पशुओं में प्रजनन क्षमता का अभाव : कारण एवं समाधान
डॉ.आलोक कुमार यादव
केन्द्रीय पशु प्रजनन फार्म अन्देशनगरए लखीमपुर खीरी.261506 ;उ0प्र0द्ध
मादा व नर पशुओं में प्रजनन क्षमता में कमी के लिए निम्न दोष उत्तरदायी होते हैं-
1. आकारिक दोष। 2. रोगजन्य दोष।
3. शरीर क्रियाजन्य दोष। 4. पोषणजन्य दोष।
5. दुर्घटनाजन्य दोष। 6. आनुवंशिक दोष।
7. अन्य दोष।
1. आकारिक दोष :
मुख्य रूप से निम्नांकित आकारिक दोष पशुओं में पाए जाते हैं। जननेंद्रियों की अनुपस्थिति या उनकी विकृतियों में डिंब कोषों का बहुत छोटा हो जाना, शिशुवत (अविकसित) योनि व गर्भाशय, एक हार्न का गर्भाशय तथा दो गर्भाशय ग्रीवा आदि प्रमुखतः देखे जाते हैं। स्थाई योनिच्छद भी एक आकारिक दोष है। सामान्यतः कलोरी (हीफर) में उपस्थित हाइमन पहले संभोग में टूट जाता है किंतु यदि नहीं टूटा तो उत्पादनशीलता प्रभावित हो जाती है अतः इसे शल्यक्रिया द्वारा निकालना आवश्यक होता है। नर पशुओं में एक या दोनों अलपविकसित वृषण ग्रंथि एवं स्क्रोटल हर्निया भी आकारिक दोष होता है। पहले दोष में वृषण ग्रंथि नीचे नहीं उतर पाती अर्थात् शरीर में ही रही आती है। इस प्रकार की अवस्था में शरीर की अत्यधिक गर्मी के कारण शुक्राणु मर जाते हैं और नर नपुंसक रहा आता है। स्क्रोटल हर्निया में रक्त वाहिनियों के दब जाने के कारण सामान्य क्षमता में कमी आ जाती है। फ्रीमार्टिन या नपुंसक मादा पैदा होना भी आकारिक दोष होता है। एक साथ उत्पन्न नर मादा बछड़ों में से मादा बछड़े में नर व मादा दोनों के लक्षणों का विकास होता है। जिसके परिणामस्वरूप ऐसी मादा में से लगभग 90 प्रतिशत मादाएं प्रजनन योग्य नहीं होती हैं परन्तु नर सामान्य होता है। इन मादाओं में प्रजनन अंगों का विकास नहीं होता है।
2. रोगजन्य दोष
रोगाणुओं से उत्पन्न बीमारियां मुख्यतः जीवाणु, विषाणु तथा कवक आदि से संक्रमण के कारण होती है। इनमें ब्रूसेल्लता, विव्रियता, ट्राइकोमोनसता एवं माइकोप्लाज्मता आदि प्रमुख संक्रामक रूग्णताएं हैं।
अन्य व्याधिकीय अवस्थाओं में अंडाशय में टयूमर या किसी कारण से उपजी फाइब्रोसता तथा गर्भाशय में उत्पन्न गांठ, अंडाशय शोथ, गर्भाशयशोथ तथा पीवयुक्त गर्भाशय आदि के कारण भी पशुओं की उत्पादनशीलता प्रभावित होती है। एेंटिबायोटिक इंजेक्शन लगाने तथा आयोडिन युक्त इंजेक्शन व आयोडिन/ एक्रीफ्लैविन युक्त घोल से लगातार गर्भाशय की सफाई कई दिनों तक करने पर लगभग सभी पशु स्वस्थ हो जाते हैं।
3. शरीर क्रियाजन्य दोष :
प्रजनन हेतु उत्तरदायी हार्मोन की कमी या अनुपस्थिति के कारण नर व मादा में अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं। इनमें अग्र पीयूषिका ग्रंथि द्वारा उत्पन्न फालिकल स्टिमुलेटिंग हार्मोन, ल्यूटिनाइजिंग हार्मोन एवं प्रोलेक्टिन हार्मोन तथा पश्च पीयूषिका गं्रथि द्वारा उत्पन्न ऑक्सीटोसिन और जननग्रंथियों द्वारा उत्पन्न इस्ट्रोजेन, प्रोजेस्टरोन और एंड्रोजेन हार्मोन का योगदान होता है। इसके असंतुलन से उत्पन्न कुछ प्रमुख दोष निम्नानुसार हैंः
क. अ-मदः- इसमें अंडाशय आकार में बहुत छोटी, चिकनी, गोल तथा कड़ी हो जाती है। इस अवस्था के लिए पीत पिंड का यथावत् बने रहना, दुग्ध उत्पादनजन्य दबाव, खनिज लवणों विशेषतः कैल्सियम, फॉस्फोरस, कॉपर तथा आयोडिन की कमी, अंडाशय के चारों ओर चर्बी का जमा हो जाना तथा असंतुलित आहार आदि उत्तरदायी होते हैं।
वास्तविक अ-मद के उपचार के लिए मादा पशु को सबसे पहले अच्छी कृमिनाशक दवा देनी चाहिए तथा एक से दो किग्रा. अंकुरित जौ या गेंहू अथवा उचित मात्रा में हरा चारा व विटामिन ए प्रीमिक्स $ आयोडीन $ खनिज लवण मिश्रण युक्त संतुलित आहार नियमित रूप से उपलब्ध कराना चाहिए। भैसों को सही खुराक के साथ-साथ गर्मी से बचाने तथा दो-तीन बार नहलाने पर भी मदचक्र सामान्य हो जाता है। मादा को पौष्टिक आहार देने के दौरान ही चिकित्सक से संपर्क करके डिंब गं्रथियों की मालिश व गर्भाशय के सभी भागों को स्पर्श चिकित्सा दिलाई जानी चाहिए। गर्भाशय ग्रीवा पर ल्यूगोल्स आयोडिन का लेप तीन दिन करने से भी लाभ मिलता है। अ-मद के अधिकांश रोगी उचित मात्रा में हरा चरा व खनिज लवण, मिश्रण युक्त संतुलित आहार देने से ही ठीक हो जोते है । एक अनुभवी चिकित्सक की राय में कुछ दवाईयों तथा हीट क्विक, एलोस कंपाउंड, सजनी हिट-रिट, एस्ट्रोना फोर्ट व प्रजन्न आदि औषधियों में से किसी एक के प्रयोग से पशु का मद चक्र सामान्य हो जाता है। इसके बाद भी यदि परिणाम नकारात्मक रहें तो हार्मोन चिकत्सा कराई जानी चाहिए। ऐसे पशुओं के उपचार के लिए सीरम गोनेडोट्ररफिन या हूमन प्लैंसेंटल एक्सट्रैक्ट आदि के उपयोग से अ-मद की समस्या का समाधान हो सकता है।
ख. अंडाशयों में सिस्ट – एक अथवा दोनो ओवरीज पर एक या एक से अधिक सिस्ट बन जाने पर पशु गर्मी में आता है परंतु गर्भधान नही करता तथा मादा हर समय नर के साथ संभोग की कामना से घूमती रहती है। इस अवस्था को मादाकामोन्माद कहते हैं। होलस्टीन फ्रीजिएन गायों में सिस्टिक ओवरी बहुत मिलती है। सिस्ट को हाथ से तोडकर विशेषज्ञ की राय के अनुसार हार्मोन चिकित्सा कराई जानी चाहिए। सिस्ट के उपचार हेतु प्रोजेस्टरोन व प्रोस्टाग्लैडिन हार्मोन का उपयोग किया जाता है। यदि हार्मोन उपचार असफल हो जये तो ऐसी स्थिति में कॉटिकोस्टेराइड दिया जा सकता है। उपचार देने के एक या दो मद चक्र बाद माता का प्रजन्न सामान्य हो जाता हे।
ग. अंडोत्सर्जन न होना या अंडोत्सर्जन में देरी – यह दशा भैंसो मे अधिक पाई जाति है। शरीर में लवण की कमी तथा पशु का अधिक दुधारू होना इसका प्रमुख कारण होता है। चिकित्सा हेतु संतुलित आहार एंव उचित मात्रा में लवण खिलाना चाहिए। हार्मोन चिकित्सा विशेषज्ञ के परामर्श अनुसार की जानी चाहिए। इसके उपचार में एच.सी.जी. कृत्रिम गर्भाधान के समय या जी.एन.आर.एच का इंजेक्शन कृत्रिम गर्भाधान करने के 7-8 घंटे पहले कृत्रिम गर्भाधान के समय देने से लाभ मिलता है।
घ. बारंबार प्रजनक- ऐसी गाय-भैंस जो 3-4 बार कृत्रिम या प्राकृतिक गर्भाधान करने के बाद भी गर्भधारण नही करती, बारंबार प्रजनक कहलाती है। इस दशा में युग्मनज प्रथम 14 दिन के अंदर ही समाप्त हो जाता है। गाय-भैंस में बारंबार प्रजनक की समस्याए के उपचार के लिए सही समय पर प्राकृतिक या कृत्रिम गर्भाधान करना चाहिए। कृत्रिम गर्भाधान करने के तुंरत बाद एच.सी.जी. या जी.एन. आर.एच या हुमन पलैक्टैनल एक्सट्रैक्ट का इंजेक्शन देने पर बेहतर परिणाम मिलते है। विटामिन-सी की कमी भी इसका एक कारण होती है। अतः चिकित्सा हेतु विटामिन सी इंजेक्शन 5 दन तक प्रतिदिन देना चाहिए। संक्रमणजन्य बीमारी से उत्पन्न रिपीट ब्रीडिंग की अवस्था में कृत्रिम गर्भाधान करने के 12 – 24 घंटे बाद ऐटिबायोटिक तथा पेनिसिलिन-जी सोडिम 5-10 लाख स्ट्रेप्टोमाइसिन 0.5-1.0 ग्रा0 15-20 मि.ली. आसूत जल में घोलकर अंतरू गर्भाशय मार्ग से दिया जाना चाहिए। कृत्रिम गर्भाधान करने के बाद 11 वें से 14 वें दिन के बीच कभी भी जी.एन.आर.एच का इंजेक्शन देने पर ( बारंबार प्रजनक) गाय- भैंस में गर्भधारण दर बढती है। इसके साथ-साथ अच्छे किस्म का लवण मिश्रण नियमित देते रहने से इलाज और अधिक प्रभावी परिणाम देते है।
च. मंद मदचक्र – कुछ मादा प्रोजेस्टरोन हार्मोन की कमी से कामेच्छा का खुलकर प्रदर्शन नही करती है तथा संभोग के लिए सामान्य मादा जैसी आतुरता नही दिखाती है। इस अवस्था को मंद मदकाल या ऐसी मादा को शर्मीली मादा भी कहते है। भेडों में यह अवस्था विशेषकर देखी जा सकती है। ऐसी मादाओं की पहचान कर उनको मदचक्र के दौरान प्रजनन कराया जाना चाहिए।
छ. नपुंसकता- साँड या प्रजनन योग्य नर में फालिकल स्टिमुलेटिंग हार्मोन (एफ.एस.एच.) तथा टेस्टोस्टेरान के स्त्राव में कमी हो जाने से यह दशा उत्पन्न हो जाती है। थायराएड ग्रंथि के अल्प विकास के कारण नर की कामेच्छा में कमी पैदा हो जाती है। इस अवस्था के उपचार हेतु संतुलित आहार, नियमित व्यायाम, मौसमी कुप्रभावों से रक्षा आदि के साथ विशेषज्ञ की सलाह अनुसार हार्मोन चिकित्सा से शीघ्र लाभ होता है।
ज. दोषपूर्ण शुक्राणु उत्पादन – उत्पन्न शुक्राणुओं में अनेक प्रकार के दोष देखने को मिलते है। वीर्य में शुक्राणु को अनुपस्थिति को अशुक्राणुता कहते हैं ऐसे सांडो को निकाल देना चाहिए परंतु यदि ज्वर आदि के कारण ऐसा हुआ तो ज्वर की चिकित्सा के साथ-साथ विटामिन-ए देने से लाभ होता है। नीलर्सना रोग से ग्रस्त भेढों के वीर्य में शुक्राणु लंबे समय तक अनुपस्थित मिलता है। किंतु मादा के साथ संभोग की क्षमता यथावत बनी रहती है यदि वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या कम होती है तो से अल्पशुक्राणुता कहते है। इसके लिए मुख्यतः प्रोटीन विटामिन- ए तथा फास्फोरस की कभी उत्तदायी होती है। सांड के वीर्य संकलन की बारंबारता बढाने से भी ऐसा हो जाता है। पंरतु रोक देने या कम कर देने पर सुधार हो जाता है। ऐसे नर की चिकित्सा हेतु उचित मात्रा मं प्रोटीन, लवण तथा विटामिन-ए आहर में देना चाहिए तथा कार्य संकलन कम से कम 3-4 दिन के अंतर पर करना चाहिए। आवश्यकता हो तो चिकित्सा के परामर्श क अनुसार साँड का उपचार भी करना चाहिए। जब वीर्य के सभी शुक्राणु मृत या अचल अवस्था में होते है तो उसे मृतशुक्राणुता कहते हैं ऐसी अवस्था में चिकित्सा के परामर्श के अनुसार साँड को उपचार के साथ -साथ उचित मात्रा में संतुलित आहर विटामिन-ए के इंजेक्शन तथा दो माह संभोग या वीय संकलन कार्य नही करना चाहिए। साँडों में लिंग-दुर्बलता, कम तथा असामान्य वीर्य उत्पादन की स्थिति मे भी चिकित्सक के परामर्श के अनुसार नर क उचित उपचार कराना चाहिए।
4.पोषणजन्य दोष
पशु का संतुलित आहार न मिलने तथा खनिज लवणों एंव विटामिन के अभाव के कारण कुछ दोष उत्पन्न हो जाते ह। इनके निवारण हेतु पशु को सतुलित आहार देने के साथ-साथ लोह, ताम्र, फास्फोरस, आयोडीन, कैल्सिम जैसे खनिज लवण तथा विटामिन-ए, डी.सी. और ई आदि विशेषज्ञ के परामर्श अनुसार नियमित खिलाया जाना चाहिए। कुपोषणजन्य अनुत्पादकता से ग्रस्त पशु उचित आहार मिलते ही शीघ्र प्रजन्न करने लगे है।
5.दुर्धटनाजन्य दोष
प्रजन्न योग्य पशु के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने पर वह तात्कालिका अथवा स्थायी रूप से प्रजन्न क्षमता खो सकता है। दुर्घटना के कारण प्रजनन अंगो में लगी चोट, योनि या गर्भाशय के घायल होने अथवा फट जाने तथा गर्भाशय व योनि के बाहर निकल आने से ऐसी स्थितियां पैदा हो जाती है।
6. आनुवंशिक दोष
ऐसी स्थितियों के लिए विशेष क्रोमोसोम की अनुपस्थिति फ्री-मार्टिन क्रोमोसोम की संख्या में अंतर तथा स्थायी योनिच्छद आदि उत्तरदायी होते हें
7. अन्य दोषः-
शरीर की क्रियाओं के अच्छी तर होते रहने के लिए कुछ अन्य स्थितियां तथा आयु, मौसम वातावरण का तापमान तथा प्रकाश की कमी या अधिकता भी उत्तरदायी पाई गई है। प्रजन्न क्षमता विशेष आयु के दौरान अधिक होती है। इसी प्रकार अधिसंख्या पशुओं में बसंत ऋतु के समय प्रजनन गतिविधि बढ जाती है। अधिक तापमान हो जाने यथा बुखार, गर्म वातावरण, वृषण ग्रंथि पर घना ऊन आदि हो जाने पर कुछ दिनों के लिए या हमेशा के लिए नर में नपुंसकता आ जाती है।
https://www.krishisewa.com/articles/livestock/871-infertility-prevention-in-dairyanimals.html