गाय से प्रतिवर्ष एक बच्चा प्राप्त कर उसकी उत्पादन क्षमता में वृद्धि हेतु अत्यंत उपयोगी जानकारी

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गाय से प्रतिवर्ष एक बच्चा प्राप्त कर उसकी उत्पादन क्षमता में वृद्धि हेतु अत्यंत उपयोगी जानकारी

डॉ संजय कुमार मिश्र
पशु चिकित्सा अधिकारी चौमुंहा मथुरा

  1. अपनी गाय से प्रतिवर्ष एक बच्चा एवं भैंस से हर 13 महीने पर एक बच्चा प्राप्त करने के लिए और अत्यधिक दुग्ध उत्पादन हेतु पशुपालक बंधु निम्न बिंदुओं पर ध्यान दें –
    १. अपने पशुओं को हर तीसरे माह अंत: क्रमियों अर्थात पेट के कीड़ों की औषधि और चिकित्सक की सलाह से दें । सभी पशुओं को 25 से 50 ग्राम खनिज लवण प्रतिदिन खिलाएं ।
    २. प्रजनन योग्य मादा पशु सूक्ष्म तत्वों की पूर्ति हेतु न्यूट्रीसैक बोलस दो सुबह एवं दो शाम 15 दिन तक खिलाएं।
    ३. प्रत्येक पशु को 5 से 20 किलोग्राम हरा चारा प्रतिदिन खिलाएं।
    ४. पशु की प्रत्येक अवस्था एवं मौसम में पशु चिकित्सालय से संपर्क कर पशुओं में होने वाली बीमारी एवं उसकी रोकथाम के बारे में जानकारी प्राप्त करें एवं समय-समय पर टीकाकरण कराएं।
    ५. गाय भैंस को ब्याने के 2 दिन पूर्व से गुनगुने सोच पानी से नहला कर साफ व सूखा रखें। पीछे की तरफ से ढलवा भूमि पर ना बांधें तथा पूर्ण निगरानी रखें।
    ६. जाने से पूर्व गाय या भैंस को कम से कम 6 इंच मोटी धान की पुआल या गन्ने की सूखी पत्ती की बिछावन पर बांधे। इससे पशुओं के गर्भाशय में संक्रमण पहुंचने की संभावना काफी कम हो जाएगी।
    ७. पशुओं को काढ़ा बनाकर देने हेतु पुराना गुड सौंठ अजवाइन, मेथी सतावर आदि कूटकर मिलाकर रख लें एवं कैल्शियम की सिरप भी रखें।
    ८. यदि बच्चे की नाभि नलिका न टूटी हो तो शरीर से दो से 3 सेंटीमीटर की दूरी पर एक विसंक्रमित धागे से बांध देना चाहिए और इसके पश्चात किसी विसंक्रमित कैंची की सहायता से 1 सेंटीमीटर दूरी पर काट दें। कटे स्थान पर जीवाणु रोधी लोशन जैसे बीटाडीन लगाएं तथा उसका मक्खियों और कौवों से बचाव करें।
    ९.दुधारू गायों– भैंसों का दूध निकालने के लिए जब आप बच्चा छोड़ते हैं तो बच्चा छोड़ने से पहले थनों को अच्छी तरह से साफ पानी या एंटीसेप्टिक के घोल जैसे पोटेशियम परमैंगनेट १:१००० के घोल, से धोना चाहिए । इससे बच्चे की पाचन क्रिया एवं पेट खराब करने वाले जीवाणु से दस्त लगने की संभावना कम हो जाती है।(सफेद दस्त बच्चों की एक घातक बीमारी है)। बच्चे को उसके भार के अनुसार दूध पहले ही पिलाएं। दूध निकालने के बाद बच्चे को दूध के लिए नहीं छोड़े। इससे बच्चे द्वारा मां की अयन व थनों, मे चोट व घाव बन जाते है जो अंततोगत्वा संक्रमण के कारण थनैला रोग बनाते हैं।
    १०.दूध निकालने के बाद भी थनों को अच्छी तरह पोटेशियम परमैग्नेट के घोल से धोकर अच्छी तरह पोंछ देना चाहिए, इससे थनैला नामक बीमारी होने की संभावना काफी हद तक कम हो जाती है। थनैला दुधारू पशुअों की एक घातक बीमारी है जिससे अधिकतर पशुओं के थन खराब होने की संभावना बनी रहती है।
    ११.गाय या भैंस के बच्चे के पैदा होने के आधा घंटे के अंदर ही बच्चे को उसकी मां का दूध अवश्य पिला देना चाहिए। इससे बच्चे में बीमारियों से लड़ने की रोग प्रतिरोधक शक्ति विकसित हो जाती है। जितनी अधिक देर से दूध पिलाएंगे उतनी ही शक्ति कम विकसित होगी तथा बच्चा पहला मल या
    मीकोनियम, निकालने में समर्थ हो सकेगा।
    १२.पशु के ब्याने के बाद यदि पशु बैठने में असमर्थ हो तो उसका दूध निकालने से पशु का अयन का दबाव कम होगा तथा पशु जेर डाल देगा।
    हाइपोर्कैल्सीमिया, या मिल्क फीवर से बचाने के लिए ताजी ब्याई गाय या भैंस का पहले चार-पांच दिनों तक पूरा दूध ना निकाले। पशु के ब्याने के के एकदम बाद थोड़ा दूध निकालने से जेर डालने में आसानी होती है क्योंकि दूध निकालने एवं बच्चों को दूध पिलाने से पशु की पीयूष ग्रंथि से ऑक्सीटोसिन नामक हार्मोन स्रावित होता है जो गर्भाशय एवं अयन की मांसपेशियों को संकुचित करता है जिसके कारण जेर आसानी से गर्भाशय की अंदरूनी परत से छूट कर स्वत: ही बाहर निकल जाती है, एवं गाय या भैंस को दूध उतारने या पवासने में भी आसानी होती है।
    १३.पशु के ब्याने के बाद गाय या भैंस में अगर 8 घंटे के अंदर जेर ना डालें तो पशु को 100 से 200 मिली कैल्शियम पिलाएं। युटेराटोन/ यूट्रासेफ / इनवोलॉन या मेट्रोटोन, नामक औषधि 100 एम एल सुबह शाम पिलाएं यदि 24 से 48 घंटे तक जेर नहीं निकलती है तो नजदीकी पशु चिकित्सक को बुलाकर जेर निकलवाए और कम से कम 3 दिन तक गर्भाशय में टेट्रासाइक्लिन बोलस 500 मिलीग्राम × 6 एवं फ्यूरिया बोलस, 6 ग्राम ×2 डलवाए। पशु के पीछे का भाग हल्के गुनगुने पानी से धो कर हमेशा स्वच्छ रखें और पोटेशियम परमैंगनेट का1:1000 के घोल से भी साफ सफाई कर सकते हैं। जेर निकलवाने के पश्चात् प्रतिजैविक औषधि का टीका अवश्य लगवाएं।
    १४.पशु के ब्याने के समय पानी की थैली बाहर आने के बाद 40 मिनट के अंदर यदि बच्चे का मुंह या पैर ना दिखाई दे तो तत्काल पशु चिकित्सक से जांच कराए।
    १५. ब्याने के तुरंत बाद यदि नवजात बच्चे को सांस लेने में कठिनाई हो तो उसके पिछले पैर को पकड़कर ऊपर की ओर उठा ले। फिर उसके वक्ष अर्थात छाती के भाग से गर्दन एवं नाक के छिद्र तक मालिश करके उसकी नाक और मुंह में फंसी जाली या स्राव को साफ करें और बच्चे की नासिका के छेद में उंगली से खुजलाहट पैदा करने पर बहुत तरल स्राव म्यूकस के रूप में बाहर निकलता है।
    १६. पशु और उसके नवजात बच्चे को साफ सुथरी जगह पर बांधे। ब्याने के 7 से 15 दिनों के अंदर मां एवं बच्चे दोनों को कृमि नाशक औषधि अवश्य दें।
    १७.ब्याने के बाद 60 से 90 दिन तक अगर गाय या भैंस गर्मी में ना आए तो तुरंत अपने पशु चिकित्सक से समुचित उपचार कराएं अन्यथा देर करने पर आपको अगले ब्यांत में, दूध देर से मिलेगा जिससे आप का आर्थिक नुकसान होगा।
    १८. कृत्रिम गर्भाधान कराने के 2 माह पश्चात गर्भ की जांच अवश्य कराएं। जिससे शेष गर्भकाल में उस पशु की देखभाल उचित रूप से की जा सके और यदि पशु गर्भित नहीं होता है तो गर्भ ना ठहरने के कारणों का पशु चिकित्सक की मदद से पता करने का प्रयास करें जिससे उसका समुचित उपचार हो सके। गर्भकाल के दौरान पशु को संतुलित आहार देना चाहिए जिससे गर्भस्थ शिशु का समुचित विकास हो सके।
    १९. प्रत्येक पशुपालक को अपने पशु की आयु, गर्मी में आने की तिथि, गर्भित होने की तिथि, एवं ब्याने की तिथियों का लेखा जोखा रखना चाहिए। उपरोक्त बिंदुओं पर ध्यान देने से पशु का प्रजनन समय से होगा तथा गाय में प्रत्येक वर्ष में एक बच्चा एवं भैंस में हर 13 महीने में एक बच्चा पैदा करना संभव हो सकता है। जिसके परिणाम स्वरूप अधिक दुग्ध उत्पादन द्वारा अधिक लाभ कमाया जाना संभव हो सकता है।
    * ब्याने के बाद गर्भाशय का संक्रमण (प्यूरपेरल मेट्राइटिस) :
    पशु के ब्याने के बाद, जेर रुकने के कारण गर्भाशय का संक्रमण अर्थात प्यूरपैरल मेट्राइटिस हो सकती है। पशु के ब्याने के बाद भूरे रंग का बिना बदबूदार स्राव सामान्य रूप से आता है। अतः पशु के ब्याने के पश्चात गर्भाशय का संक्रमण बहुत सामान्य बात है। संक्रमण के कारण दुग्ध उत्पादन एवं पशु के अगली बार समय से गर्भित होने पर भी प्रश्न चिन्ह लग जाता है। संक्रमण की तीव्रता निम्न बातों पर निर्भर करती है –
    १. गर्भाशय में स्राव की मात्रा की अधिकता।
    २. गर्भाशय और पशु की रोग प्रतिरोधक क्षमता।
    जीवाणुओं के पोषण हेतु बचे पदार्थों की मात्रा अर्थात गर्भाशय में रुके हुए जेर आदि की मात्रा।
    लक्षण:
    १. सामान्यता गर्भाशय का संक्रमण होने पर ब्याने के पश्चात बदबूदार तरल स्राव गर्भाशय से मूत्र मार्ग द्वारा बाहर निकलता है।
    २. गर्भाशय से अधिक मात्रा में तरल पदार्थ का आना।
    ३. दूध का कम होना।
    ४. पशु का कम चारा खाना एवं पानी पीने में कमी होना।
    ५. गुदा एवं योनि मार्ग द्वारा परीक्षण करने पर पशु को असहनीय दर्द होना।
    ६. गर्भाशय का सामान्य आकार से बड़ा होना।
    ७. शरीर का तापमान सामान्य से अधिक या कम होना।
    ८. पशु में लैमिनाइटिस के कारण लंगड़ापन होना।
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गर्भाशय के संक्रमण की सरल एवं उपयोगी जांच विधि:
गर्मी के समय पशु के योनि द्वार से निकले श्रॉव की 3 से 5 मिली मात्रा को 5% सोडियम हाइड्रोक्साइड (NaOH) की समान मात्रा के घोल में एक परखनली में मिलाकर उसे 80 से 100 डिग्री सेंटीग्रेड के गर्म पानी में रख दें। यदि 30 से 40 मिनट बाद या इससे भी कम समय में ही धीरे धीरे घोल का रंग पीला होने लगता है ,तो संक्रमण का होना निश्चित है। हल्का पीला रंग होने पर सामान्य संक्रमण की संभावना एवं गाढ़ा पीला रंग होने पर गंभीर संक्रमण होने की संभावना होती है l यदि पीला रंग नहीं आता है तो यह समझना चाहिए कि संक्रमण नहीं है।

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