भारतीय डेयरी पशुओं में  कम उत्पादकता : चुनौतियाँ और सुधार हेतु रणनीतियाँ

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भारतीय डेयरी पशुओं में  कम उत्पादकता : चुनौतियाँ और सुधार हेतु रणनीतियाँ

डॉ. शैलेश कुमार गुप्ता

सहायक प्राध्यापक (पशुधन उत्पादन प्रबंधन)

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, कुनकुरी

जशपुर, छत्तीसगढ़-496225

प्रस्तावना

डेयरी भारतीय जनमानस के आजीविका का एक आवश्यक अंग है। डेयरी लोगों को आय और रोजगार प्रदान करने के साथ-साथ पोषण संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। पशुपालन पोषण के साथ-साथ सांस्कृतिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। भारत में दूध उत्पादन का इतिहास आठ हजार वर्ष पूर्व से मिलता है। वैदिक काल में दूध और इसके विभिन्न उत्पादों का उपयोग बहुतायत में होता था। आज भी दूध व उसके उत्पादों का उपयोग शहरी और ग्रामीण समुदायों द्वारा किया जा रहा है। डेयरी उद्योग का कृषि और संबद्ध  क्षेत्र में योगदान 25 प्रतिशत है जबकि पशुधन का सकल घरेलू उत्पाद में कुल योगदान 4.11 प्रतिशत है । भारत का कुल दूध उत्पादन सन 2022-23 में में 230.58 मिलियन टन है जो कि विश्व में सर्वाधिक है (बुनियादी पशुपालन सांख्यिकी, 2023)। सन 1997 में अमेरिका को पीछे छोड़ते हुए भारत विश्व का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश बन गया। विश्व के कुल दूध उत्पादन में  24.64 प्रतिशत भाग भारत का है। इस उपलब्धि में देश के दुधारू पशुओं का योगदान है। देश में आज दुधारू पशुओं की संख्या 125.34 मिलियन है जो कि पूर्व जनगणना आकड़ों से 6 प्रतिशत ज्यादा है (20 वीं पशु जनगणना, 2019)। इन उपलब्धियों के पीछे हमारी बड़ी पशु संख्या है। हमारे दुधारू जानवरों का दूध उत्पादन (किग्रा/प्रति ब्यात) 1538 है जबकि वैश्विक स्तर और यूरोप में यह 2238 और 4250 है (विजय व साथी, 2018) । वैश्विक स्तर पर दूध और इसके उत्पाद का भारतीय निर्यात 1 प्रतिशत से भी कम है जबकि जर्मनी (14.4), न्यूजीलैंड (12.9), बेल्जियम (7.6) नीदरलैंड (6.69) और फ़्रांस (6.65) हमसे बहुत आगे हैं। अधिकतम पशु संख्या और अधिकतम दूध उत्पादन के बावजूद हमारे देश में प्रति पशु दूध उत्पादन कम है। आज हमारा उद्देश्य पशु संख्या को नियंत्रित कर प्रति गाय उत्पादकता को बढ़ाकर दूध उत्पादन में वृद्धि करना है।  इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए पशु प्रजनन, आवास, स्वास्थ्य, पोषण और नए तकनीक के क्षेत्र में काम करने की आवश्यकता है।

 

इतिहास के पन्नों से

आजादी पूर्व  हमारे देश का दूध उत्पादन अत्यंत कम था। देश में संकर प्रजाति नस्लें नहीं थी। सन 1937 में दूध की उपलब्धता 200 ग्राम/प्रतिदिन था। सन 1950 व 1960 के आस-पास भारतीय जनता के पोषण के लिए विदेशों से दूध का आयात किया जाता था। सन 1950-51 में भारत का दूध उत्पादन 17 मिलियन टन था । इस समय प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता 130 ग्राम/प्रतिदिन था। दूध उत्पादन क्रमशः बढ़ता गया लेकिन सन 1973-74 में दूध की उपलब्धता प्रति व्यक्ति 110 ग्राम/प्रतिदिन हो गया। देश में दूध की धारा बहाने के लिए डॉ. वर्गीस कुरियन ने श्वेत क्रांति का आगाज किया।  देश के दूध उत्पादन क्षेत्र में एक नया अध्याय शुरु हुआ। आपरेशन फ्लड कार्यक्रम की 1970 में शुरुवात होना मिल पत्थर साबित हुआ। आपरेशन फ्लड कार्यक्रम योजना के अंत होते-होते 73000 दूध सहकारी समितियों का गठन हो गया था। इन सहकारी समितियों द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों से दूध संग्रहण का कार्य आसानी से संभव होने लगा। आपरेशन फ्लड की स्थापना पूर्व 1968-1969 में दूध उत्पादन सिर्फ 21.2 मिलियन टन था जो कि 1990-1991 में 53.9 मिलियन टन पहुँच गया। सन 2020-21 में प्रति व्यक्ति दूध उपलब्धता 427 ग्राम/प्रतिदिन था जो की 2022-23 में 459 ग्राम/प्रतिदिन पहुँच गया है।  भारत के राज्यों में पंजाब में दूध उपलब्धता 1283 ग्राम/प्रतिदिन (2022-23) है जबकि विश्व स्तर पर यह 322 ग्राम/प्रतिदिन है।

पशु का उत्पादन क्षमता उनकी भौतिक अवस्था, शारीरिक सरंचना, स्वास्थ्य, अनुवांशिकता और पर्यावरणीय परिस्थितियों पर निर्भर करता है। सन 2006-07 में दूध के कुल उत्पादन में संकर और अवर्गीकृत गायों का योगदान 24 व 22 मिलियन टन था जबकि भैंस और बकरी का योगदान 56 व 4 मिलियन टन था। सन 1992 व 2016 के मध्य दूध उत्पादन की वृद्धि में 56 प्रतिशत दूध उत्पादकता में वृद्धि और 43 प्रतिशत दूधारू जानवरों वृद्धि के कारण संभव हो पाया । पंजाब और हरियाणा जैसे समृद्ध राज्यों में पशुपालन और डेयरी हेतु अनुकूल परिस्थितियां है। यहाँ पशु आहार की अच्छी व्यवस्था है। इस कारण प्रति पशु उत्पादन क्षमता अधिक है।  असम, उड़ीसा व बंगाल राज्यों के पशुओं की उत्पादकता अत्यंत कम है। सन 2009-10 में गौवंश व भैंस का उत्पादकता (किग्रा/प्रतिदिन) सबसे ज्यादा पंजाब (8.9) इसके बाद केरल (7.6) हरियाणा (6.5) व असम (1.3) में सबसे कम था।  सत्र 2013-14 से 2019-20 में प्रति गौवंश दूध उत्पादन में 27. 95 प्रतिशत की वृद्धि पायी गयी। सन 2017-18 में गौवंश का उत्पादकता (किग्रा/जानवर/वर्ष) 1428.08 था जबकि 2019-20 में यह 1462.76 हो गया। विदेशी नस्लों में  विशेष गुणों के कारण दूध उत्पादन क्षमता अच्छी होती है । संकर नस्ल का विकास भी उत्पादन बढ़ाने में किया जा रहा है।  भारत सरकार के वार्षिक रिपोर्ट 2022-23 के अनुसार दूध उत्पादन क्षमता (ली./प्रतिदिन) सबसे ज्यादा विदेशी गाय (11.36) तत्पश्चात संकर नस्ल (8.32), देशी गाय (4.07), अवर्गीकृत गाय (2.83), देशी भैंस (6.62), अवर्गीकृत भैंस (4.81) व बकरी (0.47) से प्राप्त होता है। हमारे देश के कुल दूध उत्पादन में मुख्य योगदान भैंस, गाय और बकरी का है। कुल दूध उत्पादन में सर्वाधिक योगदान भारतीय भैंस (31.94) का है, इसके पश्चात संकर गाय (29.81), देशी गाय (10.73), अवर्गीकृत गाय-भैंस (9.51), विदेशी गाय (1.86) और बकरी (3.30) का है (बुनियादी पशुपालन सांख्यिकी, 2023) । दुधारू पशुओं में उत्पादकता को बढ़ाने के लिए पूर्व में ‘की विलेज स्कीम’ (1951-52), ‘इंटेंसिव कैटल डेवलपमेंट प्रोग्राम’, ‘आपरेशन फ्लड’ (1970-1996), ‘मिल्क एन्ड मिल्क प्रोडक्ट आर्डर’ (1992), ‘नेशनल प्रोजेक्ट आन कैटल एन्ड बफैलो ब्रीडिंग’ (2000) व ‘नेशनल डेयरी प्लान’ (2011-12) आदि का सफल क्रियान्वयन हो चूका है।

 

डेयरी पशुओं की कम उत्पादकता: प्रमुख चुनौती

भारतीय डेयरी क्षेत्र विश्व में दूध उत्पादन में अपना विशेष स्थान रखता है। भारतीय डेयरी और आम जनता का सीधा और सकारात्मक संबंध दिखायी पड़ता है। पशुपालन हमारे लिए सिर्फ आजीविका और आय का स्त्रोत नहीं है बल्कि यह हमारे जीवन का आधार है। प्रत्येक भारतीय प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर पशु पालन से जुड़ा हुआ है।  डेयरी के क्षेत्र में हमने बड़ी उपलब्धि हासिल की है लेकिन अभी भी हम प्रति पशु उत्पादकता बढ़ाने में सफल नहीं हुए हैं। हमारे दुधारू पशुओं की उत्पादकता विश्व स्तर के औसत का 50 प्रतिशत के आस-पास है। पशुओं की उत्पादकता बढ़ाना एक चुनौती है। भारतीय डेयरी पशुओं में कम उत्पादकता के अनेक कारण हैं-

 

 

, उच्च उत्पादन वाले जर्मप्लाज्म की कमी

भारत में विश्व की सबसे बड़ी पशु आबादी निवास करती है। आज देश में कुल पशुओं की संख्या 535.78 मिलियन है जो कि पूर्व के पशु जनगणना से 6 प्रतिशत ज्यादा है और इनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही है  (20 वीं पशु जनगणना)। हमारी दुधारू पशुओं की एक बहुत बड़ी जनसंख्या का दूध उत्पादन अत्यंत कम है।  गांव में पाले जाने वाले अधिकतर पशु अवर्गीकृत और अत्यंत कम दूध उत्पादकता वाले हैं। ज्यादातर पशु का प्रतिदिन दूध उत्पादन 1 से 1.5 लीटर है। देश के अच्छा दूध उत्पादन करने वाले अच्छे नस्ल (गिर, साहीवाल, रेड सिंधी व देवनी आदि) की संख्या सिर्फ 5-6 है। देश में पंजीकृत बहुत सारे नस्ल (अमृत महल, पंवार, बचाउर, हालीकर, नागौरी. खिल्लारी आदि) भारवाहक हैं जिनका दूध उत्पादन (500-800 लीटर/ ब्यात) कम है। देश में पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश आदि कुछ राज्यों के अलावा बाकि राज्यों में उच्च उत्पादकता वाले देशी नस्लों की संख्या कम है। बकरी की कुछ नस्लें (जमुनापारी, बीटल, बरबेरी, सुरती, सिरोही, मेहसाना आदि)  दूध उत्पादन में महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं लेकिन बकरी पालन में सिर्फ मांस उत्पादन पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। देश में भैंस, संकर और विदेशी प्रजाति को सिर्फ कुछ सरकारी और बड़े फार्मों में पाला जा रहा है।  इनका वितरण और विस्तार आम लोगों तक नहीं हो पा रहा है।  उपरोक्त कारणों से प्रति पशु दूध उत्पादकता कम है और कम उत्पादकता वाले पशुओं की संख्या बढ़ रही है।

. पशु आहार व चारे की कमी

 देश में पशु आहार और चारा आभाव एक बड़ी समस्या है। पशुओं को चारा वास्तविक, सुखाकर या अवायवीय स्थिति में भंडारण करके खिलाया जाता है। चारा के रूप में नेपियर, बरसीम, लूसर्न, दीनानाथ, गिनी, पैरा और इस्टाइलो घास आदि का बहुतायत में उपयोग किया जाता है। पशु पालन के कुल खर्च का दो तिहाई भाग खाद्य और चारा व्यवस्था में होता है। आज देश में 35.6 प्रतिशत हरा चारा,10. 95 प्रतिशत सूखा चारा और 44 प्रतिशत सांद्र दाना की कमी है (भारतीय चरागाह व चारा अनुसंधान संस्थान दृष्टि, 2050) । वर्तमानं पशु पालन पद्धति द्वारा पशुओं को प्रोटीन युक्त आहार मिल पाना संभव नहीं हो पा रहा है। खाद्य पदार्थों में पोषक तत्व, विटामिन और खनिज आदि के कमी के कारण भी उत्पादकता प्रभावित होती है। पशुओं के उत्पादकता घटने का मुख्य कारण पशुओं में कुपोषण और भोज्य पदार्थों के मांग और आपूर्ति में भिन्नता का होना है (प्रजापति व साथी, 2019)। सांद्र दाना के आभाव के कारण दुधारू पशु अपने योग्यता से लगभग 50 प्रतिशत कम दूध दे रहे हैं। देश में पशुओं और मानव जाति की जनसंख्या लगातार बढ़ती जा रही है।  इस कारण दोनों के मध्य जमीन स्त्रोत (भोजन और चारा के लिए) के लिए अदृश्य संघर्ष चल रहा है। हमारे देश में विश्व की कुल भूमि और पेय जल का कुल 2.4 व 4 प्रतिशत उपलब्धता है। अंधाधुंध दोहन व रसायन उपयोग के कारण इसकी भूमि के उत्पादकता में कमी रही है। जब संसाधन की कमी हो तब संख्या पशुओं की संख्या बढ़ाने के बजाए उनकी उत्पादकता बढ़ाने पर जोर देनी चाहिए। पशुओं के लिए चारा उत्पादन कार्य को सही प्रोत्साहन नहीं दिया जा रहा है। चारा उत्पादन हेतु कृषकों को सही मार्गदर्शन और प्रशिक्षण नहीं मिल पाता है। देश में अच्छे गुणवत्ता वाले चारा बीज की उपलब्धता आसानी से नहीं हो पाती है। किसानों को पशु आहार संबंधी सही-सही जानकारी न होने के कारण भी वे पशुओं को संतुलित आहार नहीं खिला पाते।

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. प्रजनन संबंधी समस्याएं

पशुओं में बांझपन, गर्भाधान दर में कमी और अन्य प्रजनन संबंधी समस्याओं का सीधा प्रभाव दूध उत्पादन पर पड़ता है। हमारे पशुओं में ब्रीडिंग हेतु परिपक्वता समय और ब्याने का अंतराल समय अन्य देश के पशुओं की तुलना ज्यादा व असंतुलित है। आवश्यक पोषण के आभाव में गाय, भैंस और बछिया देरी से गर्मी में आते हैं। पशु पालकों के पास मादा के गर्मी में आने वाले समय को जानने के लिए प्रभावी तकनीक का अभाव है। कई बार मानवीय गलतियों कारण कृत्रिम गर्भाधान कराने में विलंब होता है और आर्थिक हानि होती है। कृत्रिम गर्भाधान तकनीक अपनाने के पश्चात भी पशुओं में  गर्भाधान दर में कमी देखी गयी है।  देश में वीर्य बैंक व वीर्य उत्पादन केंद्र की कमी है। प्रजनन संबंधी समस्याओं के कारण पशुओं में रिपीट ब्रीडिंग की समस्या आती है। प्राकृतिक प्रजनन  द्वारा अधिक संख्या में कम दूध उत्पादकता वाले जानवर आ रहे हैं जो भविष्य में अत्यंत कम दूध देंगे। इन पर नियंत्रण हेतु कोई पॉलिसी नहीं है। देश में कम उत्पादकता और अवर्गीकृत पशुओं के  नियंत्रण के लिए स्पष्ट नीति का अभाव है।

. पर्यावरण और जलवायु स्थिति

पर्यावरण प्रदूषण,बदलते वातावरण,ग्लोबल वार्मिंग व पृथ्वी के तापमान वृद्धि का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पशुओं  के उत्पादकता  पर प्रभाव पड़ रहा है। पशु में शारीरिक तापमान का बढ़ना,स्वांस गति में वृद्धि, मुंह खोलकर स्वांस लेना,ज्यादा पानी पीना,कम भोजन ग्रहण करना,बार-बार खड़े होना आदि गर्मी तनाव के लक्षण हैं। दुधारू पशुओं के लिए उष्मीय क्षेत्र वातावरण 16°से 25° सेंटीग्रेट होता है जिसमें उनका शारीरिक तापमान 38.4-39.1 सेंटीग्रेट रहता है (युसूफ, 1985) । अधिक तापमान में पशुओं का भोजन ग्रहण क्षमता घटता है व नाड़ी दर और श्वशन दर भी बढ़ जाता है।

उच्च तापमान कारण रुमेन की सामान्य पाचन प्रक्रिया प्रभावित होती है जिससे अनेक स्वास्थ्य संबंधी दिक्क्तें आती है। इन कारणों से जानवरों की उत्पादकता कम होती है। गर्मी तनाव के कारण पशुओं में परवरिश ऊर्जा आवश्यकता 20 -30 प्रतिशत बढ़ जाती है।  तापमान आर्द्रता सूचकांक 68 से 75 पशुओं में सूखा पदार्थ ग्रहण क्षमता 9.6 प्रतिशत घट जाती है जिससे दूध उत्पादन 21 प्रतिशत  हो जाता है (बोरौयी व साथी, 2002)। होल्स्टीन गाय को 18 से 30 सेंटीग्रेट में ले जाने पर दूध वसा और दूध प्रोटीन में 39.7 और 16.9 प्रतिशत कमी देखी गयी है (मैकडोवेल व साथी, 1976 )। नगरीकरण और कटते जंगलों के कारण पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ता ही जा रहा है। लेसेंट 2022 के एक प्रकाशन के अनुसार, 2085 के अंत तक भारत में दूध उत्पादन 25 प्रतिशत  कम  सकता है। इस कारण आने वाले समय में पशुओं के उत्पादन क्षमता पर बुरा प्रभाव पड़ने वाला है।

. बीमारी प्रकोप व महामारियां

बीमारीयां  प्रत्यक्ष रूप से उत्पादकता को प्रभावित करती हैं।  बीमार होने पर पशु का पूरा शारीरिक तंत्र प्रभावित होता है जिसका असर स्तन ग्रंथियों पर पड़ता है। अनेक बीमारीयों का संक्रमण काल कम होता है लेकिन लम्बे समय तक इसका असर उत्पादकता पर पड़ता है। अनेक बीमारीयां जैसे खुरपका-मुंहपका रोग, मेट्राइटिस, अनिर्गत गर्भनाल, ट्यूबरकुलोसिस, थनैला, डायरिया, ब्रुसलोसिस आदि रोगों के कारण डेयरी पशुओं की उत्पादन क्षमता बहुत ज्यादा प्रभावित होती है। एक अध्ययन के अनुसार ब्रुसलोसिस के कारण डेयरी पशुओं में दूध उत्पादन में 20-30 प्रतिशत की कमी देखी गयी (इनरिक हेरा, 2008)। अनेक प्रकार के लक्षणहीन बीमारी (कीटोसिस, थनैला, एसिडोसिस आदि ) पशु को लम्बे समय तक प्रभावित करते रहते हैं। लक्षण के अभाव में इनका इलाज समय पर नहीं हो पाता है। सन 2001 में थनैला से 6100 करोड़ रुपये की हानि हुई थी जिसमें 4400 करोड़ की हानि लक्षणहीन थनैला से हुई थी (दुआ, 2001) । सही समय पर पशुओं का टीकाकरण न होना भी पशुओं के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है और बीमारियां विकराल रूप में आती हैं। महामारियां लंबे समय तक पशुओं के स्वास्थ्य पर प्रभाव डालती है।  किसी बीमारी के प्रादुर्भाव से दूध उत्पादन प्रभावित होता है।  उदा. स्वरुप लम्पी त्वचा बीमारी जो कि एक खतरनाक विषाणु जनित बीमारी है। यह बीमारी त्वचा को अल्प  समय या  दीर्घकाल के लिए प्रभावित करता है। सर्वप्रथम यह जाम्बिया में सन 1929 में रिपोर्ट हुआ था।  इस बीमारी के कारण पशुओं में दूध उत्पादन  में कमी, गर्भपात, वृद्धि का रूकना व बांझपन जैसी समस्याएं आती हैं (बाबियुक व साथी, 2008 )। कुछ समय पहले इस महामारी के प्रकोप से लाखों पशुओं की जान चली गयी।  बीमारी से प्रभावित पशुओं के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ा।  इस बीमारी के कारण उत्पादन क्षमता बहुत ज्यादा प्रभावित हुआ।

, पशु चिकित्सा सुविधाओं का अभाव

हमारे देश में पशुओं के इलाज, टीकाकरण, कृत्रिम गर्भाधान व अन्य स्वास्थ्य सुविधाओं की पूर्ति हेतु पशु चिकित्सा सुविधाओं और पशु चिकित्सकों की कमी है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के अनुसार देश में 55000 पशु चिकित्सकों की आवश्यकता है। राष्ट्रीय कृषि आयोग ने 500 पशुओं में एक चिकित्सक रखने का सुझाव दिया था।    देश के सिर्फ 31 प्रतिशत पशु चिकित्सालय और डिस्पेंसरी चिकित्सा हेतु उपयुक्त हैं। पशु चिकित्सा सुविधाओं में कमी के अनेक अन्य कारण हो सकते हैं।अनुसन्धान-शैक्षणिक-विस्तार (बालागुरु और राजगोपालन, 1986) में आवश्यक संतुलन के आभाव और फिल्ड पशु चिकित्सक और पैरा वेटनेरियंस में कौशल और ज्ञान का अभाव (चंदर व साथी, 2010) भी प्रमुख कारण हैं। अधिकतर गांव में टेस्ट सुविधा और आवश्यक आधारभूत संरचना विकसित नहीं हो पाई है। चिकित्सा सुविधा के आभाव में पशुओं का सही समय में इलाज संभव नहीं हो पाता है। चिकित्सकों  के आभाव में  गर्मी में आए पशु की पहचान, कृत्रिम गर्भाधान, टीकाकरण,बीमा व पशुपालको को आवश्यक प्रशिक्षण कार्य प्रभावित होता है। शासन द्वारा लागु विभिन्न पशु विकास संबंधी योजनाएं पशु चिकित्सकों के आभाव में सफलतापूर्वक लागु नहीं हो पाता। कई क्षेत्रों में जरूरत के हिसाब से दवाई और टीका का वितरण नहीं हो पाता जिससे पशु स्वास्थ्य प्रभावित होता है। इन सब कारणों से पशु की उत्पादकता प्रभावित होती हे।

. डेयरी विकास हेतु अनुपयुक्त योजनाएं  

डेयरी पशुओं के विकास के लिए बनने वाली योजनाओं का सही-सही क्रियान्वयन नहीं हो पाना भी उत्पादकता को प्रभावित करता है। सरकार की योजनाएं विभिन्न जलवायु क्षेत्र की आवश्यकता को ध्यान में रखकर नहीं बनायीं जाती। भारत का जलवायु विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न है। इन क्षेत्रों में पर्यावरणीय स्थितियां अलग-अलग है।  देश के किसी भाग में अत्यधिक गर्मी पड़ती है तो कोई भाग अत्यंत ठंडा रहता है। इस कारण योजनाएं सफल नहीं हो पातीं।  योजनाओ से संबंधित एजेंसियां अपने कार्य द्वारा पशु पलकों को लाभ नहीं दिला पातीं। योजनाओं की औपचारिकता पूर्ण करना कठिन और उबाऊ प्रक्रिया होती है जिसमें पशुपालक नहीं पड़ना चाहते। आपरेशन फ्लड के पूर्व दूध उत्पादन बढ़ाने हेतु अनेक योजनाएं लागु की गयीं जैसे- कैटल इंटेंसिव डेवलपमेन्ट प्रोग्राम ,की विलेज स्कीम आदि। इन योजनाओं द्वारा ग्रामीण दूध उत्पादक शहरी उपभोक्ताओं से नहीं जुड़ पाए थे।  आपरेशन फ्लड योजना द्वारा सहकारी समितियों के माध्यम से उत्पादक और उपभोक्ता जुड़ पाए। डेयरी की आवश्यकताओं की पूर्ति और विकास के लिए जमीनी स्तर पर कार्य कर  योजनाएं बनाने की आवश्यकता है।

. नए व आधुनिक टेक्नोलॉजी का आभाव

देश की 60 प्रतिशत दूध का क्रियान्वयन असंगठित क्षेत्रों द्वारा किया जा रहा है जहां आधुनिक तकनीक और तरीकों का अभाव है। डेयरी को व्यवसाय के रूप में विकसित करने के लिए संगठित बाजार की आवश्यकता पड़ती  है।  जहां अधिक मात्रा में दूध को संग्रहित कर ठंडा करने की सुविधा हो व उसका सही-सही स्थानांतरण हो सके। देश के अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में पशुपालन और दूध उत्पादन कार्य पुरानी पद्धति के अनुसार किया जा रहा है।  जैसे-हस्त दोहन, हाथ से पशुओं को नहलाना और अन्य सफाई कार्य,चारा उत्पादन पद्धति और  हाथ से चारा बनाना आदि कार्य।  इन पुरानी पद्धतियों से बड़ी संख्या वाले डेयरी को नियंत्रित कर पाना संभव नहीं है।  इसमें समय ज्यादा लगता है तथा अनावश्यक खर्च बढ़ता है।  पुरानी पद्धति  के लागू  रहने से पशुओं का उचित प्रबंधन नहीं हो पाता है और आवश्यकतानुसार पोषण नहीं मिल पाता।  इन कारणों से पशु अपनी क्षमता अनुसार उत्पादन नहीं कर पाते।

. दूध उत्पादन लागत का अधिक होना

दूध उत्पादन लागत दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है।  इसका कारण आहार, तेल व मजदूरी में वृद्धि है। पशुओं के बीमारी के इलाज के लिए अत्यधिक राशि खर्च हो जाता है।  संकर  और विदेशी पशुओं के लिए विशेष प्रकार के आवासीय व्यवस्था में अत्यधिक खर्च आता है। इन पशुओं के लिए विशेष दूध से सम्बंधित यंत्रों की आवश्यकता पड़ती है। ये पशु बीमार ज्यादा पड़ते हैं जिसका उपचार साधारण पशुपालक लिए कठिन होता है। पोषण के पश्चात् सबसे ज्यादा खर्च मजदूरी में लगता है। अग्रवाल और राजू (2021) ने अध्ययन में यह पाया कि पोषण के बाद सबसे ज्यादा खर्च मजदूरी (15.99 प्रतिशत) के रूप में होता है। आजकल मजदूर प्रबंधन समस्या है। फार्म में अलग-अलग कार्यों के लिए योग्यता के अनुसार मजदूरी देना पड़ता है। बड़े-बड़े डेयरी फार्म में दूध और इससे संबंधित उत्पाद के प्रसंस्करण में लागत बहुत अधिक लगता है। इन सब कारणों के कारण बहुत ज्यादा धन प्रबंधन में खर्च हो जाता है और पशु के स्वास्थ्य रक्षा पोषण के लिए पैसों का आभाव हो जाता है।

. असंगठित भारतीय डेयरी क्षेत्र

भारतीय डेयरी क्षेत्र परम्परागत और अनौपचारिक है।  यह मुख्यतः छोटे किसानों या वेंडर पर निर्भर रहता है।  देश का अधिकतर दूध दो से पांच गाय/भैंस रखने वाले किसानों के पास से आता है। देश  का 18-20 प्रतिशत दूध ही संगठित क्षेत्रों द्वारा नियंत्रित किया जाता है। असंगठित क्षेत्रों में किसी भी योजना का सही-सही क्रियान्वयन नहीं हो पाता  है। ऐसे स्थिति में दूध का संग्रहण, स्थानांतरण और प्रोसेसिंग कार्य करना अत्यंत कठिन होता है।  वर्तमान में उच्च गुणवत्ता वाले दूध और उसके उत्पादों की मांग ज्यादा है।  असंगठित क्षेत्र द्वारा इसकी आपूर्ति  संभव नहीं है। दूध और इसके उत्पादों का सही मूल्य नहीं मिल पाता।  असंगठित क्षेत्र में स्वच्छ दूध उत्पादन संभव नहीं होता।  दूध के वितरण हेतु बाजार व्यवस्था नहीं मिल पाता। अव्यवस्थाओं के कारण पशुओं को सही पोषण नहीं मिल पाता और उत्पादकता प्रभावित होता है।

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. उत्पादकों की सामाजिक आर्थिक व आध्यात्मिक स्थिति

हमारे देश में अनेक  धर्म के लोग निवास करते हैं और किसी न किसी रूप से पशुओं से जुड़े हैं।  परन्तु लोगों के पशु पालन के उद्देश्य अलग अलग हो सकते हैं।  मांस के लिए पशुपालन करने वाले लोग दूध के उत्पादकता पर ध्यान नहीं देते।  इसी प्रकार अनेक समुदाय अलग-अलग धर्म को मानने वाले लोग  अपने इच्छा अनुसार पशु पालन करते हैं।  लोग भौगोलिक व वातावरणीय  परिस्थितियों और उपस्थित संसाधनों को ध्यान दिए बिना इच्छित पशु का पालन करते हैं।  इन कारणों से पशु की उत्पादकता प्रभावित होती है। कुशल और जानकर किसान धन के आभाव में पशुपालन सही ढंग से नहीं कर पाते।  इन किसानो के पास पशुओं के पोषण और इलाज के लिए आवश्यक पैसे का आभाव होता है।  कुशल किसान नवीन टेक्नोलॉजी का उपयोग नहीं कर पाते।

. प्रसार सुविधाओं का आभाव

पशु पालन के क्षेत्र में पशुधन से संबंधित जानकारी के प्रसारण हेतु विस्तार सुविधाओं का अभाव है। पशुपालकों को पशु स्वास्थ्य और प्रबंधन के सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी नहीं मिल पाती है। डेयरी में अच्छा प्रदर्शन  पशुओं की सही जानकारी किसानो  तक नहीं  पाती। प्रसार संसाधनों जैसे रेडियो, टेलीविजन आदि में किसानो के जरूरत के अनुसार कार्यक्रम नहीं आते। अनपढ़ किसान इन जानकारियों के प्रति रूचि नहीं रखते। कृषि से संबंधित विभागों व कृषि विज्ञान केंद्रों के माध्यम से किसानो को जानकारी देना चाहिए।  पशु चिकित्सकों को सीधे किसान से संपर्क कर आवश्यक सुझाव देना चाहिए।

 

डेयरी पशुओं की उत्पादकता बढ़ाने हेतु आवश्यक कदम

पशुओं की उत्पादकता को अच्छे प्रबंधन और सतत प्रयास से बढ़ाया जा सकता है।  यह कार्य  आम पशुपालकों के साथ मिलकर प्लानिंग द्वारा संभव हो सकता है। अनेक देशों में पशुओं की उत्पादकता योजनाबद्ध तरीके से कार्य करके बढ़ाया गया है।  हमारे देश में प्रति दुधारू पशु उत्पादकता बढ़ाने लिए निम्न कदम उठाए जा सकते हैं-

. पशुओं के जर्मप्लाज्म में सुधार

उत्पादकता में वृद्धि के लिए पशुओं में अनुवांशिक विकास जरुरी है।  कम उत्पादकता वाले पशुओं के प्रजनन में नियंत्रण जरुरी है। चयनात्मक प्रजनन या कृत्रिम चयन द्वारा अच्छे उत्पादन क्षमता व शारीरिक प्रदर्शन वाले पशुओं को पहचाना जा सकता है। उत्पादन क्षमता में सुधार के लिए आदर्श प्रजनन विधि का उपयोग आवश्यक है।  नस्ल सुधार कार्यक्रम हेतु विभिन्न प्रजनन विधियों में चयन के महत्त्व का अध्ययन करना चाहिए।  देशी गाय और भैंस को उच्च उत्पादकता वाले नस्ल के साथ क्रॉस ब्रीडिंग कराकर नस्ल में सुधार करना चाहिए। ग्रेडिंग-अप द्वारा 5-6 पीढ़ी पश्चात उच्च उत्पादन वाले नस्ल में बदला जा सकता है। सातवें पीढ़ी में देशी नस्ल के गाय का गुण उत्तम नस्ल के समान 99.22 प्रतिशत हो जाता है। इस विधि द्वारा उन देशी नस्ल में सुधार किया जा रहा है जिनकी उत्पादकता और प्रदर्शन अत्यंत कम है। अनुकूलन क्षमता के अनुसार संकर नस्ल और विदेशी नस्ल के पशुओं को देश के विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित करना  चाहिए।

पशु के पुनरावृत्ति होने वाले रिकार्ड, रिकार्ड का कोई भाग या लक्षणों के मध्य अनुवांशिक सह-संबंध ज्ञात कर अच्छे उत्पादन वाले पशु का चयन किया जा सकता है। एकाधिक ओव्यूलेशन और भ्रूण स्थानांतरण (मोएट), इन विट्रो निषेचन, क्लोनिंग, मार्कर आधारित चयन आदि तकनीक उत्पादन बढ़ाने में सहायक हो सकते है। सेक्स सॉर्टेड वीर्य टेक्नोलॉजी उत्पादकता बढ़ाने में अत्यंत लाभकारी है।  लू व साथी (2007) ने मुर्राह और नीली रावी भैंस में एक्स (X) और वाई (Y)  क्रोमोसोम्स के शॉर्टेड में 94 और 89.5 प्रतिशत सफलता पायी थी। सेक्स सॉर्टेड वीर्य द्वारा मादा बछिया का विकास किया जा सकता है।  इससे नर के प्रंबंधन का  खर्च नहीं उठाना पड़ेगा।  इस टेक्नोलॉजी से अनुवांशिक विकास कर अच्छे नस्ल का विकास संभव है। बकरी और भेंड़ द्वारा कम मात्रा में दूध प्राप्त होता है, इनके अच्छे नस्लों का विकास जरूरी है।

. वर्ष भर प्रभावी पोषण

पशुओं में उत्पादकता को बढ़ाने और उसमें संतुलन बनाए रखने के लिए वर्ष भर पोषक तत्व युक्त आहार देना चाहिए। दुधारू गाय के साथ-साथ बछिया को भी उच्च पोषक तत्व युक्त आहार देनी चाहिए। पशु के सांद्र दाने  में आवश्यक पोषक तत्व, खनिज और विटामिन की मात्रा होनी चाहिए। पोषक तत्वों की पूर्ति के लिए बाजार में मिलने वाले उत्पादों का उपयोग किया जा सकता है। वर्ष भर हरे चारे का इंतजाम करनी चाहिए।  अधिक उत्पादकता वाले हरा चारा लगाना चाहिए।  बाजरा, मक्का, बरबट्टी, बरसीम, लूसर्न,सरसों, पैरा घास, गिनी घास, जई, ज्वार, नेपियर घास आदि का वर्ष भर उत्पादन करना चाहिए।  फसल चक्र द्वारा सभी प्रकार के चारा का उत्पादन किया जा सकता है। चारा संरक्षण कार्यक्रम निरंतर चलते  रहना चाहिए। पशु के लिए ‘साइलेज’ और ‘हे’ की उपलब्धता होनी चाहिए। पैरा और अन्य सूखे चारों का यूरिया ट्रीटमेंट कर पोषक तत्वों में वृद्धि करनी चाहिए।  दुधारू पशु के चारा में गुड़ और मोलासेस मिलाना चाहिए।

. आदर्श वातावरण प्रदान करना 

 बढ़ता तापमान आज और भविष्य में कम उत्पादन के लिए उत्तरदायी रहेगा।  दुधारू पशुओं को तनाव रहित, शुद्ध व स्वच्छ वायुदार वातावरण प्रदान करना चाहिए।  पशु शेड का लम्बा ओर पूर्व पश्चिम दिशा में होना चाहिए।  छत पर पुताई कर  शेड के अंदर गर्मी को नियंत्रित कर  सकते हैं।  गर्मी में अच्छा प्रदर्शन करने वाले नस्लों का विकास करना चाहिए। पशु आवास के आस-पास छायादार पौधे लगाना चाहिए। शेड के ऊपर पानी छिड़कना चाहिए। कृत्रिम तरीके से शेड के अंदर वायु प्रवाह करनी चाहिए। ज्यादा गर्मी की स्थिति में  स्प्रिंकलर की सहायता से पशु शरीर के तापमान को कम करना चाहिए।  शेड के अंदर फोगर्स और मिस्टर्स द्वारा वातावरण को ठंडा करना चाहिए।  पशुओं को सोडियम बाईकार्बोनेट और मैग्नेशियम आक्साइड जैसे बफर देनी चाहिए।  गर्मी तनाव के समय भोजन में वसा देने से पशुओं में दूध उत्पादन क्षमता बढ़ती है (लीन एवं साथी, 2004)। पोटेशियम, मोनेनसिन, ईस्ट कल्चर, नियासिन, क्रोमियम, विटामिन सी व विटामिन ई का उपयोग गर्मी तनाव को कम करने के  लिए देना चाहिए। पशु आहार में हरे चारे का उपयोग बढ़ाना चाहिए। पशुओं में आहार ग्राहिता क्षमता को  बढ़ाने  भोजन को कई भागों में बांटकर ठंडे समय में देनी चाहिए।  पशु को कम अंतराल में नहलाना चाहिए।  पशुओं को सुबह जल्दी और देर शाम को चराने हेतु ले जाना चाहिए।

. पशु चिकित्सा और पशु कल्याण कार्य

पशु चिकित्सक पशुओं का सबसे करीबी होता है जो कि उनके परेशानियों और बीमारी के बारे में सही-सही पता लगा सकता है।  देश में पशु चिकित्सा के क्षेत्र में आवश्यक विकास करने की आवश्यकता हैं।  कृत्रिम गर्भाधान द्वारा अच्छे नस्ल का विस्तार संभव है।  पशुओं को अच्छा पोषण प्रदान कर दूध उत्पादन में वृद्धि करना जरूरी है। इसके अलावा समय पर गर्म पशु की पहचान, रिपीट ब्रीडिंग का उपचार, कीटोसिस व दुग्ध ज्वर जैसे उत्पादक रोगों का नियंत्रण भी एक कुशल पशु चिकित्सक करता है। पशुओं को विभिन्न बीमारियों से बचाने के लिए समय पर टीका लगाना आवश्यक है।  टीकाकरण द्वारा पशुओं में रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता है। बंधियाकरण द्वारा  कम उत्पादकता वाले पशुओं की संख्या  को नियंत्रित किया जा सकता है। देश के हर गांव और शहर में समय पर टीका लगाने की व्यवस्था होनी चाहिए। देश में पशु चिकित्सालय, डिस्पेंसरी, कृत्रिम गर्भाधान केंद्र, चलित पशु चिकित्सा सेवा का विकास उत्पादकता बढ़ाने में सहायक सिद्ध होगा। बदलते समय के अनुसार पशु चिकित्सा  क्षेत्र  में भी हर्बल दवाओं  का उपयोग बढ़ता जा रहा है। हर्बल दवाइयों का उपयोग सस्ता होता है और शरीर में इसका कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता। यूकेलिप्टस, टरपेनटाइन, गुडुची (टीनोस्पोरा कर्डिफोलिआ), एलियम सेपा, एजाडिरेक्टा इंडिका, कुरकुमा डोमेस्टिका, अरंडी, गोखरू (ट्राईबुलस टेरेसट्रिस) आदि का उपयोग उत्पादन  और प्रजनन तंत्र से संबंधित रोगों के इलाज में उपयोग  किया जाता है।  चट्टोपाध्याय (1996) ने हर्बल दवाओं द्वारा इलाज को पारम्परिक पशु चिकित्सा पद्धति से बेहतर बताया है।

पशुओं का उत्पादन उनके मानसिक और शारीरिक स्थिति पर निर्भर करती है। पशु कल्याण कार्यक्रम द्वारा हम उन्हें जरुरी सुविधाएं और सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं। ब्रिटेन के फार्म एनिमल वेलफेयर काउंसिल सन 1965 में पशुओं के लिए पांच स्वतंत्रताएं  सुनिश्चित की थी जिनका पालन कर पशु कल्याण कार्य संभव है।  इनके द्वारा पशुओं की मानसिक और शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति संभव होती है।  ये स्वतंत्रताएं  हैं – भूख और प्यास से मुक्ति, असुविधा से मुक्ति, दर्द, चोट या बीमारी से मुक्ति, सामान्य व्यवहार प्रदर्शन की स्वतंत्रता और भय और संकट से मुक्ति।  इन सिद्धांतो का पालन कर पशु कल्याण संभव है।

. पशुधन विकास आधारित योजनाएं

पूर्व में डेयरी पशुओं के विकास हेतु अनेक योजनाएं लागु की गयी। राष्ट्रीय गोकुल मिशन (2014) द्वारा देशी नस्लों के विकास और संरक्षण को बढ़ावा दिया गया।  पशुधन का विकास और उत्पादकता को बढ़ाने हेतु राष्ट्रीय पशुधन मिशन (2014) योजना चालू की गयी। दुधारू पशुओं में उत्पादकता बढ़ाने के लिए पशुपालकों की आवश्यकताओं पर आधारित योजनाएँ लागु करने की आवश्यकता है। डेयरी योजनाओं का उद्देश्य पशुपालकों तक सीधे लाभ पहुंचना  होना चाहिए।  पशु पालकों  को डेयरी स्थापित करने, दुधारू जानवर खरीदने, चारा उत्पादन करने, डेयरी उपकरण खरीदने व व्यवसाय स्थापित करने के लिए सब्सिडी शासन द्वारा देना चाहिए। भारत सरकार और राज्य  सरकार की  पशुधन-ऋण योजनाओं की जानकारी पशु पालकों को सही समय पर देनी चाहिए। डेयरी योजनाओं के  सफल संचालन हेतु क्षेत्र में कार्य करने वाले स्वयं सेवी संगठन, जागरूक किसान, जन प्रतिनिधि, सहकारी समिति  आदि को शामिल  करना चाहिए।  योजनाएं बनाते वक्त इन्हें कमिटी में शामिल करना चाहिए।

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ऊ छोटे रुमान्थि पशुओं का विकास

बकरी को गरीब की गाय कहा जाता है व भेंड़ मोबाइल बैंक कहलाता है।  विश्व में सबसे ज्यादा बकरी एशिया में पाया जाता है। चीन के बाद बकरी जनसँख्या में भारत का स्थान है। इस दोनों छोटे रुमान्थि पशुओं का भारतीय ग्रामीण आजीविका में महत्त्वपूर्ण योगदान है।  इन्हें दूध, मांस और चमड़ा के लिए पाला  जाता है। बकरी दूध मनुष्य में अनेक बीमारी के इलाज में उपयोग में आता है। हमारे देश में बकरी की दूध उत्पादन उनकी अनुवांशिक क्षमता से कम है। हमारे देश में अच्छे नस्ल के अभाव, चारा क्षेत्र की कमी, टेक्नोलॉजी का सही क्रियान्वयन की कमी, क्षेत्र आधारित योजना, बाजार की कमी, असंगठित क्षेत्र द्वारा नियंत्रण आदि के कारण बकरी दूध की  उत्पादकता नहीं बढ़ पायी (सिंह व साथी, 2018)। भारतीय नस्लों (जमनापरी, सिरोही, झखराना, बीटल व बरबेरी आदि)  का विदेशी नस्ल के साथ ब्रीडिंग कराकर उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है।  अच्छे नस्ल का चयन किया जाना चाहिए।

. डेयरी आधारित एकीकृत कृषि प्रणाली का विकास

डेयरी फार्मिंग एकीकृत कृषि प्रणाली (फसल-पशुपालन कृषि) द्वारा करने पर पशुओं के उत्पादकता में वृद्धि होती है। कृषि द्वारा पशुओं को आवश्यक चारा प्राप्त हो जाता है और गोबर व अन्य अपशिष्ट पदार्थों क उपयोग खाद के रूप मे होता है। कृषि के क्षेत्र में उत्पादित होने वाले दलहन, तिलहन व अन्य अनाज अवशेष से  पशुओं को आवश्यक पोषक तत्व मिल जाते हैं। पशुओं के चरने और घूमने ले लिए स्थान मिल जाता है।  इस विधि  द्वारा उत्पादन लागत कम आता है क्योंकि अन्य उपक्रम से मजदूर और अन्य सुविधाएं मिल जाती हैं।

. आधुनिक नवीन तकनीक द्वारा डेयरी फार्मिंग

डेयरी फार्म में आधुनिक मशीनरी और उपकरण के उपयोग से उत्पादन लागत और उत्पादकता में सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। स्वचालन (आटोमेशन) मजदूरी व्यय कम करने और उत्पादकता को बढ़ाने के लिए लाभकारी है। नए टेक्नोलॉजी के प्रयोग से किसानों का जीवन बेहतर होता है व फार्म का प्रदर्शन अच्छा रहता है (सी. व साथी, 2018 ) । दूध दोहन मशीन,चारा कटर,बल्क मिल्क कूलर, फ्रिज, राशन मिक्सर व  ट्रैक्टर आदि के उपयोग से डेयरी का काम आसान हो जाता है व लागत कम हो जाता है। भोज व साथी (2014) ने पाया कि स्वचालित चारा काटने  वाली मशीन के उपयोग से 8 प्रतिशत तक चारा खर्च को बचाया जा सकता है। स्वचलित रोटरी और ब्रश उपयोग पशु स्वयं लेते हैं। विश्राम हेतु रबर चटाई व पानी जेट स्प्रे के उपयोग से पशुओं के स्वास्थ्य पड़ता है व उत्पादकता बढ़ती है (पाटिल व साथी, 2019)।  पेडोमीटर के उपयोग से गर्म मादा का पहचान आसानी से हो जाता है।

पशुओं  संबंधित जानकारी हेतु आनलाइन ‘हर्ड मैनेजमेंट सॉफ्टवेयर’ का विकास किया गया है। बड़े डेयरी फार्म में पशुओं के पहचान के लिए रेडियो  फ्रीक्वेंसी पहचान सिस्टम, थूथन प्रिंट पद्धति और रेटिना फोटोग्राफी का उपयोग हो रहा है। बड़े डेयरी में पाइपलाइन सिस्टम द्वारा दूध सीधे ठंडा होने पहुंच जाता है।  पशुओं में उत्पादकता दोहन विधि और दोहन समय पर भी निर्भर करता है। आधुनिक दूध उत्पादन मशीन जैसे रोटरी पार्लर, टेंडम पार्लर, हेरिंगबोन पार्लर व फ्लैट बार्न पार्लर के द्वारा प्राकृतिक ढंग से अपेक्षित समय में दूध निकालने का कार्य हो जाता है।  स्वचलन पद्धति द्वारा  पशु शेड के तापमान और आर्द्रता को जरूरत के हिसाब से नियंत्रित किया जा सकता है।  डेयरी में मजदूरों का ज्यादातर समय चारा व पानी परोसने और साफ-सफाई में व्यय होता है।   स्वचलन द्वारा यह कार्य आसानी पूर्वक कम खर्च में हो जाता है। स्वचालन तकनीकी को अपनाने से दूध उत्पादकता में वृद्धि होती है।

. मार्गदर्शन, प्रशिक्षण व प्रोत्साहन

पशुपालकों को पशुओं के प्रबंधन संबंधी मार्गदर्शन समय-समय देनी चाहिए। इनकी समस्याओं को विशेषज्ञ तक पहुंचाकर तत्काल समाधान करानी चाहिए। उत्पादकता बढ़ाने के विभिन्न उपायों के बारे में बताना चाहिए। इस कार्य में कृषि विज्ञान केंद्र,पशु चिकित्सक, स्वयंसेवी संगठन आदि मदद कर सकते हैं। कुछ-कुछ समय अंतराल में पशु प्रबंधन विषय पर निःशुल्क प्रशिक्षण  कराना  चाहिए। दूध और उसके उत्पादों में मूल्य संवर्धन संबंधित जानकारी प्रदाय  करना  है। पशुपालकों की टीम बनाकर आदर्श डेयरी का भ्रमण कराना चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में चलचित्र, फोटोग्राफ, रेडियो, मोबाइल, मॉडल, पोस्टर व नुक्क्ड़ नाटक के द्वारा प्रसार कार्य  किया जा सकता है। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में नए डेयरी उद्यमी बनाने की जरूरत है।  इस कार्य हेतु युवा और महिलाओं को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।   पशुपालन को  आजीविका का मुख्य आधार बनाने जोर देनी चाहिए।  पशुपालकों  को प्रोत्साहित करने के लिए  डेयरी मेला आयोजन करना चाहिए। जिसमें दूधारू जानवरों के प्रदर्शन के आधार पर पुरस्कार देना चाहिए।  शासन द्वारा ‘गोपाल रत्न अवार्ड’ स्थापना 2021 में की गयी है।  इसके अंतर्गत देशी गौवंश और भैंस पशुपालक, कृत्रिम गर्भाधान तकनीशियन और सहकारी समिति  को पुरस्कृत किया जाता है।  इसी प्रकार विभिन्न राज्यों द्वारा भी पशुपालकों को पुरस्कृत किया जाता है।

उपसंहार

भारतीय डेयरी तेज गति से बढ़ने वाला व्यवसाय है।  डेयरी क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार बन सकता है।  पशु संख्या पर नियंत्रण कर प्रति पशु उत्पादकता बढ़ाए जाने पर कार्य करना चाहिए। उत्पादकता में वृद्धि करने के लिए पशु चयन, अनुवांशिक विकास, उत्तम पोषण, आवासीय  प्रबंधन, चिकित्सीय व्यवस्था, नवीन तकनीक आदि  क्षेत्रों में कार्य करने की आवश्यकता है। उच्च गुणवत्ता वाले पशुओं को  संरक्षण व बढ़ावा देना चाहिए।  विदेशी नस्ल और संकर पशुओं का समुचित उपयोग करना चाहिए।  डेयरी में नए अनुसन्धान टेक्नोलॉजी को लागू करना चाहिए।  शासन की योजनाओं का क्रियान्वयन जमीनी स्तर पर होना चाहिए। दूध उत्पादन, संग्रहण और वितरण कार्य में संगठित क्षेत्रों को बढ़ावा देना चाहिए। ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में डेयरी को व्यापार में विकसित करना चाहिए।  इन क्षेत्रों में कार्य करने पर पशुओं के उत्पादकता में निश्चित वृद्धि होगी।

 

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