गाय-भैंसों में पाये जाने वाले जूँ एवं उनसे होने वाले नुकसान तथा रोकथाम

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गाय-भैंसों में पाये जाने वाले जूँ एवं उनसे होने वाले नुकसान तथा रोकथाम

 

शुभ्रदल नाथ, संजू मण्डल एवं दीपिका डी. सीजर
पशु चिकित्सा एवं पशुपालन महाविद्यालय जबलपुर (म. प्र.)

सामान्यतः जूँ बाह्य परजीवी होते है, जो शरीर के बाहर अर्थात त्वचा पर पाये जातें है। यह परजीवी पशु के शरीर से खून चूसते है जिससे शरीर में पोषक तत्वों की कमी हो जाती है जिसके कारण पशु कमजोर तथा बीमार दिखने लगता है।

गाय एवं भैंसों में सामान्यतः पाये जाने वाले जूँ:-

 हीमेटोपायनस यूरीस्ट्रनस
 हीमेटोपायनस ट्यूबरक्यूलेटस
 लीनोग्नेथस वीट्यूली
 लीनोग्नेथस स्टेनोप्सिस
 डेमीलेनिया बोविस

जूँ से होने वाली हानियां:-

• जूँ शरीर से रक्त को चूसते है जिससे पशु में रक्त की कमी (एनीमिया) हो जाती है|
• इनसे पशुओं में दुग्ध उत्पादन, प्रजनन तथा कार्यक्षमता में कमी हो जाती है।
• यह बाह्य परजीवी न केवल त्वचा रोग फैलाते हैं बल्कि खाल को खराब कर देतें है, जिससे
पशुओं के विक्रय मूल्य में कमी आ जाती है।

जूँ का जीवन चक्र:-

सामान्यतः जूँ अपना पूरा जीवन पशुओं पर ही बिताते हैं इनके अण्डों को लीख कहा जाता है, जो कि पशुओं के बालों से चिपके रहते है। तदोपरान्त उनमें से निम्फ निकलता है, उसके बाद ये वयस्क हो जाते है एवं मादा जूँ पशुओं के शरीर पर फिर से अण्डे देती है। इसका फैलाव पशुओं के एक दूसरे से सम्पर्क में आने से होता है।

जूँ के फैलने का समयः-

प्रायः देखा गया है कि ठंड के समय जूँ की समस्या बढ़ जाती है, क्योंकि उक्त समय में ठंड की वजह से पशु एक दूसरे के सम्पर्क में आ जाते है। ऐसे गौ-शाला जहां जगह की कमी के कारण अधिक जानवरों को रखा जाता है वहाँ पर भी जूँ की समस्या अधिक देखने को मिलती है।

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उपचार:-

 पैस्टोबैन, 1-10 के अनुपात में दवा तथा पानी का घोल बनाकर पशु के शरीर पर ब्रुश या बोरे से 2-3 दिन लगाना चाहिए।
 बुटाक्स, 2 मि.ली. दवा प्रति लीटर पानी में घोलकर पशु शरीर पर ब्रुश या बोरे के टुकड़े से बालों की उल्टी दिशा में अच्छी तरह लगाएं। आवश्यकतानुसार 2-3 बार दवा का उपयोग करें तथा दवा के सूखने तक पशु को चाटने न दे।
 टीबर्ब, कैप्सूल एवं हिमैक्स मलहम यह दवाएं भी खाज-खुजली इत्यादि में इस्तेमाल की जाती है। टीबर्ब मलहम घाव पर लगाने से काफी लाभ होता है।
 बेन्जीन, यह पशु में खाज-खुजली होने पर इस्तेमाल की जाती है। पशुओं के खाज-खुजली वाले स्थान पर इसे ऊपर से लगाया जाता है।

रोकथाम के उपाय-

 पशुओं तथा पशु शालाओं का समयबद्ध तरीके से वर्ष में दो बार अप्रैल-जून तथा सितम्बर-अक्टूबर में एक उपयुक्त इनसेक्टीसाईड से उपचार तथा छिड़काव करना चाहिए।
 शालाओ की गन्दगी को अच्छी तरह से साफ करानी चाहिए, इसे स्वच्छ व सूखा तथा सूर्य की रोशनी पशु शालाओं में पहुँचाने की व्यवस्था करानी चाहिए |
 पशु-शालाओ के आस-पास पानी इत्यादि इकट्ठा न होने दे।
 पशु शाला में चूने से सफेदी कराएं जिससे यदि कोई भी कीट प्रवेश करें तो आसानी से दिख जाए।
 पशु शालाओं में ग्रूमिंग की व्यवस्था की जानी चाहिए या पशु को हाथ से ब्रुश करें जिससे जूँ एवं लीख गिर जाए तथा उस गंदगी को जला देना चाहिए।

सावधानियां:-

 विषैले कीटनाशक पदार्थो को बच्चों तथा पालतु पशुओं की पहुंच सें दूर रखना चाहिए।
 जो विषैले कीटनाशकए फसलों पर इस्तेमाल होते है उनका उपयोग पशुओं के शरीर में न
करें अन्यथा पशुओ की मृत्यु हो सकती है।
 कीटनाशक डिब्बो को सावधानीपूर्वक नष्ट कर देना चाहिए। बच्चों के खेलने, खाने-पीने का
सामान रखने या फिर अन्य किसी कार्य के लिए कदापि इस्तेमाल न करना चाहिए |
 कीटनाशक शरीर के सम्पर्क में नहीं आने चाहिए।
 कीटनाशक का प्रयोग सुबह या शाम के समय करना चाहिए |
 कीटनाशक प्रयोग करने वाले के शरीर का वह अंग जहां पर दवाएं पहॅुच सकती है कटा-फटा
नहीं होना चाहिए।
 पशु पर कीटनाशक का प्रयोग सही तथा निर्देशित मात्रा में ही करना चाहिए |
 हमेशा पशु चिकित्सक की सलाह पर ही कीटनाशक का पशुओं पर इस्तेमाल करना चाहिए |

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