खुरपका-मुँहपका रोग एवं बचाव
डाॅ० सविता कुमारी’, डाॅ० दीपक कुमार’’ एवं डाॅ० संजय कुमार’’’
बिहार पशुचिकित्सा महाविद्यालय, बिहार पशु विज्ञान विश्वविद्यालय, पटना
1.’सहायक प्राध्यापक, पशु सूक्ष्मविज्ञान विभाग;
2.’’सहायक प्राध्यापक, पशु व्याधि विभाग एवं
3.’’’सहायक प्राध्यापक (पशु पोषण विभाग)
खुरपका-मुँहपका रोग एक तेजी से फैलने वाला छूतदार विषाणुजनित संक्रामक रोग है, जो विभक्त खुरवाले पशुओं यथा- गाय, भैंस, सांड, भेंड़, बकरी, सुअर एवं हिरन जैसे जंगली जानवरों में होता है। भारत वर्ष में भी यह बीमारी हर स्थान में होती है। इस बीमारी से ग्रस्त पशु ठीक होने पर भी अत्यन्त कमजोर रहते हैं, दूध एवं ऊन का उत्पादन बहुत कम हो जाता है और बैल काफी समय तक काम करने के योग्य नहीं रहते। रोग से पीड़ित व्यस्क पशुओं में अधिक मृत्यु नहीं होती है, लेकिन अस्वस्थता प्रतिशत अधिक होने और उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने के कारण इस रोग का बहुत अधिक आर्थिक महत्व है।
खुरपका-मुँहपका रोग के कारणः
यह रोग एक सूक्ष्म विषाणु के कारण होता है, जिसके अनेक प्रकार और उप-प्रकार हैं। इसके प्रमुख किस्मों में ओ, ए, सी, एशिया-1, सैट-1, 2, 3 शामिल हैं। परन्तु एशिया महादेश के भारत, नेपाल, श्रीलंका, वर्मा मंे ओ, ए, सी, एशिया-1 मुख्य रूप से पाये जाते हैं।
रोग का फैलावः
मुख्य रूप से यह बीमार पशु के सीधे सम्पर्क में आने से तेजी से फैलने वाला रोग है। इस बीमारी के फैलने के कई अन्य सहयोगी कारक भी हैं, जिसमें नम वातावरण, बीमार पशुआंे का सम्पर्क, बीमार पशु के लिए दूषित आहार व पानी का प्रयोग, पशु का आन्तरिक कमजोरी, पशुआंे तथा लोगों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर आवागमन एवं हवा का तेज बहाव प्रमुख कारण हैं।
एकबार रोग से ठीक हो जाने वाली गाय के शरीर में लगभग दो वर्षों तक विषाणु जीवित रह सकते हैं और दूसरे पशुओं में रोग पहुँचा सकते हैं। रोग शुरू होने के प्रथम चार दिनों बाद दूध, वीर्य, मूत्र, गोबर आदि में यह विषाणु उपस्थित रहते हैं। रोग के विषाणु बीमार पशु के लार, मुँह, खुर, थनों के फफोले में बहुत अधिक संख्या में पाए जाते हैं। यह खुले घास, चारा एवं फर्श पर भी महीनों जीवित रह सकता है, जो जीभ, मुँह, आँत, खुरों के बीच की जगह, थनों एवं घाव के द्वारा स्वस्थ्य पशु के रक्त में पहुँचता है और करीब 5 दिनों के संक्रमण के बाद बीमारी के लक्षण पैदा करते हैं।
रोग के लक्षणः
इस रोग के आने पर पशु को 104-1050 फारेनहाइट तक तेज बुखार हो जाता है।
बीमार पशु के मुँह, मसूढ़े, जीभ, ओष्ठ के अन्दर के भाग, खुरों के बीच की जगह तथा कभी-कभी थनों व अयन पर छाले पड़ जाते हैं।
मुँह से लार बहने लगती है। मुँह से चपचपाहट आवाज उत्पन्न होती है।
जीभ तथा तलवे के छाले फटकर घाव में बदल जाते हैं।
कभी-कभी जीभ की सतह निकलकर बाहर आ जाती है।
मुँह में घाव व दर्द के कारण पशु खाना-पीना बन्द कर देते हैं, जिससे वह बहुत कमजोर हो जाता है।
पशु जुगाली करना बन्द कर देता है।
खुर में जख्म के वजह से पशु लंगड़ाकर चलता है। सावधानी नहीं बरतने से घावों में कीड़े पड़ जाते हैं।
दुधारू पशुओं में दूध का उत्पादन बहुत कम हो जाता है।
बैलों की कार्य क्षमता प्रभावित हो जाती है और पशु स्वस्थ्य होने पर भी महीनों हाँफते रहते हैं।
गर्भवती पशुओं में गर्भपात की सम्भावना बनी रहती है।
बीमारी से ठीक होने के पश्चात् भी पशुओं की प्रजनन क्षमता प्रभावित होती है।
7-8 दिनों के बाद इस बीमारी का असर थोड़ा कम होने लगता है, पशु खाना खाने लगता है। समय पर इलाज मिलने पर छाले और जख्म भर जाते हैं, परन्तु कभी-कभी संकर पशुओं में इस रोग से मृत्यु भी हो जाती है।
उपचार एवं बचावः
रोग ग्रसित पशुओं का अच्छे पशु चिकित्सक से समुचित उपचार करवाना आवश्यक है।
रोग होने पर पशु के स्वच्छता, पैर एवं मुख की सफाई पर विशेष ध्यान देना चाहिए। एक प्रतिशत पोटाशियम-परमैगनेट घोल से प्रभावित पैरों को दिन में दो-तीन बार धोकर मक्खी को दूर रखने वाली मलहम या नीम का तेल लगाना चाहिए। कीड़ा लगने पर तारपीन तेल का इस्तेमाल करना चाहिए।
मुख के छालों को 1 प्रतिशत फिटकरी के घोल बनाकर धोना चाहिए या बोरो ग्लिसरीन (850 मिली. ग्लिसरीन एवं 120 ग्राम बोरेक्स) लगायें।
रोग के दौरान पशु को मुलायम एवं सुपाच्य भोजन देना चाहिए।
पशु चिकित्सक के सलाह से दवा देना चाहिए।
रोग से बचाव के लिए चार माह से ऊपर के स्वस्थ सभी पशुओं को खुरपका-मुँहपका रोग के विरूद्ध टीका लगाना चाहिए। उसके चार सप्ताह पश्चात् पशु को बुस्टर खुराक देना चाहिए और प्रत्येक 6 माह पर नियमित टीकाकरण करवाना चाहिए।
बीमारी को फैलने से रोकने के लिए प्रभावित जगह को 4 प्रतिशत सोडियम कार्बोनेट घोल से या 2 प्रतिशत सोडियम हाइड्राॅक्साइड घोल से धोना चाहिए।
प्रभावित क्षेत्र के आस-पास के गाँवों या इलाकों में अन्य स्वस्थ्य पशुओं का टीकाकरण करना चाहिए।
पशुओं को पानी पिलाने के लिए सार्वजनिक तालाब, धाराओं इत्यादि का उपयोग नहीं करना चाहिए, इससे बीमारी फैल सकती है।
पीने के पानी में 2 प्रतिशत सोडियम बाईकार्बोनेट घोल मिलाना चाहिए।
प्रभावित क्षेत्र से पशुओं की खरीदारी नहीं करनी चाहिए।
रोग के फैलाव रोकने हेतु सावधानियाँः
रोग के फैलाव रोकने हेतु प्रभावित पशुओं को स्वच्छ एवं हवादार स्थान पर रखना चाहिए तथा अन्य स्वस्थ्य पशुओं को अलग स्थान पर रखना चाहिए।
प्रभावित पशु के मुँह से गिरने वाले लार एवं पैरों के घाव के संसर्ग में आने वाले वस्तुओं यथा- पुआल, भूसा आदि को जला देना चाहिए या जमीन में चूना के साथ गाड़ देना चाहिए।
पशुओं की देखभाल करने वाले व्यक्ति को भी हाथ-पाँव अच्छी तरह साफ करके ही अन्य पशुओं के पास जाना चाहिए।
इस बीमारे से मरे पशुओं के शव को खुला न छोड़कर गड्ढ़े में गाड़ देना चाहिए।
सम्पूर्ण नियंत्रण उपायः
पशु के अन्तरदेशीय स्थानान्तरण पर नियंत्रण रखना चाहिए।
पशुपालकों में जागृति एवं नियमित टीकाकरण पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
राज्य एवं राष्ट्र स्तर पर नियंत्रण कड़ा होना चाहिए।
नए पशुओं को झुण्ड या समूह में मिश्रित करने के पूर्व सिरम से उसकी जाँच करवानी चाहिए।
नए पशुओं को कम-से-कम चैदह दिनों तक अलग बाँधकर रखना चाहिए।