भाधान के लिए रेक्टोवैजाइनल अर्थात सरवाइकल निर्धारण विधि विकसित की (Patel et al. 2017)।
- 1937 में, बुरो और क्विन ने पोल्ट्री क्षेत्र में मुर्गे के पेट की मालिश और दबाव की आसान विधि विकसित की (Foote 2002)। जैसा कि पोल्ट्री फार्मों पर मुर्गे और मुर्गियां साथ-साथ पाली जाती हैं, इसलिए मुर्गियों में कृत्रिम गर्भाधान का उपयोग बड़े पैमाने पर ताजा एकत्र किये गये वीर्य का उपयोग किया जाता है।
- 1938 मई, अमेरिका में पहला गौ-कृत्रिम प्रजनन संघ न्यू जर्सी के क्लिंटन में आयोजित किया गया (Herman & Ragsdale 1946)।
- 1939 में 1 नवंबर को कृत्रिम गर्भाधान द्वारा गर्भित की गई पहली खरगोश को संयुक्त राज्य अमेरिका में न्यूयॉर्क एकाडमी ऑफ मेडिसिन की 12वीं एन्नुअल ग्रेजुएट फोर्टनाईट में प्रदर्शित किया गया (Ombelet & Van Robays 2015)।
- 1938 में, रूस में मिलोवानोव ने रूस में ठोस जिलेटिन में युक्त शुक्राणुओं से पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान के प्रयास को रिपोर्ट किया। संतोषजनक परिणामों के साथ भेड़ों में गर्भाधान के लिए इस पद्धति को उपयोग किया गया था। प्रयोगात्मक रूप से, गायों के गर्भाधान के लिए भी इस पद्धति का उपयोग किया गया है, लेकिन परिणामों के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई है। 1939 में सोरेंसन ने भी शुक्राणु युक्त ठोस जिलेटिन कैप्सूल का उपयोग गायों में किया जिसे उन्होने प्रयोगात्मक रूप से बेहद मुश्किल बताया लेकिन ठोस जिलेटिन ने कृत्रिम गर्भाधान का रास्ता सुलझाने में सहायता की (Sørensen 1940)। वीर्य को स्ट्रा के रूप में पैकिंग करना कृत्रिम गर्भाधान के लिए एक और उन्नति की राह थी। यह कार्य सबसे पहले एडुआर्ड सोरेंसन द्वारा किया गया था, जिन्होंने प्रारंभ में जई के खोखले तिनकों अर्थात ओट स्ट्राज का उपयोग किया था। एक दिन उन्होंने अपनी बेटी के जन्म दिन पर सेलोफन से बने स्ट्रा से पेय पदार्थ के पात्र में सुराख करके तरल पीते हुए देखा और उन्होने सेलोफेन से बने स्ट्राज को कृत्रिम गर्भाधान के लिए उपयोग किया (Sørensen 1940)। इसके बाद इन्हीं के आधार पर 1964 में कासो द्वारा डिजाइन किए गए वाणिज्यिक स्ट्राज विकसित हुए और आज भी दुनिया भर में इनका उपयोग किया जाता है (Foote 2002)।
- 1940 में, फिलिप्स और लार्डी ने रेफरीजरेटिड बुल स्परमेटाजोआ की उर्वरता और गतिशीलता को संरक्षित करने के लिए एग योक फॉस्फेट डायल्यूटर विकसित किया (Patel et al. 2017)।
- 1941 में, सैलिसबरी और सहयोगियों ने एग योक साइट्रेट डायल्यूटर विकसित किया (Patel et al. 2017)।
- 1948 में ट्रिमबर्गर ने अंडाशय के निरीक्षण और प्रजनन आंकड़ों के आधार पर डेयरी पशुओं में गर्भाधान के लिए दोपहर पहले और दोपहर बाद का नियम प्रस्तावित किया। इस नियम के अनुसार, सर्वोत्तम प्रजनन क्षमता के दोपहर पहले (ए.एम.) मद में आयी गायों को उसी दिन दोपहर बाद (पी.एम.) और दोपहर बाद मद में आयी गायों को अगले दिन दोपहर पहले गर्भाधान किया जाना चाहिए (Foote 2002)। उनके द्वारा बताया गया नियम आज भी कामयाब कृत्रिम गर्भाधान का सूत्र माना जाता है।
- 1949 में, पॉज़, स्मिथ और पार्क्स ने जमे हुए वीर्य प्रौद्योगिकी में ग्लिसरॉल के क्रायोप्रोटेक्टिव प्रभाव की खोज की (Patel et al. 2017)।
- 1950 के दसक में वीर्य को -79 डिग्री सेंटीग्रेड पर कार्बन डाइऑक्साइड की बजाय तरल नाइट्रोजन में -196 डिग्री सेंटीग्रेड किया जाने लगा जिसके परिणाम स्वरूप वीर्य में मौजूद शुक्राणुओं की जीवित रहने की अनंत दर थी (Foote 2002)।
- 1951 में स्टीवर्ड ने पोलजे और स्मिथ के सहयोग से हिमीकृत वीर्य के साथ गर्भाधान से पहले बछड़े के जन्म की सूचना दी।
- 1960 में एडलर ने तरल नाइट्रोजन वाष्प का उपयोग करके स्ट्रा में वीर्य को हिमीकृत करने की पहली तकनीक विकसित की जिसका उपयोग आज भी किया जा रहा है।
- 1963 में नागासे और नीवा ने जापान में पेलेट फॉर्म में साँड के वीर्य को हिमीकरण की तकनीक विकसित की।
- 1964 में, कासो ने सीमन स्ट्रा के आकार को कम किया और इसे मिडियम फ्रेंच स्ट्रा का नाम दिया। 5 मि.ली. की वीर्य क्षमता वाले इन सीमन स्ट्रा की लंबाई 135 मि.मी. और 2.8 मि.मी. व्यास था। 1968 में कासो ने मिडियम फ्रेंच स्ट्रा का आकार कम करके 0.25 मि.ली. क्षमता वाले 2.0 मि.मी. व्यास के किया जिसे मिनी फ्रेंच सीमन स्ट्रा नाम दिया।
- 1972 में जर्मनी में मिनी ट्यूब या जर्मन स्ट्रॉ या ‘लांसशूट प्रणाली’ नामक एक प्लास्टिक स्ट्रॉ विकसित किया गया था। इन स्ट्रॉज को धातु या कांच या प्लास्टिक की छोटी गेंदों से सील किया जाता था।
- 1974 में जापानी वैज्ञानिक निश्चेवा और सहयोगियों ने पहली बार -265° सेंटीग्रेड पर तरल हीलियम गैस में वीर्य को हिमीकृत किया लेकिन इसका उपयोग प्रचलन में नहीं है।
- लिंग वर्गीकृत वीर्य के उपयोग का इतिहास 1982 में शुरू हुआ। हालांकि, 2010 तक इसके वांछनीय परिणाम दिखायी नहीं दिये लेकिन इसके बाद 21वीं सदी के दूसरे दशक के अंत तक इसके बहुत अच्छे परिणाम देखने को मिल रहे हैं। इस दिशा में आधुनिक प्रौद्योगिकी में सुधार होने के साथ-साथ लिंग वर्गीकृत वीर्य के परिणाम और बेहतर होने की संभावना है जिससे डेयरी व्यवसाय में और तेजी होगी।
भारत में कृत्रिम गर्भाधान का इतिहास
- 1939 में, भारत में पहली बार संपत कुमारन द्वारा पैलेस डेयरी फार्म मैसूर की गायों में कृत्रिम गर्भाधान किया गया और 33 होलिकर गायों को गर्भित किया (Patel et al. 2017)।
- 1942 में भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान (आईवीआरआई) में एक पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया गया था, जिसमें डा. पी. भट्टचार्य के मार्गदर्शन में कृत्रिम गर्भाधान की टीम का अध्ययन किया गया था, जिसमें डा. एस.एस. प्रभु, डा. डी.पी. मुखर्जी, डा. एस.एन. लुक्टुके, डा. ए. रॉय और डा. गर्जन सिंह शामिल थे। इस टीम ने स्वीकार किया कि इस तकनीक का उपयोग भारतीय परिस्थिति में किया जा सकता है, तब से यह तकनीक सामान्य रूप से गायों और भैंसों के प्रजनन के अभ्यास के रूप में उपयोग में आ गई है।
- 1942 में भारत सरकार द्वारा बैंगलोर, कलकत्ता, पटना और मोंटगोमरी (अब पाकिस्तान) में चार क्षेत्रीय केंद्र स्थापित किए गए।
- 1943 में, कृत्रिम गर्भाधान के माध्यम से पहला भैंस का काफ इलाहाबाद कृषि संस्थान में पैदा हुआ (Patel et al. 2017)।
- 1951 – 56 में प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951 – 56) में भारत सरकार ने गायों और भैंसों की नस्ल सुधार के लिए 150 गाँवों में ‘की विलेज’ केंद्र शुरू किए।
- 1956 – 61 में द्वितीय पंचवर्षीय योजना में 400 गांवों में ‘की विलेज’ केंद्रों में शुरू करके कृत्रिम गर्भाधान के कार्य को बढ़ावा दिया।
कृत्रिम गर्भाधान के फायदे
- इस विधि से अच्छे सांडों का सही उपयोग किया जा सकता है। प्राकृतिक तरीके से एक साँड बहुत कम (50 – 60) मादाओं का गर्भाधान करता है। लेकिन इस विधि से एक अच्छे साँड से 5,00,000 मादाओं को गर्भित की किया सकता है। इस प्रकार अच्छे सांडों से ज्यादा बच्चे पैदा किए जा सकते हैं।
- साँड की मृत्यु के पश्चात भी संचित वीर्य से इस विधि द्वारा मादाओं को गर्भित किया जा सकता है।
- इस विधि के अपनाने से बहुत दूर यहाँ तक कि विदेशों में पाले जाने वाले उत्तम नस्ल एवं गुणों वाले साँड के वीर्य को भी प्रयोग करके लाभ उठाया जा सकता है।
- जनानांगों की बीमारियों को नियन्त्रण में रखा जा सकता है। इस विधि में साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है जिससे मादा की प्रजनन की बीमारियों में काफी हद तक कमी आ जाती है और गर्भधारण की क्षमता भी बढ़ जाती है।
- इस विधि में नर से मादा तथा मादा से नर में फैलने वालें संक्रामक रोगों से बचा जा सकता है।
- इस विधि द्वारा अच्छे मंहगे साँड का वीर्य भी इस्तेमाल किया जा सकता है।
- इस विधि में धन एवं श्रम की बचत होती है क्योंकि पशुपालक को साँड पालने की आवश्यकता नहीं है अत: साँड के रखने का खर्च बचाया जा सकता है।
- इस विधि में साँड के आकार या भार का गर्भाधान के समय कोई फर्क नहीं पड़ता है।
- इस विधि में विकलांग गायों/भैंसों का प्रयोग भी प्रजनन के लिए किया जा सकता है।
- इस विधि में पशु का प्रजनन रिकार्ड रखने में आसानी होती है।
- कृत्रिम गर्भाधान में लिंग वर्गीकृत वीर्य का उपयोग कर अधिक से अधिक मादा पशु पैदा किये जा सकते हैं और नर पशुओं को नियंत्रित किया सकता है व दुग्ध उत्पादन में बढ़ोतरी से किसानों की आय को भी बढ़ाया जा सकता है।
कृत्रिम गर्भाधान की सीमाएं
कृत्रिम गर्भाधान के बहुत से फायदे होने के बावजूद इस विधि की कुछ अपनी सीमाएं भी हैं, जो इस प्रकार हैं:
- जेनेटिक पूल में कमी: बहुत से वैज्ञानिकों द्वारा यह आशंका व्यक्त की गई है कि कृत्रिम गर्भाधान के उपयोग से कुछ उत्कृष्अ साँडों द्वारा प्रजनन लाइनों के वर्चस्व का परिणाम होगा, जिसके परिणामस्वरूप आनुवंशिक पूल में कमी होगी।
- मादाओं के गर्भाधान के लिए प्राप्त वीर्य की गुणवत्ता में महत्वपूर्ण भिन्नता कृत्रिम गर्भाधान के उपयोग में एक वर्तमान समस्या है।
- रिपीटर्स की दरों में वृद्धि: जब कृत्रिम गर्भाधान की तुलना प्राकृतिक गर्भाधान से की जाती है, तो यह स्पष्ट होता है कि बार-बार किये जाने वाले गर्भाधान की आवश्यकता होती है। यह मादा के मद का अनुचित पता लगने के कारण होती है जिससे पशुपालकों को निराशा होती है और संभावित रूप से कृत्रमि गर्भाधान की लागत बढ़ जाती है।
- कृत्रिम गर्भाधान के लिए प्रशिक्षित व्यक्ति या पशु चिकित्सक की आवश्यकता होती है जिसे मादा पशु के प्रजनन अंगों की पूरी जानकारी होना अतिआवश्यक है।
- इस विधि के दौरान मद में आई मादा को अच्छी तरह से काबू किया जाता है।
- इस विधि में विशेष यंत्रों की आवश्यकता के साथ-साथ उनकी साफ-सफाई की आवश्यकता भी होती है।
- इस विधि में असावधानी की स्थिति में या साफ-सफाई का ध्यान न रखने से गर्भधारण की दर में कमी भी आ सकती है।
- इस विधि में यदि पूर्ण सावधानी न बरती जाए तो दूरवर्ती क्षेत्रों या विदेशों से वीर्य के साथ कई संक्रामक रोगों के आने का खतरा रहता है।
पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान को विकसित करने के प्रयास के शुरुआती चरणों में कई बाधाएं थीं। आम जनता अनुसंधान के खिलाफ थी और साथ में यह भी डर था कि इससे असामान्यताएं बढ़ेंगी। शुरूआती दौर में प्रजनकों (Breeders) को आशंका थी कि इससे उनके सांडों की मार्किट नष्ट हो जायेगी जिस कारण उन्होने इसका विरोध किया गया और इसी विरोध के कारण अनुसंधान को आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त धन को जुटाना भी मुश्किल था। भारत में तो और भी हालात ज्यादा मश्किल थे क्योंकि भारतवर्ष में गाय को माता कहा जाता है जिस कारण कृत्रिम गर्भाधान को शुरूआती दौर में नकारा गया। लेकिन भारत सहित पूरे विश्व में बदलते व्यवसायिक परिवेश ने धीरे-धीरे आम जनता की धारणाओं को बदला और अब विश्वभर में पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान किया जा रहा है। अब तो इसका उपयोग महिलाओं में भी किया जाता है। कृत्रिम गर्भाधान के तथ्यों को विस्तारित करने में विस्तार सेवा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
कृत्रिम गर्भाधान के अनुभव से प्राप्त ज्ञान जैसे कि प्रजनन तकनीक, सुपरोव्यूलेशन, भ्रूण स्थानांतरण और क्लोनिंग, ने चरणबद्ध बेहद मददगार भूमिका निभाई। इसके साथ ही आम जनता तक अच्छी जानकारी पहुंचायी जा रही है जो इस जानकारी को सुगमता से ग्रहण भी कर रही है। इसका अंतर्निहित नैतिक अनुप्रयोग, पूरे समुदाय को लाभान्वित करके, सकारात्मक बदलाव ला सकता है। अच्छा लक्ष्य, आवश्यक ज्ञान और कौशल विकास, और नैतिक विचार सभी किसी भी प्रौद्योगिकी के आवश्यक घटक हैं जिसके परिणामस्वरूप समाज और पर्यावरण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार, कृत्रिम गर्भाधान का प्रभाव मादा गायों और भैंसों को गर्भ धारण करवाने का असरदार रहा है और पशुपालकों के हित में होता रहेगा।
संदर्भ
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