कृषि सुधार विधेयक 2020 से फायदा ही फायदा
डॉ राजेश कुमार सिंह ,पशुधन विशेषज्ञ , स्तंभकार , जमशेदपुर , झारखंड
लोकतंत्र में दो बातें बहुत मायने रखती हैं, एक सरकारी नीतियां और दूसरी सरकार की नीयत. कृषि सुधार विधेयक 2020 को देखने से यह साफ दिखाई देता है की मोदी सरकार की नीति तथा नियत दोनों ही किसान तथा देश हित मे है । ईस बिल को लेकर भ्रम फैलानेवाले अपने मकसद मे कामयाब नहीं होंगे ।
देश में सत्तारूढ़ नरेंद्र मोदी सरकार खेती-किसानी के धंधे से जुड़े लोगों का हित चाहती है, इसलिए उसने इससे जुड़े जड़वत कानूनों को बदलने की हिम्मत दिखाई है। हालांकि, उसके इन युगान्तकारी प्रयासों से पास हुए कृषि व किसानों से जुड़े दो बिलों को लेकर कतिपय किसान संगठनों के द्वारा जहां-तहां बावेला भी मचाया जा रहा है, जिसके विरोध की गूंज संसद से सड़क तक सुनाई दे रही है। इससे किसानों व कृषि उत्पाद कारोबारियों के गुमराह होने का अंदेशा भी बढ़ गया है। केन्द्र सरकार द्वारा पारित किये गए तीनों कृषि बिलों को कृषि सुधार में अहम कदम मान रही है लेकिन किसान संगठन और विपक्ष इसके विरोध में खड़ा है. सरकार का कहना है कि ये बिल किसान जिसे चाहे अपनी उपज (Produce) बेचने की आजादी देता है, मगर किसानों की माने तो सरकार एमएसपी को खत्म करना चाहती है और मंडियों को छीनकर कॉरपोरेट कंपनियों को देना चाहती है. इस प्रकार की शंकाओं को दूर करने के लिए सरकार ने किसानों को 10 पॉइंट का प्रस्ताव भी भेजा, जिसे किसान संगठनो (Farmer Union) से खारिज कर दिया.
आपको बता दें कि राज्य सरकारों द्वारा संचालित 2,500 एमएसपी मंडियां हैं, जहां पहले 67 प्रतिशत तक कृषि उपज की खरीद होती थी। वहीं, सरकारी खरीद में पंजाब और हरियाणा का हिस्सा लगभग 90 प्रतिशत है। यही वजह है कि कृषि और किसानों से जुड़े दो बिलों को लेकर किसानों के विरोध की जो गूंज सुनाई दे रही है, उसके मद्देनजर आपके लिए यह जानना बेहद जरूरी है कि आखिरकार इन बिलों में क्या है और इसके क्या लाभ बताए जा रहे हैं? वहीं, इनको लेकर जो आशंकाएं जताई जा रही हैं, वह कितनी निर्मूल हैं, उस पर भी एक नजर डालना दिलचस्प है।
सबसे पहले यह जानते हैं कि वो दो बिल कौन कौन से हैं- पहला, कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्द्धन और सुविधा) विधेयक-2020. और दूसरा, कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक-2020.
मूल्य आश्वासन पर किसान (बंदोबस्ती और सुरक्षा) समझौता और कृषि सेवा कानून ——–
सरकारी दावे:
इस कानून को सरकार ने कांट्रैक्ट फार्मिंग के मसले पर लागू किया है. इससे खेती का जोखिम कम होगा और किसानों की आय में सुधार होगा. समानता के आधार पर किसान प्रोसेसर्स, थोक विक्रेताओं, बड़े खुदरा कारोबारियों, निर्यातकों आदि के साथ जुड़ने में सक्षम होगा. किसानों की आधुनिक तकनीक और बेहतर इनपुट्स तक पहुंच सुनिश्चित होगी. मतलब यह है कि इसके तहत कांट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा दिया जाएगा. जिसमें बड़ी-बड़ी कंपनियां किसी खास उत्पाद के लिए किसान से कांट्रैक्ट करेंगी. उसका दाम पहले से तय हो जाएगा. इससे अच्छा दाम न मिलने की समस्या खत्म हो जाएगी.
किसानों का डर:
अन्नदाताओं के लिए काम करने वाले संगठनों और कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि इस कानून से किसान अपने ही खेत में सिर्फ मजदूर बनकर रह जाएगा. केंद्र सरकार पश्चिमी देशों के खेती का मॉडल हमारे किसानों पर थोपना चाहती है. कांट्रैक्ट फार्मिंग में कंपनियां किसानों का शोषण करती हैं. उनके उत्पाद को खराब बताकर रिजेक्ट कर देती हैं. दूसरी ओर व्यापारियों को डर है कि जब बड़े मार्केट लीडर उपज खेतों से ही खरीद लेंगे तो आढ़तियों को कौन पूछेगा. मंडी में कौन जाएगा.
कृषि उपज वाणिज्य एवं व्यापार-संवर्धन एवं सुविधा कानून ——————–
सरकारी दावे:
इस कानून के लागू हो जाने से किसानों के लिए एक सुगम और मुक्त माहौल तैयार हो सकेगा, जिसमें उन्हें अपनी सुविधा के हिसाब से कृषि उत्पाद खरीदने और बेचने की आजादी होगी. ‘एक देश, एक कृषि मार्केट’ बनेगा. कोई अपनी उपज कहीं भी बेच सकेगा. किसानों को अधिक विकल्प मिलेंगे, जिससे बाजार की लागत कम होगी और उन्हें अपने उपज की बेहतर कीमत मिल सकेगी.
इस कानून से पैन कार्ड धारक कोई भी व्यक्ति, कंपनी, सुपर मार्केट किसी भी किसान का माल किसी भी जगह पर खरीद सकते हैं. कृषि माल की बिक्री कृषि उपज मंडी समिति (APMC) में होने की शर्त हटा ली गई है. जो खरीद मंडी से बाहर होगी, उस पर किसी भी तरह का टैक्स नहीं लगेगा.
किसानों का डर:
जब किसानों के उत्पाद की खरीद मंडी में नहीं होगी तो सरकार इस बात को रेगुलेट नहीं कर पाएगी कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) मिल रहा है या नहीं. एमएसपी की गारंटी नहीं दी गई है. किसान अपनी फसल के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी मांग रहे हैं. वो इसे किसानों का कानूनी अधिकार बनवाना चाहते हैं, ताकि तय रेट से कम पर खरीद करने वाले जेल में डाले जा सकें. इस कानून से किसानों में एक बड़ा डर यह भी है कि किसान व कंपनी के बीच विवाद होने की स्थिति में कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटाया जा सकता. एसडीएम और डीएम ही समाधान करेंगे जो राज्य सरकार के अधीन काम करते हैं. क्या वे सरकारी दबाव से मुक्त होकर काम कर सकते हैं?
व्यापारियों का कहना है कि सरकार के नए कानून में साफ लिखा है कि मंडी के अंदर फसल आने पर मार्केट फीस लगेगी और मंडी के बाहर अनाज बिकने पर मार्केट फीस नहीं लगेगी. ऐसे में मंडियां तो धीरे-धीरे खत्म हो जाएंगी. कोई मंडी में माल क्यों खरीदेगा. उन्हें लगता है कि यह आर्डिनेंस वन नेशन टू मार्केट को बढ़ावा देगा.
बताते चलें कि कृषि से जुड़े इन दो बिलों के अलावा आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020 के निर्धारित प्रावधानों को लेकर भी किसानों की ओर से ऐतराज जताया जा रहा है, जिसमें कोई दम नहीं है। सरकार ने इससे जुड़े एक एक पहलू को स्पष्ट करने की कोशिश की है।
पहला, जहां तक कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्द्धन और सुविधा) विधेयक-2020 का सवाल है तो ये राज्य-सरकारों की ओर से संचालित एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी (एपीएमसी) मंडियों के बाहर (बाजारों या डीम्ड बाजारों के भौतिक परिसर के बाहर) फार्म मंडियों के निर्माण के बारे में है। क्योंकि भारत में 2,500 एपीएमसी मंडियां हैं जो राज्य सरकारों द्वारा संचालित हैं। वहीं, दूसरा बिल कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक-2020) कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग या अनुबंध खेती के बारे में है। जबतक हमलोग इससे जुड़े एक एक पहलू को नहीं समझ लेंगे, तबतक किसानों को समझाना किसी के बूते की बात नहीं होगी।
इसलिए, हम यहां पर आपको नए बिलों के कतिपय लाभ के बारे में बता रहे हैं-
पहला, राज्यों की कृषि उत्पादन विपनण समिति यानि एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी (एपीएमसी) के अधिकार बरकरार रहेंगे। इसलिए किसानों के पास सरकारी एजेंसियों का विकल्प खुला रहेगा।
दूसरा, नए बिल किसानों को इंटरस्टेट ट्रेड (अंतरराज्यीय व्यापार) को प्रोत्साहित करते हैं, ताकि किसान अपने उत्पादों को दूसरे राज्य में स्वतंत्र रूप से बेच सकेंगे।
तीसरा, वर्तमान में एपीएमसीज की ओर से विभिन्न वस्तुओं पर 1 प्रतिशत से 10 फीसदी तक बाजार शुल्क लगता है, लेकिन अब राज्य के बाजारों के बाहर व्यापार पर कोई राज्य या केंद्रीय कर नहीं लगाया जाएगा।
चतुर्थ, किसी एपीएमसी टैक्स या कोई लेवी और शुल्क आदि का भुगतान नहीं होगा। इसलिए और कोई दस्तावेज की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। वहीं, खरीदार और विक्रेता दोनों को लाभ मिलेगा। निजी कंपनियों और व्यापारियों की ओर से एपीएमसी टैक्स का भुगतान होगा, किसानों की ओर से नहीं।
पंचम, किसान कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग या अनुबंध खेती के लिए प्राइवेट प्लेयर्स या एजेंसियों के साथ भी साझेदारी कर सकते हैं।
छठा, कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग निजी एजेंसियों को उत्पाद खरीदने की अनुमति देगी- कॉन्ट्रेक्ट केवल उत्पाद के लिए होगा। किसी भी निजी एजेंसियों को किसानों की भूमि के साथ कुछ भी करने की अनुमति नहीं होगी और न ही कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग अध्यादेश के तहत किसान की जमीन पर किसी भी प्रकार का निर्माण होगा।
सातवां, वर्तमान में किसान सरकार की ओर से निर्धारित दरों पर निर्भर हैं। लेकिन नए आदेश में किसान बड़े व्यापारियों और निर्यातकों के साथ जुड़ पाएंगे, जो खेती को लाभदायक बनाएंगे।
आठवां, प्रत्येक राज्य में कृषि और खरीद के लिए अलग-अलग कानून हैं। लिहाजा, नए कानून के तहत लागू एक समान केंद्रीय कानून सभी हितधारकों (स्टेकहोल्डर्स) के लिए समानता का अवसर उपलब्ध कराएगा।
नवम, नए बिल कृषि क्षेत्र में अधिक निवेश को प्रोत्साहित करेंगे, क्योंकि इससे प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। निजी निवेश खेती के बुनियादी ढांचे को और मजबूत करेगा और रोजगार के अवसर पैदा करेगा।
दशम, एपीएमसी प्रणाली के तहत केवल लाइसेंस प्राप्त व्यापारी जिसे आड़तिया यानी बिचौलिया कहा जाता है, को अनाज मंडियों में व्यापार करने की अनुमति थी, लेकिन नया विधेयक किसी को भी पैन नंबर के साथ व्यापार करने की अनुमति देता है।
ग्यारह, इससे बिचौलियों का कार्टेल टूट जाएगा, जो पूरे भारत में एक अहम मुद्दा है। बारह, नया बिल बाजार की अनिश्चतिता के जोखिम को किसान से निजी एजेंसी और कंपनी की ओर ट्रांसफर करेगा। यहां पर आपके लिए यह भी जानना जरूरी है कि 2015 में आई शांता कुमार समिति की रिपोर्ट के मुताबिक, 94 प्रतिशत किसान पहले से ही निजी कंपनियों और व्यापारियों को अपने उत्पाद बेच रहे हैं। वहीं, एपीएमसी मंडियों में केवल 6 प्रतिशत किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में सरकारी खरीद एजेंसियों को अपने उत्पाद बेचते हैं, लेकिन उन पर यानी 6 प्रतिशत किसानों पर निजी कंपनियों और व्यापारियों को उत्पाद बेचने के लिए कोई प्रतिबंध नहीं है।
खास बात यह कि भारत की सरकारी खरीद में पंजाब और हरियाणा का हिस्सा लगभग 90 प्रतिशत है। वहीं, शेष खरीददारी ज्यादातर मध्य प्रदेश, राजस्थान और कुछ अन्य राज्यों से होती है। इसलिए अधिकतर राज्य पहले से ही खरीद योजनाओं से बाहर हैं।
जानिए फार्म बिलों को लेकर कतिपय निर्मूल आशंकाएं ——–
पहला, पंजाब और हरियाणा में वर्तमान समय में फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया जैसी एजेंसियां किसानों का 100 फीसदी गेहूं और चावल आदि खरीद कर उस पर एमएसपी की सहूलियत देती है, लेकिन किसान संगठनों और विपक्षी पार्टियों को अंदेशा है कि निजी मंडिया खुल जाने से सरकारी एजेंसियों की प्रोक्योरमेंट काफी घट जाएगा। स्वाभाविक सवाल है कि बाकी उपज कौन खरीदेगा- इसका जवाब निजी एजेंसियां हैं, जो किसानों की निजी खरीद पर निर्भरता बढ़ाएगा।
दूसरा, चावल पंजाब और हरियाणा में केवल खरीद के लिए पैदा किया जाता है, क्योंकि यहां स्थानीय खपत बहुत कम है। भविष्य में चावल की पूरी उपज निजी खरीद पर निर्भर हो सकती है।
तीसरा, किसान और किसान यूनियनों को डर है कि कॉरपोरेट्स कृषि क्षेत्र से लाभ प्राप्त करने की कोशिश करेंगे।
चतुर्थ, किसान इसलिए विरोध कर रहे हैं क्योंकि बाजार कीमतें आमतौर पर एमएसपी कीमतों से ऊपर या समान नहीं होतीं। बता दें कि हर साल 23 फसलों के लिए एमएसपी घोषित होता है।
पांचवां, केंद्र ने एमएसपी प्रणाली को जारी रखने का बेशक आश्वासन दिया होगा, लेकिन भविष्य में इसके चरणबद्ध ढंग से समाप्त होने की संभावना है।
छठा, विधेयकों से खाद्य पदार्थों के संग्रहण पर मौजूदा प्रतिबंधों को हटाने का इरादा दिखता है। ऐसी आशंकाएं हैं कि बड़े प्लेयर्स और बड़े किसान जमाखोरी का सहारा लेंगे जिससे छोटे किसानों को नुकसान होगा, जैसे कि प्याज की कीमतों में।
सातवां, एपीएमसी के स्वामित्व वाले अनाज बाजार (मंडियों) को उन बिलों में शामिल नहीं किया गया है जो इन पारंपरिक बाजारों को एक वैकल्पिक विकल्प के रूप में कमजोर करेगा। आठवां, राज्य राजस्व को खो देंगे जो बाजार शुल्क के रूप में एकत्र किया गया है।
लेकिन आपको बता दे के किसानो के धारणा प्रदरसन के बाद किसान संगठनो के नेताओ तथा कृषि मंतरी के साथ हुई वार्ता से यह साफ हो गया की सरकार उपरोक्त सभी संकाओ को दूर करने के किए लिखित आस्वास्न देने को राजी है ।
अब आपको बताते हैं कि पुराने एपीएमसी सिस्टम के काम करने का क्या है तरीका-
पहला, आमतौर पर किसान अपने स्थानीय अनाज बाजार में जाते हैं और अपनी उपज को बिचौलिए को बेचते हैं जिसे आढ़ती कहा जाता है।
दूसरा, किसानों को राज्य के बाहर अपनी उपज बेचने की अनुमति नहीं है और यदि वे ऐसा करते हैं तो उन्हें संबंधित राज्य एपीएमसी को बाजार शुल्क का भुगतान करना होगा जो कि 6 प्रतिशत तक है।
तीसरा, भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) जैसी कुछ राज्य और केंद्रीय एजेंसियां जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) आदि के लिए तय एमएसपी पर इन बिचौलियों के माध्यम से खाद्यान्न की खरीद करती हैं।
चतुर्थ, भले ही बाजार में कीमतें अधिक हों, किसानों को लाभ नहीं मिलता है या उनकी कोई भूमिका नहीं होती है।
पांचवां, ये बिचौलिए खाद्यान्न के अलावा कृषि उपज भी खरीदते हैं और इसे थोक विक्रेताओं को ऊंचे दामों पर बेचकर मोटा मुनाफा कमाते हैं।
छठा, ये बिचौलिए अक्सर जरूरतमंद किसानों को ऊंची ब्याज दर पर कर्ज देकर मनी लैंडिंग रैकेट भी चलाना शुरू कर देते हैं।
सातवां, किसान अपनी जमीन गिरवी रखकर इन निजी साहूकारों यानी ब्याज पर कर्ज देने वाले से कर्ज लेते हैं। बताया जाता है कि पंजाब में जितने किसानों ने खुदकुशी की है, उनमें से अधिकतर के लिए जिम्मेदार इन बिचौलियों की ओर से चलाया जा रहा कर्ज देने वाले रैकेट ही है।
वहीं, मोदी सरकार ने सभी सफेद झूठों पर अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है। उसने किसानों को फार्म बिल के फायदे गिनाए हैं। उसका कहना है कि कृषि बिल को लेकर उसने क्या बदलाव किए हैं, उसे लेकर किसानों व उनके संगठनों के मन में कई तरह की निराधार शंकाएं हैं, जिन्हें दूर करने के लिए उसने अपनी स्थिति स्पष्ट करने की कोशिश की है। उसने उन सवालों पर सफाई दी है जिससे जाहिर होता है कि क्या है ‘झूठ’ और क्या है ‘सच’?
पहला सवाल है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य का क्या होगा?
क्योंकि किसान संगठन झूठ फैला रहे हैं कि किसान बिल असल में किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य न देने की साजिश है। वहीं, सरकार अपना सच प्रकट करते हुए बता रही है कि किसान बिल का न्यूनतम समर्थन मूल्य से कोई लेना-देना नहीं है। एमएसपी दिया जा रहा है और भविष्य में दिया जाता रहेगा।
दूसरा सवाल है कि मंडियों का क्या होगा?
क्योंकि किसान संगठन झूठ फैला रहे हैं कि अब मंडियां खत्म हो जाएंगी। जबकि सरकार सच बताते हुए स्पष्ट कर चुकी है कि मंडी सिस्टम जैसा है, वैसा ही रहेगा।
तीसरा सवाल है कि किसान विरोधी है बिल?
दरअसल, किसान संगठन झूठ फैला रहे हैं कि किसानों के खिलाफ है किसान बिल। जबकि, सरकार ने सच बताते हुए कहा कि किसान बिल से किसानों को आजादी मिलती है। अब किसान अपनी फसल किसी को भी, कहीं भी बेच सकते हैं। इससे ‘वन नेशन, वन मार्केट’ स्थापित होगा। बड़ी फूड प्रोसेसिंग कंपनियों के साथ पार्टनरशिप करके किसान ज्यादा मुनाफा कमा सकेंगे।
चतुर्थ सवाल है कि क्या बड़ी कंपनियां शोषण करेंगी?
क्योंकि किसान संगठन झूठ फैला रहे हैं कि कॉन्ट्रैक्ट के नाम पर बड़ी कंपनियां किसानों का शोषण करेंगी। किंतु सरकार ने सच बताते हुए साफ किया है कि समझौते से किसानों को पहले से तय दाम मिलेंगे, लेकिन किसान को उसके हितों के खिलाफ नहीं बांधा जा सकता है। किसान उस समझौते से कभी भी हटने के लिए स्वतंत्र होगा, इसलिए लिए उससे कोई पेनाल्टी नहीं ली जाएगी।
पांचवां सवाल है कि क्या छिन जाएगी किसानों की जमीन?
दरअसल, किसान संगठन झूठ फैला रहे हैं कि किसानों की जमीन पूंजीपतियों को दी जाएगी। लेकिन सरकार ने सच बताते हुए कहा है कि बिल में साफ कर दिया गया है कि किसानों की जमीन की बिक्री, लीज और गिरवी रखना पूरी तरह प्रतिबंधित है। समझौता फसलों का होगा, जमीन का नहीं।
छठा सवाल है कि क्या किसानों को नुकसान है?
किसान संगठन झूठ फैला रहे हैं कि किसान बिल से बड़े कॉर्पोरेट को फायदा है, किसानों को नुकसान है। हालांकि, सरकार ने सच बताते हुए कहा है कि कई राज्यों में बड़े कॉर्पोरेशंस के साथ मिलकर किसान गन्ना, चाय और कॉफी जैसी फसल उगा रहे हैं। लिहाजा, अब छोटे किसानों को ज्यादा फायदा मिलेगा और उन्हें तकनीक और पक्के मुनाफे का भरोसा मिलेगा।