रक्त परजीवी रोगों के लक्षण ,निदान, उपचार एवं नियंत्रण

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डॉ संजय कुमार मिश्र
पशु चिकित्सा अधिकारी चौमुंहा मथुरा

पशुओं में पाए जाने वाले विभिन्न रक्त परजीवी रोग पशु चिकित्सा में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन रक्त परजीवी रोगों से पशुओं का उत्पादन कम हो जाता है तथा ससमय उपचार न मिलने पर पशु की मृत्यु भी हो सकती है जिससे पशुपालकों को आर्थिक हानि उठानी पड़ती है। इस नुकसान से बचने के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि पशुओं के इन जानलेवा रोगों से समुचित बचाव किया जाए तथा उनको उचित समय पर सही उपचार प्रदान किया जाए। रक्त परजीवी एक कोशिकीय जीव होने के कारण आकार में अत्यंत सूछ्म होते हैं जिन्हें सिर्फ सूक्ष्मदर्शी की मदद से ही देखा जा सकता है एवं इसके लिए विशेषज्ञ की आवश्यकता होती है । इस कारण इन से होने वाले रोगों का निदान कठिन होता है। समय पर निदान न होने के कारण पशुपालकों को काफी आर्थिक हानि उठानी पड़ती है। अतः इन रक्त परजीवी रोगों के नियंत्रण पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
पशुओं में मुख्यत: ट्रिपैनोसोमिएसिस, जोकि रक्त चूसने वाली मक्खियों के काटने से एवं बबेसियोसिस और थेलेरिओसिस कलीलियों के रक्त चूसने से फैलते हैं अतः इन रोगों की रोकथाम में इनके मध्यवर्ती परपोषीयों का नियंत्रण अत्यंत आवश्यक होता है।

ट्रिपैनोसोमिएसिस, का निदान उपचार एवं रोकथाम:-

इस बीमारी का नियंत्रण मुख्यतः रसायन चिकित्सा पर निर्भर है परंतु इस चिकित्सा द्वारा पूर्ण नियंत्रण करते समय अनेक समस्याएं उत्पन्न हो जाती है जिनमें से, रक्त पर जीविओं में, औषधि के प्रति प्रतिरोधक क्षमता का विकसित होना विशेष महत्व रखता है। अतः इसकी रोकथाम के लिए पूर्णत: रसायन चिकित्सा पर निर्भर न होकर इस रोग को फैलाने वाली मक्खियों के नियंत्रण पर भी समुचित ध्यान देना चाहिए। यह मुख्यता ग्लोसीना, एवं टबेनस, प्रजाति की मक्खियों के काटने से फैलता है एवं इन मक्खियों के नियंत्रण के लिए निम्नांकित विधियां अपनाई जा सकती हैं।
१. पकड़ना और जाल में फंसाना
२. मक्खियों के प्रजनन स्थलों को हटाना।
३. झाड़ियों एवं गंदगी को हटाना जिससे मक्खियों को आराम की जगह ना मिले।
४. विभिन्न कीटनाशकों का प्रयोग करके इन्हें मक्खियों के आवास एवं प्रजनन स्थलों पर प्रयोग करने से इनकी संख्या को रोकने में विशेष मदद मिलती है। इन कीटनाशकों में मुख्यता डी.डी.टी., डाईएल्ड्रिन आदि मुख्य है। इन उपायों के अतिरिक्त इस बीमारी से पीड़ित पशुओं का उचित उपचार कर एवं इस बीमारी से ग्रस्त क्षेत्रों में पशुओं का समय-समय पर निरीक्षण एवं उपचार करके भी इस रोग पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

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बीमारी के लक्षण:
पशु चारा खाना छोड़ देते हैं। तेज बुखार आता है और लार बहती है। पशु इधर-उधर बेचैनी से घूमता है या गोलाई में चक्कर लगाता है। इस कारण से इस रोग को “सर्रा” भी कहा जाता है । पशु बार-बार कांपते हुए उठता है, गिरता है, फिर उठता है। पशु दीवार से अपना सिर टकराता है, आंखें लाल हो जाती हैं और आंखों से पानी निकलता है। तत्काल इलाज न मिलने पर पशु की मृत्यु हो जाती है।

उपचार:
डिमीनाजीन एसीचुरेट, सूरा मिन, एंट्रीसाइड प्रोसाल्ट या क्विनापाइरामिन सलफेट में से कोई भी एक औषधि पशु चिकित्सक के निर्देशानुसार प्रयोग करें।

बबेसियोसिस के, लक्षण , रोकथाम एवं उपचार:
यह रोग कलीली की कुछ विशेष प्रजातियों के काटने से फैलता है। अतः किलनी नियंत्रण के उपाय द्वारा इसके संक्रमण से बचा जा सकता है। किलनी नियंत्रण के लिए बाजार में कई कारगर कीटनाशक जैसे कि बी.एच.सी़.,डी.डी.टी.डाइएलडरिन,डेल्टामेथ्रीन, साइपरमैथरीन, अमितराज आदि उपलब्ध है। कलीली, पशुओं के शरीर के विभिन्न भागों में चिपक जाती हैं इसलिए कीटनाशकों का प्रयोग संपूर्ण शरीर पर करना चाहिए। इसके लिए पशुओं को जल में बने घोल सस्पेंशन या इमल्शन से स्प्रे करना चाहिए। कलीली नियंत्रण के लिए, औषधि स्नान की योजना कलीलियों के जीवन वृत्त को ध्यान में रखकर बनाई जानी चाहिए जिससे कि हर औषधि स्नान से अधिक से अधिक कलीली नष्ट की जा सके। इसके अतिरिक्त कीटनाशकों का प्रयोग पूर्ण नियंत्रण हेतु इनके आवासों एवं प्रजनन स्थलों पर भी करना चाहिए साथ ही साथ इन स्थानों को जलाकर एवं जोत कर भी नष्ट किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त बूफिलस प्रजाति की कलीलियों के नियंत्रण के लिए आईवरमेकटिन नामक टीका उपलब्ध है, पशुओं में इस टीके को लगाने के बाद इस प्रजाति की किलनिया खून चूसने के बाद स्वत: ही नष्ट हो जाती हैं।
लक्षण:
तेज बुखार के कारण पशु खाना छोड़ देते हैं। पेशाब का रंग कॉफी कलर का हो जाता है।
उपचार:
डिमीनाजीन एसीचुरेट, या एमिडोकारब को उचित मात्रा में पशु चिकित्सक की सलाह से देना चाहिए।

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थिलेरियोिसस की रोकथाम एवं उपचार:
इस रोग के नियंत्रण के लिए बबेसियोसिस रोग के अंतर्गत
किलनी नियंत्रण के लिए दिए गए उपाय ही अपनाने चाहिए तथा संक्रमित क्षेत्रों से लाए हुए पशुओं पर संगरोध विधि अपनानी चाहिए एवं रोग की अनुपस्थित से पूर्णतः संतुष्ट हो जाने पर ही इन पशुओं को स्वस्थ पशुओं के साथ मिलाना चाहिए।

लक्षण:
अत्यंत तीव्र बुखार एवं सतही लसिका ग्रंथियों में सुजन पाई जाती है।

थिलेरिया, रोग की रोकथाम के लिए “रक्षा वैक टी” नामक टीका बेहद कारगर है, यह टीका पशुओं में रोग उत्पन्न नहीं कर सकता परंतु शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में मदद करता है। इस टीके की तीन मिली मात्रा प्रत्येक वर्ष सुई के द्वारा त्वचा के नीचे पशु चिकित्सक की सलाह से दी जानी चाहिए।

उपचार:
पशु चिकित्सक की सलाह से बुपारवाकोन का टीका उचित मात्रा में देना चाहिए।

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