दुधारू पशुओं में टीकाकरण का महत्व
मनुष्यों की भांति पशुओं में भी रोग प्रतिरक्षा हेतु टीकाकरण अत्यंत आवश्यक है। यह न सिर्फ उन्हें सुक्ष्म जीवियों के संक्रमण से बचाता हैों बल्कि विभिन्न बिमारियों के प्रति रोग प्रतिरोधक क्षमता प्रदान करता है । इस प्रकार नियमित टीकाकरण द्वारा पशुपालक न सिर्फ दवाइयों पर होने वाले खर्च को काम कर सकते है बल्कि एक बेहतर उत्पादन भी प्राप्त कर सकते है। टीकाकरण जीवों के संचरण को कम करता है, और अक्सर बीमार जानवरों के इलाज के लिए भुगतान करने से अधिक किफायती होता है। पालतू जानवरों को संक्रामक बीमारियों जैसे रेबीज, परवोवीरस, डिस्टेंपर और हेपेटाइटिस के लिए टीकाएं मिलती हैं। टीका एक स्वास्थ्य उत्पाद है जो कि पशुओं के सुरक्षात्मक प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है साथ ही उन्हे विभिन्न रोगकारक जैसे जीवाणु विषाणु, परजीवी, प्रोटोजोआ तथा कवक के संक्रमण से लडऩे के लिए शरीर को तैयार करता है ।
टीकाकरण का सिद्धांत:
टीकाकरण कार्यक्रम का उद्देश्य पशुओं के विभिन्न रेागों से बचाव द्वारा पशु तथा जन स्वास्थ्य को बढ़ावा देना है । टीकाकरण के द्वारा पशुओं के शरीर में किसी रोग विशेष के प्रति एक निश्चित मात्रा में प्रतिरोधक क्षमता (एन्टीबाडी) विकसित होती है । जो पशुओं को उस रोग विशेष से बचाती हैं । विभिन्न जाति के पशुओं में विभिन्न प्रकार के टीके तथा टीका कार्यक्रम की जरुरत पड़ती है पुन: टीकाकरण या बूस्टर का उद्देश्य शरीर में उचित मात्रा में प्रतिरोधक क्षमता लगातार बनाये रखना तथा उनके प्रतिकूल प्रभाव को कम करना है प्रत्येक बीमारी का टीका अलग होता है तथा एक बीमारी का टीका केवल उसी बीमारी से प्रतिरक्षा प्रदान करता है । बीमारी फैलने से रोकने के लिए जिस गांव क्षेत्र अथवा समूह में रोग हो उसके चारों तरफ के स्वस्थ पशुओं को टीके लगाकर प्रतिरक्षित क्षेत्र उत्पन्न कर देना चाहिए । कुछ जीवाणुओं एवं विषाणुओं द्वारा उत्पन्न बीमारियों से बचाव के प्रति सीरम भी उपलब्ध है इसमें प्रतिरक्षा या एन्टीबाडी होते हैं जो कि बीमारी के विषाणु अथवा जीवाणुओं द्वारा उन्पन्न विष के प्रभाव को समाप्त कर देते हैं । जैसे टिटेनस के लिए उपलब्ध प्रति सीरम।
वर्तमान समय में आर्थिक लाभ किसानों का एक प्रमुख लक्ष्य है तथा इसमें पशुओं के स्वास्थ्य का महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि प्रतिवर्ष हजारों दुधारू पशु खतरनाक बीमारियों जैसे गलघोंटू, लंगडिय़ा, खुरपका, मुंहपका के संक्रमण के कारण मारे जाते हैं जिससे पशुपालकों को आर्थिक क्षति का नुकसान उठाना पड़ता है। एक प्रचलित लोकोक्ति है रोकथाम उपचार से बेहतर है पशुओं में पूर्णत: सत्य है तथा यह आर्थिक तथा नीतिशास्त्र दोनों में लागू होती है वास्तव में बहुत से विषाणुजनित रोग लाइलाज है तथा इनका एक ही विकल्प इनकी रोकथाम है जो टीकाकरण द्वारा संभव है पशुओं में विभिन्न रोगों से बचाव के लिए टीकाकरण उचित समय पर, उचित मात्रा में, उचित जगह पर, उचित मार्ग से तथा उचित टीकों के प्रयोग द्वारा ही संभव है टीकाकरण वह विधि है जिसमें कमजोर या मृत प्राय: या मृत रोगाणुओं को शरीर में प्रविष्ट कराया जाता है जिसका उद्देश्य उस विशेष रेागाणुओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता को विकसित करना या बढ़ाना है ।
टीकाकरण का महत्व:
टीकाकरण के द्वारा विश्व में करोड़ों जानवरों के जीवन में विभिन्न संक्रामक रोगों से बचाव किया गया है इस तरह पशुपालकों का यह उत्तरदायित्व तथा कर्तव्य बनता है कि वह अपने पशुओं का उचित टीकाकरण पषु चिकित्सक की सलाह पर शुरुआत में ही करायें तथा प्रति वर्ष पुन: टीकाकरण करायें । यह देखा गया है कई रोगों के लक्षण पषुओं में नहीं दिखते लेकिन वातावरण में उनके पाये जाने के कारण टीकाकरण की सलाह दी जाती है । वर्तमान समय में हम जूनोटिक रोगों (वह रोग जो पशुअेां से मनुष्यों में तथा मनुष्यों से जानवरों मे फैलते हैं ) की गंभीरता को अनदेखी नहीं कर सकते जैसे रैबीज, एन्थ्रेक्स, ब्रसेलोसिस, गाय का चेचक, क्षय रोग इत्यादि । इसलिए पशुओं में टीकाकरण से संक्रामक तथा खतरनाक जूनोटिक रोगों से बचाव संभव है टीका शरीर के प्रतिरोधी तंत्र को उत्तेजित करता है जिसके फलस्वरुप एन्टीबाडी का निर्माण होता है । यह एन्टीबाडी शरीर तथा वातावरण में उपस्थित सूक्ष्म जीवों से लडऩे की शक्ति प्रदान करता है । टीकाकरण किए गये पशुओं में अगर वही रोगाणु पुन: आक्रमण करता है तो शरीर में उपस्थित उस रोगाणु विशेष के विरुद्ध में बना एन्टी बाडी (प्रतिपिंड) उसे विनाश कर उसे रोग होने से बचाती है । टीके शरीर में एक जटिल तरीके से काम करते हैं अत: यह सलाह दी जाती है कि केवल स्वस्थ पशुओं को ही टीके लगाये जायें अस्वस्थ या बीमार पशुओं को टीके नहीं लगाना चाहिए। साथ ही पशु पालकों को टीके के बनने की तिथि व नष्ट होने की तिथि पर अवश्य ध्यान देना चाहिए।
टीककरण व रोग से वचाव की शर्तें:
टीकाकरण कार्यक्रम पशुओं को विभिन्न रोगों से बचाव को सुनिश्चित करता है सफलता पूर्वक टीकाकरण किये गये पशुओं में सुरक्षा में तोड़ आने पर भी बीमारी के लक्षण नहीं दिखते हैं और इस तरह टीकाकरण पशुओं में स्वास्थ्य सुरक्षा का महत्वपूर्ण अवयव है टीकाकरण किए गये पशुओं केा बिना टीका दिये गये पशुओं या बीमार पशुओं से अलग रखते हैं । टीकाकरण करवाने से पूर्व पशुओं को अन्त: परजीवी नाशक दवा पशु चिकित्सक की सलाह पर देनी चाहिए । टीकाकरण के तुरंत बाद पशुओं को खराब मौसम से बचाव एवं अत्यधिक व्यायाम न करायें। चारें में खनिज मिश्रण का प्रयोग कम से कम 45 दिन तक करें ।टीकाकरण कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए यह आवश्यक है कि टीको का संरक्षण उचित तापमान पर हर स्थिति में होना चाहिए।
भारतीय किसान सह-व्यवसाय के तौर पर मुख्यतः पशुपालन पर निर्भर रहता है। पशुधन से स्वच्छ दुग्ध उत्पादन हेतु उसे विभिन्न संक्रामक रोगों से बचाना आवश्यक है। संक्रामक रोगों की चपेट मे आने से पशुओं के दुग्ध उत्पादन मे कमी होना, गर्भपात, फुराव जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है और अगर समय रहते इलाज ना किया जाये तो पीड़ित पशु की मृत्यु भी हो सकती है।
संक्रामक रोगों से बचाव के लिए पशुओं का टीकाकरण एकमात्र प्रभावी उपाय है जो कि पशुओं की रोगप्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाकर उनकी संक्रामक रोगों से रक्षा करता है।
मुँहपका खुरपका रोग – यह एक विषाणुजनित रोग है, जो गाय, भैंस, भेड़, बकरी एवं सूकर प्रजाति को प्रभावित करता है।
आमतौर पर संक्रमित पशु में तीव्र ज्वर से ग्रसित होना, मुँह मे छाले, लार का गिरना, दुग्ध उत्पादन कम होना, गर्भपात होना जैसे लक्षण देखने को मिलते हैं। इस रोग से बचाव के लिए वर्ष मे दो बार मई तथा नवंबर मे टीकाकरण करवाना चाहिए।
गलघोटू रोग –
यह भैंस, गाय, बकरी एवं सूकरों में होने वाला प्राणघातक जीवाणुजनित रोग है। जो मानसून के दौरान या आर्द्र वातावरण में पशुओं को संक्रमित करता है। यह जीवाणु भैंसों को गायों के मुकाबले अधिक संक्रमित करता है।
गलघोटू रोग में पशु को अचानक तेज बुखार आता है, मुँह से लार बहती है, आँखों एवं गले में सूजन आ जाती है जिससे सांस लेने में तकलीफ महसूस होती है। इलाज के अभाव में पशु की मृत्यु होने की संभावना बढ़ जाती है। मृत्यु दर अधिक होने से इस रोग के कारण पशुपालक को आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ता है।
सामान्यतः इस रोग से बचाव के लिए जून एवं दिसंबर (वर्ष मे दो बार ) पशु का टीकाकरण किया जाता है।
मुंहखुर एवं गलघोटू का संयुक्त टीका भी उपलब्ध है जो साल में दो बार लगाया जाता है। यह पशु को बार-बार टीकाकरण से होने वाले तनाव से बचाता है।
लंगड़ा बुखार –
यह एक जीवाणुजनित रोग है। आमतौर पर भारी मांसपेशियों (पुटठे) की मांसपेशियों को अधिक प्रभावित करता है। मांसपेशियों मे गर्म एवं दर्दनाक सूजन आ जाती है, जिसे दबाने पर चड़ चड़ की आवाज़ आती है। इस रोग में पशु को तेज बुखार के साथ लंगड़ापन आ जाता है।
संक्रमित पशु का शुरूआती लक्षणों मे इलाज संभव है। अधिकांश मामलों में इलाज प्रभावी नहीं होता है। यह रोग मुख्यतः मिटटी मे पहले से पाए जाने वाले बीजाणु , संक्रमित सुई, संक्रमित चरागाहों से फैलता है। एंडेमिक (स्थानिक) क्षेत्रों में, इसका टीकाकरण वर्षा ऋतू से पहले, वर्ष मे एक बार करवाने की सलाह दी जाती है।
संक्रामक गर्भपात (ब्रूसीलोसिस) –
इस जीवाणु जनित रोग से प्रभावित मादा पशु का अंतिम तिमाही में गर्भपात हो जाता है तत्पश्चात मादा पशु रोग वाहक का कार्य करती है। नर पशु रोग के वाहक के रूप में प्राकृतिक गर्भाधान द्वारा इस रोग को मादाओं में फैलाता है। संक्रमित पशुओं को प्रजनन चक्र से बाहर कर देना चाहिए। इससे बचाव के लिए पांच से आठ माह की केवल मादा पशु को ब्रुसेल्ला स्ट्रेन S -19 टीका (जीवन में सिर्फ एक बार) लगाया जाना चाहिए।
हड़कवा रोग (रेबीज) –
यह एक ज़ूनोटिक रोग है। रेबीज संक्रमित श्वान द्वारा पशु को काट लेने पर छः टीके 0, 3, 7, 14, 28, 90 दिन पर लगवा इस विषाणुजनित रोग से बचा जा सकता है।
थीलेरिओसिस –
यह प्रोटोजोआ जनित रोग है, जो मुख्य रूप से लाल रक्त कोशिका को संक्रमित करता है। गायों में इसके संक्रमण की संभावना सर्वाधिक होती है। सामान्य भाषा में इसे चींचड़ी बुखार भी कहते हैं, क्योंकि यह चींचड़ी (टीक्स) द्वारा एक पशु से दूसरे पशु में फैलता है। इसका टीका तीन माह या ऊपर की आयु के पशु में लगाया जाता है, जो पशु को तीन माह के लिए रोग से प्रतिरोधक क्षमता प्रदान करता है।
एंथ्रेक्स –
यह जीवाणुजनित ज़ूनोटिक रोग है। जिसे सामान्य भाषा में गिल्टी रोग, जहरी बुखार के नाम से जाना जाता है। मुख्य रूप से गाय, भैंस, बकरी और घोड़ों में होता है। एंडेमिक (स्थानिक) क्षेत्रों में, इस रोग से बचाव के लिए एंथ्रेक्स बीजाणु टीका प्रत्येक वर्ष एक बार पशुओं को खुले चारागाहों में छोड़ने से पहले लगाया जाना चाहिए।
पशुओं में टीकाकरण से पूर्व बरतने वाली सावधानियां –
- टीकाकरण से दो हफ्ते पूर्व पशु को पशुचिकित्सकीय सलाह से कृमिनाशक दवा अवश्य देनी चाहिए।
- बीमार पशु का टीकाकरण ना करवाएं।
- ध्यान रहे टीकाकरण से पूर्व पशु स्वस्थ एवं तनाव रहित होना चाहिए। अतः उसे संतुलित आहार एवं आरामदायक आवास में रखना चाहिए।
- अगर टीका पशुपालक अपने स्तर पर लाता है, तो टीके का संरक्षण उचित तापमान पर अवश्य करना चाहिए ताकि टीका खराब न हो।
- टीकाकरण करवाते समय पशु को अच्छी तरह से काबू कर लेना चाहिए ताकि टीका सही जगह, उचित मात्रा में, उचित मार्ग से पशु को बिना क्षति पहुंचाये लगाया जा सके।
पशुओं में टीकाकरण पश्चात् की सावधनियां –
- टीकाकरण के बाद पशु से ज्यादा काम ना लेवें उसे एक या दो दिन विश्राम देना चाहिए।
- टीकाकरण के बाद पशु को आरामदायक आवास में रखें, अधिक धुप एवं अधिक ठण्ड से बचाव करें।
- टीकाकरण के बाद पशु को संतुलित आहार देना चाहिए तथा आवश्यक मात्रा में खनिज मिश्रण अवश्य देवें।
- टीकाकरण के बाद कई पशुओं को बुखार आ जाता है ऐसी स्थिति में ज्वरनाशक दवा उचित मात्रा में देनी चाहिए।
- टीके के स्थान पर सूजन आने पर वहां बर्फ लगाने से पशु को आराम मिलता है।
अंततः टीकाकरण पशुओं के लिए बहुत ही लाभदायक है, क्योंकि यह पशुओं को स्वस्थ रखते हुए उन्हें विभिन रोगों से लड़ने की ताकत देता है एवं अनमोल पशुधन को असमय मृत्यु से बचाता है। नियमित टीकाकरण पशु के उपचार के खर्च को कम करने के साथ साथ स्वच्छ दूध उत्पादन एवं ज़ूनोटिक बिमारियों की रोकथाम में सहायक है। अतः पशु पालक को बिना संकोच के अपने सभी पशुओं का टीकाकरण करवाकर उनकी स्वस्थता को सुनिश्चित करना चाहिए।
डॉ जितेंद्र सिंह ,पशु चिकित्सा अधिकारी ,कानपुर देहात, उत्तर प्रदेश