बकरी पालन एक सुगम ब्यवसाय

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बकरी पालन एक सुगम ब्यवसाय

मनोज कुमार सिन्हा, अवनिष कुमार गौतम एवं मंजु सिन्हा

बिहार पशु चिकित्सा महाविघालय पटना . 14


प्राचीन काल से ही पशुपालन हमारे जीवन का एक अटूट हिस्सा रहा है। भारत एक कृषि प्रधान देश है एवं बिहार का भी प्रमुख उधोग कृषि है, कृषि एवं पशुपालन एक दुसरे के अभिन्न अंग है। बिहार के गाँवों में दो प्रकार के लोग हैं खेतिहर एवं खेतिहर मजदुर। खेती बारी के अलावा बचे हुए समय का सदुपयोग करते हुए बकरीपालन का धंधा अपनाया जा सकता है। बकरियों से हमें सारी उपयोगी चीजें मिलती है जो हमारी खेती, तन्दुरूस्ती तथा उधोग धंधों के लिए जरूरी है। बकरी की सबसे बड़ी विशेसता यह है कि वह किसी भी स्थान में बिना पर्याप्त साधन के रखी जा सकती है। आमतौर पर बेकार समझी जाने वाली चीजों को खाकर भी वह दूध और मांस उत्पादित करती है। उधोग धंधों के लिए बकरियों से चमड़ा और खाल मिल जाती है। इस प्रकार राज्य के ग्रामीण अपना अतिरिक्त समय का उपयोग कर कम पूंजी से अतिरिक्त आमदनी हासिल कर सकते हैं। यही कारण है कि बकरी को ग्रामीण इलाकों के लिए ‘ए0 टी0 0’ एवं गरीब की गाय भी कहा जाता है। वत्तमान खाद्य – संकट के समय बकरीपालन का धंधा विकसित कर राज्य की मांसाहारी आबादी को संतुलित तथा पौष्टिक आहार उपलब्ध करा पाने में बकरीपालन की महत्वपूर्ण भूमिका है। अतः देश की एवं राज्य की अर्थवयवस्था में बकरी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।

नये नये उधोगधंधों की स्थापना एवं उसके फलस्वरूप शहरी क्षेत्रों में विस्तार के कारण राज्य में बकरियों के मांस की मांग भी बराबर बढ़ती जा रही है। बकरी मांस की मांग आपूर्ति पर निर्भर करती है इसलिए बकरीपालन का भविष्य भी उज्जवल है। बस जरूरत इस बात की है कि बकरीपालन को एक व्यवसाय के रूप में अपनाकर वैज्ञानिक एवं आधुनिक तौर तरीकों से किया जाय। 

बकरीपालन के तरीके:-

बकरीपालन के व्यवसाय को सफल बनाने हेतु अच्छे नस्ल की बकरियों का चुनाव भी बहुत आवष्यक है। परम्परागत तरीके से बकरीपालन करने वाले न तो बकरियों के लिए अच्छे        घर – बघान का इंतजाम करते हैं और न संतुलित दाना एवं चारा जुटा पाते हैं। इसलिए बकरी पालकों को व्यवसाय शुरू करने से पहले निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना जरूरी है।

(1) बकरियों के नस्ल का चुनाव

(2) रख – रखाव

(3) आहारीय व्यवस्था

(4) देख भाल

(5) सामान्य रोग (स्वास्थय प्रबन्धन)

बकरी की प्रमुख नस्लें:-

बकरीपालन व्यवसाय में मुनाफा के ख्याल से बकरीपालन करने वालों को उन्नत नस्ल का चुनाव करना होगा। बकरी के नस्लों को उनकी उपयोगिता एवं जलवायु क्षेत्रों के आधार पर विभिन्न प्रकारों में बाँटा गया है।बकरी को उपयोगिता के आधार पर प्रकार के नस्लों में बाँटा जा सकता है।

  1. दुधारू नस्लें:- बारबरी, बारी, सिरोही, सूरती, मेहसाना, सानेन, एल्पाईन एवं कुछसंकर जातियाँ।
  2. मांस की नस्लें:- गद्दी, ब्लैक बंगाल, गंजम एवं कच्छी।
  3. दो उद्देषीय नस्ले (दूध एवं मांस दोनों के लिए):- जमुनापारी, बीटल, ओसमानाबादी।
  4. ऊन की नस्लें ः- चांगथांगी (पश्मीना), अंगोरा।

जलवायु क्षेत्रों के आधार पर:- हमारे देश में विभिन्न जलवायु क्षेत्रों में बकरियों की 20 शुद्ध नस्लें पाई जाती है। बकरी की नस्लों के वर्गीकरण हेतू देश को चार प्रमुख जलवायु क्षेत्रों में बाँटा गया है।

  1. उत्तरी ठंढ़ा क्षेत्र
  2. उत्तर पश्चिमी शुष्क क्षेत्र
  3. दक्षिणी क्षेत्र
  4. पूर्वी क्षेत्र
  5. उत्तरी ठंढ़ा क्षेत्र:- इस क्षेत्र में जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेष एवं उत्तर प्रदेष के पर्वतीय क्षेत्र आते हैं। इस क्षेत्र की बकरियों का उपयोग मुख्यतः रेषा उत्पादक, मांस उत्पादन एवं नर बकरों से भार ढ़ोने के काम में आता है।

(क) गद्दी:- हिमाचल प्रदेष में चम्बा, काँगड़ा, कुल्लू, शिमला एवं उत्तर प्रदेश के देहरादून, नैनीताल, गढ़वाल एवं चमोली जिलों में पायी जाती है। 

शारीरिक लक्षण:- कद मध्यम आकार का होता है।

रंग सफेद होता है इसलिए इसे ‘व्हाइट हिमालय’ के नाम से पुकारा जाता है। 

इनके कान मध्यम व नीचे की ओर लटके होते हैं और सींग उपर या पीछे की तरफ मुडे़ होते हैं। 

      – पूरा शरीर रूक्ष बालों से ढ़का रहता है, इस बकरी के बालों से रस्सी तथा कम्बल बनते हैं। 

      – नर एवं मादा का शरीर भार क्रमशः 27 एवं 24 कि0 ग्रा0 होती है।

(ख) चेगू:– हिमाचल प्रदेष में लाहुलस्पिति घाटी तथा उत्तर प्रदेश के पर्वतीय जिलों उत्तरकाशी, चमौली और पिथौरागढ़ में पायी जाती है।

शारीरिक लक्षण:- कद मध्यम आकार का होता है।

रंग सफेदी लिये हुए भुरा लाल होता है।

सींग उपर की ओर उठे हुए घुमावदार होते हैं। 

व्यस्क नर एवं मादा का भार क्रमशः 39 तथा 25 कि0 ग्रा0 होता है। 

प्रति बकरी  उत्पन्न होती है।

(ग) चाँंगथाँगी:-लद्दाख के चाँगथाँग क्षेत्र में तथा हिमाचल की लाहुल एवं स्थिति घाटियों में पायी जाती है। इसे ‘पशमीना’ बकरी भी कहते हैं।

शारीरिक लक्षण:- कद मध्यम आकार का होता है।

रंग सफेद व घने बालों से घिरा होता है, काले, बादामी रंगों की भी होती है।

इनके सींगों बनावट अर्धवृत्ताकार, लम्बे व बाहर की तरफ निकले रहत हैं। 

व्यस्क नर तथा मादा का शरीर भार क्रमशः 20 तथा 19 कि0ग्रा0 होती है। 

ये बकरियाँ वर्ष में 155-214 ग्राम तक पश्मीना उत्पन्न करती है। 

  1. उत्तर पष्चिमी शुष्क क्षेत्र:- इस क्षेत्र के अन्र्तगत राजस्थान, पंजाब हरियाणा, उग्र के मैदानी भाग, गुजरात व मध्यप्रदेेश के शुष्क एवं अर्धषुष्क क्षेत्र आते हैं। इस क्षेत्र की बकरीयों का उपयोग मुख्यतः माँस एवं दुध उत्पादन हेतु किया जाता है।

(क) सिरोही:– यह नस्ल राजस्थान के सिरोही, अजमेर, भीलवाड़ा नागौर एवं टोंक जिले में 

पायी जाती है। 

शारीरिक लक्षण:- कद मध्यम एवं गठीले आकार की होती है।

शारीरिक रंग बादामी, गाढ़ा बादामी पर भूरे धब्बे पाये जाते हैं। 

इनके कान चैड़े पत्ती की तरह चपटे एवं नीचे की ओर झेके होते हैं।

इनके सींग छोटे,घुमावदार एवं उपर की ओर मुड़े होते हैं।

व्यस्क नर तथा मादा का शरीर भार क्रमशः 50 तथा 22 कि0 ग्रा0 होती है। 

यह नस्ल दुध एवं मांस हेतु पाली जाती है। (दुध 0.8 से 1.0 ली0 प्रतिदिन)

(ख) मारवाड़ी:- यह नस्ल राजस्थान के बाड़मेर, बीकानेर, जोधपुर, नागौर एवं पाली जिले में पायी जाती है। 

शारीरिक लक्षण:- कद मध्यम आकार की लम्बे काले बालों से ढ़की होती है।

रंग काला, कान चपटे, नीचे की ओर लटके रहते हैं। 

इनके सींग छोटे नुकीले तथा पीछे की ओर मुडे़ हुए होते हैं। 

व्यस्क नर एवं मादा का शरीर भार क्रमशः 33 तथा 25 कि0 ग्रा0 होती है। 

यह बहुकाजीय नस्ल है दुध, मांस एवं बालों के लिए पाली जाती है।

() बीटल:- यह नस्ल पंजाब के अमृतसर, गुरदासपुर तथा फिरोजपुर जिलों में पायी जाती है।

शारीरिक लक्षण:- इनके शरीर का रंग सफेद या भूरा धब्बेदार होता है।

कान लम्बे तथा नीचे की ओर लटके होते है।

व्यस्क नर एवं मादा का शरीर भार क्रमशः 75 तथा 45 कि0 ग्रा0 होती है। 

यह बकरी दूध उत्पादन हेतु अच्छी मानी जाती है (दुग्ध उत्पादन 1.0 ली0 प्रतिदिन)

(घ) जखराना:- राजस्थान के अलवर जिला स्थित जखराना क्षेत्र में पायी जाती है।

शारीरिक लक्षण:- कद बड़ी तथा काले रंग की होती है।

मुँह एवं कानों पर सफेद रंग के धब्बे पाये जाते हैं।

इनका सिर संकरा एवं उठा हुआ होता है तथा कान मध्यम चपटे आकार के होते हैं।

व्यस्क नर एवं मादा का शरीर भार क्रमशः 51 एवं 44 कि0 ग्रा0 होती है। 

दूध एवं मांस उत्पादन हेतु पाली जाती है। (1.10 ली0 दुध प्रतिदिन) 

(ड.) बरबरी:- उत्तर प्रदेश के आगरा, मथुरा, हाथरस, अलीगढ़ एवं एटा जिले में पायी जाती है।

शारीरिक लक्षण:- कद मध्यम होती है।

रंग सफेद उस पर गहरे बादामी रंग के धब्बे होते हैं।

कान छोटे एवं सीधी होते हैं, सींग नुकीले एवं नर के दाढ़ी होती है।

व्यस्क नर तथा मादा का शरीर भार क्रमशः 37 एवं 22 कि0 ग्रा0 होती है। 

दूध एवं मांस उत्पादन हेतु पाली जाती है। (0.5 से 1.0 ली0 दुध प्रतिदिन) 

(च) जमुनापारी:- उत्तर प्रदेष के इटावा जिले का चकरनगर क्षेत्र एवं मध्यप्रदेश के भिण्ड, शिवपुरी एवं मुरैना जिले में पायी जाती है।

शारीरिक लक्षण:- कद बड़ा होता है।

इसका रंग सफेद होता है, कभी कभी बादामी धब्बे होते हैं।

इनकी नाक उभरी हुई होती है जिसे रोमन नोज कहते हैं जिस पर बालों के गुच्छे होते हैं। 

कान लम्बे एवं लटके होते हैं। मुंह तोतानुमा होता है एवं पिछले हिस्से पर लम्बे बाल होते हैं।

नर एवं मादा का शरीर भार क्रमशः 45-60 एवं 35-40 कि0 ग्रा0 होती है। 

(छ) मेहसाना:- गुजरात के मेहसाना, गांधीनगर एवं अहमदाबाद जिले में होती है

शारीरिक लक्षण:- कद बड़ी होती है।

रंग हलका काला, लम्बे व मुड़े हुए बाल होते हैं।

सफेद कान पर काले धब्बे होते हैं। 

कान पप्तीनुमा, झुके तीखे रंग एवं छोटी पूँछ होती है। 

व्यस्कनर एवं मादा का शरीर भार क्रमशः 37 एवं 32 कि0 ग्रा0 होती है। 

(ज) गोहिलाबादी:- गुजरात के जूनागढ़ भावनगर एवं अमरेली जिले में पायी जाती है। 

शारीरिक लक्षण:- कद मध्यम एवं बड़ी होती है।

रंग काला, कान पर सफेद धब्बे झुके प्राप्ती नुमा कान होते हैं।

चेहरा लम्बा एवं शरीर पर घने खुरदरे बाल होते हैं। 

व्यस्क नर एवं मादा का शरीर भार क्रमशः 37 एवं 36 कि0 ग्रा0 होती है। 

(झ) जालाबादी:- गुजरात के राजकोट एवं सुरेन्द्रनगर में मिलती है।

शारीरिक लक्षण:- कद मध्यम आकार की लम्बे तथा रूक्ष बालों वाली बकरी है।

कान लम्बे पप्ती नुमा नीचे की ओर लटके होते हैं।

सींग लम्बे मुड़े तथा उपर की ओर उठे होते हैं।

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दुध एवं मांस उत्पादन हेतु पाली जाती है। 

व्यस्क नर एवं मादा का शरीर भार क्रमशः 38 एवं 32 कि0 ग्रा0 होती है। 

(ञ) कच्छी:- गुजरात के कच्छ जिले में मिलती है।

शारीरिक लक्षण:- कद मध्यम आकार की होती है।

रंग काला, उस पर सफेद धब्बे, नाक चपटी,घुमावदार सींग होती है।

व्यस्क नर एवं मादा का शारीरिक भार क्रमशः 43 एवं 39 कि0 ग्रा0 होती है। 

(ट) सूरती:- गुजरात के सूरत तथा बड़ौदा जिले में पायी जाती है।

शारीरिक लक्षण:- कद मध्यम आकार की होती है।

रंग सफेद, छोटे चमकीले बाल एवं कान सीधे होते हैं।

इनके थन शंख के आकार के होते हैं।

व्यस्क नर एवं मादा का शारीरिक भार क्रमशः 25-30 एवं 22-25 कि0 ग्रा0 होती है। 

यह बकरी दुधारू नस्ल हेतु उपयोग की जाती है। (1.2 से 2.0 ली0 प्रतिदिन दुध उत्पादन)

  1. दक्षिणी क्षेत्र:- इस क्षेत्र के अन्तर्गत आन्धप्रदेश, महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक एवं तमिलनाडू के मध्य भाग एवं समुद्रतटीय भाग आते हैं। इस क्षेत्र में पायी जाने वाली बकरी की नस्लें अच्छी मांस उत्पादक हेतु जानी जाती है। 

(क) संगमनेरी:- यह नस्ल महाराष्ट्र के पूना एवं अहमदनगर जिले में पायी जाती है।

शारीरिक लक्षण:- कद मध्यम आकार की होती है।

शरीर का रंग सफेद होता है लेकिन उस पर काले एवं बादामी रंग के धब्बे पाए जाते हैं।

इनके कान मध्यम आकार के झुके हुए होते हैं।

इनके सींघ सीधे एवं खड़े होते हैं, पूँछ छोटी एवं मोटी होती है।

व्यस्क नर एवं मादा का शारीरिक भार क्रमशः: 35-55 एवं 25-35 कि0 ग्रा0 होती है। 

इस नस्ल को अंगोरा नस्ल की बकरी से संकरित कराने पर मोहेर उत्पादन करती है। (करीब 2 कि0 ग्रा0 मोहेर प्रति बकरी प्राप्त होती है।)

(ख) उस्मानाबादी:- यह नस्ल महाराष्ट्र के उस्मानाबाद जिले में पायी जाती है।

शारीरिक लक्षण:- मध्यम आकार, ऊँचे कद की बकरी है।

शरीर का रंग काला, सफेद रंग के धब्बे, कान, गरदन एवं शरीर पर होता है।

चेहरा सीधा, कान मध्यम आकार के लटके हुए होते हैं।

व्यस्क नर एवं मादा का शारीरिक क्रमशः 33 एवं 32 कि0 ग्रा0 होती है। 

यह मुख्यतः मांस उत्पादक नस्ल है।

(ग) कन्नी आडू:– यह नस्ल तमिलनाडू के रामनाथपुरम एवं त्रिनेल्वल्ली जले में पाया जाता है।

शारीरिक लक्षण:- कद मध्यम एवं ऊँचा होता है।

शरीर का रंग काला एवं उस पर सफेद रंग के धब्बे, होते हैं।

कान लम्बे एवं लटके हुए होते हैं।

व्यस्क नर एवं मादा का शारीरिक भार क्रमशः  32-38 एवं 28-31 कि0 ग्रा0 होती है। 

यह नस्ल माँस एवं खाल उत्पादन हेतु प्रचलित है।

(घ) मालाबारी:- यह नस्ल केरल के मालाबार, त्रिचूर, केशरगढ़, कोजीकोड, मालापूरम एवं तेलीचैरी जिले में पायी जाती है।

शारीरिक लक्षण:- कद मध्यम आकार की होती है।

शरीर का रंग सफेद एवं काला होता है।

चेहरा सपाट, सींग नुकीले एवं नर की दाढ़ी होती है।

व्यस्क नर एवं मादा का शारीरिक भार क्रमशः 35 एवं 28 कि0 ग्रा0 होती है। 

  1. पूर्वोतर क्षेत्र:- इस क्षेत्र के अन्र्तगत बिहार, पष्चिम बंगाल, उड़ीसा, आसाम एवं अन्य पूर्वातर राज्य आते हैं। यहाँ 2 नस्ल की बकरियाँ पाई जाती है जिनमें ब्लैक बंगाल नस्ल अपनी जनन क्षमता एवं अच्छे मांस उत्पादन हेतु विष्व प्रसिद्ध है।

(क) गंजाम:- यह नस्ल उड़ीसा के गंजाम जिले में पायी जाती है। 

शारीरिक लक्षण:- कद मध्यम आकार की होती है। 

शरीर का रंग काला एवं उस पर सफेद छींटे होती है।

कान मध्यम आकार का, सिर उभरा हुआ होता है।

इसकी टाँगे लम्बी एवं नर की दाढ़ी होती है।

व्यस्क नर एवं मादा का शारीरिक भार क्रमषः 44 एवं 32 कि0ग्रा0 होती है। 

(ख) ब्लैक बंगाल:- पश्चिमी बंगाल के मुर्सिदाबाद जिले एवं असम एवं उड़ीसा में पायी जाती है।

शारीरिक लक्षणः- कद छोटा होता है।

शरीर का रंग काला होता है कुछ सफेद एवं बादामी रंग की भी होती है। 

इनके चेहरे एवं कान छोटे होते हैं एवं दाढ़ी भी होती है।

व्यस्क नर एवं मादा का शारीरिक भार क्रमशः  32 एवं 20 कि0 ग्रा0 होती है। 

यह नस्ल जनन क्षमता सबसे अधिक होती है, जुड़वाँ बच्चे देने की क्षमता सबसे अधिक होती है एवं माँस एवं खाल के लिए विष्व प्रसिद्ध है।

बिहार राज्य में भौगोलिक दृष्टिकोण से ब्लैक बंगाल बहुतायत रूप में पाली जाती है। जमुनापारी एवं बीटल नस्ल भी पाली जाती है। हमारे राज्य के लए जमनापारी नस्ल का बकरा प्रजनन के लिए उपयुक्त समझा जाता है।

 

बकरी का रख रखाव (आवास एवं उपकरण)

गाँवों में आमतौर पर बकरियों के लिए लोग घर नहीं बनाते हैं ये बकरियाँ मुख्यतः चर कर अपना ज्यादा समय घूम फिर कर व्यतीत करती हैं। इन्हें समुचित आवास नहीं मिलता है परन्तु आजकल बकरीपालन एक व्यवसाय के रूप में अपने आप को स्थपित कर रहा है इसलिए अन्य पालतू जानवरों की तरह बकरियों को भी साफ सुथरे एवं हवा दार स्थान पर जैसे वातावरण में रहती हैं, उसका असर उनकी पैदावार पर पड़ता है। इसलिए बकरियों के लिए घर का इंतजाम जरूर करना चाहिए। बकरी का आवास बनाते समय निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिएः-

बकरियों के आवास को ऊँची जगह पर बनाना चाहिए, जहाँ से वर्षा जल के निकासी की सम्पूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए।

बकरी प्रक्षेत्र में कार्यालय, भण्डार (दाना-भूसा हेतू) गृह होना चाहिए।

बच्चें, गर्भवती बकरियों एवं बीमार बकरियोंके आवास शुरूआत में बननी चाहिए। चारागाह एवं चारे वाले खेत सबसे बाद में होने चाहिए।

दो बकरी आवासों के बीच में कम से कम 8 मीटर का अन्तर रखना चाहिए ताकि हवा के प्रवाह में कोई बाधा न हो।

बकरी प्रक्षेत्र में पेड़ पौधे, झाड़ियाँ आदि लगाना चाहिए, जिससे अन्दर आने वाली हवा ठण्ढ़ी हो एवं उनके चारा की कभी भी पूरी  सके।

दिषा – बकरी का आवास हमारे देष की जलवायु के अनुसार पूर्व – पष्चिम दिषा में होनी चाहिए ताकि जाड़ों में धूप अन्दर तक आ सके एवं गर्मी में धूप को आसानी से अन्दर जाने से रोका जा सके।

छत – बकरियों के आवास में एक जैसी जगह जो उपर से ढ़की होनी चाहिए, अधिकांषतः छतपर की छतें बनाई जाती है परन्तु आजकल एसबेस्टस या लोहे की चदरों वाली छत गर्मी तथा ठण्ढ़ रोकने में ज्यादा सहायक है वषर्ते की उसके उपर भुसे और तारकोल को मिलाकर लेप कर दिया जाय।

फर्ष:- बकरी आवास का फर्ष सामान्यतः मिट्टी की होती है एवं वर्षा ऋतु के पहले मिट्टी को बदल देना उचित है।

बाड़ा:- बकरियों का बाड़ा उनके छत वाले आवास से सटा हुआ सामने होना चाहिए। ध्यान रखना चाहिए कि बाड़े का क्षेत्रफल छत वाली जगह से दुगनी होनी चाहिए।

 

स्थाई बकरी  घर एवं बकरियों को जगह की आवष्यता:-

स्थाई बकरी घर पक्की ईंट/लकड़ी से बनायी जाती है। आमतौर पर दो बकरियों के लिए 4 फीट चैड़ी और 3.5 फीट लम्बी जगह काफी होती है। 

सामान्यतः बकरी आवासों की औसतन लम्बाई 60 फीट (20 मीटर), चैड़ाई 20 फीट       (6 मीटर) एवं किनारे पर ऊँचाई 2.7 मीटर रखी जाती है।

बकरियों को आवास में छत से ढ़की जगह एवं खुली दोनों जगहों की आवष्यक्ता होती है। ढ़की जगह में इन्हें धूप, ओस एवं वर्षा से बचाया जाता है एवं खुली जगह जिसे बाड़ा कहा जाता है, वहाँ आराम तथा व्यायाम किया जाता है। पूरे आवस को 1/3 ढ़की जगह तथा 2/3 हिस्सा बाड़े के रूप  में रखा जाता है।बकरियों के उम्र के अनुसार निम्नलिखित जगह की जरूरत होती है:-

 

क्र00 डम्र ढ़की जगह की आवष्यकता

(वर्ग मी0 में)

बाड़े की आवष्यकता

(वर्ग मी0 में)

1 3 महीने तक के बच्चे 0.2 – 0.3 04. – 0.6
2 3-9 महीने तक के बच्चे 0.6 – 0.75 1.2 – 1.5
3 9-12 महीने तक के बच्चे 0.75 – 1.0 1.5 – 2.0
4 व्यस्क बकरी 1.0 2.0
5 व्यस्क बकरा 1.5 – 2.0 3.0 – 4.0
6 गाभीन एवं दूध देने वाली बकरियाँ 1.5 – 2.0 3.0

 

स्थाई बकरी घर बनाने वालों को प्रजनन के लिए बकरा भी रखना चाहिए।

घर की सफाई:- घर चाहे स्थायी हो या अस्थायी, प्रतिदिन सफाई आवष्यक है। बकरी घर की नालियों एवं सड़कों की सफाई भी अच्छी तरह होनी चाहिए। समय पर डेटोल, सेवलौन एवं फिनाईल से आवास को रोगाणुनाषित करना चाहिए।

उपकरण:- बकरी व्यवसाय के सफल्ता की कुंजी बकरी को दिये जाने वाले दाने भूसे, एवं चाने की नुकसान उन्हें खिलाते वक्त कम से कम हो। बकरी के रख रखाव में ऐसे उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए जिससे दाने चारे का नुकसान कम हो तथा उसमें पेषाब अथवा मैंगनी जाने की सम्भावना नहीं हो। कुछ उपकरण जैसे षटकोणीय दाना चारा उपकरण, आयताकार दाना-चारा उपकरण आदि प्रयोग में लाना चाहिए। 3 महीने से कम उम्र के बच्चों के लिए लटकने वाले खाने के उपकरण प्रयोग में लाने चाहिए।

 

आहारीय व्यवस्था

ग्रामीण क्षेत्रों में वत्र्तमान आहार प्रणाली के अन्तर्गत बकरियों को उपलब्ध वनस्पतियों जैसे विभिन्न प्रकार की घास, फलीदार चारे, पौधे, झाड़ियाँ, वृक्षों की पत्तियाँ आदि एवं अवषेष कृषि उत्पाद आहार के रूप में उपलब्ध है। आमतौर पर गांवों की बकरियाँ चराई पर ही निर्भर करती है। बकरियों से अच्छी पैदावार हासिल करने हेतू परम्परागत आहार के अलावा गेहूँ की भूसी, दालों का चूरा या चना और मक्का आदि चीजों केा मिलाकर दाना तैयार करना चाहिए। प्रतिदिन दाना मेें एक चुटकी नमक भी मिला देना दाहिए।

 

चारे के साधन:- बकरी मुख्य रूप से चुनकर खाने वाला पशु है। बकरियाँ ब्राउजिंग करती है अर्थात जुलायलम तनों, कोपलें एवं झाड़ियों और वृक्षों की पत्तियों को खाती है। हमारे यहाँ वृक्षों पत्तियाँ जैसे पीपल, कठहल, सिरिस, आम, पाकर, शहतूत एवं बरगद की पत्तियाँ बकरीपालन में उपयोगी होती है।

प्राकृतिक एवं उन्नत चारागाहों में पाई जाने वाली घासे जैसे पैरा घास, अंजन घास, रोड़स घास, धबलू घास, गिनी घास, दीनानाथ घास,सूडान घास एवं स्टाइलो घास बकरी पालन हेतू बहुउपयोगी है। 

बकरियों में पोषण प्रबन्धन करते समय निम्नलिखित बातों पर ध्यान देने की आवष्यकता हैः-

बकरियों के खान पान का समय निष्चित कर लेना चाहिए।

सूखा चारा के साथ – साथ हरा चारा भी देना चाहिए।

बच्चों को अत्याधिक मात्रा में दाना नहीं खिलाना चाहिए।

बकरी एक बार में जितना खाना खा सकती है उतना ही चारा देना चाहिए। अतः आहार की बरबादी से बचाने हेतु उसे थोड़ा – थोड़ा आहार कई बार देना चाहिए।

किसानों को आहार अवयव अधिक उपलब्धता के समय खरीद लेना चाहिए क्योक इस समय सस्ते होते हैं।

आहारों का भण्डारण 12 प्रतिषत नमी से कम पर करना चाहिए ताकि इसे फफूंदी के प्रकोप से बचाया जा सके।

बकिरियों को भींगी हुई घास या वषा ऋतु की नई घास अच्छी तरह साफ करने के बाद ही खिलाना चाहिए।

बकरी को दिन में 3 बार स्वच्छ जल पिलाना चाहिए।

 

बकरी के बढ़ते बच्चों का पोषण:-

बकरी के बढ़ते हुये बच्चों की वृद्धि और रोगों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने हेतू उचित आहार आवष्यक है। बच्चों के जन्म के तुरन्त बाद खीस (कलोस्ट्रम) पिलाना चाहिए इससे उनकी रोग प्रतरोधक क्षमता बढ़ती है।

 

बकरी के बच्चों के लिए आहार (0-3 माह)

उम्र (दनों में) शारीरिक भार (कि0ग्रा0) आहार की सं0 दूध हराचारा
0 – 7 1 – 3 माँ के साथ इच्छानुसार
8 – 30 3 – 5 2 – 3 200 – 300 मि0ली0 इच्छानुसार
31 – 60 5 – 7 2 300 – 400 मि0ली0 ’’
61 – 90 6 – 10 2 200 मि0ली0 ’’

 

एक महीने के आयु के बाद बच्चों को चरने भेजना चाहिए, जिससे रेषेदार आहार के पाचन हेतु उनके रूमेन का विकास हो सके। अत्यधिक शिषुु जन्म दर एवं न्यूनतम दुग्ध उत्पादन के कारण शिषु मृत्यु दर बढ़ जाती है जिसकी वेकल्पिक व्यवस्था (दुग्ध विकल्प) भी करनी चाहिए। 

 

दुग्ध विकल्प:-

अवयव भाग
सपरेटा 47
सेयाबीन चूर्ण 09
गेहूँ का आटा 35
नारियल तेल 07
खनिज मिश्रण 02
कुल 100

 

दो सप्ताह बाद बच्चों (छौनों को कोमल घास खाने देना चाहिए। उन्हें तीन महीने बाद 200 ग्राम दाना भी देना चाहिए एवं 5 – 8 घन्टे चरने भी देना चाहिए। माँ से अलग बच्चों हेतू  (4 – 12 महीने) कुछ दाना मिश्रण एवं दलहनी एवं अदलहनी भूसे को मिलाकर देना चाहिए।

 

व्यस्क बकरी के लिए आहारः-

एक व्यस्क बकरी को 200-300 ग्राम दाना मिश्रण के साथ भूसा एवं हरा चारा देना जरूरी है। 

दुधारू बकरी के लिए 300-500 ग्रा0 दाना मिश्रण अच्छे दूध उत्पादन हेतू देना चाहिए।

प्रजनन के लिए पाले जा रहे बकरों एवं मांस उत्पादन हेतू पाले जा रहे बकरों को भी उपयुक्त   

आहार की आवष्यक्ता है।

 

 

बड़ी बकरियों को दिये जाने वाले दाने का मिश्रण:-

अवयव भाग (कि0ग्रा0)
मक्का/जौ/ज्वार/बाजरा 32
मूँगफली/तिल/सूर्यमुखी खली 30
गेहूँ/चावल का चोकर 20
छालों की चुनी 15
मिनरल मिश्रण 1.5
साधारण नमक 1.5
कुल 100

 

उपरोक्त मश्रण को भली भंति मिलाकर सूखे एवं सुरक्षित स्थान पर रखना चाहिए।

गाभिन बकरियों के लिए आहार:- बकरी का गर्भकाल लगभग 5 माह का होता है। 

गाभिन कराने के बाद लगभग 15-20 दिन तक बकरी को साधारण आहार देना चाहिए।

गर्भावस्था के अंतिम 50 दिनों में बकरी का दूध नहीं निकालना चाहिए।

गाभिन बकरियों को भी उपरोक्त मिश्रण वाली दाना मिश्रण 250-300 ग्रा0 तक प्रति बकरी  

प्रतिदिन देनी चाहिए। 

बकरी को गर्भावस्था से आखिरी 10 दिन जंगल में चराने हेतू नहीं ले जाना चाहिए। 

 

देखभाल

उम्र एवं अवस्था के अनुसार छौना (बच्चों), बकरा एवं गाभिन बकरी की देखभाल अलग-अलग करनी चाहिए। 

बकरा की देखभाल:-

बकरा का उपयोग प्रजनन कार्य हेतू किया जाता है।

आमतौर पर एक स्वस्थय और अच्छे नस्ल का बकरा 50-60 बकरियों को प्रजनन कार्य कर 

सकता है।

विभिन्न नस्लों में परिक्वता एवं व्यस्कता विभिन्न आयु पर प्राप्त होती है जो 12-18 महीने होती है। 18 महीने की उम्र प्राप्त कर लेने के बाद ही बकरा को बकरियों का गर्भधारण कराना उचित है।

एक बकरा को एक बकरी के गर्भाधान के बाद डेढ़ सप्ताहतक आराम करने का मौका देना 

चाहिए। 

बकरे को हमेषा बकरियों के साथ नहीं रखना चाहिए।

आजकल कृत्रिम गर्भाधान हेतू भी अच्छे बकरों का चयन एवं उनको देखभाल अनिवार्य है। 

 

बकरियों की देखभाल:-

बकरियों की उचित देखभाल में प्रजनन सबसे महत्वपूर्ण पहलू है।

बकरी रखरखाव यदि ठीक प्रकार से किया जाता है तो बकरी/बकरे 14 से 16 माह में जनन के लिए परिपक्व हो जाते हैं और 20 से 24 महीने की उम्र में मादा बकरी पहले बच्चे को जन्म दे देती है।

बकरियाँ वर्ष में दो बार गाभिन हो सकती है। सब कुछ सामान्य रहने पर प्रत्येक 27-28 दिनों के अन्तर पर बकरी गर्भ हो जाती है।

गर्भ बकरियों की पहचान एवं गर्भाधान का सही समय का चुनाव भी बहुत महत्वपूर्ण है। गर्भ बकरियों की पहचान हेतू 50-60 बकरियों के समूह में एक बकरे को 15-20 मिनट तक घुमाकर छोड़ देना चाहिए जिससे गर्मी में आई बकरियों का पता लगाया जा सकता है। बकरियों में ऋतुकाल (मदकाल) में निम्न लक्षण पाये जाते हैं जिससे इनकी पहचान की जा सकती है।

(क) गर्मी में आई बकरियों की मुख्य पहचान है पूँछ को बार-बार हिलाना।

(ख) उत्तेजित होना तथ दाना-चारा कम खाना। 

(ग) बार-बार पेषाब करना, बेचैन होना मिमियाना।

(घ) योनि मार्ग से पारदर्षी योनि द्रव्य का निकलनी आदि।

जो बकरी शाम को ऋतुकाल (गर्मी) में आती हो उसे अगले दिन सुबह और शाम में गर्भाधान करना चाहिए। 

 

गर्भावस्था एवं प्रसव:- गर्भावस्था में बकरियों की उचित देखभाल तथा संतुलित आहार बहुत महत्वपूर्ण है। ब्याने से एक सप्ताह पूर्व गर्भित बकरियों को हल्का, सुपाच्य दाना चारा देना चाहिए। गाभिन बकरियों को हरा चारा खिलाना नहीं भुलना चाहिए।

बकरी के प्रसवकाल से लगभग एक महीना पहले झुंड से अलग कर देना चाहिए।

बकरी के योनी मार्ग का भारी हो जाना, गाढ़ा स्त्राव निकलना, बेचैन होना, बार-बार उठना-बैठना बकरीयों का प्रसव समय नजदीक आने का संकेत है।

इस समय बकरियों को बाड़े के आस पास ही चराया जाना चाहिए, बाहर चरने नहीं भेजना चाहिए।

सामान्य प्रसव में पहले बच्चे के आगे के दोनों पैर और सिर उसके बाद शरीर के अन्य अंग बाहर निकलते हैं।

बकरी का जेर ब्याने से 4-6 घंटे में नकल जाना चाहिए। प्रसव में कठिनाई की स्थिति में शीघ्र पशु चिकित्सक से सम्पर्क करना चाहिए।

 

नवजात बच्चों (छौने) की देखभाल:-

ब्याने के तुरन्त बाद ही बच्चों के मुँह तथा नाक के अन्दर एवं बाहर लगी म्यूकस को हटाकर उन्हें सूखे एवं मुलायम कपड़े से पोंछ देना चाहिए। 

बच्चे की नाभि को साफ बलेड से उसके बाधार से 3-4 से0मी0 उपर से काटकर धागा से बाँध देना चाहिए एवं र्टिचर आयोडिन का घोल उस पर डालना चाहिए।

नवजात बच्चों को माँ का शुरू का दुध (खीस) जन्म के बाद एक सप्ताह तक पिलाना चाहिए।

तीन माह के बाद जब बच्चा दाना, हरा चारा एंव मुलायम पत्तियाँ खाने लगे तो धीरे-धीरे दूध पिलाना बंद कर देना चाहिए। 

 

बकरियों में सामान्य रोग

बकरियों को उत्तम पोषण, आवास एवं प्रबन्धन के साथ-साथ उनका स्वास्थ्य प्रबन्धन भी अति आवष्यक है। स्वास्थय प्रबन्धन में थोड़ी सी लापरवाही बकरियों की उत्पादन तथा प्रजनन क्षमता को प्रभावित कर सकती है। अतः बकरीपालन के समुचित फायदा उठाने वाले लोगों को उनके रोगों के लक्षण और उपचार के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी रखनी चाहिए। बकरियों में अन्य पशुओं की अपेक्षा कम बीमारी होती है फिर भी बकरियों में होने वाली कुछ प्रमुख बीमारियों निम्नलिखित हैं।

 

पी0पी0आर0 (गोट प्लेग)

यह ‘‘ गोट प्लेग ’’ या ‘‘ काय ’’ के नाम से जाना जाता है। यह एक खास प्रकार के विषाणु जनित (मोरबिली वायरस) बीमारी है। यह संक्रामक बिमारी है जो 4 माह से 1 वर्ष के बीच के उम में होने की सम्भावना अधिक रहती है। मृत्यु दर 40-70 प्रतिषत होती है।

लक्षण:- इस रोग से ग्रसित बकरियों का शारीरिक तापमान 104-1060ब् तक होता है। 

भुख खत्म हो जाती है, तेज दस्त होते हैं।

आंखों व नाक से पानी आती है, आँख लाल हो जाते हैं।

न्यूमोनिया होने के कारण साँसे तेज हो जाती है।

मूँह के अन्दर जीभ एवं मसूड़े लाल हो जाते हैं तथा घाव बन जाता है। 

रोकथाम एवं बचाव:- यह एक विषाणुजनत बीमारी है इसलिए इस रोग से बचाव हेतु 4 माह या उससे अधिक उम्र होने पर पी0पी0आर0 का टीका लगाना चाहिए। 

मात्रा:- 1 मि0ली0त्वचा के नीचे लगाया जाता है।

बीमार बकरियों को स्वस्थ बकरियों से अलग रखना चाहिए।

इस रोग में द्वितीय संक्रामण रोकने हेतु एन्टीबायोटीक दवाओं जैसे – एन्रोफ्लोक्सासिन, सिपरोफ्लाक्सासिन लगाना चाहिए।

बीमार पशुओं के आँख, नाक एवं मुँह को साफ करते रहना चाहिये। 

 

खुष्पका मुँहपका रोग

यह एक विषाणुजनित एवं छूत की बीमारी है। यह एक बकरी से दुसरी बकरी में हवा द्वारा दूषित पानी पीने से, दूषित कपड़ों एवं सामानान तथा रोगी बकरी के साथ खाना खाने से फैलती है।

लक्षण:- इस रोग से ग्रसित बकरियों का शारीरिक तापमान 104-1060  ितक हो सकता है। 

आँखें लाल हो जाती है मुख से झाग तथा लार गिरने लगता है तथा पैरों में खुरों के बीच की जगह पर छाला पर छाला पड़ने व फूटने से घाव हो जाते हैं।

बकरियाँ खाना छोड़ देती हैं एवं गाभिन बकरियों में गर्भपात की सम्भावना बढ़ जाती है।

रोकथाम एवं बचाव:- बिमार बकरियों के मुँह को फिटकरी के 2-3ः घोल से साफकर घावों पर बोरागिलसरीन लगाना चाहिए तथा पैरों मे घाव होने पर 2ः पोटेषियम परमेग्नेट के घोल या 5ः नीला थोथा के घोल से साफ करके उन पर पोवीडीन आयोडीन का घोल लगाना चाहिए। एवं समय समय पर घावों की ड्रेसिंग करनी चाहिए।

इस रोग से बचाव हेतू खुष्पका मुँहपका का टीका लगाना चाहिए।

 

कालीबैसिलोसिस

यह रोग घातक जीवाणु ई – कोलाई के संक्रमण के कारण होता है। यह रोग नवजात मेमनों में जिनकी आयु 15 दिन या उसके आस पास होती है, देखने को मलता है जन्म के बाद श्वीस नहीं पिलाये जाने के कारण मेमनों में इस रोग  के होने की प्रबल सम्भावना है।

 

लक्षण:- इस रोग से प्रभावित मेमनें सुस्त तथा कमजोर होते हैं। 

दस्त भी हो सकती है।

श्लेष्मा झिल्लियाँ पीली पड़ जाती है, हृदय गति मन्द पड़ जाती है एवं कुछ समय बाद मर भी सकती है।

कभी 2 माँसपेषियों में ऐंठन भी देखने को मिलती है। 

रोकथाम:- मेमनों पानी, चीनी एवं खनिज लवण मिश्रित (ओ0आर0एस0) घोल प्रति 2 घण्टे बाद 

(50-100 मि0ली0) पलाना चाहिए।

जीवाणुनाषक औषधियाँ सफ्काड्रगस, क्लोराइम्फेमिकोल, ऐम्पीसिलीन, ट्राइमीथोप्रिम सल्फोनामाईड के मिश्रण का प्रयोग संक्रमण समाप्त करने हेतु करना चाहिए।

मेमनों को जन्म के 2 से 3 घण्टों के भीतर दिन में 3-4 बार श्वीस अवष्य पिलाना  चाहिए।

 

सी0सी0पी0पी0 (कन्टेजियस केप्राईन प्लुरो नियोनिया)

यह काफी घातक बीमारी है यह बकरियों में प्रचलित छूत का फेफड़ों को प्रभावित करने वाला रोग हैं। यह माइकोत्लाजमा माइकोडिस प्रजाति कैपरी जनित बीमारी है।

लक्षण:- रोगी पशुओं में खांसी, श्वास अवरूद्धता, भीड़ में पिछड़ना, लंगड़ा कर चलना आदि लक्षण देखा जाता है।

ज्वर 104-1060  ितक हो सकती है।

मृत्यु दर 60 -100ः तक देखी जाती है।

रोकथाम- रोगी पशु का अलग कर देना चाहिए। 

टायलोसिन ट्टरेट (10-20 मि0ग्रा0/किलो भार), स्टैप्टोमाइसीन              (5-10 मि0ग्रा/कि0ग्रा0 भार), टियामुटीन (8 मि0ग्रा0/कि0भार) आदि दवाओं का प्रयोग लाभदायक है। 

 

थनैला (मैस्टाइटिस)

इस रोग को थनैला या छूछुन्दर का सूँघ जाना भी कहते हैं। थनैला रोग स्तन ग्रन्थियों को प्रभावित करती है। इस रोग में दूध के भौतिक एवं रासायनिक गुणों में परिवर्तन के  साथ -साथ एथेन में भी कुछ विकृतियों पैदा होती है। यह रोग विभिन्न कारणों से होता है। यह एक संक्रामक रोग है जो स्टैफाईलाकाॅकस नामक जीवाणुओं के कारण होता है। इसके अतिरिक्त स्टेªप्टोकोकस, सूडोमोनास, कोराईनीबैक्ट्रीयम जीवाणु भी इस रोग का कारण बन सकते हैं।

लक्षण:- इस रोग में दूध एवं थन दोनों प्रभावित होते हैं। प्रभावित थन सूजा हुआ, गर्म तथा दर्दकारी होता है।

प्रभावित पशु कभी कभी शारीरिक ताप भुख की कमी भी प्रदर्षित करता है।

प्रभावित थन से पतला पानी जैसा छिछड़े दार दूध आती है तथा दूध में गन्ध भी होती है।

थनों के कठोर हो जाने पर रोगी पशुओं को अलग कर देना चाहिए।

प्रभावित थनों का तुरन्त उपचार करना चाहिए। एन्टीबायोटिक जैसे एम्पीसिलीन इनरोफ्लोक्सासीन, टीमुटीन आदि देना चाहिए। 

जीवाण्ुानाषक पेस्ट का प्रयोग सफाई कर थन के भीतर लगाने से लाभ होता है। 

 

परजीवी रोग

बकरियों में परजीवी रोग एक गम्भीर समस्या है। समान्यतः बकरियों में अन्तः एवं बाध्य दो प्रकार के परजीवी रोग पाये जाते हैं।

अन्तः परजीवी रोग:- बकरियों में अंतः परजीवी प्रकोप एक सामान् समस्या है। प्रबन्धन में सामान्यतः होने वाली मूल इन रोगों के उत्तन्न होने में योगदान करती है। इन परजीवियों में गोलकृमि (राउण्ड वर्ग), फीताकृमि (टेपवर्म), फ्लूक और प्रोटोजोआ आदि प्रमुख हैं। कीट जनित परजीवी जैसे थाईलेरिओसिस, एनात्लाजमासिस एवं बबेसिएसिस आदि रक्तचूषण के समय कीटों द्वारा होती है।

फैसिआलिएसिस एवं ऐम्फिस्टोमिएसिस दोनों ही पानी से उत्पन्न रोग है।

लक्षण:- इन परजीवियों के कारण बीमार पशु की उत्पादन क्षमता घट जाती है।

शरीर हल्का होने लगता है।

दस्त की षिकायत हाती है और शरीर में खून की कमी हो जाती है।

कभी – कभी पेट काफी बढ़ जाता है।

जबड़ों के नीचे हल्का सूजन आ जाती है।

 

उपचार:- आॅक्सीक्लोजानाइंड, एलबेंडाजोल, फेनबेनडाजोल, नीला थोथा, प्राजिक्विंटल आदि औषधियों का उपयोग कर परजीवी से पैदा होने वाली बिमारियों से बचा जा सकता है। दवा की मात्रा एवं प्रकार हेतू बकरयों के मल जाँच उपरान्त पशु चिकित्सकों से सम्पर्क कर देना चाहिए।

यकृत कृमि से बचाव के लिए बकरियों को अस्थानों पर नहीं चरने देना चाहिए जहाँ पर बरसात का पानी जमता हो, क्योंकि इस मेंु धोंधे द्वितीय पोषक की भुमिका निभाते हैं।

बाध्य परजीवी:- बकरियों के शरीर की उपरी त्वचा पर रह कर कुछ परजीवी उनका श्वतषोषण कर उन्हे प्रभावित करते हैं। इनमें जुऐं, किलनी तथा पिस्सु प्रमुख हैं। बाध्परजीवी रक्त शोषण समय जलन पैदा करते हैं जिससे पशु बेचैन हो जाता है, पशु भोजन नहीं करपाता है और शरीर को बार बार खुजलाता है जिससे पशु की रूप सज्जा कम होने के साथ साथ शरीर पर घाव हो जाते हैं जिससे उसका मुल्य घट जाता है। यह कुछ बीमारियों जैसे थाइलेरिओसिस, बबेसिओसिस एवं ऐनाप्लाज्मोसिस आदि रोग फैलाने में भी मददगार है (किलननियों द्वारा प्रसारित होती है।)

उपचार:- बाध्य परजीवीयों से बचाने हेतु कीटनाषक औषधियों से स्नान कराया जाता है। निम्न दवाओं का प्रयोग बाध्य परजीवीनाषक में लाभकारी है।

मेलाथिओन 0.5 से 0.8 प्रतिषत घोल

साईथिओन 0.5 से 0.8 प्रतिषत घोल

साईपरमेथ्रिन 0.5 प्रतिषत घोल

डेल्टामेथ्रिन 0.4 प्रतिषत घोल

इनका प्रयोग करते समय कुछ बातों पर ध्यान देने की आवष्यकता है जैसे:-

स्नान के समय औषधि घोल की सान्द्रता का विषेष ध्यान रखना चाहिए।

बीमार एवं कमजोर बकरियों को स्नान नहीं कराना चाहिए।

स्नान से पूर्व पशुओं को पानी पिला देना चाहिए, चूँकि औषधियाँ विष होती है तो ध्यान रखना चाहिए कि मुख के समपर्क में औषधियाँ ना आने पाए।

यधपि परजीवी रोगों पर पूर्ण रूपेण विजय प्राप्त करना सम्भव नहीं है तथापि प्रबन्धन में सुधार कर बकरी उपादन में होने वाली हानि को कम कर किसान भाई अधिक से अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं।

 

 

बकरियों में स्वास्थय प्रबन्धन:-

कहते हैं ‘‘ पशु रोगों के निदान से अच्छा है उनसे बचाव ’’ रोग उपचार की अपेक्षा पशुओं को रोगों से बचाना अधिक उचित है। इसी क्रम में ऐसे अनेक घटक हैं जो बकरी उत्पादकता को प्रभावित करते हैं, उनमें बकरी स्वास्थय सबसे महत्वपूर्ण है।

बकरी उधोग को विभिन्न जीवाणु, विषाणु एवं परीजीवी रोगों के कारण भयंकर आर्थिक नुकसान झेलना पड़ता है। बकरीयों में फैलने वाले रोगों से बचाव के तरीके अपनाकर एवं उनकी विषेष देखभाल करके इस व्यवसाय से दो गुनी आय प्राप्त की जा सकती है।

बकरी स्वास्थय हेतु कुछ महत्वपूर्ण सावधानियाँ:-

बकरियों की खरीद से क्षेत्रों से की जानी चाहिए जो बीमारियों से रहित हों।

खरीदे गये पशुओं को क्वेरेन्टाइन आवास में रखकर उनमें उचित समय आवष्यक स्वास्थ्य कार्यक्रम जैसे टीकाकरण परजीवीनाषक तथा दवायुक्त पानी के द्वारा स्नान आदि कराया जाना चाहिए।

रोगों से बचाव हेतू प्रतिरोधक टीके एवं सीरम का प्रयोग करना चाहिए।

निष्चित समयान्तराल पर किल्लियों, जुऐं को समाप्त करने हेतू दवायुक्त जल स्नान करना चाहिए।

वर्षा ऋतु में आवास को सूखा एवं स्वच्छ रखा जाना चाहिए।

बकरी के बच्चे जब 15 दिन के हो जाये ंतो हरी घास एवं पत्तियाँ देनी चाहिए ताकि उनके पेट का सही विकास हो सके।

बकरीपालन के लिए स्वास्थ्य कार्यक्रम (टीकाकरण)

 

प्रारम्भिक टीकाकरण का समय
क्र00 ब्ीमारी प्रथम टीकाकरण प्रभाववर्धक टीका  वार्षिक टीकाकरण का समय
1 खुष्पका एवं मुँहपका रोग 3 माह प्रथम टीके से 3-4 सप्ताह बाद हर 6 माह के अन्तराल पर 
2 पी0पी0आर0(पेस्टी-डेस- पेस्टिस रूमीनेन्टस) 4 माह आवष्यक नहीं
3 गोट पौक्स (बकरी में चेचक) 3 से 5 माह प्रथम टीके से 3-4 सप्ताह बाद वार्षिक टीकाकरण
4 एन्टरोटोक्सिीमिया (जहरीले दस्त) 3 से 4 माह प्रथम टीके से 3-4 सप्ताह बाद वार्षिक टीकाकरण
5 गलघोंटू (हीमोरेजिक सेप्टीसीमिया) 3 से 4 माह प्रथम टीके से 3-4 सप्ताह बाद वार्षिक टीकाकरण

 

कृमिनाषक कार्यक्रम

 

प्रकोप डम्र भेषण व्यवस्था काल भेषणयुक्त खद्य मिश्रण संस्तुति
कोक्सीडियोसिस 2 से 6 माह कोक्सीडियोस्टेट एक सप्ताह तक मोनन्सिन 20/100 कि0ग्रा0 दाना मिश्रण में मिलाकर 6 माह की उम्र तक
अन्तः परजीवी 5 माह के बाद वर्षकाल से पूर्व एवं उसके बाद 
जुएँ (लाइस) सर्दकाल से पूर्व एवं उसके बाद
किलनियाँ (टिक्स) वर्षाकाल के महीनों में

 

अतः इस प्रकार हम कह सकते हैं कि व्यवसायिक और वैज्ञानिक तरीके से बकरीपालन और उत्पादन हेतू बताये गये कुछ तथ्यों को अपनाकर किसान, खेतीहर मजदूर महिलाएँ, छात्र, षिक्षित बेरोजगार युवक आर्थिक उत्थान, नियोजन और बकरी मांस उत्पादन मे वृद्धि आदि हेतु बहुउपयोगी सिद्ध हो सकती है। यह एक ऐसा व्यवसाय है जो कि तुलनात्मक रूप से बहुत कम पूंजी में छोटे से बड़े स्तर तक जीवीकोपार्जन से लेकर व्यवसाय के तौर पर किया जा सकता है।

हमारे राज्य में भी राज्य सरकार गरीबों के हित में बकरीपालन को प्रोत्साहन देने के लिए कटिबद्ध है। इसी क्रम में पशु प्रक्षेत्र पूर्णियाँ को बकरी पालन सह प्रजन्न प्रक्षेत्र के रूप में विकसित किया जा रहा है। प्रक्षेत्र से उन्नत मेमनों को गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करने वाले परिवारों के बीच सरकार द्वारा नर्धारित अनुदानित दर पर उपलब्ध कराया जायगा। उसी प्रकार पंचायत स्तर पर बकरे का वितरण करने से उन्नत नस्ल के बकरे के उपयोग से स्थानीय बकरियों की संततियों में धीरे-धीरे सुधार लायी जा सकती है।

 

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