गलघोंटू रोग
डॉ जयंत भारद्वाज , डॉ यामिनी वर्मा, डॉ अमिता दुबे , डॉ मधु स्वामी
व्याधि विज्ञान विभाग , पशु चिकित्सा व पशुपालन महाविद्यालय, जबलपुर ( म.प्र. )
आसमान में मॅड़राते काले बादल , गरजती बिजली और बरसता पानी संकेत हैं वर्षा ॠतु के आगमन का | यह ॠतु अपने साथ अपार प्रसन्नता लाती है, परंतु साथ में पशुपालकों के समक्ष कई समस्याएं भी उत्पन्न कर देती है | इस मौसम में गलघोंटू , चुरचुरा आदि भयंकर रोगों का खतरा बढ़ जाता है | गलघोंटू रोग पशुओं में होता है , परन्तु इसके हो जाने पर वज्रपात होता है पशुपालकों पर | भारतवर्ष में यह बीमारी प्रतिवर्ष किसी न किसी क्षेत्र में अवश्य ही देखी जाती है | यह इतनी व्यापक है कि इससे जल्द ही आस पास के सभी पशुओं का स्वास्थ्य गिर जाता है और इसके साथ ही गिर जाते हैं पशुपालकों के आर्थिक हालात | अत: पशुपालकों के लिए यह जानना अत्यंत ही महत्वपूर्ण होगा कि गलघोंटू रोग क्या है, किससे होता है, कैसे होता है, कब होता है, इसके लक्षण क्या हैं तथा यदि यह रोग हो जाए तो इसका निदान , इलाज तथा रोकथाम कैसे संभव है | अत: हम एक – एक करके इस रोग से संबंधित सभी बिंदुओं पर प्रकाश डालेंगे |
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सर्वप्रथम हम जानेंगे कि आखिर यह रोग है क्या?
गलघोंटू रोग एक त्वरित, अत्यंत संक्रामक रोग है | इसके अन्य पर्यायवाची हैं – रक्तस्रावी सेप्टिसीमिया, सेप्टिसैमिक पेस्टुरेलोसिस, बारबोन रोग, स्टाकयार्ड रोग, घूरखा, घोंंटुआ, अषढ़िया, डाला आदि |
कारक – यह रोग 1 या बी प्रकार के पेस्टुरिला मल्टोसिडा नामक जीवाणु से होता है जो कि सूक्ष्म गोलाकार या छडा़कार ग्राम निगेटिव जीवाणु होते हैं , जिनकी लंबाई प्रायः ०.६ माइक्रोमीटर तथा चौडाई ०.२५ – ०.५ माइक्रोमीटर होती है | चूंकि ग्राम, मेथिलीन ब्लू, लीशमैन तथा राइट्स अभिरंजकों से इस जीवाणु की अभिरंजना करने पर इसके दोनों ध्रुव अभिरंजक से रंग जाते हैं , परंतु दोनों ध्रुवों के मध्य में अभिरंजकों का कोई असर नहीं होता , इसलिए इन्हें द्विध्रुवी जीव भी कहते हैं | ०.५% फिनोल के उपयोग से इन जीवाणुओं को नष्ट किया जा सकता है |
किसमें होता है – यह रोग भैंस, गाय, सूअर, घोड़ा, भेड़, बकरी , जंगली भैंसा , ऊंट आदि में हो सकता है |
कब होता है – यह रोग वर्षा ऋतु में विशेषत: आषाढ़ माह से भाद्रपद माह तक सर्वाधिक होता है | यह रोग पशुओं में किसी भी उम्र में हो सकता है |
किससे होता है – पेस्टुरिला मल्टोसिडा जीवाणु सामान्यतः पशुओं के टॉन्सिल तथा नासाग्रसनी में प्राकृतिक रूप से पाया जाता है | परंतु तनाव या विभिन्न प्रारंभिक कारकों की वजह से जब पशु बीमार हो जाता है तब इस रोग का खतरा बढ़ जाता है और फिर यह महामारी फैल जाती है | ये विभिन्न प्रारंभिक कारक हैं – मौसम का अचानक बदलना जैसे कि मानसून के प्रारंभ में गर्म मौसम का अचानक से भारी वर्षा के कारण ठंडे वातावरण में बदलना, भोजन – पानी की उचित व्यवस्था के अभाव में पशु की लंबी दूरी तक यात्रा, पशु से कठिन कार्य कराना, पशु में कृमियों का भारी संक्रमण, पशु को भूखा रखना, विषाणु से होने वाले रोग जैसे कि पैरा इन्फ्लूएंजा तथा संक्रामक ब्रोन्को राइनोट्रेकीआइटिसराइनोट्रेकीआइटिस |
यह जीवाणु मुख्यतः संक्रमित भोजन तथा पानी के अन्तर्ग्रहण एवं श्र्वसन द्वारा फैलता है | मानसून के प्रारंभ में ही जो पशु गलघोंटू रोग की चपेट में आ जाते हैं, वे अन्य पशुओं के लिए संक्रमण का स्त्रोत होते हैं और परिणामतः बीमारी महामारी का रूप धारण कर लेती है |
व्याधिजनन – अंतर्ग्रहण एवं श्वसन द्वारा प्रवेश उपरांत पेस्टुरिला मल्टोसिडा जीवाणु रक्त में प्रवेश कर सेप्टिसीमिया कर देता है | तदुपरांत इस जीवाणु का श्वसन पथ तथा जठरांत्र पथ में स्थानीयकरण हो जाता है और फिर वहाँ सूजन उत्पन्न हो जाती है जिससे फेफड़ों तथा वक्षीय गुहा में बहुत सारा आतंच एकत्रित हो जाता है | साथ ही यह जीवाणु कुछ अज्ञात विषैले तत्व भी उत्पन्न करता है |
लक्षण – इस रोग में उच्च ताप (१०६° F – १०७°F ) , अधिक लार आना, प्रारंभ में मुकोसा पर रुधिरांक तथा बाद में गले के आसपास, गर्दन के नीचे तथा छाती के नीचे के क्षेत्र में शोफिय सूजन देखने को मिलती हैं जो कि गर्म तथा दर्द भरी होती हैं, श्वसन दर बढ़ जाती है, शुरुआत में घुरघुराहट की आवाजें सुनाई देती हैं और फिर बाद में ग्रसनी, कंठ तथा वायु नली पर शोफिय द्रव के दबाव के कारण श्वसन में परेशानी देखने को मिलती है | बीमारी के अंतिम चरण में पशु की जीभ बाहर लटकने लगती है तथा वह मुंह खोलकर सांस लेने लगता है और अंत में उसकी मौत हो जाती है | अक्सर यह देखा गया है कि शोफिय सूजन फूट जाती है और फिर वहाँ से द्रव निकलने लगता है | गंभीरता के आधार पर इस रोग की अवधि 1 – 5 दिवस तक हो सकती है |
परिगलन निष्कर्ष – लसीकला , श्लेष्मकला , अधिहृद्स्तर तथा अंतर्हृदस्तर पर रुधिरांक देखने को मिलते हैं | सभी लसीका पर्व रक्तस्रावी तथा सूजे हुए होते हैं | गला, गर्दन तथा छाती के आसपास अधस्त्वचीय शोफिय सूजन मिलती है जिसमें जिलेटिन जैसा चिपचिपा पदार्थ भरा होता है |साथ ही तंतुमय ब्रांकाई फुफ्फुस प्रदाह भी देखने को मिलता है |अंतरापालि झिल्ली मोटी तथा चौड़ी हो जाती है तथा वहाँ लसीवत् द्रव इकट्ठा हो जाता है, जिस कारणवश वे संगमरमर की तरह दिखने लगती हैं | फुप्फुसावरण तथा फुप्फुसावरण गुहा में बहुत सारा फाइब्रिन तथा लसीवत् द्रव मिलता है |
निदान – इस रोग की पहचान लक्षण तथा परिग्लन निष्कर्ष इत्यादि के आधार पर की जा सकती है | प्रयोगशाला में संदिग्ध पशुओं की लार, शोफिय द्रव, रक्त , सड़े हुए शव की दीर्घ अस्थि की अस्थि मज्जा आदि नमूनों में इस रोग के जीवाणु की जांच की जा सकती है |
विभेदक निदान – हमें चाहिए है कि हम इस रोग और बिसहरिया रोग में भ्रमित न हों |अत: हम जान लें कि बिसहरिया रोग में पशु की तुरंत मृत्यु हो जाती है तथा काले से रंग का बिना थक्के का रक्त शरीर के सभी प्राकृतिक छिद्रों से बहता है तथा रक्त की स्मियर बनाकर उसकी ग्राम अभिरंजना कर परीक्षण करने पर ग्राम धनात्मक लंबे चोकोर छोर वाले जीवाणु लंबी श्रृंखला में दिखाई देते हैं , जबकि गलघोंटू रोग में ग्राम ॠणात्मक द्विध्रुवी जीवाणु दिखते हैं |
साथ ही हम जान लें कि चुरचुरा रोग में तुरंत मृत्यु के साथ ही संक्रमित पशु की भारी मांसपेशियों में चटचटाहट की आवाज के साथ सूजन नजर आती है तथा मांसपेशियों की ग्राम अभिरंजना करने पर बहुतायत में ग्राम धनात्मक जीवाणु दिखते हैं |
इलाज – इस रोग का इलाज प्रमुखतः प्रारंभ में ही ज्यादा प्रभावकारी होता है | इस हेतु एंटीबायोटिक, ज्वरनाशक ऐंटीहिस्टमिंस आदि दवाएँ दी जा सकती है | कार्टिकोस्टेरॉयड का भी उपयोग किया जा सकता है | मूत्रवर्धक दवाएं देने से फेफड़ों के शोफ में तथा गले के आसपास की सूजन में काफी राहत मिलती है |
रोकथाम के उपाय –
क ) बीमार पशुधन को स्वस्थ पशुओं से दूर रखकर उनका इलाज करें |
ख ) बाड़े में ०.५ % – १ % फिनॉल या २ – ४ % सोडियम कार्बोनेट का उपयोग कर साफ – सफाई करें |
ग )पशुओं के लिए सही समय पर सही मात्रा में साफ़ एवं स्वच्छ भोजन – पानी की समुचित व्यवस्था करें |
घ ) पशुओं से उनकी क्षमता के अनुसार ही काम लेवें ताकि पशु तनाव में न आएं और इस रोग का खतरा उन्हें कम से कम हो|
ड़ ) पशुओं को छायादार तथा सूखे स्थान पर ही बांधें जिससे अचानक हुई भारी वर्षा में भी पशु भीगें नहीं |
च ) समय – समय पर पशु को कृमिनाशक दवाएँ देवें | इस हेतु प्याज व लहसुन का मिश्रण भी दिया जा सकता है |
छ ) पशु को लंबी दूरी की यात्रा न करवाएं | परंतु यदि यात्रा आवश्यक हो, तो उनके भोजन – पानी की उचित व्यवस्था की जाए |
ज ) यदि पशु किसी भी रोग से पीड़ित है तो तुरंत उसका इलाज करवायें क्योंकि बीमार पशु को गलघोंटू रोग के होने का खतरा अधिक होता है |
झ ) टीकाकरण – निम्नलिखित में से किसी भी एक टीके से स्वस्थ पशुओं का टीकाकरण करें –
एच. एस. ब्रॉथ टीका – इसे ५ – १० मि. ली. अधस्तवचीय ( सवक्यूटेनियस ) दे सकते हैं |
एच. एस. एलम अवक्षेपित टीका – इसे ५ – १० मि. ली. अधस्तवचीय देते हैं |
एच. एस. रोगन सहायक टीका – गाय तथा भैंस में ३ मि. ली.और वराह तथा भेड़ में २ मि. ली. दे सकते हैं |
रक्षा ट्रायोवेक टीका – यह टीका गलघोंटू के साथ – साथ मुंहपका एवं खुरपका तथा चुरचुरा रोग के रोकथाम में भी सहायक होता है | ५ – ६ माह की उम्र में बछड़ों में यह टीका लगाया जाता है |परंतु यदि २ – ३ माह की उम्र में ही टीकाकरण कर दिया गया हो, तो बछड़े को ६ माह की उम्र में पुनः टीका लगाया जाता है | चूंकि यह टीका ६ – ८ माह तक ही प्रभावी होता है, इसलिए प्रति वर्ष वर्षा ॠतु के आगमन से पूर्व पशुओं का इस टीके से टीकाकरण परमावश्यक है |
अत: उपर्युक्त बातों का ध्यान रखकर हमारे पशुपालक भाई अपने पशुओं को गलघोंटू रोग से मुक्त रखकर नियमित दुग्ध प्राप्त कर मुनाफा ले सकते हैं तथा आनंद के साथ जीवन व्यतीत कर सकते हैं |