भारत में सफल डेयरी व्यवसाय के समुचित प्रबंधन हेतु महत्वपूर्ण सुझाव

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IMPORTANT SUGGESTIONS FOR THE SUCCESSFUL DAIRY FARM MANAGEMENT IN INDIA
IMPORTANT SUGGESTIONS FOR THE SUCCESSFUL DAIRY FARM MANAGEMENT IN INDIA
भारत में सफल डेयरी व्यवसाय के समुचित प्रबंधन हेतु महत्वपूर्ण सुझाव
श्वेत क्रांति के जनक स्वर्गीय डॉ वर्गीज कुरियन के अथक प्रयास के परिणाम स्वरूप आज के  परिदृश्य में गांव -गांव में शंकर गाय आम तौर पर देखी जा सकती हैं। इससे विगत कई वर्षों से दुग्ध उत्पादन में भारत पूरे विश्व में प्रथम स्थान पर है।  *स्वर्गीय डॉ वर्गीज कुरियन को मिल्क मैन आफ इंडिया  के नाम से भी जाना जाता है।*
         *प्रत्येक वर्ष 1 जून को विश्व दुग्ध दिवस मनाया जाता है उपरोक्त लेख विश्व दुग्ध दिवस 2021 के अवसर पर स्वर्गीय डॉ वर्गीज कुरियन एवं सभी डेरी व्यवसायियों को समर्पित है।
भारत का दुग्ध उत्पादन पिछले 6 वर्षों में35.61% बढ़कर वर्ष 2019-200 में कुल दुग्ध उत्पादन 198.4, मिलियन टन एवं प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता 407 ग्राम प्रतिदिन, हो गई है । सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2018 -19 से तुलना करने पर यह वृद्धि 5.70% है।
*( स्रोत : – बुनियादी पशुपालन सांख्यिकी, पशुपालन डेयरी व मत्स्य पालन विभाग भारत सरकार)*
भारत का  दुग्ध उत्पादन में  विश्व में प्रथम स्थान है  हालांकि विश्व में सबसे अधिक पशु संख्या होने के बावजूद प्रति पशु दुग्ध उत्पादकता अन्य देशों की अपेक्षा काफी कम है जिसे वैज्ञानिक विधि से डेयरी पालन द्वारा काफी हद तक बढ़ाए जाने की असीम संभावनाएं है।
* डेयरी व्यवसाय प्रारंभ करने से पूर्व एक व्यवसाय योजना बनाना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
* पशु चिकित्साविद, पशु पोषण विशेषज्ञ, निवेशक एवं बैंकर की सुविधाएं लेना लाभदायक सिद्ध होगा।
* प्रारंभिक निवेश के बारे में समुचित ज्ञान होना चाहिए।
* डेयरी व्यवसाय में प्रयुक्त पशु चारे एवं संतुलित आहार की व्यवस्था।
* अपशिष्ट प्रबंधन कार्यक्रम की महत्ता एवं व्यवस्था।
* उत्तम गुणवत्ता की नस्ल का चयन अत्यंत महत्वपूर्ण है।
* डेयरी व्यवसाय के लिए बाजार की उपलब्धता को सुनिश्चित करना।
     डेयरी व्यवसाय की सफलता मुख्यत: दुधारू पशुओं पर निर्भर करती है। इसलिए दुधारू पशुओं का रखरखाव, उनका निवास स्थान, खानपान,स्वास्थ्य प्रबंधन, एवं प्रजनन प्रबंधन समुचित होना चाहिए ताकि पशुपालक अपने दुधारू पशु से उसकी पूरी क्षमता से दूध उत्पादन एवं संतति ले सके और डेयरी व्यवसाय से अधिक से अधिक लाभ उठा सकें।
*पशु आवास प्रबंधन:*
1.पशु का निवास स्थान स्वच्छ एवं आरामदायक होना चाहिए जिससे वातावरण के उतार चढ़ाव एवं बदलाव का पशु की किसी भी प्रकार की क्रिया एवं उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।
2.पशु आवास के क्षेत्र में छायादार पेड़ों का होना अति आवश्यक है , क्योंकि पेड़ ही पहले माध्यम है जो वातावरण में उतार-चढ़ाव से पशु को बचाते हैं।
पशु को रखने का स्थान मौसम के हिसाब से बदलते रहना चाहिए। गर्मी में  पशु को छाया में, बरसात में हवादार स्थान पर जोकि पंखे या एग्जास्ट के पंखे द्वारा ठंडी हवा दी जा सके एवं सर्दी में बंद मकान में रखना चाहिए ताकि उसे सर्दी न लगे। ऐसा करने से पशु का स्वास्थ्य भी ठीक रहता है एवं पशु आहार भी ठीक मात्रा में खाता है और दूध उत्पादन पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ता है।
3.एक दुधारू गाय व भैंस के लिए 3.4 से 4 वर्ग मीटर क्षेत्रफल का ढका हुआ तथा 7 से 8 वर्ग मीटर का खुला हुआ स्थान होना चाहिए तथा निवास स्थान को ऊंचाई, मध्यम ऊंचाई के पशु से 175 सेंटीमीटर तथा 220 सेंटीमीटर क्रमशः मध्यम तथा अधिक वर्षा वाले क्षेत्र में और दरमियानी शुष्क क्षेत्र में होनी चाहिए।
 4.यदि सभी दुधारू पशु एक साथ एक ही बाड़े में खुले रखे गए हैं तो ऐसी स्थिति में एक बाड़े में पशुओं की संख्या 50 से अधिक नहीं होनी चाहिए अन्यथा अधिक संख्या में न तो पशु को आहार उचित मात्रा में मिलेगा और नहीं पशु को आराम मिल सकेगा। पशु के बैठने का स्थान ऐसा होना चाहिए जिस पर पशु फिसल न सके तथा मूत्र व गंदे पानी की निकासी के लिए “यू ” आकार की 20 सेंटीमीटर चौड़ी नाली होनी चाहिए।
5.पशु के आवास में टूट-फूट नहीं होनी चाहिए ताकि वर्षा का पानी एवं सफाई का गंदा पानी बाड़े में ठहर सके।
 सर्दी के मौसम में पशु को आराम देने के लिए बिछावन का विशेष प्रबंध करना चाहिए। ऐसा करने से पशु की उत्पादकता बढ़ेगी और साथ ही साथ बीमारियां भी कम होंगी।
*पशु आहार एवं पेयजल प्रबंधन:*
1.दुधारू पशुओं को साफ एवं स्वच्छ ताजा पानी पिलाना चाहिए। पशु को पानी की आवश्यकता वातावरण की दशा एवं उसको दिए गए आहार पर निर्भर करती है।
2.हरे चारे में पानी की मात्रा अधिक होने से पशु कम पानी पीते हैं परंतु दुधारू पशुओं को गर्मियों में कम से कम 4 बार एवं सर्दी में 2 बार ताजा पानी जरूर पिलाएं।
*संतुलित पशु आहार  की उपलब्धता:*
1.दुधारू पशु के उत्पादन का सीधा संबंध उसको दिए गए आहार से होता है क्योंकि पशु को दिया गया आहार उसके पालन, दुग्ध उत्पादन एवं गर्भाशय में पनप रहे बच्चे के काम आता है।
2.यदि पशु गर्भित है तो प्रत्येक दुधारू पशुओं को समयबद्ध ताजा एवं स्वच्छ भरपेट चारा देना चाहिए अन्यथा उसके दूध उत्पादन पर इसका विपरीत असर पड़ेगा।
सूखे एवं हरे चारों को मिलाकर देना चाहिए, विशेषकर जब बरसीम की पहली या दूसरी कटाई पशु आहार के लिए की गई हो क्योंकि इस परिस्थिति में बरसीम के पौधे में प्रोटीन एवं पानी की मात्रा, अधिक होती है और इनमें  सैलूलोज की मात्रा कम रहती है। इस स्थिति में हरे चारे से पशु को अफारा होने की संभावना अधिक होती है तथा कभी-कभी बिना पचा हुआ हरा चारा पतले दस्त के रूप में गोबर के माध्यम से निकलता है और पशु आहार से मिलने वाली ताकत पशु को नहीं मिल पाती है इसीलिए प्रत्येक दुधारू पशु के हरे चारे में कम से कम 20% सूखा चारा होना अति आवश्यक है।
3.यदि कम सूखा चारा पशु को दिया जाता है तब पशु के दूध में वसा की मात्रा कम होने की प्रबल संभावना रहती है। जैसे-जैसे दिए गए हरे चारे में सेल्यूलोज की मात्रा बढ़ती है तब पशु को सूखे चारे की मात्रा कम कर देनी चाहिए।
4.इसके साथ साथ दुधारू पशु को पशुपालक *संतुलित आहार* अवश्य दें जिसमें खनिज तत्वों की मात्रा कम से कम 2% तथा  नमक की मात्रा  1% हो।
5.प्राय: यह देखने में आता है कि अधिकांश पशुपालक अपने पशुओं को खनिज लवण एवं नमक आहार में नहीं देते हैं। खनिज लवण एवं नमक दुधारू पशुओं में देना अत्यावश्यक है क्योंकि दूध में काफी मात्रा में इनका स्राव होता है। यदि यह पशु को आहार के माध्यम से नहीं दिए गए तो पशु स्वास्थ्य एवं प्रजनन पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा। जिन पशुओं को खनिज लवण नहीं दिया जाता ऐसे पशुओं का दूध उत्पादन कम होता है और पशु गर्मी या मद मे कम आते हैं।
6.यदि दुधारू पशु पूर्ण रूप से हरे चारे पर रखा गया है और वह 5 किलोग्राम दूध देता है तब उसे दाना देने की जरूरत ही नहीं है परंतु जैसे जैसे दूध बढ़ता है या अधिक दूध देने वाले पशु है ऐसी स्थिति में गाय को प्रति 3 किलोग्राम दूध एवं भैंस मैं प्रति ढाई किलोग्राम दूध के लिए एक किलोग्राम दाना देना चाहिए। यदि पशु गर्भित है तब इस स्थिति में अतिरिक्त दाना गर्भधारण राशन के रूप में पशुपालक अपने पशुओं को अवश्य दें।
7.जिन स्थानों पर पशुपालक अधिक मात्रा में हरा चारा अपने पशु को नहीं दे सकते ऐसे स्थानों पर सूखे चारे एवं दाने से ही आहार संतुलित किया जा सकता है। परंतु कम से कम 5 से 10 किलोग्राम हरा चारा यदि पशु को  प्रतिदिन मिल जाए तो पशु को विटामिन ए की कमी नहीं होगी तथा पशु का स्वास्थ्य एवं उसकी प्रजनन क्षमता बनी रहेगी।
8.हरे चारे का मुख्य उद्देश्य पशु को  *बीटा कैरोटीन* की आपूर्ति करना है जो कि शरीर में *विटामिन ए* में बदल जाता है तथा शारीरिक क्रियाओं को संतुलित करता है। इसलिए जिन स्थानों पर हरा चारा बिल्कुल भी उपलब्ध नहीं है ऐसे स्थानों पर पशु आहार में विटामिन ए देना चाहिए।
*दुधारू पशुओं  का रखरखाव एवं स्वास्थ्य प्रबंधन:*
दुधारू पशुओं का रखरखाव अन्य श्रेणी के पशुओं से अलग है क्योंकि थोड़ी सी असावधानी दुधारू पशुओं के उत्पादन पर सीधा प्रभाव डालती है इसलिए पशुपालक निम्नलिखित बातों का ध्यान रखें-
१. पशु का निवास स्थान स्वच्छ एवं हवादार होना चाहिए तथा उसके मल मूत्र को निकालने का विशेष ध्यान देना चाहिए। बैठने के स्थान को फिनायल के घोल से धोना चाहिए इससे बीमारी फैलाने वाले कीटाणुओं की संख्या कम रहेगी तथा थनों के रोग कम होंगे।
२. दुधारू पशु को दूध दुहने से पहले जरूर स्नान कराएं इससे पशु में स्वच्छता तो रहेगी ही साथ ही साथ उसके शरीर में परजीविओं का प्रकोप भी कम रहेगा। समय-समय पर पशु को बाहरी परजीवियों के प्रकोप से बचाने के लिए परजीवी रोधक एवं परजीवी नाशक औषधि का पशु चिकित्सक की सलाह से सही मात्रा में नहलाने से पूर्व प्रयोग करना चाहिए। इससे बाहरी परजीविओं से फैलने वाले जानलेवा रोग पशु को नहीं होंगे।
३. दुधारू पशु को आहार के बाद आराम करने के लिए अलग स्थान होना चाहिए, जहां पर पशु आराम कर सके। यदि यह संभव नहीं है तब पशु के बैठने के स्थान की सफाई एवं सूखे रखने का विशेष ध्यान देना चाहिए। यदि ऐसा प्रबंध नहीं किया गया है तब पशु हर समय खड़ा रहेगा तथा खुरो के विकारों से पीड़ित हो जाएगा। यही एक मुख्य कारण है की स्थान की कमी के कारण पशुओं के एक ही स्थान पर बंधे रहने के कारण, पशु आजकल खुरो के रोग से पीड़ित हैं। इसका प्रभाव पशु के  उत्पादन पर भी पड़ता है।
४. प्रसूति के बाद प्रजनन अंगों के विकारों का भी दुधारू पशुओं के उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है तथा इन रोगों में पशु कम आहार खाता है जिसका असर उसके शरीर एवं उत्पादन पर पड़ता है। इसीलिए प्रजनन संबंधी विकारों की सही जांच करा कर पशु का यथासंभव उपचार कराना चाहिए।
५. प्रत्येक दुधारू पशु को समय-समय पर *संक्रामक रोगों से बचाने के लिए टीकाकरण कराना चाहिए* जिससे पशुपालक का केवल पशु ही नहीं बचेगा बल्कि इलाज में कम खर्च होगा। रोग अन्य पशुओं में नहीं लगेगा तथा पशु पूरी क्षमता से दूध देगा।
६. दुधारू पशुओं में समय-समय पर वाहय एवं अंत: परजीविओं की रोकथाम एवं उपचार के लिए प्रयोगशाला में गोबर का परीक्षण कराते रहना चाहिए तथा आवश्यकतानुसार और चिकित्सक की सलाह से औषधि देनी चाहिए अन्यथा पशु को दी गई खुराक का कोई लाभ नहीं होगा।
७. दुधारू पशुओं के खुरो का विशेष ध्यान देना चाहिए अन्यथा पशु खुरों के नए विकारों से पीड़ित होगा तथा लंगड़ाएगा। इन विकारों से पशु कम खाता है और कमजोर हो जाता है। मूल रूप से पशुओं के शरीर में नकारात्मक शक्ति संतुलन, अर्थात नेगेटिव एनर्जी बैलेंस उत्पन्न हो जाता है जिसका असर उसके उत्पादन एवं प्रजनन दोनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
८. दुधारू पशु का समय-समय पर संक्रामक रोगों के रोगाणु का परीक्षण करके यथासंभव उपचार कराना चाहिए।
९.दूध दुहने के सही तरीके से दूध दुहना चाहिए, इससे प्रत्येक गाय या भैंस के उत्पादन में 10 से 15% की बढ़ोतरी होगी। दूध उतारने वाले टीके ऑक्सीटॉसिन का अनुचित प्रयोग कदापि नहीं करना चाहिए अन्यथा पशु को नुकसान हो सकता है।
१०. दुधारू पशु का एक भी मद चक्र खाली नहीं जाना चाहिए और कम से कम ब्याने के 60 से 90 दिन में दुधारू पशु को गर्भ धारण कर लेना चाहिए। इससे पशुपालक को प्रतिवर्ष बच्चा भी अपने मादा पशु से मिलेगा तथा पशु अपने जीवन काल में अधिक दूध देगा।
११. दुधारू पशु को अगले व्यॉत की सुरक्षा एवं अधिक उत्पादन के लिए, 2 से 3 महीने का *शुष्क समय* अर्थात ड्राई पीरियड अवश्य देना चाहिए क्योंकि इस आहार से मिलने वाली शक्ति गर्भाशय में बच्चे की बढ़ोतरी एवं पशु के अगले बयात में दूध की क्षमता को बनाए रखने के लिए प्रयोग होती है।
१२. दूध दुहने, से पहले  एवं  बाद में , थनों को 1% पोटेशियम परमैंगनेट या 0.2% आयोडोफोर के घोल से धोएं, ताकि थनों में जीवाणुओं का प्रवेश रुक सकें, एवं स्वच्छ दुग्ध का उत्पादन हो सके एवं थनैला नामक खतरनाक रोग से बचाव किया जा सके।
            पशुशाला में रहने वाले वयस्क पशुओं में से अधिकाधिक संख्या समयानुसार गर्वित होकर सामान्य तथा स्वस्थ बच्चे को जन्म देती रहे तभी दूध उत्पादन का क्रम निरंतर चलता रह सकता है तथा पशुपालक डेयरी व्यवसाय से नियमित आय भी प्राप्त कर सकता है।
*पशुओं का प्रजनन प्रबंधन:*
आज के परिवेश में दुधारू पशुओं के प्रजनन संबंधी बढ़ती समस्याएं पशुपालकों के लिए विकराल समस्या बनती जा रही है क्योंकि पशुओं में प्रजनन क्षमता में कमी से उनके दूध उत्पादन पर सीधा असर पड़ रहा है इसके कारण पशुपालकों को काफी आर्थिक हानि उठानी पड़ती है, यह नितांत आवश्यक हो जाता है कि पशुपालकों को पशु प्रजनन के संबंध में अधिकाधिक जानकारी हो ताकि वे स्वयं अपने स्तर पर समस्याओं से बचाव/ समाधान कर सके।
 १.पहली पहली बार गर्वित करने का समय,पशुओं में न केवल आयु से वरन शरीर के वजन विशेष पर पहुंचकर ही शुक्राणु और डिंब की उपज प्रारंभ होती है। इस प्रकार उचित आहार व व्यवस्था से यौवनावस्था पहले भी हो सकती है।
२.यौवनावस्था के समय संकर नस्ल की बछिया का वजन 250 किलोग्राम तथा भैंस का वजन 300 किलोग्राम होना चाहिए। इस बात का विशेष ध्यान रखें कि मात्र यौवनारंभ ही पशु समागम के लिए आवश्यक नहीं है इसके लिए पशु को शारीरिक रूप से भी परिपक्व होना चाहिए। प्राय भैंसों को 3 वर्ष की आयु तक एवं संकर नस्ल की बछियों को १.५वर्ष की आयु में गर्वित हो जाना चाहिए।
मादा पशुओं का सही उम्र पर गर्वित होकर स्वस्थ बच्चे को जन्म देना तथा दो-तीन महीने के अंदर दोबारा गर्वित होकर इसी प्रक्रिया से गुजरना उसकी अच्छी प्रजनन क्षमता को दर्शाता है।
३.*इस प्रकार एक व्यात से दूसरे व्यात का अंतराल १२ से १३ महीने होना चाहिए* वास्तव में *सफल डेयरी व्यवसाय का रहस्य इसी तथ्य में निहित है कि उसके दुधारू पशु साल दर साल बच्चा देते रहे।* लेकिन यदि किन्ही कारणवश पशु प्रजनन क्षमता पूर्ण न होने की दशा में यह अंतराल काफी बढ़ जाता है तो व्यवसाय को आर्थिक हानि की संभावना भी बढ़ जाती है।
 ४.मादा पशु सामान्यता एक निश्चित समय पर 21 दिन के अंतर में गर्मी या मदकाल में आती है। मदकाल का समय लगभग 24 से 36 घंटे रहता है। मदकाल के समय मादा नर को संभोग करने के लिए अनुमति देती है। कृत्रिम गर्भाधान भी उसी समय कराया जाता है।
*मदकाल के मध्य समय से आखरी एक तिहाई समय में पशुओं का गर्भाधान कराना सफल प्रजनन हेतु अत्यंत आवश्यक है*। एक ही समय पर कई बार गर्वित कराना प्रायः निरर्थक होता है।
५.समयानुसार निश्चित अंतराल पर गर्वित कराने से ही शुक्राणुओं व अंडे के मिलने व निषेचन की संभावनाएं प्रबल होती हैं।
६.प्रत्येक पशुपालक को मदकाल या गर्मी में आने के सामान्य लक्षणों से अवगत होना नितांत आवश्यक है ताकि वह अपने पशुओं को समय पर गर्वित करवा सकें।
*बिना पशु प्रजनन के उत्पादन असंभव है:*
 अतः पशुपालकों द्वारा अधिकतम आय प्राप्त करने के लिए गाय की उत्पादन क्षमता में वृद्धि हेतु प्रतिवर्ष  एक बच्चा एवं भैंस में प्रत्येक 13 महीने  बाद एक बच्चा प्राप्त करना अति आवश्यक है। क्योंकि उपरोक्त तरीके से पशुपालक द्वारा अधिक दुग्ध उत्पादन प्राप्त करने के साथ-साथ  बछड़ा/ बछिया तथा पड़वा/ पडिया की प्राप्ति होगी जो भविष्य के लिए एक नई गाय / सांड या भैंस/ भैंसा के रूप में विकसित होगी/ होगा और पशुपालक की आमदनी में वृद्धि होगी।
*उपरोक्त उद्देश्यों की पूर्ति हेतु पशुपालकों को अपनी  गाय से प्रतिवर्ष एक बच्चा एवं भैंस से हर 13 महीने पर एक बच्चा प्राप्त करने के साथ साथ अत्यधिक दुग्ध उत्पादन हेतु निम्नांकित, बिंदुओं पर ध्यान देना होगा*-
१. *अपने पशुओं को हर तीसरे माह अंत: क्रमियों अर्थात पेट के कीड़ों की  औषधि , गोबर के परीक्षण उपरांत पशु चिकित्सक की सलाह से दें ।* सभी पशुओं को  25 से 50 ग्राम  खनिज लवण  प्रतिदिन खिलाएं ।
२. प्रजनन योग्य मादा पशु को सूक्ष्म तत्वों की पूर्ति हेतु न्यूट्रीसैक बोलस दो सुबह एवं दो शाम 15 दिन तक खिलाएं।
३. प्रत्येक पशु को 5 से 20 किलोग्राम हरा चारा प्रतिदिन खिलाएं।
४. *पशु की प्रत्येक अवस्था एवं मौसम में पशु चिकित्सालय से संपर्क कर पशुओं में होने वाली बीमारी एवं उसकी रोकथाम के बारे में जानकारी प्राप्त करें एवं समय-समय पर टीकाकरण कराएं।*
५. गाय भैंस को ब्याने के 2 दिन पूर्व से गुनगुने स्वच्छ पानी से नहला कर साफ व सूखा रखें। पीछे की तरफ से ढलवा भूमि पर न बांधें तथा पूर्ण निगरानी रखें।
६. ब्याने  से पूर्व गाय या भैंस को कम से कम 6 इंच मोटी धान की पुआल या गन्ने की सूखी पत्ती की बिछावन पर बांधे। इससे पशुओं के गर्भाशय में संक्रमण पहुंचने की संभावना काफी कम हो जाएगी।
७. पशुओं को काढ़ा बनाकर देने हेतु पुराना गुड, सौंठ, अजवाइन, मेथी, सतावर आदि कूटकर मिलाकर रख लें एवं कैल्शियम की सिरप भी रखें।
८. *यदि बच्चे की नाभि नलिका न टूटी हो तो शरीर से 2 से 3 सेंटीमीटर की दूरी पर एक  विसंक्रमित धागे से बांध देना चाहिए और इसके पश्चात किसी विसंक्रमित कैंची, या नए ब्लेड की सहायता से 1 सेंटीमीटर दूरी पर काट दें।कटे स्थान पर जीवाणु रोधी लोशन जैसे बीटाडीन लगाएं तथा उसका मक्खियों और कौवों से बचाव करें।*
९.दुधारू गायों- भैंसों का दूध निकालने के लिए जब आप बच्चा छोड़ते हैं तो बच्चा छोड़ने से पहले थनों को अच्छी तरह से साफ पानी या एंटीसेप्टिक के घोल जैसे पोटेशियम परमैंगनेट १:१००० के घोल, से धोना चाहिए । इससे बच्चे की पाचन क्रिया एवं पेट खराब करने वाले जीवाणु से दस्त लगने की संभावना कम हो जाती है।*(सफेद दस्त बच्चों की एक घातक और जानलेवा बीमारी है)*
बच्चे को उसके भार के अनुसार दूध पहले ही पिलाएं। दूध निकालने के बाद बच्चे को दूध के लिए नहीं छोड़े। इससे बच्चे द्वारा मां की अयन व थनों, मे चोट व घाव बन जाते है जो अंततोगत्वा संक्रमण के कारण थनैला रोग बनाते हैं।
१०.दूध निकालने के बाद भी थनों को अच्छी तरह पोटेशियम परमैग्नेट के घोल से धोकर अच्छी तरह पोंछ देना चाहिए, इससे थनैला नामक बीमारी होने की संभावना काफी हद तक कम हो जाती है। थनैला दुधारू पशुअों की एक घातक बीमारी है जिससे अधिकतर पशुओं के थन खराब होने की संभावना बनी रहती है।
११.*गाय या भैंस के बच्चे के पैदा होने के आधा घंटे के अंदर ही बच्चे को उसकी मां का पहला दूध  अर्थात कोलोस्ट्रम अवश्य पिला देना चाहिए। इससे बच्चे में बीमारियों से लड़ने की रोग प्रतिरोधक  शक्ति विकसित हो जाती है। जितनी अधिक देर से दूध पिलाएंगे उतनी ही शक्ति कम विकसित होगी l  बच्चे का पहला मल या मीकोनियम, निकालने में भी मां का पहला दूध समर्थ हो सकेगा।*
१२.*पशु के ब्याने के बाद यदि पशु बैठने में असमर्थ हो तो उसका दूध निकालने से पशु के अयन पर दबाव कम होगा तथा पशु जेर डाल देगा।*
* हाइपोर्कैल्सीमिया, या मिल्क फीवर से बचाने के लिए ताजी ब्याई गाय या भैंस का पहले चार-पांच दिनों तक पूरा दूध न निकाले।* पशु के ब्याने के  एकदम बाद थोड़ा दूध निकालने से जेर डालने में आसानी होती है क्योंकि दूध निकालने एवं बच्चों को दूध पिलाने से पशु की पीयूष ग्रंथि से ऑक्सीटोसिन नामक हार्मोन स्रावित होता है जो गर्भाशय एवं अयन की मांसपेशियों को संकुचित करता है जिसके कारण जेर आसानी से गर्भाशय की अंदरूनी परत से छूट कर स्वत: ही बाहर निकल जाती है, एवं गाय या भैंस को दूध उतारने या पवासने में भी आसानी होती है।
१३.पशु के ब्याने के बाद गाय या भैंस  अगर 8 से 12 घंटे के अंदर जेर न डालें तो पशु को  100 से 200 मिली कैल्शियम  पिलाएं। युटेराटोन/ यूट्रासेफ / इनवोलॉन या मेट्रोटोन, नामक औषधि  100 एम एल सुबह शाम पिलाएं यदि 24 घंटे तक जेर नहीं निकलती है तो नजदीकी पशु चिकित्सक को बुलाकर जेर निकलवाए और  गर्भाशय में टेट्रासाइक्लिन बोलस 500 मिलीग्राम × 6 एवं फ्यूरिया बोलस, 6 ग्राम ×2 कम से कम 3 दिन डलवाए।
पशु के पीछे का भाग हल्के गुनगुने पानी से धो कर हमेशा स्वच्छ रखें और पोटेशियम परमैंगनेट का1:1000 के घोल से भी साफ सफाई कर सकते हैं। जेर निकलवाने के पश्चात् प्रतिजैविक औषधि का टीका अवश्य लगवाएं।
१४.पशु के ब्याने के समय पानी की थैली बाहर आने के बाद 40 मिनट के अंदर यदि बच्चे का मुंह या पैर ना दिखाई दे तो तत्काल पशु चिकित्सक से जांच कराए।
१५. ब्याने के तुरंत बाद यदि नवजात बच्चे को सांस लेने में कठिनाई हो तो उसके पिछले पैर को पकड़कर ऊपर की ओर उठा ले। फिर उसके वक्ष अर्थात छाती के भाग से गर्दन एवं नाक के छिद्र तक मालिश करके उसकी नाक और मुंह में फंसी जाली या स्राव को साफ करें और बच्चे की नासिका के छेद में उंगली से खुजलाहट पैदा करने पर बहुत  तरल स्राव म्यूकस के रूप में बाहर निकलता है।
१६. पशु और उसके नवजात बच्चे को साफ सुथरी जगह पर बांधे। ब्याने के 7 से 15 दिनों के अंदर मां एवं बच्चे दोनों को कृमि नाशक औषधि अवश्य दें।
१७.ब्याने के बाद 60 दिन तक अगर गाय या भैंस गर्मी में ना आए तो तुरंत अपने पशु चिकित्सक से समुचित जांच एवं उपचार कराएं अन्यथा देर करने पर आपको अगले ब्यांत में, दूध देर से मिलेगा जिससे आप का आर्थिक नुकसान होगा।
१८. कृत्रिम गर्भाधान कराने के 2 माह पश्चात गर्भ की जांच अवश्य कराएं। जिससे शेष गर्भकाल में उस पशु की देखभाल उचित रूप से की जा सके और यदि पशु गर्भित नहीं होता है तो गर्भ न ठहरने के कारणों का पशु चिकित्सक की मदद से पता करने का प्रयास करें जिससे उसका समुचित उपचार हो सके। गर्भकाल के दौरान पशु को संतुलित आहार देना चाहिए जिससे गर्भस्थ शिशु का समुचित विकास हो सके।
१९. प्रत्येक पशुपालक को अपने पशु की आयु, गर्मी में आने की तिथि, गर्भित होने की तिथि, एवं ब्याने की तिथियों का लेखा जोखा रखना चाहिए।
        उपरोक्त बिंदुओं पर ध्यान देने से पशु का प्रजनन समय से होगा तथा गाय में प्रत्येक वर्ष में एक बच्चा एवं भैंस में हर 13 महीने में एक बच्चा पैदा करना निश्चय ही संभव हो सकता है। जिसके परिणाम स्वरूप अधिक दुग्ध उत्पादन से भारत देश हमेशा के लिए विश्व में नंबर 1 बना रह सकता है और प्रति पशु उत्पादकता भी निश्चित तौर पर बढ़ेगी।
*निष्कर्ष:*
1. दुधारू पशुओं के रखरखाव का कैलेंडर बना लें जिसमें टीकाकरण, वाह्य एवं अंतः कृमिनाशन, गर्भाधान, दुग्ध उत्पादन, सामान्य स्वास्थ्य, सींग रोधन, वत्स नाभि विसंक्रमण का विवरण हमेशा उपलब्ध रहे।
2. दुधारू पशुओं का आवास मौसम के अनुसार तापमान नियंत्रित, हवादार और साफ सुथरा रहे। एच एफ नस्ल के लिये कूलर की उपलब्धता अवश्य रहे।
3. स्वच्छ ताज़ा पानी एवं संतुलित आहार प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रहे।
4. थनैला से बचाव हेतु थन की एंटीसेप्टिक घोल से साफ सफाई की जाए।
5. क्षेत्र विशेष के अनुसार खनिज मिश्रण की उपलब्धता सुनिश्चित करें।
6. मच्छर, मक्खियों से बचाव के उपाय करें।
7. रोग निरोधक औषधियों का नियमित उपयोग जैसे रक्तपरजीवियों से बचाव हेतु, औषधियों का प्रयोग करें।
8. मादा पशु के मदकाल में आने पर उचित समय पर कृत्रिम गर्भाधान का विशेष ध्यान रखें।
         इस प्रकार उपरोक्त बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए वैज्ञानिक विधि से डेयरी व्यवसाय को किया जाए तो किसानों की आर्थिक उन्नति में अवश्य वृद्धि की जा सकेगी। जिससे किसान की “आमदनी को दोगुना” करना निश्चित ही संभव हो सकेगा।

डॉ संजय कुमार मिश्र1, डॉ राकेश कुमार  2 एवं प्रोo(डॉ) सर्वजीत यादव
1पशु चिकित्सा अधिकारी, पशुपालन विभाग उत्तर प्रदेश
2. पशु चिकित्सा अधिकारी एवं अध्यक्ष उत्तर प्रदेश पशु चिकित्सा संघ उत्तर प्रदेश
3. निदेशक प्रसार दुवासु मथुरा उत्तर प्रदेश
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