भारतीय कृषि एवं पशुधन पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव: बचाव, रोकथाम एवं पारंपरिक ज्ञान की भूमिका
Impact of Climate Change on Livestock and Indian Agriculture: Solutions, and the Path to Sustainable Growth
जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक चुनौती बन चुका है, जिसका प्रभाव कृषि, पशुधन और पर्यावरण पर गंभीर रूप से पड़ रहा है। भारत, जो कि विश्व का एक प्रमुख कृषि एवं पशुपालन आधारित देश है, यहाँ पर जलवायु परिवर्तन के कारण पशुधन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। चरम मौसम परिस्थितियाँ, अत्यधिक गर्मी, बाढ़, सूखा, चारे की उपलब्धता में कमी, और नये-नये रोगों के प्रसार से पशुपालन को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
जलवायु परिवर्तन आज पशुपालन क्षेत्र के लिए एक गंभीर चुनौती बन चुका है। अत्यधिक गर्मी, अनियमित वर्षा, बाढ़, सूखा और नई बीमारियों का उभरना पशुधन की उत्पादकता को प्रभावित कर रहा है। इन चुनौतियों से निपटने के लिए आधुनिक वैज्ञानिक तरीकों के साथ-साथ पारंपरिक ज्ञान (Indigenous Technical Knowledge – ITK) और एथनो-वेटरनरी प्रथाओं को अपनाना आवश्यक है।
भारत में सदियों से पारंपरिक पशुपालन तकनीकों का उपयोग किया जाता रहा है, जो प्राकृतिक रूप से जलवायु अनुकूल और स्थायी (sustainable) हैं। यदि इन्हें वैज्ञानिक पशुपालन प्रथाओं के साथ जोड़ा जाए, तो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम किया जा सकता है और पशुधन को अधिक सुरक्षित रखा जा सकता है।
जलवायु परिवर्तन से पशुधन की सुरक्षा: आधुनिक विज्ञान और पारंपरिक ज्ञान (ITK) का संयोजन
1. जलवायु परिवर्तन और पशुधन पर प्रभाव
(i) तापमान में वृद्धि और गर्मी तनाव (Heat Stress)
- अत्यधिक गर्मी से पशुओं का दूध उत्पादन घटता है।
- पशुओं की प्रजनन क्षमता प्रभावित होती है।
- गर्मी के कारण पशुओं में हृदय गति तेज हो जाती है और पानी की जरूरत बढ़ जाती है।
(ii) जल संकट और चारे की कमी
- सूखा और अनियमित वर्षा के कारण पशुओं के लिए चारे और पानी की उपलब्धता कम हो जाती है।
- चारागाहों की उर्वरता घटती है, जिससे चारा उत्पादन प्रभावित होता है।
(iii) रोगों का बढ़ता खतरा
- जलवायु परिवर्तन के कारण नए-नए संक्रमण (जैसे लंपी स्किन डिज़ीज़, एफएमडी, ब्रुसेलोसिस) बढ़ रहे हैं।
- उच्च आर्द्रता से परजीवी और जीवाणुजनित बीमारियाँ तेजी से फैलती हैं।
2. आधुनिक विज्ञान और पारंपरिक ज्ञान (ITK) का संयोजन
(i) आधुनिक वैज्ञानिक पद्धतियाँ
वैज्ञानिक तकनीकों का उपयोग कर पशुपालन को अधिक जलवायु-अनुकूल बनाया जा सकता है। इसके कुछ प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं:
1. जलवायु अनुकूल पशुशाला निर्माण
- छायादार और हवादार पशुशाला बनाना ताकि गर्मी के प्रभाव को कम किया जा सके।
- कूलिंग फैन और वाटर स्प्रिंकलर का उपयोग कर तापमान नियंत्रित किया जा सकता है।
- पशुओं को गर्मी से बचाने के लिए ग्रीन शेड नेट और ट्री प्लांटेशन को बढ़ावा देना।
2. उच्च पोषण युक्त चारा प्रबंधन
- सूखा सहिष्णु चारा फसलें जैसे नेपियर घास, बरसीम, गिनी घास को अपनाना।
- साइलो (Silage) और हाइड्रोपोनिक ग्रीन फीड तकनीक से चारा उत्पादन बढ़ाना।
- चारे में खनिज मिश्रण (Mineral Mixture) और इलेक्ट्रोलाइट्स मिलाकर गर्मी तनाव को कम करना।
3. रोगों की रोकथाम एवं स्वास्थ्य प्रबंधन
- नियमित टीकाकरण (Vaccination) और डिवॉर्मिंग (Deworming) कराना।
- पशुशाला में बायो-सिक्योरिटी उपाय अपनाना ताकि संक्रमण को रोका जा सके।
- संक्रामक बीमारियों से बचाव के लिए एंटी-स्ट्रेस और आयुर्वेदिक फॉर्मूलेशन देना।
(ii) पारंपरिक ज्ञान (ITK) और एथनो-वेटरनरी तकनीकें
भारतीय किसान सदियों से पारंपरिक ज्ञान (ITK) और जड़ी-बूटियों का उपयोग कर पशुओं को स्वस्थ रखते आए हैं। ये तकनीकें प्राकृतिक, सस्ती और कारगर हैं।
1. हीट स्ट्रेस से बचाव के पारंपरिक उपाय
- पशुओं को ठंडे पानी से स्नान कराना और उनकी छायादार स्थानों में व्यवस्था करना।
- चारे में गुड़, अजवाइन, धनिया पाउडर मिलाकर पाचन और हाइड्रेशन को सुधारना।
- गिलोय, अश्वगंधा, तुलसी जैसी जड़ी-बूटियों से पशुओं की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाना।
2. पारंपरिक चारा संरक्षण विधियाँ
- भूसे (Straw) को गुड़ और नमक के घोल से उपचारित करके उसकी पोषण क्षमता बढ़ाना।
- धान और गेहूँ के भूसे में सरसों की खली मिलाकर चारा गुणवत्ता सुधारना।
- आंवला और हरड़ पाउडर चारे में मिलाने से पशुओं का हाजमा बेहतर होता है।
3. रोग रोकथाम के पारंपरिक उपचार
- एफएमडी (Foot and Mouth Disease) के लिए नीम पत्तियों का लेप और हल्दी का उपयोग।
- पाचन रोगों के लिए अजवाइन, मेथी, और जीरा का मिश्रण देना।
- घाव और चोटों के लिए हल्दी और सरसों के तेल का लेप लगाना।
4. दूध उत्पादन बढ़ाने के पारंपरिक उपाय
- गुड़ और मेथी देने से दूध उत्पादन में वृद्धि होती है।
- बेलपत्र और अश्वगंधा देने से पशु की ऊर्जा बढ़ती है।
- शतावरी और सोया मिश्रण दूध की गुणवत्ता सुधारता है।
3. जलवायु परिवर्तन से बचाव के लिए सरकारी योजनाएँ
सरकार जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के लिए कई योजनाएँ चला रही है, जिनका लाभ किसान उठा सकते हैं:
- राष्ट्रीय पशुधन मिशन (NLM) – पशुपालन में जलवायु अनुकूल प्रथाओं को बढ़ावा देता है।
- राष्ट्रीय गोकुल मिशन (RGM) – स्वदेशी नस्लों के संरक्षण पर ध्यान केंद्रित करता है।
- कृषि जलवायु अनुकूलन योजना – किसानों को सूखा और बाढ़ के प्रभावों से बचाने में मदद करता है।
पशुपालकों के लिए जागरूकता अभियान
1. प्रशिक्षण और जागरूकता कार्यक्रम
- पशुपालकों को जलवायु स्मार्ट पशुपालन की जानकारी देना।
- सरकार और कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा चलाए जा रहे प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भाग लेना।
2. पारंपरिक ज्ञान (ITK) और एथनो-वेटरनरी प्रथाएँ
- घरेलू औषधियाँ जैसे तुलसी, नीम, गिलोय से रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाना।
- पशुओं के चारे में हर्बल सप्लीमेंट मिलाना ताकि वे गर्मी सहन कर सकें।
3. सरकारी योजनाएँ एवं अनुदान
- राष्ट्रीय पशुधन मिशन (NLM), राष्ट्रीय गोकुल मिशन (RGM), राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) द्वारा संचालित योजनाओं का लाभ उठाना।
- सरकार द्वारा जलवायु अनुकूल चारे और नस्ल सुधार परियोजनाओं को बढ़ावा दिया जा रहा है।
जलवायु परिवर्तन से पशुपालन पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है, लेकिन यदि आधुनिक विज्ञान और पारंपरिक ज्ञान (ITK) का समुचित उपयोग किया जाए, तो पशुधन को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बचाया जा सकता है।
वैज्ञानिक उपायों जैसे उचित पशुशाला निर्माण, संतुलित पोषण, बायो-सिक्योरिटी उपायों को अपनाने के साथ-साथ पारंपरिक जड़ी-बूटियों, आयुर्वेदिक उपचार और एथनो-वेटरनरी तकनीकों का उपयोग करना एक समग्र (Holistic) और सतत (Sustainable) समाधान हो सकता है।
यदि किसान इन तकनीकों को अपनाएँ और सरकारी योजनाओं का सही ढंग से उपयोग करें, तो भारत में जलवायु-स्मार्ट पशुपालन (Climate Smart Livestock Farming) को सफल बनाया जा सकता है। इससे पशुधन की उत्पादकता बढ़ेगी, आर्थिक लाभ मिलेगा और ग्रामीण आजीविका भी सुरक्षित होगी।
जलवायु परिवर्तन में कृषि पर आसान प्रकोप से बचाव, रोकथाम तथा जागरूकता
जलवायु परिवर्तन आज पूरी दुनिया के लिए एक गंभीर चुनौती बन चुका है, और इसका सबसे अधिक प्रभाव कृषि क्षेत्र पर पड़ा है। भारत, जो एक कृषि प्रधान देश है, यहाँ की खेती सीधे मानसून, तापमान, वर्षा और जल संसाधनों पर निर्भर करती है। हाल के वर्षों में अत्यधिक गर्मी, सूखा, बाढ़, असामयिक वर्षा और चक्रवातों जैसी प्राकृतिक आपदाएँ बढ़ी हैं, जिससे किसानों की आजीविका और खाद्य सुरक्षा पर संकट मंडरा रहा है।
इस लेख में, हम जलवायु परिवर्तन के प्रभाव, उससे बचाव, रोकथाम और कृषि क्षेत्र में जागरूकता बढ़ाने की रणनीतियों पर चर्चा करेंगे, जिससे भारतीय किसानों को जलवायु अनुकूल खेती अपनाने में सहायता मिल सके।
- जलवायु परिवर्तन और भारतीय कृषि पर प्रभाव
(i) अनियमित वर्षा और सूखा
- मानसून में देरी या असमान वर्षा के कारण फसलों की बुवाई प्रभावित होती है।
- सूखा पड़ने से भूजल स्तर गिरता है और सिंचाई की समस्या बढ़ती है।
- चावल, गेहूं, दालें और अन्य फसलें प्रतिकूल रूप से प्रभावित होती हैं।
(ii) अत्यधिक गर्मी और तापमान वृद्धि
- तापमान बढ़ने से फसलों की वृद्धि दर कम हो जाती है और उनका पकने का समय बदल जाता है।
- अधिक गर्मी के कारण फसलों की उत्पादकता (yield) पर नकारात्मक असर पड़ता है।
- हीट वेव (लू) के कारण सब्जियों और फलों की गुणवत्ता खराब हो जाती है।
(iii) बाढ़ और चक्रवात का बढ़ता खतरा
- बाढ़ से फसलें बर्बाद हो जाती हैं, जिससे किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है।
- मिट्टी का कटाव (Soil Erosion) बढ़ता है, जिससे भूमि की उर्वरता घट जाती है।
- तटीय क्षेत्रों में चक्रवात और समुद्री जलस्तर में वृद्धि से कृषि भूमि प्रभावित हो रही है।
(iv) कीटों और रोगों का प्रकोप
- गर्मी और नमी में वृद्धि से नए-नए कीट और बीमारियाँ फसलों को प्रभावित कर रही हैं।
- जलवायु परिवर्तन के कारण फसलों की रोग प्रतिरोधक क्षमता घट रही है।
- जलवायु परिवर्तन से बचाव और रोकथाम के उपाय
(i) जलवायु अनुकूल कृषि तकनीकें अपनाना
- संकर (Hybrid) और जलवायु सहिष्णु (Climate Resilient) फसलें अपनाना जो कम पानी और अधिक तापमान में भी अच्छी पैदावार दें।
- सॉइल हेल्थ कार्ड (Soil Health Card) का उपयोग कर मिट्टी की गुणवत्ता के अनुसार उर्वरकों का प्रयोग करना।
- फसल विविधीकरण (Crop Diversification) जैसे दलहन, तिलहन और मिलेट्स की खेती को बढ़ावा देना।
(ii) जल संरक्षण तकनीकें
- टपक (Drip) और स्प्रिंकलर सिंचाई जैसी आधुनिक तकनीकों से जल की बर्बादी रोकना।
- पानी बचाने के लिए तालाबों, जलाशयों और रेनवाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम को अपनाना।
- मृदा नमी संरक्षण (Mulching) तकनीक से पानी की खपत को कम करना।
(iii) प्राकृतिक खेती और जैविक कृषि को बढ़ावा देना
- जीरो बजट नेचुरल फार्मिंग (ZBNF) अपनाकर रसायनों के उपयोग को कम करना।
- जैव उर्वरक (Bio-fertilizers) और जैव कीटनाशकों (Bio-Pesticides) का प्रयोग कर भूमि की उर्वरता बनाए रखना।
- हरे खाद (Green Manure) और फसल अवशेष प्रबंधन (Crop Residue Management) से मिट्टी की उर्वरता बनाए रखना।
(iv) आधुनिक कृषि मशीनरी और डिजिटल टेक्नोलॉजी का उपयोग
- कृषि मौसम विज्ञान सेवाएँ (Agromet Services) जैसे IMD के मोबाइल ऐप से मौसम की सटीक जानकारी प्राप्त करना।
- स्मार्ट एग्रीकल्चर (Smart Agriculture) जैसे IoT आधारित सिंचाई और ड्रोन तकनीक अपनाना।
- ई-नाम (e-NAM) और डिजिटल मार्केटिंग प्लेटफार्मों के माध्यम से फसलों का अच्छा दाम पाना।
- कृषि क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के प्रति जागरूकता बढ़ाना
(i) किसानों के लिए प्रशिक्षण और कार्यशालाएँ
- सरकार और गैर-सरकारी संगठनों को किसानों के लिए जलवायु अनुकूल कृषि तकनीकों पर प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने चाहिए।
- कृषि विज्ञान केंद्र (KVK) और राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान संस्थान (ICAR) द्वारा फील्ड डेमोंस्ट्रेशन और जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए।
(ii) पारंपरिक ज्ञान (ITK) का उपयोग
- स्थानीय कृषि परंपराओं और पारंपरिक फसल प्रबंधन तकनीकों को संरक्षित और प्रचारित करना।
- इंटरक्रॉपिंग और मिश्रित खेती (Mixed Cropping) जैसे प्राचीन तरीकों को बढ़ावा देना।
- पारंपरिक जल संरक्षण प्रणालियाँ (जैसे बावड़ियाँ और कुंड) को पुनर्जीवित करना।
(iii) सरकारी योजनाओं और नीतियों का लाभ उठाना
- प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY) और राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (RKVY) जैसी योजनाओं से लाभ उठाना।
- फसल बीमा योजना (PMFBY) के तहत किसानों को जलवायु जोखिम से बचाने के लिए अधिक कवरेज देना।
- राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) के सहयोग से जलवायु आपदाओं से बचाव हेतु सामुदायिक प्रयासों को मजबूत करना।
निष्कर्ष
जलवायु परिवर्तन का भारतीय कृषि पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है, लेकिन यदि वैज्ञानिक नवाचार, पारंपरिक ज्ञान और सरकारी योजनाओं का समुचित उपयोग किया जाए, तो इसकी चुनौतियों से निपटा जा सकता है।
- कृषकों को जलवायु अनुकूल खेती अपनाने के लिए जागरूक किया जाना चाहिए।
- जल संरक्षण और जैविक खेती को बढ़ावा देकर मृदा और जल की गुणवत्ता को सुरक्षित रखा जा सकता है।
- तकनीकी और डिजिटल समाधानों का उपयोग कर कृषि उत्पादन को अधिक लाभदायक बनाया जा सकता है।
यदि भारत के किसान जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को पहचानकर समुचित रणनीतियाँ अपनाएँ, तो सतत कृषि विकास (Sustainable Agriculture) को बढ़ावा दिया जा सकता है और भविष्य की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती है।