पशु स्वास्थ्य प्रबंधन का महत्त्वपूर्ण पहलू: पशुओं के आंतरिक परजीवी ( पेट के कीड़े ) एवं उनसे बचाव
पशु स्वास्थ्य प्रबंधन पशुपालन का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पहलू है। पशु स्वास्थ्य की अपेक्षित देखभाल का अभाव न सिर्फ पशुओं की उत्पादकता को प्रभावित करता है अपितु कभी-कभी पशुओं में स्थाई विकलांगता और मृत्यु-कारक बनकर भारी नुक्सान का कारण बन जाता है। आतंरिक परजीवी पशुपालकों को भारी आर्थिक हानि पंहुचा सकते हैं। भारत जैसे उष्णकटिबंधीय जलवायु वाले देश के चारागाह, मिट्टी और घास परजीवियो से संक्रमित होते हैं और जब पशु घास चरते हैं तो वहां मौजूद परजीवी पशुओं के शरीर के भीतर पहुँचकर उनके स्वास्थ्य को प्रभावित करने लगते हैं। इसलिए मनुष्यों की तरह पशुओ के लिए भी ससमय आन्तरिक परजीवियों का निराकरण आवश्यक है।
परिचय
पशुपालन सदैव ही भारतीय कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग रहा है। हमारी सरकार वर्ष 2020 तक किसानो की आय दुगुना करने का लक्ष्य लेकर चल रही है और इस लक्ष्य को हासिल करने में पशुपालन एक सशक्त भूमिका निभा सकता है। भारत एवं राज्य सरकार की कृषिकोंन्मुख नीतियां भी पशुपालन को केंद्र में रख कर बनाई जा रही है। जैविक खेती हो या ‘शुन्य-बजट कृषि’ का लक्ष्य, पशुपालन के बिना इन्हें साधा नहीं जा सकता। यह तय है कि आने वाले समय में पशुपालन एक सशक्त आर्थिक विकल्प बनकर उभरेगा और पशुधन एक अति महत्त्वपूर्ण भूमिका में नज़र आयेंगे।
पशु स्वास्थ्य प्रबंधन पशुपालन का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पहलू है। पशु स्वास्थ्य की अपेक्षित देखभाल का अभाव न सिर्फ पशुओं की उत्पादकता को प्रभावित करता है अपितु कभी-कभी पशुओं में स्थाई विकलांगता और मृत्यु-कारक बनकर भारी नुक्सान का कारण बन जाता है। आतंरिक परजीवी पशुपालकों को भारी आर्थिक हानि पंहुचा सकते हैं। भारत जैसे उष्णकटिबंधीय जलवायु वाले देश के चारागाह, मिट्टी और घास परजीवियों से संक्रमित होते हैं और जब पशु घास चरते हैं तो वहां मौजूद परजीवी पशुओं के शरीर के भीतर पहुँचकर उनके स्वास्थ्य को प्रभावित करने लगते हैं। इसलिए मनुष्यों की तरह पशुओ के लिए भी ससमय आन्तरिक परजीवियों का निराकरण आवश्यक है।
आतंरिक परजीवी
परजीवी वो जंतु हैं जो किसी भिन्न प्राणी या पौधों के ऊपर या भीतर निवास कर उनसे अपनी खुराक ग्रहण करते हुए अपना जीवन चक्र पूरा करते हैं। शरीर के अन्दर आंतों या अन्य अंगों में पलनेवाले जंतु “आंतरिक परजीवी’ कहलाते हैं जिन्हें बोलचाल की आम भाषा में ‘पशुओं में पेट के कीड़े’ के रूप में जाना जाता है। ये आतंरिक परजीवी पशुपालकों को भारी आर्थिक हानि पंहुचा सकते हैं। भारत जैसे उष्णकटिबंधीय जलवायु वाले देश के चारागाह, मिट्टी और घास परजीवियो से संक्रमित होते हैं और जब पशु घास चरते हैं तो वहां मौजूद परजीवी पशुओं के शरीर के भीतर पहुँचकर उनके स्वास्थ्य को प्रभावित करने लगते हैं। अक्सर ही ये आतंरिक परजीवी पशुओं की आंत, यकृत, आमाशय, फेफ़ड़ों आदि में अपना निवास बना लेते हैं। ये परजीवी न सिर्फ पशुओं के सामान्य स्वास्थ्यय को नुकसान पहुंचा कर उनकी उत्पादकता को कम कर देते हैं बल्कि कभी-कभी कुछ गंभीर बिमारियों को उत्पन्न कर पशुओं की मौत का कारण भी बन जाते हैं।
आतंरिक परजीवियों से ग्रस्त पशुओं के लक्षण–
आतंरिक परजीवियो से प्रभावित पशु प्रायः बेचैन रहता है। पर्याप्त दाना-पानी खिलाने पर भी उनका समुचित शारीरिक विकास नहीं हो पाता और उसकी उत्पादकता कम हो जाती है। प्रभावित पशु सुस्त एवं कमजोर हो जाते हैं। उनका वजन कम हो जाता है और हड्डियाँ दिखने लगती हैं। पशु का पेट बड़ा हो जाता है। पशु में दस्त होते हैं तथा कभी कभी रक्त और कीड़े भी दिखते हैं। प्रभावित पशु मिट्टी खाने लगता है। पशु के शरीर की चमक कम हो जाती है और बाल खुरदरे दिखते हैं। खून की कमी के कारण पशु एनेमिक हो जाते हैं और उनकी उत्पादकता कम हो जाती है। मादा पशुओं में गर्भ-धारण करने में कठिनाई होने लगती है। ऐसा पाया गया है कि परजीवियों के कारण पशुओं की उत्पादकता में औसतन लगभग सात प्रतिशत तक की कमी आ जाती है।
अत्यधिक चरने के कारण घासों एवं खरपतवारों की लम्बाई काफी कम हो जाती है जिसके कारण उनकी जडो में बसने वाले परजीवी जानवरों के पेट में पहुँच जाते हैं। अतः चारागाह का यथोचित प्रबंधन अपेक्षित है। जहाँ तक हो सके पशुओं को उन चरागाहों में चरने ले जायें जहाँ विभिन्न नस्लों के पशु चरने जाते हों।
परजीवियों से बचाव के उपाय-
परजीवियों से सुरक्षित रहने के लिए सफाई और स्वच्छता बनाए रख कर, पर्याप्त हरा और सूखा चारा उपलब्ध कराकर, पूरक पोषण और खनिज पदार्थ प्रदान कर, स्वच्छ कवक रहित चारा और साफ़ और पीने योग्य पानी उपलब्ध करा कर, नियमित और समय पर डीवर्मिग/कृमिनाशक कराकर और पर्याप्त और समय पर चिकित्सा सहायता के द्वारा हम पशुओं में परजीवियो की समस्या का प्रभावी रूप से निराकरण कर सकते हैं।
हर पशु मालिक को पशु चिकित्सक की सलाह के अनुसार इन परजीवियों से अपने पशुधन की रक्षा के लिए प्रयास करना चाहिए। आंतरिक परजीविओं यथा गोल कृमि, हुक कृमि, फ्लक्स आदि के लिए बिभिन्न प्रभावी दवाएं उपलब्ध हैं। इन कृमि निवारक दवाओ का नियमित रूप से प्रयोग करके, उत्पादकता घाटे के एक प्रमुख कारण से बचा जा सकता है। लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि जब भी पशुओं में बीमारी के लक्षण परिलक्षित हों पशुओं के स्वास्थ्य की देखभाल के लिए यथोचित कार्रवाई जरुर करें।
पशुओं में आतंरिक परजीवियो से सुरक्षा हेतु उन्हें हर तीन महीने में एक बार पेट के कीड़े की दवा अवश्य देनी चाहिए। साथ ही नियमित रूप से गोबर या मल की जाँच करनी चाहिए। जाँच में कीड़े की पुष्टि होते ही पशुचिकित्सक की सलाह से उचित कृमिनाशक दावा दें। पशुओं में टीकाकरण से पहले कृमिनाशक दावा अवश्य देनी चाहिए। हाँ, गाभिन पशुओं को पशुचिकित्सक की सलाह के बगैर किसी सूरत में कृमिनाशक दावा न दें।
पशुओं में पाए जाने वाले कुछ महत्तवपूर्ण परजीवी–
पशुओं में पाए जाने वाले महत्त्वपूर्ण आतंरिक परजीवियो में लीवर-फ्लूक तथा फैसिओला पशुओं को प्रभावित करने वाले वो दो आतंरिक परजीवी हैं जो पशुओ में छेरा नामक बीमारी उत्पन्न करते हैं। फ्लूक की समस्या वहां ज्यादा होती है जहाँ घोंघे पाए जाते हैं। वयस्क फ्लूक मबेशियों के पित्ताशय में पाए जाते हैं। वहीं ये अंडे देते हैं जो मल के साथ बाहर निकल कर घोंघों में पहुँच जाते हैं। पुनः एक नियत अवस्था तक पहुँच कर ये फ्लूक आसपास के चरगाहों तक पहुँच जाते हैं और फिर चारे के साथ पौधों के पेट में पहुँच जाते हैं। अतः चारे एवं चरागाहों के प्रति सावधानी बरतना आवश्यक है। ये दोनों परजीवी अपने जीवन का कुछ समय नदी, तलाब, पोखर आदि में पाये जाने वाले घोंघा में व्यतीत करते है और शेष समय पशुओं के शरीर (यकृत) में।
घोंघा से निकलकर इस परजीवी के अवस्यक र्लावा नदी, पोखर, तालाब के किनारे वाले घास की पत्तियों पर लटके रहते है। पशु जब इस घास के संपर्क में आते है, तो ये परजीवी पशुओं के शरीर में प्रवेश कर जाते है। शरीर के विभिन्न आंतरिक अंगों में भ्रमण करते हुए अंततः ये अपना स्थान पशु के यकृत (लीवर) तथा पीत की थैली (पित्ताशय) में बना लेते हैं। पशुओं का यकृत जैसे-जैसे प्रभावित होता है, वैसे-वैसे रोग के लक्षण प्रकट होते जाते है। बीमारी की तीव्रता यकृत के नुकासान की व्यापकता पर निर्भर करती है। इनसे ग्रसित जानवरों में भूख में कमी होना, रोएं का भींगा-भींगा प्रतीत होना, शरीर का क्षीण होते जाना, कभी-कभी बदबूदार बुलबुले के साथ पतला दस्त आना, घोघ फूल जाना, उठने में कठिनाई होना और उत्पादन क्षमता का ह्रास होना जैसे लक्षण दिखते हैं। समय पर उचित इलाज न होने पर पशु की मृत्यु भी हो सकती है। किन्तु शुरु से ही सतर्कता बरतने पर पशु आसानी से ठीक हो जाते हैं।
अतः पशु चिकित्सक के परामर्श से रोग ग्रस्त पशु की चिकित्सा करावें। कृमिनाशक दवा, विशेषकर ओकसीक्लोजानाइड (1 ग्राम प्रति 100 किलो ग्राम पशु वजन के लिए) का प्रयोग करें। ध्यान रखे कि दवा सुबह भूखे/खाली पेट में खिलायी/पिलायी जानी चाहिए। इस दवा का व्यवहार पशुओं के गर्भावस्था के दौरान भी बिना किसी विपरीत प्रभाव के किया जा सकता है। साल में दो बार प्रत्येक बार में 15 दिनों के अन्तर पर दो खुराक दवा का प्रयोग करना चाहिए। पशु संसाधन विभाग की ओर से राज्य के पशु-चिकित्सालयों में इस दवा की निःशुल्क व्यवस्था की जाती है। बाढ़ प्रभावित तथा जल जमाव वाले क्षेत्रों के पशुपालकों को इस रोग से अधिक सतर्क रहने की जरूरत है।
इनके अतिरिक्त राउंड वर्म, टेप वर्म, फ्लूक आदि कुछ ऐसे परजीवी हैं जो सामान्य तौर पर पशुओं में बहुतायत में पाए जाते हैं और अनवरत नुकसान पहुचाते रहते हैं। राउंड वर्म को मुख्या तौर पर सार्वाधिक आर्थिक नुकसानदाई माना जाता है। टेप वर्म भी पशुओं में आर्थिक हानि के कारक बनाते है किन्तु इनसे होने वाले नुकसान राउंड वर्म की तुलना में कम होता है। ये परजीवी पशुओं के पेट में रहकर उनका भोजन और रक्त चूसते रहते हैं जिनके कारण पशुओं में दुर्बलता आ जाती है। अतः इनका प्रबंधन भी अत्यावस्यक है।
आज कई तरह की कृमिनाशक दवाएं उपलब्ध हैं जो इन आतंरिक परजीवियो का प्रभावशाली निवारण करने में सक्षम हैं। राउंड वर्म और टेप वर्म आदि प्रायः सभी प्रकार के पालतू पशुओं जैसे की गाय, भैंस, भेड़, बकरी, घोडा, सूकर, मुर्गी आदि में पाए जाते हैं। इनके निदान हेतु पिपराजीन कम्पाउंड 66 मिग्रा। प्रति किलोग्रा। शारीरिक वजन या लेवामिसोल-7।5 मिग्रा। प्रति किलोग्राम शारीरिक वजन शारीरिक वजन मोरेन्टल टारटरेट-10 मिग्रा। प्रति किलोग्राम शारीरिक वजन मोरेन्टल टारटरेट-10 मिग्रा। प्रति किलोग्राम शारीरिक वजन की दर से प्रभावित पशुओं को खिलानी चाहिए। हुकवर्म से प्रभावित पशुओं में कमजोरी, रक्तअल्पता, खून तथा आँव मिला मल देखने को मिलता है। इनके उपचार हेतु टेट्रामिसोल 15-20 मिग्रा। प्रति किग्रा। शारीरिक वजन की दर से खिलाना है। इसके अतिरिक्त मेबेन्डाजेला 40-50 मिग्रा। प्रति ग्रा। शारीरिक वजन की दर से भी खिलाया जा सकता है।
तालिका-1: परजीवी एवं रोग उपचार
रोग एवं परजीवी | मध्यवर्ती परपोषी | परपोषी | प्रमुख लक्षण | उपचार |
यकृत कृमि (लीवर फ्लूक) | जलीय घोंघा | गाय, भैंस, भेड़, बकरी | भूख की कमी, कब्जियत तथा दस्त, घेंघा फूलना | ऑक्सीक्लोजानाइड -10 से 15 मिग्रा। प्रति किलोग्राम शारीरिक वजन
हेक्साक्लोरोइयेन- 300 मिग्रा। प्रति किलोग्राम शारीरिक वजन रुफोक्सानाइड |
छेरा रोग (एम्फीस्टोमिओसिस) | जलीय घोंघा | गाय, भैंस, भेड़, बकरी | भूख की कमी, छेरा दस्त एवं घेंघा फूलना | उपरोक्त |
कृमि रोग (गोल कृमि, फीता कृमि आदि) | – | पालतू पशु जैसे गाय, भैंस, भेड़, बकरी, घोड़ा, सूकर, मुर्गी आदि | दस्त | पिपराजीन कम्पाउंड 66 मिग्रा। प्रति किलोग्रा। शारीरिक वजन लेवामिसोल-7।5 मिग्रा। प्रति किलोग्राम
शारीरिक वजन मोरेन्टल टारटरेट-10 मिग्रा। प्रति किलोग्राम शारीरिक वजन |
हुक कृमि | – | कुत्ता | कमजोरी, रक्तअल्पता खून तथा आँव मिला मल | टेट्रामिसोल 15-20 मिग्रा। प्रति किग्रा। शारीरिक वजन की दर से खिलाना है।
मेबेन्डाजेला 40-50 मिग्रा। प्रति ग्रा। शारीरिक वजन की दर से खिलाना है। |
कॉक्सिडियोसिस | – | गाय, भैंस, बकरी, घोड़ा, सूकर, मुर्गा | भूख की कमी, छेरा, खूनी दस्त | गाय, भैंस, भेड़, बकरी को अम्प्रोलियम 20-40 मिग्रा। प्रति किलो वजन 4-5 दिनों तक मुर्गियों को सल्फाडाइमीडीन (0।2:) या सल्फाक्वलीनोक्सलीन (0।5:) 5-7 दिनों तक पीने के पानी में |
ध्यान रखने योग्य बातें
जब भी किसी कृमिनाशक का चुनाव करना हो तो ये आवश्यक है कि कुछ खाश बिन्दुओं का ध्यान रखा जाये। उपचार किये जाने वाले पशुओ की प्रजाति, अवस्था, दवा की प्रभाविकता एवं उपयोग की सहजता, नियंत्रण के व्यापक प्रभाव की समझ, लागत, आदि कुछ ऐसे पहलु हैं जिनका ध्यान रखा जाना भी आवश्यक है। निराकरण हेतु सही समय पर कृमिनाशको का प्रयोग करें। पशुओं के चारे एवं चारागाह का सही चुनाव करें। जहाँ तक संभव हों पशु चिकित्सक की सलाह लेकर ही पशुओं को दवा देनी चाहिए।
डॉ. अवधेश कुमार झा एवं डॉ. सोनिया कुमारी
संजय गाँधी गव्य प्रौद्द्योगिकी संसथान, जगदेव पथ, पटना