भेड़-बकरियों के प्रमुख रोग – लक्षण तथा बचाव

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भेड़-बकरियों के प्रमुख रोग – लक्षण तथा बचाव

डॉ जितेंद्र सिंह, पशु चिकित्सा अधिकारी , कानपुर देहात

 

बकरियों में कई ऐसी बीमारियां होती है जिनसे ग्रसित होकर बकरियों की मौत हो जाती है इससे पशुपालक को काफी नुकसान होता है। अगर पशुपालक समय से बकरियों का टीकाकरण कराएं तो वह आर्थिक नुकसान से बच सकता है। अगर पशुपालक अपनी बकरियों को समय से टीका लगवाएं तो 95 फीसदी बीमारियों को रोका जा सकता है और इससे उत्पादकता भी बढ़ती है।

भेड़-बकरियों में खुर-मुंह रोग (एफ़०एम०डी०):-

गददी भेड़ पालक इस बीमरी को रिकणु नामक बीमारी से जानते हैं, यह बीमारी भी विषाणु जनित छूत का रोग है तथा बहुत जल्दी एक रोग ग्रस्त जानवर से दूसरे जानवरों में फैल जाता है|

रोग के लक्षण:-

इस रोग से ग्रस्त जानवरों के मुंह, जीभ, होंठ व खुरों के बीच की खाल में फफोले पड़ जाते है, भेड़-बकरी को तेज़ बुखार आता है तथा उनके मुंह से लार टपकती है, भेड़-बकरियां लंगडी हो जाती है, मुंह व जीभ के अन्दर छाले हो जाने से भेड़-बकरियां घास नहीं खा पाती व कमज़ोर हो जाती है, और कई बार गाभिन भेड़-बकरियों का इस रोग से गर्भपात भी हो जाता है, भेड़-बकरियों के बच्चों की मृत्यु दर अधिक होती है|

रोग से बचाव:-

इस रोग में सबसे पहले भेड़ पालक को रोग से ग्रस्त जानवरों को अन्य जानवरों से अलग करना चाहिए| बीमार भेड़-बकरियों का ईलाज जैसे मुंह के छालों में वोरोग्लिसरिन मलहम खुरों की सफाई लाल दवाई या नीले थोथे के घोल से या फोरमेलिन के घोल से करनी चाहिए तथा पशु चिकित्सक के परामर्श अनुससार चार-पांच दिन एन्टीवायोटिक इंजेक्शन लगाने चाहिए| प्रत्येक भेड़ पालक को छ: महीने के अन्तराल के दौरान रोग से रोकथाम हेतू टीकाकरण करवाना चाहिए|

 

कन्टेजियस एकथाईमा:-

इस बीमारी को गददी भेड़ पालक मौढे नाम से भी जानते है| यह बीमारी भी एक प्रकार के विषाणु द्वारा होती है, इसमें भेड़-बकरी के मुंह, नाक व होठों के बाहरी तरफ फोड़े हो जाते है काफी बढ़ जाते है जिससे मुंह फूल जाता है तथा घास खाने में तकलीफ होने के साथ-साथ बीमार भेड़-बकरी को हल्का बुखार भी रहता है|

बचाव:

बीमार भेड़-बकरियों को अलग कर उनका उपचार रखना चाहिए तथा उपचार हेतू फोडों को लाल दवाई के घोल से धोकर उन पर एन्टीसेप्टिक मलहम लगाना चाहिए, ज्यादा बीमार भेड़-बकरी को कहर-पांच दिन एन्टीवायोटिक इन्जेक्शन लगाना चाहिए|

 

एन्थ्रेक्स रोग:-

इस बीमारी को भेड़ पालक रक्तांजली रोग से जानते है यह रोग जीवाणु द्वारा होता है, भेड़ों की उपेक्षा यह रोग बकरियों में अधिक होता है जिसे गददी भेड़ पालक (गंणडयाली नामक) रोग से जानते है| यह रोग भेड़-बकरियों में बहुत तेज़ बुखार आता है, मृत भेड़-बकरी के नाक, कान, मुंह व गुदा से खून का रिसाव होता है|

रोग से बचाव:-

इस रोग से मरे भेड़-बकरियों की खाल नहीं निकालनी चाहिए तथा मृत जानवर को गहरे गड्ढे में दबा देना चाहिए तथा चरागाह को बदल देना चाहिए| बीमार भेड़-बकरियों को एन्टीवायोटिक इन्जेक्शन चार-पांच दिन पशु चिकित्सक की सलाह अनुसार देना चाहिए| इस रोग से बचाव हेतू टीकाकरण करवाया जा सकता है|

 

ब्रूसीलोसिस:-

यह बीमारी जीवाणु द्वारा होती है, इस बीमारी में गाभीन भेड़-बकरियों में चार या साढ़ेचार महीने के दौरान गर्भपात हो जाता है, बीमार भेड़-बकरी की बच्चेदानी भी पक जाती है| गर्भपात होने वाली भेड़-बकरियों की जेर अटक जाती/समयानुसार नहीं गिरती, इस बीमारी से मेंढों व बकरों के अण्डकोश पक जाता है तथा घुटनों में भी सूजन आ जाती है, जिससे इनकी प्रजनन क्षमता कम हो जाती है| इस रोग के लक्षण पाऐ जाने पर भेड़ पालक को सारे का सारा झुंड खत्म कर नये जानवर पालने चाहिए| कई बार भेड़ पालक गर्भपात हुए मृत मेमने को उसके भेड़ की जेर खुले में फेंक देते है जिससे की इस बीमारी के कीटाणु अन्य झुंड में भी फैल जाते है| अत: भेड़ पालकों को चाहिए कि वह ऐसे मृत मेमने व जेर को गहरा गढ्ढा कर उसमें दबा देना चाहिए| यह रोग भेड़-बकरियों से मनुष्य में भी आ जाता है| जिससे मनुष्य में हल्का बुखार, बदन व सर दर्द अधिक पसीना आना व उनके उनके अण्डकोश में भी सूजन आ जाती है, इसलिए भेड़ पालकों को इस रोग से बचाव हेतू समय-समय पर अपने खून की जांच भी करवा लेना चाहिए|

 

फुट रोट:-

गददी भेड़ पालक इस रोग को चिकड़ नामक रोग से जानते है, यह रोग जीवाणुओं द्वारा होता है इस रोग में भेड़-बकरियों के खुरों की बीच की चमड़ी पक जाती है तथा वह लंगडी हो जाती है| भेड़ों को तेज़ बुखार हो जाता है तथा इस रोग के जीवाणु मिटटी द्वारा एक जानवर में चले जाते है, यह भी एक छूत का रोग हैं जोकि एक जानवर से पूरे झुंड में फैला जाता है|

रोग से बचाव:-

इस रोग से ग्रस्त भेड़-बकरी को अपने झुंड में ना लाऐं तथा जिस रास्ते से इस बीमारी वाला अन्य झुंड गुज़रा हो उस रास्ते से एक सप्ताह तक अपने झुंड को न ले जाऐं, बीमार भेड़-बकरियों के खुरों की सफाई आखें जिसके लिए उन के खुरों को नीले थोथे (कापरसल्फेट) के घोल से धोऐं तथा एन्टीवायोटिक मलहम तथा चिकित्सक की सलाह अनुसार चार-पांच दिनों तक एन्टीवायोटिक इन्जेक्शन लगाऐं|

 

गलघोंटू:-

यह बीमारी भेड़-बकरियों में जीवाणुओं द्वारा फैलती है तथा मुख्यता जब भेड़ पालक अपने झुंड को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाता है उस समय इस रोग के अधिक फैलने की संम्भावना होती है| इस बीमारी से भेड़-बकरियों के गले में सूजन हो जाती है जिससे उसे सांस लेने में कठिनाई होती है तथा इस बीमारी में भेड़-बकरी को तेज़ बुखार, नाक से लार निकना तथा निमोनिया हो जाता है|

 

एन्टीरोटोक्सीमियां:-

गददी भेड़ पालक इस रोग को हगलू नाम से जानते हैं| यह भेड़ का असंक्रामक रोग है, यह मुख्यता जीवाणुओं द्वारा फईलता है, यह जीवाणु प्राय: भेड़-बकरियों के पेट के अन्दर होता है, इस बीमारी में भेड़-बकरियों में तेज़ पेट दर्द होता है, और यह अधिकतर छोटे बच्चों में यह रोग ज्यादा होता है तथा जानवर धीरे-धीरे कमज़ोर हो जाता है कई बार उसे चक्कर आते हैं, मुंह से झाग निकलता है, औए दस्त के साथ खून भी आता है|

रोग से बचाव:-

इस बीमारी से बचाव हेतू भेड़ पालक को प्राथमिक उपचार हेतू नमक व चीनी का घोल पिलाना चाहिए, क्योंकि यह दस्त के कारण जानवर के शरीर में हुई पानी की कमी को पूरा करता है इसके साथ-साथ पेट के कीड़ों की दवाई अपने झुंड को पिलानी चाहिए, घास चरने की जगह समय-समय पर बदलनी चाहिए, दस्त तथा बुखार को कम करने के लिए पशु चिकित्सक की सलाह अनुसार दवाई व उपचार करवाना चाहिए| बचाव हेतू भेड़ पालक को वर्ष में एक बार टीकाकरण करवाना चाहिए|

 

गोल कीड़े:-

इस प्रकार के कीड़े मुख्यता भेड़-बकरियों की आंतों में पहले धागे की तरह लम्बे व सफेद रंग के होते हैं जोकि भेड़-बकरियों की आंतों से खून चूसते हैं, कई बार भेड़-बकरियों में इन कीड़ों के कारण दस्त लगते हैं, जिससे जानवर कमज़ोर हो जाता है, तथा ऊन उत्पादन में भी कमी आ जाती है|

रोग का उपचार:-

भेड़ अपनी भेड़ों को वर्ष में कम से कम तीन बार पेट के कीड़ों को मारने की दवाई पशु चिकित्सक की सलाह अनुसार अवश्य पिलाएं|

 

टेप वर्म:-

इस प्रकार के कीड़े भी भेड़-बकरियों की आंतों में पाए जाते हैं तथा यह कई मीटर लम्बें व रवीन/फीते की तरह होते हैं, यह कीड़े भी भेड़-बकरियों का खून चूसते हैं तथा उन्हें कमज़ोर कर देते हैं|

 

फेफड़ों व श्वास नली के गोल कृमि/कीड़े; लंग वर्मद्व:-

यह भेड़-बकरियों के फेंफडों व श्वास नली में होते हैं तथा इसके कारण भेड़-बकरियों में वरमिनस न्यूमोनिया हो जाता है, बीमार भेड़-बकरियों में खांसी हो जाती है तथा उनके नाक से गाढ़ा पानी निकलता है ऐसी भेड़-बकरियों को सांस लेने में तकलीफ होती है तथा फेफड़े खराब हो जाने से जानवर मर जाते हैं|

रोग का उपचार व बचाव:-

भेड़ों के मेगनियों की जांच करवानी चाहिए तथा मृत भेड़ों का शव परीक्षण करवाने से इस रोग का पता चलता है, भेड़-बकरियों को ज्यादा समय तक एक चरागाह में न चराएं, चरागाह में फिलें व केंचुएं अधिक नहीं होने चाहिए क्योंकि यह इस रोग को फईलने में मदद करते हैं| बीमार भेड़-बकरी का उपचार/ईलाज पशु चिकित्सक की सलाह अनुसार करें|

 

भेड़-बकरियों में चर्म रोग:-

अन्य पशुओं की भांति भेड़-बकरियों में भी जूएं, पिस्सु, चिच्द इत्यादि परजीवी होते हैं, यह भेड़-बकरियों की चमड़ी में अनेक प्रकार के रोग पैदा करते हैं जिससे जानवर के शरीर में खुजली/चरड हो जाती है तथा जानवर अपने शरीर को बार-बार दूसरे जानवरों के शरीर व पत्थर या पेड़ से खुजलाता है जिससे किउस जगह पर जख्म हो जाता है उस जगह की चमड़ी सख्त हो जाती है, व बाल झड़ जाते है और धीरे धीरे यह भेड़-बकरियों के पूरे शरीर में फील जाती है तथा एक बीमार जानवर से पूरे झुंड/घण में फैल जाती है| जिससे ऊन भेड़ों से बहुत कम व घटिया ऊन प्राप्त होती है|

रोग का उपचार एवं रोकथाम:-

रोगी भेड़ की खाल की जांच पशु चिकित्सक से करवाएं, तथा स्वस्थ भेड़-बकरियों को बीमारी वाले जानवरों से अलग रखें, और बीमारी वाले जानवरों को अधिक नमी वाली जगह पर ण रखें, जख्मों को लाल दवाई से धोऐं व हिमैक्स मलहम जख्मों पर लगाएं, पशु चिकित्सक की सलाह अनुसार इन्जेक्शन आईवर मैक्टिन चमड़ी में लगवाएं| इस रोग के बचाव हेतू वर्ष में भेड़-बकरियों को कम से कम दो बार कीटनाशक स्नान/डिपिंग अवश्य करवाएं|

 

भेड़-बकरियों में हल्क याँ रेबीज रोग:-

यह बीमारी भेड़-बकरियों को पागल कुत्तों/लोमड़ी व नेवले के काटने से होती है, यह बीमारी विषाणु द्वारा होती है तथा पागल कुत्तों व अन्य पागल पशु के काटने व उसकी लार द्वारा भेड़-बकरियों में हो जाती है| बीमारी हो जाने पर इसका ईलाज हो पाना सम्भंव नहीं है| इसलिए भेड़ पालकों को सुझाव दिया जाता है कि जब भी भेड़-बकरियों को कोई पागल कुत्ता या लोमड़ी काटता है तो तुरन्त नज़दीक के पशु चिकित्सालय/ औषधालय में जाकर इसकी सूचना दें तथा समय रहते इसका टीकाकरण करवाना सुनिश्चित करें|

 

भेड़ पालन व्यवसाय को अधिक लाभदायक बनाने के लिये कुछ महत्वपूर्ण जानकारी प्रजनन सम्बन्धी:-

  • भेड़ आम तौर पर नौ महीने की आयु में पूर्ण वयस्क हो जाती है किन्तु स्वस्थ मेमने लेने के लिये यह आवश्यक है कि उसे एक वर्ष का होने के पश्चात ही गर्भधारण कराया जाए| भेड़ों में प्रजनन आठ वर्ष तक होता है| गर्भवस्था औसतन 147 दिन कि होती है|

 

  • भेड़ 17 दिन के बाद 30 घण्टे के लिये गर्मी में आती है| गर्मी के अंतिम समय में मेंढे से सम्पर्क करवाने पर गर्भधारन की अच्छी सम्भावनायें होती है|

 

  • गर्भवस्था तथा उसके पश्चात जब तक मेमने दूध पीते है भेड़ के पालन पोषण पर अधिक ध्यान देना चाहिये| एक मादा भेड़ को गर्भवस्था तथा उसके कुछ समय पश्चात तक संतुलित एवं पोष्टिक आहार अन्य भेड़ों की अपेक्षा अधिक देना चाहिये|

 

  • भेड़ों को मिलते बार नर या मादा का अनुपात 1:40 से अधिक नहीं होना चाहिये|प्रजनन हेतु छोड़ने के दो माह पूर्व से ही उनके आहार पर विशेष ध्यान दें| इस अवधि में संतुलित आहार तथा दाने की मात्रा भी बढा दें|

 

  • प्रजनन हेतु छोड़ने से पहले यह बात अवश्य देख लें कि मेंढे के बहय जननेन्द्रियों की ऊन काट ली गई है तथा उसके खुर भी काट क्र ठीक क्र लिये गये है|
  • नर मेमनों कि डेढ़ साल से पहले प्रजनन के लिये उपयोग न् करें| तथा समय समय पर उनकी जननेन्द्रिया की जानच कर लें| यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि वयस्क मेढों को तरुण भेड़ों के साथ प्रजनन के लिये छोड़ना चाहिये|

 

  • मेढों को प्रजनन के लिये छोड़ने से पहले यह निश्चित क्र लें कि उन्हें उस क्षेत्र में पाई जाने वाली संक्रामक बिमारियों के टीके लगा दिये गये है तथा उनको कृमिनाशक औषधि से नहलाया जा चूका है| मैंढ़े को प्रजनन के लिये अधिक से अधिक आठ सप्ताह तक छोड़ना चाहिये तथा निश्चित अवधि के पश्चात उन्हें रेवड़ से अलग क्र देना चाहिये|

 

  • यदि एक से अधिक मेंढे प्रजनन हेतु छोडने हैं तो नर मेढों कई कोई निश्चित पहचान (कान पर नम्बर) लगा दें ताकि बाद में यह पता चल सके कि किस नर की प्रजनन शक्ति कमज़ोर है या उससे उत्पादित मेमनें सन्तोषजनक नहीं है ताकि समय अनुसार उस नर को बदला जा सके| मेढों को यदि रात को प्रजनन के लिये छोड़ना है तो उनके पेट पर नाभि के पास कोई गीला रंग लगा दें जिससे यह पता चल सके कि किस मैंढ़े से कितनी भेडों में प्रकृतिक गर्भधान हुआ है|

 

  • मेंढ़े का नस्ल के अनुसार कद व शारीरिक गठन उत्तम होना चाहिये| टेड़े खुर उठा हुआ कंधा, नीची कमर आदि नहीं होनी चाहिये|

 

  • पैदा होने के 8-12 सप्ताह के पश्चात मेमनों को माँ से अलग कर लें तथा तत्पश्चात उसको संतुलित आहार देना प्रारम्भ करें|

 

  • संकर एवं विदेशी नस्ल के मेमनों के पैदा होने के एक से तीन सप्ताह के अन्दर उसकी पूंछ काट लें|

 

  • समय समय पर यह सुनिश्चित करें कि तरुण भेड़ का वजन कम तो नहीं हो रहा है| इस अवधि में उसको अधिक से अधिक हर घास उपलब्ध करवायें|

 

  • अनुपयोगी और निम्न स्तर के पशुओं की प्रतिवर्ष छंटनी कर देनी चाहिये अनयथा उनके पालने का खर्च बढ़ेगा| भेड़ों की छंटनी अधिक से अधिक 5 वर्ष में करनी चाहिए| ऊन काटने या प्रजनन के समय से इस आयु तक उनका शारीरिक विकास पूर्ण हो जाता है|

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