जलवायु परिवत्र्तन के परिपेक्ष में पशुओं में अपच एवं इसका प्रबंधन
जलवायु परिवर्तन एक गंभीर चुनौती पूर्ण समस्या बनी हुई है। इसमें पशुपालकों को पशुओं का विशेष ध्यान ररखने की आवश्यकता है। भारत एक कृषि प्रधान देश होने के साथ ही पशुधन में भी प्रथम स्थान रखता है। पशुओं की देखभाल में पशुपालकों को अनेक समस्याओं का सामना करना पडता है। पशुपालकों को पशु स्वास्थ्य का प्रारंभिक ज्ञान होना अति आवश्यक है। जिससे उनमें होने वाले साधारण रोगों को पशुपालक समझ सके और उनका उचित उपचार किया जा सके। डेयरी गाय पौष्टिक दुग्ध का उत्पादन कर मानव के भोजन में महत्वपूर्ण योगदान देती है। पशुओं को होने वाले सभी रोगों में पाचन संबंधी रोग प्रायः होते है। अपच दुधारू गायों में होने वाली एक ऐसी समस्या है, जो कि ग्रामीण एवं शहरी दोनों ही क्षेत्रों में दुग्ध उत्पादन को कम कर भारत को आर्थिक नुकसान की ओर अग्रसर कर रही है। गायों का प्रमुख पाचन अंग रूमेन में एकत्रित हो जाता है जिसके कारण रूमेन की कार्य करने की क्षमता एवं वहाँ उपस्थित सूक्ष्म जीवाणु भी प्रभावित होते है। जब रूमेन सही तरीके से काम नहीं कर पाता तो जानवरों में इसके कारण अनेकों तरीके की समस्याएँ जैसे हाजमा खराब होना अफरा आदि उत्पन्न करती है। फलतः उत्पादन क्षमता पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। अपच की समस्या सीधे डेयरी फार्म की आर्थिक स्थिति को प्रभावित करती है। अतः दुधारू गायों की सामान्य शारीरिक क्रिया एवं उत्पादन क्षमता में तालमेल बनाये रखने के लिए उनके भोजन एवं प्रबधन में पर्याप्त ध्यान देने की आवश्यकता होती है।
अपच के लिए मुख्यतः 3 कारक –
1. प्रबंधन कारक –
ऽ खाने का प्रकार – अधिक मात्रा में दाना देने से पशुओं में अपच की समस्या आती है
ऽ कम गुणवत्ता वाला चारा खिलाना/या अधिक मात्रा में दलहनी हरा चारा एवं नयी पत्ती वाला हरा चारा खिलाना
ऽ खाùात्र के प्रकार में अचानक परिवर्तन।
2. वातावरणीय कारक –
ऽ गरम तापमान – वातावरण का अधिक तापमान भी अपच का कारण होता है।
ऽ नम हरा चारा – इस तरह का चारा मुख्यतः मानसून के समय मिलता है जो कि पशुओं को खिलाने से उनमे अपच की समस्या उत्पत्र करता है।
3. पशुकारक –
ऽ ट्राजिशन पीरियड (प्रसव अवस्था के पहले एवं बाद)
ऽ अधिक उम्र
ऽ जर का खाना
ऽ एक ही करवट लेटे रहने से, आँतो में रूकावट होने के कारण होता है।
दुधारू गायों में मुख्यतः तीन प्रकार का अपच होता है
1. अम्लीय अपच –
रूमेन एसिडोसिसि एक महत्वपूर्ण पोषण संबंधी विकार है। यह मुख्यतः उत्पादकता बढाने के लिये अत्यधिक किण्वन योग्य भोजन खिलाने के कारण हेाता है। स्टार्च खिलाने से अत्याधिक किण्वन होने के कारण रूमेन में बेक्टीरिया की संख्या बढ जाती है। ये बैक्टीरिया रूमेन में अधिक मात्रा में वोलेटाइल फेटी एसिड एवं लेक्टिक एसिड का उत्पादन करने लगते है, जिसके फलस्वरूप रूमेन एसिडोसिस एवं अपच की समस्या उत्पत्र होती है।
2. क्षारीय अपच –
अत्याधिक मात्रा में प्रोटीन युक्त भोजन अथवा गैर प्रोटीन नाइट्रोजन युक्त पदार्थ खाने से रूमेन एल्कालोसिस अथवा क्षारीय अपच की समस्या दुधारू पशुओं में देखी जाती है। रोग की विशेषता यह है कि इसमे रूमेन में अमोनिया का अत्याधिक उत्पादन होने लगता है, जिसके कारण आहारनाल संबंधी जैसे अपच, लिवर, किडनी, परिसंचरण तंत्र एवं तंत्रिका तंत्र में गडबडी आने लगती है।
3. वेगस अपच –
म्ूाल रूप से विकार वेट्रल वेगस तंत्रिका को प्रभावित करने वाले घावों/चोट/ सूजन अथवा दबाव के परिणाम स्वरूप होता है। यह समस्या मुख्य रूप से मवेशियों में देखी जाती है, परंतु अपच से जुडी समस्याएँ
ऽ रूमिनल एसिडोसिस-रूमेन के पी०एच०का कम होजना ।
ऽ रूमिनल एल्कालोसिस-रूमेन के पी०एस०का बढ जाना।
ऽ अफरा-गैस को पेट में रूक जाना।
ऽ
अपच के लक्षण –
पशुओं का जुगाली कम करना।
पशुओं में भूख की कमी।
दूध का कम देना।
डिहाइड्रेशन
पशु सुस्त हो जाता है एवं सूखा तथा सख्त गोबर करता है।
डपचार –
1. पहचान होने पर सर्वप्रथम इसके कारण का निवारण करना चाहिये जैसे यदि खराब चारा हो तो तुरंत बदल देना चाहिये या पेट में कृमि हो तो उपयुक्त कृमिनाशक दवा देनी चाहिए।
2. पेट की मालिश आगे से पीछे की ओर एवं खूँटे पर बंधे पशु को नियमित व्यायाम कराना चाहिए।
3. देशी उपचार-हल्दी, कुचला, अजवाइन, गोलमिर्च, कालीमिर्च, अदरक, मेथी, चिरायता, लोंग पीपर इत्यादि का उपयोग पशु के वजन के हिसाब से किया जा सकता है।
4 . एंटीबायोटिक जैसे पेनिसिलीन, टायलोसीन, सल्फोनामाइड, टेट्रासाइकिलिन का उपयोग किया जा सकता है।
रोकथाम –
ऽ पशुओं को संपूर्ण मिश्रित भोजन खिलाना चाहिये। दाने एवं चारे (हे) को अलग-अलग नहीं खिलाना चाहिये।
ऽ पशुओं को रोज निर्धारित समय पर ही भोजन कराना चाहिये।
ऽ स्वच्छ पानी ही पशुओं को देना चाहिये।
ऽ चारे में परिवर्तन धीर-धीरे लगभग 21 दिनों में करना चाहिये।
ऽ भोजन के साथ कैल्शियम प्रोपिओनेट, सोडियम प्रोपिओनेट, प्रोपायलीनग्लायकोल आदि को ऊर्जा के स्त्रोत के रूप में दिया जा सकता है।
ऽ गर्मी के मौसम में छायादार, हवादार एवं ठंडे स्थान में पशुओं को रखना चाहिए ताकि उनमें कम से कम गर्मी का दुष्प्रभाव पड़े।
अतः पशुपालक जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए पशुओं का विशेष ध्यान रखें एवं उत्पादन अधिक से अधिक प्राप्त करे।
1डा० प्रमोद प्रभाकर एवं 2डा० उमेश सिंह
सहा० प्रा० सह क० वैज्ञानिक, पशुपालन
2सह . अधिष्ठाता . सह प्राचार्य
म्ंा० भा० कृ० महावि०, अगवानपुर ,सहरसा
(वि०कृ०विश्वविद्यालय सवौर, भागलपुर 813210)
Email: ppmbac@gmail.com