अश्वों में अंतः परजीवियों की समस्या

0
472

अश्वों में अंतः परजीवियों की समस्या

डॉ आलोक कुमार दीक्षित, पशु परजीवी विज्ञान विभाग, पशु चिकित्सा एवं पशु विज्ञान महाविद्यालय, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, मेरठ (उ0प्र0)

डॉ पूजा दीक्षित, पशु चिकित्सा विज्ञान एवं पशुपालन महाविद्यालय, रीवा (म0प्र0)

अश्वों में दो तरह के परजीवी हो सकते हैं। बाहय परजीवी एवं अंतः परजीवी। अन्तः परजीवी पशुओं से अपना पोषण प्राप्त करते हैं जिससे अश्व कमजोर हो जाते हैं एवम उनकी कार्यक्षमता कम हो जाती है।
अश्वों में पाये जाने वाले प्रमुख अंतः परजीवी
1 ड्रास्चिया एवं हेबरोनीमा – अश्वों के पेट में ड्रास्चिया एवं हेबरोनीमा नामक गोल कृमि मिलते हैं। ड्रास्चिया मुख्यतः पेट में बड़े गठाननुमा टयूमर जैसी रचनायें बनाता है। जिसमें से अंडे या लारवा निकलकर मल में आते हैं । ड्रास्चिया परजीवी की पुष्टि ज्यादातर पोस्ट मॉर्टम करने पर ही होती है। ड्रास्चिया एवं हेबरोनीमा मस्की, मक्खियों के माध्यम से एक पशु से दूसरे पशु में फैलते हैं। मक्खियाँ जब अन्य पशुओं के मुँह या नाक के स्त्रावों पर बैठती हैं तो वे परजीवी के लारवा वहाँ छोड़ देती हैं। जो मुँह से पेट में पहुँचकर वयस्क परजीवी बन जाते हैं ।
पेट में मिलने वाला एक अन्य गोल कृमि हेबरोनीमा माइक्रोस्टोमा, स्टोमोक्सिस या काटने वाली मक्खी के माध्यम से फैलता है। किंतु ये परजीवी अपना जीवनचक्र पूर्ण करने के लिए मक्खी के खाने के व्यवहार में परिवर्तन कर देते हैं। अब संक्रमित मक्खी अश्वों को काटने के बजाए सामान्य मक्खियों की तरह स्त्रावों से अपना पोषण प्राप्त करती है एवं लारवा वहाँ छोड़कर परजीवी के जीवनचक्र को पूरा करने में मदद करती है। जब हेबरोनीमा एवं ड्रास्चिया के लारवा मक्खियाँ किसी घाव में छोड़ देती हैं तो इनका जीवनचक्र पूर्ण नही हो पाता। ऐसे घाव लारवा की उपस्थिति के कारण जल्दी भरते नही हैं। इनमें खुजली होती रहती है। जिससे पशु उस भाग को किसी नुकीली वस्तु पर घिसने का प्रयास करता है एवं घायल हो जाता है। ऐसे घाव सामान्यतः पैरों पर, आँखों के किनारों पर अथवा कंधों के बीच के स्थान पर देखने को मिलते हैं। आँखों में लारवा की वजह से कनजंक्टिवाइटिस हो जाता है । ये समस्यायें सामान्यतः मक्खियों के लिए अनुकूल मौसम जैसे गर्मियों या बारिश में ही देखने को मिलती हैं। ठंडों में ऐसे घाव स्वतः ही भर जाते हैं। ऐसे लक्षण दिखने पर पशु चिकित्सक से परामर्श कर उपचार करवाना चाहिए। नियंत्रण के लिए घावों का तत्काल उपचार करवायें ताकि वे मक्खियों के लिए उपलब्ध न हों। मक्खियों के नियंत्रण के लिए अस्तबल में जाली लगवायें या कीटनाशक का छिड़काव करें। घोड़ों के मल को समय – समय पर हटाते रहें ताकि उसमें मक्खियाँ प्रजनन न कर सकें।
2 ऑक्सीयूरिस या पिन वर्मः– इनकी मादाये मल द्वार से बाहर निकलकर अंडे देती हैं। जिससे घोड़े को अत्यधिक खुजली होती है। जिससे वह शरीर के पिछले हिस्से को दीवार या अन्य किसी वस्तु पर रगड़ता है। जिससे उसके पूँछ के बाल झड़ जाते हैं तथा अंडे मलद्वार के आस पास चिपके हुये दिखाई देते हैं । इस कृमि के नियंत्रण के लिए यदि अश्व दो माह से अधिक के हैं एवं चरने जाते हैं तो उनको कृमिनाशक दवा देना चाहिए। यदि किसी नये अश्व को समूह में मिलाना है तो पहले उसे कृमिनाशक दवा देकर 48-72 घंटे अलग रखें बाद में समूह में मिलाएं। सर्दियों में अस्तबल में रखने के पूर्व भी कृमिनाशक देना चाहिए। अश्वों के चरने के स्थान को बदलते रहना चाहिए ताकि अंडे या लारवा नष्ट हो जायें। जिस जगह पर अश्वों को चराया जाता है वहाँ बाद में रोंमथी पशुओं को चरा सकते हैं क्योंकि घोड़े के परजीवी रोंमथी पशुओं को नुकसान नही पहुँचाते। समय- समय पर पशु चिकित्सक द्वारा अश्वों के मल की जाँच कराना चाहिए तथा अत्यधिक संक्रमित पशुओं को छाँटकर उपचार कराना चाहिए।
3 थैलेजिया कृमि – ये घोड़े की आँख में मिलते है तथा इनकी गतिविधि से आँखों से आँसू आते है। कजंक्टिवाइटिस हो सकता है। अधिक संक्रमण होने पर कार्निया में छाले एवं सफेदी आ जाती है। आँख को टॉर्च से देखने पर कृमि आसानी से दिखाई दे जाते हैं। इनका उपचार कृमिनाशक द्वारा या छोटी शल्य क्रिया द्वारा संभव है जो कि पशुचिकित्सक से ही करायें।
4 पैराफाईलेरिया – यह त्वचा में गठान बना देता है तथा मादा गठान में छेद करके अंडे देती है। यह अंडे या लारवा मक्खियों के माध्यम से फैलते हैं। यह समस्या सामान्यतः गर्मियों में होती है। गठानों से खून रिसता रहता है। ऐसा लगता है कि पसीने की जगह खून निकल रहा है। गठानों से निकलने वाले स्त्राव की जाँच करायें। गठानों से मादा कृमि को निकाल कर परजीवी की पशु चिकित्सक द्वारा पहचान की जा सकती है। पशु चिकित्सक की सलाह पर कृमिनाशक द्वारा पशु का उपचार करवाना चाहिए एवं अस्तबल में मक्खियों पर नियंत्रण रखना चाहिए।
5 फीता कृमि – अश्व के मल के साथ कभी-कभी फीता कृमि के टुकड़े भी आ जाते हैं। घोड़ों में एनोप्लोसिफैला नामक फीताकृमि मिलता है। यह छोटी आंत व बड़ी आंत के संगम पर मिलता है एवं मार्ग को अंशतः अवरूद्ध कर देता है । कभी-कभी आंत में भोजन के दबाव के कारण छिद्र हो जाता है। इन कृमियों का नियंत्रण कठिन है। मल में फीताकृमि के टुकड़े दिखने पर पशु चिकित्सक के परामर्श पर कृमिनाशक दवा खिलाना चाहिए।

READ MORE :  NASAL SCHISTOSOMIASIS OR SNORING DISEASE (NAKRA) IN CATTLE

पशुओं-में-बाह्य-एवं-अंत-परजीवी-से-हानि-एवं-बचाव

Please follow and like us:
Follow by Email
Twitter

Visit Us
Follow Me
YOUTUBE

YOUTUBE
PINTEREST
LINKEDIN

Share
INSTAGRAM
SOCIALICON