ऊंटों में होने वाले रोग और उनका बचाव

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ऊंटों में होने वाले रोग और उनका बचाव

डॉ.विनय कुमार एवं डॉ.अशोक कुमार

पशु विज्ञान केंद्र, रतनगढ़ (चूरु)

राजस्थान पशु चिकित्सा और पशु विज्ञान विश्वविद्यालय, बीकानेर

देश में ऊंटों की सख्या में राजस्थान प्रथम स्थान पर है। रेगिस्तान का जहाज कहलाने वाला ये पशु कोई भी विकट परिस्थितियों में भी ज़िन्दा रह सकता है। ऊँट रेगिस्तानी पारिस्थितिकी तंत्र का एक महत्वपूर्ण भाग है। मरूधरा की कठिन जीवनयापन शैली में यह मानव का जीवन संगी है। अपनी अनूठी जैव-भौतिकीय विशेषताओं के कारण यह शुष्क क्षेत्रों की विषमताओं में जीवनयापन के लिए अनुकूलन का प्रतीक बन गया है। रेत के धोरो में ऊँट के बिना जीवन बिताना दुष्कर है। ‘रेगिस्ता‍न का जहाज’ के नाम से प्रसिद्ध इस पशु ने भार वाहन के क्षेत्र में अपरिहार्यता की हद तक पहचान बनाई है परंतु इसके अतिरिक्त भी ऊँट की बहुत सी उपयोगिताएं हैं, जो निरन्तर सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों से प्रभावित है। ऊंटनी के दूध का ओषधिय महत्त्व होता है। इसका उपयोग मधुमेह, दमा,पीलिया, तपेदिक,एनीमिया,कैंसर और लीवर के साथ कई जटिल बीमारियों में औषधि के रूप में लाभदायक बताया गया है। ऊंटपालन को बढ़ावा देने के लिए प्रतिवर्ष बीकानेर में ऊंट महोत्सव का आयोजन होता हैं।

ऊंटों को दिया जाने वाला आहार एवं प्रबंधन:- 

  1. हरी घास, झाड़ियों व पेड़ों :- गोखरू,खीम्प, बुई,केर, खार, पाला, बेर, खेजड़ी, बबूल, खेरी,नीम आदि।
  2. शुष्क चारा :- इसमें चारे का सुखाकर भण्डारण किया जाता है। इसमें ज्वार, बाजरा, मक्का, तारामीरा आदि की तुड़ी व चना, मोंठ, मूंग व ग्वार का भूसा मुख्य है।
  3. दाने के रूप में आहार :- बाजरे व जौ का आटा, गुड़, चना, मोंठ, मूंग व ग्वार चूरी, ग्वार, चारा, मटर का भूसा,मक्का, गेंहूँ, तिल की खल,तारामीरा एवं सरसों की खल आदि को दाने के रूप में खिलाया जाता है।
  4. ऊंटों को रोगों से बचाने के लिए सन्तुलित एवं पोष्टिक आहार दिया जाना चाहिए। सान्द्र आहार में 2 प्रतिशत मिनरल मिक्सर भी मिलाना चाहिए।
  5. इसके अलावा मक्का , जई ,बाजरा , जौ, गेहूं, की चौकर एवं पिसे हुए चने के साथ में आहार में नमक आवश्यक रूप से मिलाना चाहिए।
  6. ऊंटों को प्रतिदिन 20-40 लिटर साफ पानी दिया जाना चाहिए।
  7. ऊंट के आवास की साफ सफाई की जानी चाहिए।
  8. हर 3 माह के अन्तराल पर कृमिनाशन करवाया जाना चाहिए।
  9. ऊँट के आहार में 30-50 ग्राम नमक प्रतिदिन देना चाहिए।
  10. गर्भकाल के अंतिम चरणों में दूध देने वाले पशुओं में व अधिक कार्य करने वाले ऊँटों को लगभग 25 प्रतिशत पोषक तत्व, आहार में अतिरिक्त रूप से उपलब्ध कराए जाने चाहिए।
  11. खाने के तुरंत बाद ऊँट का सवारी या बोझ ढोने के काम में नहीं लेना चाहिए अन्यथा उसमें अपच, पेट दर्द व आफरे जैसी व्याधियाँ हो सकती है।
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सर्रा रोग 

सर्रा रोग:-  सर्रा रोग को तीबरसा और गलत्या नाम से भी जाना जाता है। य़ह रोग रक्त परजीवी ट्रीपेनोसोमा इवासाई से होता है। य़ह परजीवी रक्त चूसने वाली मक्खी टेबेनस के काटने से एक ऊंटो से दूसरे पशु में फैलता है। बारिश के समय यह रोग ज्यादा फैलता है। इस रोग के प्रमुख लक्षणों मे बुखार, एनीमिया और दुर्बलता प्रमुख हैं। लम्बे समय तक चलने वाली इस बीमारी में कूबड़ भी गायब हो जाता है, और जांघ की पेशियों का भी अपक्षय होता है। शुरू में ऊंट खाता रहता है,बाद में खाना बन्द कर देता है। पशु की आँख व नाक से पानी आता है।धीरे- धीरे खून की कमी हो जाती है।पेट के नीचे तथा पूरे शरीर पर सुजन आ जाती है। ऊंट धीरे कमजोर हो जाता है। पशु के काम करने की क्षमता कम हो जाती है। ऊंट की थुई गायब हो जाती है। खून की कमी होने से पलकें अन्दर से सफेद पड़ने लगती है। पशु सुस्त हो जाता है। मादा गर्भ गिरा सकती है।ऊंट मे सर्रा रोग के लक्षण दिखाई देने पर तुरंत पशु चिकित्सक से संपर्क करना चाहिए। सर्रा रोग की पहचान होते ही पशु चिकित्सक से उपचार करवाना चाहिए।

सर्रा से बचाव के तरीके-

  • ऊंटों के आवास की साफ -सफाई रखी जानी चाहिए तथा ऊंटों को मक्खियों मुख्यतः टेनेबस मक्खी से बचाना चाहिए।
  • कीटनाशक का छिड़काव करना चाहिए।
  • संक्रमित पशु में सुरामिन दवा का उपयोग कर सकते है।
  • रोगग्रस्त पशु को स्वस्थ पशुओ से अलग कर देना चाहिए।
  • रोग फैलाने वाले परजीवी नष्ट करने चाहिए।
  • बीमारी वाले क्षेत्रों में बचाव के लिए सूरामीन दवा का प्रयोग कर सकते हैं
  • सर्रा रोग बाहुल्य क्षेत्रों मे पशु चिकित्सक की सलाह पर एंट्रीसाईड प्रोसाल्ट इंजेक्शन लगाकर भी सर्रा रोग से बचाया जा सकता है।
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मेन्ज रोग:-

इस रोग को मेन्ज या पांव (खुजली) भी कहते हैं।यह रोग परजीवी से फैलता है। मेन्ज अथवा खाज- ऊंटों मे मेन्ज का रोगकारक “सार्कोपटीज केमेली” होती है। यह परजीवी स्वस्थ पशु की चमड़ी में प्रवेश कर जाते हैं तो खाज रोग हो जाता है।खुजली रोग का प्रकोप सर्दियों तथा बारिश के समय ज्यादा होता है । रोग ग्रसित भाग के बाल कम होते हैं, बाल झड़ने से धब्बे बन जाते हैं, जैसे कि टांगों के बीच का क्षेत्र। धीरे-धीरे खाज सारे शरीर में फैल जाती है, चमड़ी शुष्क और काली पड़ जाती है और खुजली आने पर ऊंट अपने शरीर को किसी दीवार या पेड़ से रगड़ता (खुजलाता) है। चमड़ी से पानी की तरह पदार्थ निकलता है, जिससे खून आने लगता है, मिट्टी लगने से चमड़ी पर पपड़ी जमा हो जाती है तथा यह चमड़ी मोटी हो जाती है। जगह जगह पर चमड़ी फट जाती है, पशु रगड़ कर चमड़ी से खून निकाल लेते हैं तथा रोग ग्रसित ऊंट अधिकतर समय अपने शरीर को रगड़ता रहता है। पशु धीरे-धीरे कमजोर हो जाता है तथा खून की कमी हो जाती है। अगर समय पर इलाज न किया जाए तो ऊंट मर भी सकता है। इस रोग का इलाज खुजली होते ही चालू कर देना चाहिए। जब यह रोग सारे शरीर पर फैल जाता है तो उसे ठीक होने में बहुत समय लगता है। रोग के उपचार के लिए पशु चिकित्सक की सलाह पर 0.25 से 0.75 प्रतिशत “सुमिथीयोन “विलयन का स्प्रे पम्प से पहले दिन शरीर के आधे भाग और  दूसरे दिन शेष भाग पर छिड़काव किया जाता है।

 

मेन्ज से बचाव के तरीके:-

  • ऊंट के शरीर की साफ-सफाई रखी जानी चाहिए।
  • रोगग्रस्त पशु को स्वस्थ पशुओ से अलग कर देना चाहिए ।
  • रोग फैलाने वाले परजीवी नष्ट करने चाहिए।
  • खुजली रोग में डेल्टामेथरीन दवा का प्रयोग भी किया जा सकता है।
  • खुजली रोग से ग्रसित ऊंट को रोजाना 1 से 2 किलो आटा देवें तथा आटे में खनिज लवण      रोजाना डालें।
  • पशुओं के आवास को साफ एवं स्वच्छ रखें।
  • यह बीमारी रोगी पशु से स्वस्थ पशु में तेजी से फैलती है।
  • पशु चिकित्सक की सलाह पर ‘आईवरमेक्टिन इंजेक्शन लगाया जा सकता है।
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माता रोग:- 

माता एक बहुत ही खतरनाक और तेजी से फैलने वाला विषाणु जनित संक्रामक रोग है यह रोग सबसे ज्यादा कम उम्र,बुड्ढे एवं कमजोर ऊंटों को प्रभावित करता है। इस रोग में मृत्यु दर काफी कम होती है लेकिन ग्रसित ऊंट दूसरे रोगों जैसे निमोनिया आदि से प्रभावित होकर मर सकता है। सामान्यतः यह रोग बारिश के मौसम में उंटो को प्रभावित करने लगता है और हवा से संपर्क तथा मक्खियां इत्यादि द्वारा फैलता है। सामान्यतः ऊंट पालक इस रोग की आसानी से पहचान कर लेते हैं। लेकिन इस रोग के नियंत्रण में उन्हें परेशानी का सामना करना पड़ता है। इस रोग में ऊंट को शुरुआत में तेज बुखार आता है। शरीर के विभिन्न अंगों की त्वचा पर माता के दाने निकल आते हैं और बाद में सांस लेने में तकलीफ होती है व नाक से मवाद युक्त स्राव आने लगता है। तेज बुखार की पहचान कर पशुपालक को चाहिए कि शरीर के बाल रहित भाग जैसे की पूछ के नीचे, नाक  इत्यादि को देखकर माता के दानों की पहचान करें। इसके अतिरिक्त टांगों के निचले हिस्से में,सिर एवं अंडकोष में सूजन आ जाता है। कभी-कभी आंखों में सफेदी भी आ जाती है। इस रोग में न्यूमोनिया तथा गर्भपात भी हो सकता है। इस रोग से प्रभावित ऊंट की कार्य क्षमता में काफी कमी आ जाती है और अन्य बीमारियों व संक्रमण के प्रति संवेदनशील हो जाता है। इससे ऊंट पालक को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है क्योंकि यह एक विषाणु जनित बीमारी है जिसका कोई इलाज नहीं है वर्तमान में इसका टीका भी उपलब्ध नहीं है। इस रोग का नियंत्रण ही बचाव है।

माता रोग से बचाव के तरीके:-

  • माता रोग से ग्रसित ऊँटो को स्वस्थ ऊँटो से तुरंत अलग कर देना चाहिए।
  • बीमार पशु को नरम चारा देना चाहिए। निमोनिया या अन्य संक्रमण से बचाने के लिए पशुचिकित्सक से संपर्क करना चाहिए।
  • एंटीबायोटिक दवाओं का प्रयोग करना चाहिए।
  • छोटे पशुओं की देखभाल में विशेष ध्यान देना चाहिए।
  • पशुओं के आवास को साफ एवं स्वच्छ रखें।
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