ग्लैंडर्स :एक पुन: उभरता संक्रामक एवं जूनोटिक रोग

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ग्लैंडर्स :एक पुन: उभरता संक्रामक एवं जूनोटिक रोग

ग्लैंडर्स :एक पुन: उभरता संक्रामक एवं जूनोटिक रोग

मोनिका भारद्वाज  प्रसेनजीत धर, सुभाष वर्मा, राजेश चहोता एवं  मधु सुमन

डॉ जी.सी. नेगी पशु चिकित्सा एवं पशु विज्ञान महाविद्यालय

चौधरी सरवण कुमार हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय

परिचयः

ग्लैंडर्स एक संक्रामक और घातक रोग है जो मुख्यतः घोडों, गधों और खच्चरों को प्रभावित करता है। यह

रोग एक ग्राम नेगेटिव जीवाणु बर्कहोल्डरिया मलई द्वारा होता है। ग्लैंडस के प्रकोप के कारण होने वाला

आर्थिक प्रभाव पशु पालकों के लिए असहनीय है। मनुष्यों के लिए इस रोग से बढता हुआ खतरा इस रोग

की महत्त्वता को और भी बढाता है। यह रोग विश्व पशु स्वास्थय संगठन द्वारा सूचीबद्ध किया गया है

और भारत में भी यह रोग उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त यह जीवाणु संभावित जैविक युद्ध फैलाने की

क्षमता भी रखता है।

ग्लैंडर्स का बहुव्यापक रोग विज्ञान:- मुख्य तौर से ग्लैंडर्स का वैधानिक परिक्षण, संक्रमित पशुओं के

उन्मूलन से और आयात प्रतिबंधों के माध्यम से कई देशों से उन्मूलन किया जा चूका है। हालांकि यह रोग

अभी भी अफ्रीका, एशिया, मध्य पूर्व और दक्षिण अमेरिका के कुछ हिस्सों में व्यापक है। भारत में ग्लैंडर्स

लम्बे समय से स्थानिक रोग है। हिमाचल प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों से भी ग्लैंडर्स के मामले पिछले कुछ वर्षों

में नियमित रूप से सामने आ रहे हैं। उदाहरणतः अक्तूवर, 2007 में यह रोग गधों और खच्चरों में सिरमौर

जिले के नाहन क्षेत्र में पाया गया है। इसके उपरांत मई, 2010 में मंडी जिले के पंडोह क्षेत्र से भी इस रोग की

पुष्टि की गई है।

ग्लैंडर्स के लक्ष्णः- मुख्यतः ग्लैंडर्स तीन प्रकार से होता है:

1.फेफडों का ग्लैंडर्स: इस प्रकार के दौरान संपूर्ण फंफडों में स्लेटी रंग के सख्त, गोल आकार की पीले रंग की

मवाद से भरी हुई गांठे बन जाती हैं।

2.नाक का ग्लैंडर्स – इस प्रकार के दौरान नाक के छेदों और नाक के पर्दे पर गांठें बन जाती है। गांठों के फटने पर नीले रंग का रिसाव बहने लगता है। फटी हुई गाठें अनयिमित उभरे हुए अल्सर बनाती है। ये अल्सर ठीक होने के बाद तारकीय निशान छोड जाते है। इसके अतिरिक्त लिम्फ नोडस में भी सूजन आ जाती है।

3.त्वचीय ग्लैंडर्सः इसे फारसी के नाम से भी जाना जाता है । इसके दौरान गांठें प्रभावित लिम्फ नोडज के

बीच लिम्फ वाहिकओं के साथ बन जाती हैं। इन गांठों के फटने से पीले रंग का मवाद निकलता है जो गहरे अल्सर का निर्माण करती हैं।

अधिकतर प्रकोपों में ये तीनों प्रकार स्पष्ट रूप से भिन्न नहीं दिखाई देते और एक ही पशु में एक साथ हो सकते हैं। इसका तीव्र रूप अक्सर गधों और खच्चरों में ज्यादातर पाया जाता है और लगभग एक सप्ताह में ही पशुओं की मृत्यु हो जाती है।

रोग संचरणः घोडे, गधों और खच्चरों के बीच इस रोग का संचरण मुख्य रूप से मौखिक – नाक श्लेष्मा

छिल्ली के संपर्क में आने, संक्रमित जानवरों के स्वास स्त्राव, त्वचा स्त्राव, बिस्तर, खाद, चारे द्वारा, पानी

के कुंडों द्वारा, घोडे की काठी उपकरणों इत्यादि से होता है। अत्यधिक भीड़-भाड़ वाले अस्तबल भी इस रोग

के संचरण में मुख्य भूमिका निभाते हैं।

ग्लैंडर्स का निदानः मुख्यतः ग्लैंडर्स की पुष्टि बर्कहोल्डरिया मैलेई की पहचान पर आधारित है। इसके

अतिरिक्त पीसीआर और वास्तविक समय पीसीआर द्वारा भी जीवाणु की उपस्थिति पता लगाई जा

सकती है। सीरोलॉजिकल परीक्षण के अंर्तगत कॉम्पलीमेंट फिक्सेशन परीक्षण एक सटीक तरीका है

जिसका उपयोग ग्लैंडर्स के निदान के लिए लंबे समय से किया जाता रहा है। इसके द्वारा संक्रामण के एक

सप्ताह के बाद ही सकारात्मक परिणाम देखें जा सकते है।।

इन सबके अतिरिक्त ELISA का उपयोग ग्लैंडर्स एवं अन्य मिलते जुलते रोगों अंतर के लिए किया जाता है। व्यावसायिक रूप् से मैलेलीन टेस्ट से ग्लैंडर्स का निदान संभव है। पशु कल्याण हेतु, आमतौर पर परीक्षण के लिए इस टेस्ट की अनुशंसा नहीं की जाती, हालाकि सुदूर स्थानिक क्षेत्र जहां उचित शीतलन संभव नहीं है वहां इस टेस्ट को किया जा सकता है।

उपचार:- ग्लैंडर्स का उपचार पूर्ण रूप् से जीवाणु से निजात नहीं दे सकता। प्रायोगिक ग्लैंडर्स के उपचार केलिए डॉक्सीसाइक्लिन, सफेट्राजिइाइम, जेंटामाइ्रसिन, स्ट्रेप्टोमाइसिन और ट्राइमेथोप्रिम उपयोग की जा सकती है।

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रोकथामः ग्लैंडर्स से पशुओं की सुरक्षा के लिए सर्वप्रथम राजकीय पशु चिकित्सा प्राधिकरण के अंर्तगतग्लैंडर्स के संदिग्ध मामलों को रिपोर्ट किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त एनआरएल के दिशानिर्देशों द्वारा ग्लैंडर्स की पुष्टि के बाद शव का उन्मूलन और निपटान किया जाना चाहिए। संक्रमित और संपर्क में आए पशुओं का संगरोधन किया जाना चाहिए। इसके उपरांत सकारात्मक मामलों की इच्छामृत्यु, शवों का उचित तरीकों से निराकरण एव्र कीटाणुषोधन को लागू करना भी अनिवार्य होता है। अधिसूचित क्षेत्र में प्रथम मामले की पुष्टि होने के बाद 100% घोडे, गधों और खच्चरों की 3 सप्ताह के भीतर जॉच की जाती है। इसके अतिरिक्त 21-30 दिनों की अंतराल के बाद अगले दो महीनों के भीतर दो बार नमूनों की जॉच की जानी चाहिए। ग्लैंडर्स से रोगग्रस्त पशुओं के संपर्क में आने वाले व्यक्तियों को हमेषा सुरक्षात्मक कपड़े, मास्क एवं डिस्पोजेवल दस्ताने और लंबे जूते पहनने चाहिए। मृत पशुओं को मुख्य रूप् से जलाना ही चाहिए। यदि पशुओं को जलाना संभव न हो तो कम से कम आठ फीट गहरे गडडे में पशुओं को दफनाना चाहिए। इस बात का विषेष ध्यान रखना चाहिए कि पशु को दफनाने का स्थान जल स्त्रोतों से सदैव दूर ही होना चाहिए। पशुओं मे इस रोग नियंत्रण के लिये कोई टीका उपलब्ध नहीं है। बर्तमान काल में वैज्ञानिक निरंतर टीका बनाने का प्रयास कर रहे है।

ग्लैंडर्स संबधित जन जागरूकताः

ग्लैंडर्स की मनुष्यों में रोग उत्पन्न करने की क्षमता को जनता के बीच उजागर करने के लिये संबधित सरकारी संस्थानों एवं गैर सरकारी संगठनों द्वारा जागरूकता अभियान चलाया जाना चाहिए। यह अभियान खास तौर पर घोडों, खच्चरों एवं गधों के पालने के स्थान एवं परिवहन के साधन मे उपयोग लाये जाने वाले स्थानों में चलाये जाने चाहिए।

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कीटाणुषोधनः

रोग की पुष्टि होने पर प्रभावित अस्तवल को तुरंत खाली कर देना चाहिए। इस रोग से निजात पान के लिए आमतौर पर सोडियम हाईपोक्लोराईड (500 पीपीएम), 70% इथेनॉल, 2% ग्लूटेराल्डिहाइड ,बेंजालकोनियम क्लोराइड (1/2000), अल्कोहल में मरक्यूरिक क्लोराइड, पोटाषियम परमैगनेट का उपयोग किया जाता है।

निष्कर्ष  के तौर पर ग्लैंडर्स एक अत्याधिक घातक रोग है इसलिए इसका समय से नियंत्रण करना अतिआवष्यक है। मनुष्यों के लिए इसके द्वारा बढता हुआ खतरा चिन्ताजनक है। सरकारी एवं गैर सरकारी संगठनों को इस रोग से निपटने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए।

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