पषुओं में गलघोंटू रोग (हेमोरेजिक सेप्टीसीमिया)

0
639

पषुओं में गलघोंटू रोग (हेमोरेजिक सेप्टीसीमिया)

डॉ. आलिषा, डॉ. डी.के. जोल्हे, डॉ आर.सी. घोष ,
डॉ पूर्णिमा गुमास्ता, डॉ पीयूष कुमार , डॉ. आबसार आलम
पषु चिकित्सा एवं पषुपालन महाविद्यालय, अंजोरा दुर्ग
दाऊ श्री वासुदेव चन्द्राकर कामधेनु विष्वविद्यालय
अंजोरा दुर्ग

हिन्दी में जिसे गलघोंटू या गलघोटा या घोटवा या डकहा या नौवहन ज्वर कहते हैं। यह इस मायने में सही है कि ग्रस्त भैंस का गला घुटने का लक्षण इतना तीव्र रहता है कि पषु को ष्वास लेने में कष्ट से एसी आवाज करता है, जिसे रूग्न पषु के घर से बाहर रहने वाले समझ जाते हैं कि किसी पषु का दम घुट रहा है। अंग्रेजी में इसे हेमोरेजिक सेप्टीसीमिया इसलिये कहते है कि रूग्न पषु को तीव्र सेप्टीसीमिया जीवपूर्ति रक्तता होता है साथ ही सभी ष्लेष्माओं चाहे वे आँखो की हो, मुँह की हो, पेट या फेफड़ो की हो, में रक्तस्राव होता है।

रोग का कारक – यह ‘‘पास्चुरेला मल्टोसिडा‘‘ (च्ेंजमनतमससं उनसजवबपकं ) नामक जीवाणु (बैक्टीरिया) के कारण होता है।
रोग संचरण – देखने मे अच्छे सेहत वाले भैंस रोग के जीवाणु का वाहक (बंततपमत) का काम करता है। ऐसे पषुओं की संख्या लगभग 45ः है। रोग का जीवाणु इन पषुओं के टाँसिल एवं नासा ग्रसनी (छेंव चसंलदग) के ष्लेष्माओं पर जमा रहते है और जब इन पषुओं का प्रतिरोध थकावट, भूख, कुपोषण, गर्म तर मौसम, ठंड आदि से घट जाता है। ये पषु मौसमी बारिष होते ही रोग के षिकार होते है। साथ में रहने वाले दूसरे जानवरों को भी संक्रमित करते हैं। दूषित आहार खाने पीने और किलनी तथा कीट आदि के सहारे रोग फैलता है। रोगी पषु के लार में अधिक जीवाणु मौजूद रहता है।
सभी उम्र के पषु खासकर भैंस जाति वाले इस रोग के संक्रमण से संवेदनषील है, लेकिन 6 महीने से 2 वर्ष के उम्र वाले जानवर ज्यादा संवेदनषील है।
रोग के लक्षण :- रोग का आक्रमण एका एक तीव्र के साथ अतिलार स्राव, अंतः ष्श्लेष्मा रक्त स्राव, सुस्ती, बेचैनी के साथ मृत्यु 12 से 24 घंटे के अंदर होती है। गर्दन में सूजन हो जाती है जो बहुत कष्टकारी होती है सूजन को दबाने से गड्ढा नहीं बनता है, जो इस रोग के सूजन की विषेषता है। सूजन के कारण साँस लेने में तकलीफ होती है और घर-घर की आवाज आती है। जिह्वा में सूजन रहता है, जिसके कारण लार स्राव अधिक होता है और पषु पानी नहीं पी सकता है। नाकों से गाढ़ा म्यूकस निकलता है। पषु जमीन पर लेट जाता है और पुनः खड़ा नहीं हो पाता है। जीभ मुँह से बाहर निकल जाती है।

READ MORE :  LUMPY SKIN DISEASE (LSD): A PANDEMIC IN LIVESTOCK

उपचार –
लक्षण नजर आने पर तुरन्त पषुचिकित्सक से सम्पर्क करें।
उपचार आमतौर पर अप्रभावी होता है जब तक कि बहुत जल्दी उपचार नहीं किया जाता है, यदि पषु चिकित्सक समय पर उपचार षुरू कर भी देता है, तब भी इस जानलेवा रोग से बचाव की दर काफी कम है।
रोग के लक्षण पूरी तरह से विकसित होने के बाद कुछ ही जानवर इलाज के बाद जीवित रहते हैं।
यदि संक्रमण के षुरूआती चरण में उपचार का पालन नहीं किया जाता है तो बीमार पषुओं की मौत की दर 100ः तक पहुँच जाती है।
रोकथाम –
प्रत्येक वर्ष मई-जून में गलघोंटू का टीका लगवायें। गलघोटू रोग के साथ खुरपका मुँहपका रोग का टीकाकरण करने से पषुओं को गलघोटू रोग से बचाया जा सकता है।
बीमार पषु को अन्य स्वस्थ पषु से दूर रखना चाहिए।
जिस स्थान पर पषु मरा हो उसे कीटाणुनाषक दवाइयों फिनाइल या चूने के घोल से धोना चाहिए।
पषु आवास को स्वच्छ रखें तथा रोग की संभावना होने पर तुरन्त पषु चिकित्सक से सम्पर्क कर सलाह लेवें।

Please follow and like us:
Follow by Email
Twitter

Visit Us
Follow Me
YOUTUBE

YOUTUBE
PINTEREST
LINKEDIN

Share
INSTAGRAM
SOCIALICON