मवेशियों में ढेलेदार त्वचा वायरस रोग(एलएसडी): एक महामारी
LSD: Lumpy Skin Virus Disease in cattle
भारत के अलावा बाँग्लादेश, चीन, नेपाल, भूटान और म्यांमार जैसे पड़ोसी देशों से पहली बार 2019 में LSD के प्रकोप की ख़बरें आयीं। इसके अगले साल यानी 2020 में भी देश के कई राज्यों ने LSD को एक बड़ी महामारी के रुप में रिपोर्ट किया। इसे देखते हुए ही ICAR- NIVEDI ने देश भर के पशुपालक किसानों को बेहद सतर्क रहने की सलाह दी है। लम्पी त्वचा रोग (Lumpy skin disease) का संक्रमण देश के कई राज्यों में गायों और भैंसों में देखने को मिल रहा है। इस रोग की चपेट में आने की वजह से गुजरात, राजस्थान, पंजाब सहित कई राज्यों में मवेशियों की मौत हो चुकी है। लम्पी त्वचा रोग के बढ़ते संक्रमण को देखते हुए गुजरात, राजस्थान के बाद अब पंजाब में लम्पी संक्रमण को लेकर अलर्ट जारी कर दिया गया है।
ढेलेदार त्वचा रोग एक सामान्य वायरल प्रकोप नहीं है, समन्वित प्रयास की जरूरत है;
भारतीय कृषि से कुल मूल्य वर्धन का पांचवां हिस्सा:
डेयरी क्षेत्र, जो भारतीय कृषि से कुल मूल्य वर्धन का पांचवां हिस्सा है, को एलएसडी के नए पुनरुत्थान के लिए तैयार रहने की जरूरत है, जिसके घातक परिणाम होंगे।
ढेलेदार त्वचा रोग (एलएसडी) ने लगभग 11. 25 लाख मवेशियों को संक्रमित किया है, जिससे लगभग 50,000 मौतें हुई हैं और 12 राज्यों के 165 जिलों में फैल गई हैं। आधिकारिक तौर पर पुष्टि किए गए इस डेटा के बावजूद, ऐसा लगता है कि सामान्य वायरल प्रकोप से स्पष्ट रूप से अधिक से निपटने के लिए कोई समन्वित राष्ट्रीय प्रयास नहीं है। मच्छरों और अन्य रक्त-पोषक आर्थ्रोपोड वैक्टर द्वारा प्रेषित एलएसडी वायरस का पहली बार ओडिशा में अगस्त 2019 में और पड़ोसी पूर्वी राज्यों में साल के अंत तक पता चला था। अगले दो वर्षों में, छिटपुट मामले देखे गए, जिनमें महाराष्ट्र और गुजरात शामिल हैं। मई-जून 2022 के बाद से हाल की लहर, न केवल रुग्णता या उस दर के लिए असामान्य है जिस पर जानवर बीमारी का अनुबंध कर रहे हैं, बल्कि मृत्यु दर भी। लक्षण, भी, केवल त्वचा पिंड की उपस्थिति तक ही सीमित नहीं हैं। कई मामलों में, संक्रमित जानवरों को तेज दर्द, अंगों में सूजन और खून बहने के साथ-साथ बुखार और भूख न लगने का अनुभव हो रहा है।
केंद्रीय पशुपालन मंत्री पुरूषोतम रूपाला ने कहा है कि मवेशियों में फैल रहे लम्पी त्वचा रोग (Lumpy Skin Disease In Cattles) की रोकथाम के लिए केंद्र व राज्य सरकार मिलकर काम कर रही हैं। जल्द इसे नियंत्रित करने में सफल होंगे।
जिस तरह दुनिया के इंसानों पर 2019 से कोरोना वायरस का प्रकोप क़ायम है, उसी तरह से दुनिया भर के पशुधन पर भी ‘जीनस कैप्रिपोक्स’ वायरस से फैलने वाले लम्पी त्वचा रोग या Lumpy skin disease (LSD) का खतरा मँडरा रहा है। इस बीमारी से पशुओं के पूरे शरीर में त्वचा पर बड़ी-बड़ी गाँठें बन जाती हैं। इसके दर्द से पशु बेहाल रहते हैं। दुधारू पशुओं का दूध घट जाता है। श्रमिक पशुओं की उत्पादकता घट जाती है। LSD के प्रकोप से पशुपालकों को भारी आर्थिक नुकसान होता है।
पशु में लम्पी स्किन डिजीज LSD रोग भारत दुनिया में सबसे बड़ा पशुपालक तथा दुग्ध उत्पादक देश है। 20वीं पशुगणना के अनुसार देश में गोधन की आबादी 18.25 करोड़ है, जबकि भैंसों की आबादी 10.98 करोड़ है। इस प्रकार दुनिया में भैसों की संख्या भारत में सर्वाधिक है। देश की एक बड़ी आबादी पशुपालन से जुड़ी हुई है, यदि कोई भी रोग महामारी का रूप लेकर पशुओं को ग्रसित करता है तो इसका सीधा असर उनके उत्पादन पड़ता है, जिसका सीधा असर पशुपालकों की आय पर पड़ता है। बारिश के मौसम में पशुओं में कई संक्रामक रोग फैलते हैं जिसमें लम्पी स्किन डिजीज भी एक है। लम्पी स्किन डिजीज (एलएसडी) या ढेलेदार त्वचा रोग वायरल रोग है, जो गाय-भैसों को संक्रमित करता है। इस रोग से कभी-कभी पशुओं की मौत भी हो सकती है। पिछले दो वर्षों में यह रोग तमिलनाडु, कर्नाटक, ओडिशा, केरल, असम, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में देखा गया है।
तेज़ी से फैलता है यह रोग लम्पी स्किन डिजीज रोग को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे बहुत तेज़ी से फैलने वाले रोगों की सूची में रखा है। LSD वायरस मच्छरों और मक्खियों जैसे कीटों से आसानी से फैलता है। इसके साथ ही यह दूषित पानी, लार एवं चारे के माध्यम से भी पशुओं को संक्रमित करता है। गर्म एवं नमी वाला मौसम इस रोग को और ज़्यादा तीव्रता से फैलता है।ठंडा मौसम आने पर इस रोग की तीव्रता में कमी आ जाती है। लम्पी स्किन डिजीज LSD रोग का फैलाव एलएसडी, क्रेप्रीपांक्स वायरस से फैलता है। अगर एक पशु में संक्रमण हुआ तो दुसरे पशु भी इससे संक्रमित हो जाते हैं। यह रोग मच्छरों–मक्खियों एवं चारे के जरिए फैलता है। भीषण गर्मी और पतझड़ के महीनों के दौरान संक्रमण बढ़ जाता है क्योंकि मक्खियाँ भी अधिक हो जाती है। वायरस दूध, नाक – स्राव, लार, रक्त और लेक्रिमल स्राव में भी स्रावित होता है, जो पशुओं को खिलाने और पानी देने वाले कुंडों में संक्रमण का अप्रत्यक्ष स्रोत बनता है | यह रोग गाय का दूध पीने से बछड़ों को भी संक्रमित कर सकता है। संक्रमण के 42 दिनों तक वीर्य में भी वायरस बना रहता है। इस रोग का वायरस मनुष्य के लिए संक्रमणीय नहीं है |
देश के 53.6 करोड़ पशुधन को ख़तरा
विश्व पशु-स्वास्थ्य संगठन यानी World Organisation for Animal Health (OIE) की 2020 की एक रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया भर के पशुओं के लिए LSD को एक बेहद ख़तरनाक संक्रामक महामारी बताया है क्योंकि कोरोना की तरह इसके वायरस में भी सारी दुनिया के पशुधन तक फैलने की क्षमता है। भारत के लिए ये चेतावनी बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि LSD का ख़तरा देश के 53.6 करोड़ पशुधन को है। यही पशुधन देश के करोड़ों किसानों की आजीविका हैं।
LSD का आर्थिक प्रभाव
ग़रीब और छोटे दूध उत्पादक किसान को LSD के प्रकोप से भारी नुकसान होता है। इससे दुधारू पशुओं की दुग्ध ग्रन्थियों और थन के सूखने यानी स्तनदाह के अलावा गर्भपात, कमजोरी और प्रजनन सम्बन्धी समस्याएँ पैदा होती हैं। पीड़ित पशुओं के इलाज़ और उनकी उत्पादकता घट जाने या फिर पशु की मौत से पशुपालकों को भारी नुकसान होता है। दूसरी ओर, LSD का प्रकोप फैलने पर केन्द्र तथा राज्य सरकारों को निगरानी, नियंत्रण, प्रयोगशाला परीक्षण, टीकाकरण, मुआवज़े और जागरूकता अभियान रूप में भारी आर्थिक बोझ उठाना पड़ता है।
2020 में कई राज्यों में था LSD
LSD को वैसे तो सबसे पहले 1929 में अफ्रीकी देश जाम्बिया में पहचाना गया, लेकिन साल 2013 से इसके प्रसार में ख़ासी तेज़ी दिखायी दी। अब तक इसने मध्य अफ्रीका, मध्य पूर्व, यूरोप और एशिया के देशों तक अपना प्रसार कर लिया है। भारत के अलावा बाँग्लादेश, चीन, नेपाल, भूटान और म्यांमार जैसे पड़ोसी देशों से पहली बार 2019 में LSD के प्रकोप की ख़बरें आयीं। इसके अगले साल यानी 2020 में भी देश के कई राज्यों ने LSD को एक बड़ी महामारी के रुप में रिपोर्ट किया। इसे देखते हुए ही ICAR- NIVEDI ने देश भर के पशुपालक किसानों को बेहद सतर्क रहने की सलाह दी है।
क्या हैं LSD के लक्षण?
LSD से संक्रमित पशुओं में 4 से लेकर 14 दिनों के बीच 40 डिग्री सेल्सियस या 104 डिग्री फ़ॉरेनहाइट जैसा तेज़ बुखार होता है। उनके नाक और आँख से स्राव (discharge) निकलता रहता है। त्वचा पर घाव या गाँठें बनने लगती हैं। दूध उत्पादन में भारी कमी होने लगती है। आमतौर पर बुखार की शुरुआत के 48 घंटों के भीतर त्वचा की गाँठें सिर, गर्दन, पीठ, पेट, थन और जननांग पर उभरने लगती हैं। पशु चिकित्सकों को सबस्कैपुलर और प्री-फेमोरल लिम्फोड्स भी बढ़े हुए नज़र आते हैं।
गम्भीर मामलों में त्वचा के घावों से पूरा शरीर ढक जाता है। कई बार पशुओं पर निमोनिया का हमला भी हो जाता है तो कभी-कभार एक या दोनों आँख की कॉर्निया (पुतली) में भी अल्सर (घाव) का सफ़ेद धब्बा भी बन जाता है, जो कई बार संक्रमित पशु को पूरी तरह से या आंशिक तौर पर अन्धा बना देता है। किसी इलाके में LSD के पहले मामले का पता लगने से लेकर इस पर काबू पाने तक 5 से लेकर 45 प्रतिशत तक पशु बीमार हो जाते हैं। इस बीमारी की चपेट में आने वाले पशुओं की मृत्यु दर 10% से ज़्यादा हो सकती है।
कैसे फैलता है LSD का संक्रमण?
LSD से संक्रमित पशु के सीधे सम्पर्क से; उसे काटने वाले मच्छर और मक्खी (जैसे स्टोमोक्सिस, ग्लोसिना, क्युलिक्वाईडीस प्रजाति) जैसे वाहकों के सम्पर्क से: उसके लार, नाक और आँखों से निकलने वाले स्राव (discharge) के सम्पर्क से और उसके वीर्य तथा भ्रूण से। संक्रमण और बीमारी का प्रकोप 2 से 3 सप्ताह और कई बार इससे भी ज़्यादा लम्बा खिंच सकता है। पशु की रोग प्रतिरोधक क्षमता, उसकी आयु, नस्ल पर भी रोग की संवेदनशीलता निर्भर करती है। LSD के गम्भीर मामले त्वचा के लक्षणों के कारण पहचानने या निदान करने में आसान होते हैं। हालाँकि, शुरुआती दौर में हल्के संक्रमण को पहचानना अनुभवी पशु चिकित्सकों के लिए भी मुश्किल होता है, क्योंकि LSD के अलावा हर्पीस (Herpes) वायरस के संक्रमण से भी त्वचा पर गाँठें बनने लगती हैं।
कैसे होता है LSD का निदान?
देसी नस्ल के मवेशियों की तुलना में संकर नस्ल के मवेशी LSD के प्रति ज़्यादा संवेदनशील होते हैं। LSD का निदान सेल कल्चर विधि से विषाणु को अलग करके किया जाता है। त्वरित निदान के लिए RT-PCR (रियल टाइम पोलीमरेज चेन रिएक्शन) जाँच की जाती है। एंटी-LSDV यानी रोग प्रतिरोधकता का पता लगाने के लिए वायरस न्यूट्रलाइजेशन टेस्ट और इनडायरेक्ट फ्लोरोसेंट एंटीबॉडी टेस्ट का उपयोग किया जाता है। पशुओं की त्वचा के घावों, पपड़ी या अन्य ऊतकों (tissues) की प्रयोगशाला में जाँच करके वायरस के डीएनए का पता लगा सकते हैं।
LSD का पुख़्ता इलाज़ नहीं है
LSD से संक्रमित पशुओं से आसपास के अन्य पशुओं में ये बीमारी बहुत तेज़ी से फैलती है। कोरोना की ही तरह लम्पी त्वचा रोग का भी कोई पुख़्ता इलाज़ मौजूद नहीं है। इससे पीड़ित पशुओं और उनके घावों के उचित देखभाल ही इसका उपचार है। हालाँकि, घावों की देखभाल के लिए एंटीसेप्टिक्स और एंटीबायोटिक्स दवाईयाँ उपयोगी होते हैं। एंटी-इंफ्लेमेटरी ड्रग्स (NSAID) का उपयोग लक्षणों को कम करने में प्रभावी हैं। LSD का पता चलने के शुरुआती दौर में ही विषाणु-रोधी टीके का इस्तेमाल करना चाहिए।
भारत में बकरी पॉक्स वैक्सीन को मंज़ूरी
अफ्रीका में मवेशियों के लिए लाइव LSD वैक्सीन उपलब्ध है। इससे क़रीब तीन सप्ताह में पीड़ित पशुओं में पर्याप्त रोग प्रतिरोधकता विकसित होती है। भारत में फ़िलहाल LSDV की कोई वैक्सीन उपलब्ध नहीं है। हालाँकि, बैंगलुरु स्थित ICAR- NIVEDI यानी National Institute of Veterinary Epidemiology and Disease Informatics या राष्ट्रीय पशुरोग जानपदिक एवं सूचना विज्ञान संस्थान के मुताबिक, देश में LSD के प्रकोप वाले इलाकों में बकरी पॉक्स वैक्सीन के आपात इस्तेमाल को मंज़ूरी प्राप्त है। इसी संस्थान के वैज्ञानिकों ने LSD की जाँच के लिए एक ख़ास RT-PCR किट भी विकसित की है।
कैसे करें LSD से बचाव?
संक्रमित पशुओं को बाड़ों में रखकर उनका सही उपचार करके और उनके सम्पर्क में आने वाले व्यक्ति तथा वाहनों का कीटाणु-शोधन (sanitisation) करके इसे बीमारी को महामारी बनने से बचाया जा सकता है। जिस इलाके में LSD का प्रकोप नज़र आये वहाँ स्वस्थ पशुओं को मक्खी-मच्छर से बचाने के लिए मच्छरदानी या कीट रिपेलेंट्स का इस्तेमाल, पशुओं के बाड़ों के आसपास कीटनाशक का छिड़काव और फ़ॉगिंग का इस्तेमाल करना चाहिए। LSD की वजह से मरने वाले पशुओं को गहरे गड्ढे में दफ़नाना चाहिए। पशुपालकों को उन इलाकों के चारागाहों से सख़्त परहेज़ करना चाहिए जहाँ LSD का प्रकोप दिखायी दे।
नये पशुओं को LSDV मुक्त इलाकों से ही खरीदना चाहिए। नये पशुओं को कम से कम 28 दिन तक अलग बाड़े में रखने के बाद ही उन्हें अन्य पशुओं से मेल-मिलाप करने देना चाहिए। LSD के वायरस धूप और डिटर्जेंट युक्त लिपिड सॉल्वैंट्स के प्रति अति संवेदनशील हैं। लिहाज़ा, संक्रमित पशुओं को धूप से राहत मिलती है। इसके अलावा फिनाइल (2%), सोडियम हाइपोक्लोराइट (2-3%), आयोडीन यौगिक (1:33 तनुता), विरकानो (2%), क्वारेंटरी अमोनियम यौगिक (0.5%) जैसे पदार्थों के घोल से गाँठों और घावों की सफ़ाई करने से वायरस निष्क्रिय होने लगते हैं। कोई भी उपचार पशु चिकित्सक की सलाह से ही करना चाहिए।
LSD का महामारी (जानपदिक) विज्ञान
लम्पी त्वचा रोग के वायरस (LSDV) का सम्बन्ध विषाणुओं के पॉक्सविर्डी परिवार के ‘जीनस कैप्रिपोक्स’ वायरस से है। इनका आकार ईंटनुमा होता है। अभी तक इसके सिर्फ़ एक ही सीरोटाइप का पता चला है। इसकी भेड़ पॉक्स वायरस (STPV) और बकरी पॉक्स वायरस (GTPV) से निकटता ज़रूर है, लेकिन वंशानुगत गुण अलग-अलग हैं। इसीलिए पहले वायरस के प्रति बनी रोग प्रतिरोधकता दूसरे वायरस के साथ विपरीत प्रतिक्रियाएँ (cross reactions) देती हैं।
आमतौर पर LSD का प्रकोप विभिन्न वर्षों के अन्तराल पर महामारी का रूप धारण करता है। लेकिन यह किसी भी समय उभर सकता है। कई बार सही उपचार से संक्रमण पूरी तरह ख़त्म भी हो जाता है, लेकिन बुज़ुर्ग मवेशियों के लिए अक्सर ये जानलेवा साबित होता है। मवेशियों के अलावा LSD का प्रकोप एशियाई जलीय भैंसों और अफ्रीकी हिरन की प्रजातियों में भी पाया गया है। देसी नस्लों की तुलना में विदेशी नस्लों के मवेशी LSD के संक्रमण के प्रति ज़्यादा संवेदनशील पाये गये हैं। LSD की विभिन्न अवस्थाओँ में एक ही नस्ल में भिन्न-भिन्न लक्षण मिल सकते हैं।
इंसानों में नहीं फैलता LSD का वायरस
वातावरण में इस विषाणु को जीवित रखने वाली ‘कैरियर’ पशु के बारे में अभी जानकारी नहीं है, लेकिन भेड़-बकरियों और दुधारू मवेशियों के बीच इस वायरस का सह-अस्तित्व पाया गया है। हालाँकि इनकी भूमिकाएँ भी अभी अज्ञात हैं। इसीलिए विश्व पशु-स्वास्थ्य संगठन (OIE) के साल 2018 की अपनी एक रिपोर्ट में कहा कि महामारी विज्ञान (epidemiology) और वन्यजीवों पर LSDV के असर को लेकर गहन शोध की आवश्यकता है। अलबत्ता, मनुष्यों में LSD होने की अभी तक पुष्टि नहीं हुई है। बता दें कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की तरह OIE भी एक अन्तर-सरकारी संगठन है। ये दुनिया भर में पशु स्वास्थ्य में सुधार लाने के लिए उत्तरदायी है। भारत समेत 182 देश इसके सदस्य हैं। इसका मुख्यालय पेरिस में है।
कैप्रिपोक्सवायरस जीनस से संबंधित
अभी के लिए, ऐसा लगता है कि बाधित प्रतिरक्षा प्रणाली वाले मवेशियों में रोग की संवेदनशीलता अधिक है। इसमें आवारा जानवर या यहां तक कि गोशालाओं में रहने वाले लोग भी शामिल हैं जिन्हें ठीक से खाना नहीं दिया जाता है और उनकी देखभाल नहीं की जाती है। उस हद तक, दूध उत्पादन पर कोई तत्काल प्रभाव नहीं पड़ सकता है (भैंसों में भी एलएसडी की अधिक सूचना नहीं दी गई है)। इसके अलावा, यह संभव है कि मौजूदा उछाल का मुख्य कारण मानसून से वेक्टर आबादी में वृद्धि हो सकती है – और उसी कारण से कम हो सकती है। लेकिन यह केवल अभी कार्य करने और कोविड –19 के खिलाफ लड़ाई की तर्ज पर एक ठोस वैक्सीन-सह-जागरूकता अभियान शुरू करने की तात्कालिकता को जोड़ता है। डेयरी क्षेत्र, जो भारतीय कृषि से जोड़े गए सकल मूल्य का पांचवां हिस्सा है, को एक नए पुनरुत्थान के लिए तैयार रहने की जरूरत है जो जल्द से जल्द आ सकता है – घातक परिणामों के साथ।
प्राथमिकता के आधार पर तीन काम करने चाहिए। पहला है बकरी पॉक्स और भेड़ चेचक के टीकों की आपूर्ति बढ़ाना। चूंकि एलएसडी एक ही कैप्रिपोक्सवायरस जीनस से संबंधित है, इसलिए ये टीके पूर्व के खिलाफ कम से कम आंशिक क्रॉस-प्रोटेक्शन प्रदान कर सकते हैं, भले ही वह मवेशियों के लिए विशिष्ट हो। वर्तमान में, एलएसडी के खिलाफ मवेशियों को प्रशासित करने के लिए केवल बकरी चेचक के टीके को मंजूरी दी गई है। इसे भेड़ चेचक के टीकों पर भी लागू किया जा सकता है, जिसके लिए कई और निर्माता हैं। दूसरे, सरकार को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के हाल ही में विकसित लाइव एटेन्यूएटेड होमोलॉगस वैक्सीन के व्यावसायीकरण में तेजी लानी चाहिए, जिसे एलएसडी के खिलाफ पूर्ण सुरक्षा प्रदान करने के लिए कहा जाता है। यह बड़े पैमाने पर उत्पादन और रोल-आउट को सक्षम करने के लिए आपातकालीन उपयोग प्राधिकरण देने पर विचार कर सकता है, जैसा कि कोविड के टीकों के लिए है। तीसरा, टीकाकरण मिशन मोड पर किया जाना चाहिए, ऊपर से आने वाले धक्का के साथ न कि पशुपालन और डेयरी विभाग।
लम्पी स्कीन डिसीज (Lumpy Skin Disease):
ढेलेदार त्वचा रोग ( लम्पी स्कीन डिसीज – एलएसडी) गौवंशीय में होने वाला विषाणुजनित संक्रामक रोग है। जो कि पोक्स फेमिली के वायरस जिससे अन्य पशुओं में पाॅक्स (माता) रोग होता है। वातावरण में गर्मी एवं नमी के बढ़ने के कारण देष के विभिन्न प्रदेशों में जैसे मध्यप्रदेश, उड़िसा, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल के साथ-साथ हमारे प्रदेश छत्तीसगढ़ में भी पाया जा रहा है।
लम्पी स्किन डिजीज LSD रोग के लक्षण इस रोग से ग्रस्त पशु में 2–3 दिनों तक तेज बुखार रहता है। इसके साथ ही पूरे शरीर पर 2 से 3 से.मी. की सख्त गांठें उभर आती हैं। कई अन्य तरह के लक्षण जैसे कि मुँह एवं श्वास नली में जख्म, शारीरिक कमजोरी, लिम्फनोड (रक्षा प्रणाली का हिस्सा) की सूजन, पैरों में पानी भरना, दूध की मात्रा में कमी, गर्भपात, पशुओं में बांझपन मुख्यत: देखने को मिलता है। इस रोग के ज्यादातर मामलों में पशु 2 से 3 हफ्तों में ठीक हो जाता है, लेकिन दूध में कमी लम्बे समय तक बनी रहती है। अत्यधिक संक्रमण की स्थिति में पशुओं की मृत्यु भी संभव है, जो कि 1 से 5 प्रतिशत तक देखने को मिलती है। एलएसडी को कई प्रकार के रोगों के साथ भ्रमित किया जा सकता है, जिसमें स्यूडो लंपी स्किन डिजीज (बोवाइन हर्पीसवायरस 2), बोवाइन पैपुलर स्टोमाडीकोसिस शामिल हैं | इसलिए इस रोग की पुष्टि प्रयोगशाला में उपलब्ध परीक्षणों के माध्यम से वायरस डीएनए या उसकी एंटीबॉडी का पता लगाकर करनी चाहिए। पशुओं को इस रोग से बचाने के उपाय रोगी पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग रखना चाहिए, यदि फ़ार्म पर या नजदीक में किसी पशु में संक्रमण की जानकारी मिलती है, तो स्वस्थ पशु को हमेशा उनसे अलग रखना चाहिए। रोग के लक्षण दिखाने वाले पशुओं को नहीं खरीदना चाहिए, मेला, मंडी एवं प्रदर्शनी में पशुओं को नहीं ले जाना चाहिए। फ़ार्म में कीटों की संख्या पर काबू करने के उपाय करने चाहिए, मुख्यत: मच्छर, मक्खी, पिस्सू एवं चिंचडी का उचित प्रबंध करना चाहिए। रोगी पशुओं की जांच एवं इलाज में उपयोग हुए सामान को खुले में नहीं फेंकना चाहिए एवं फ़ालतू सामान को उचित प्रबंधन करके नष्ट कर देना चाहिए। यदि अपने फ़ार्म पर या आसपास किसी असाधारण लक्षण वाले पशु को देखते हैं, तो तुरंत नजदीकी पशु अस्पताल में इसकी जानकारी देनी चाहिए। एक फ़ार्म के श्रमिक को दुसरे फ़ार्म में नहीं जाना चाहिए, इसके साथ–साथ श्रमिक को अपने शरीर की साफ़–सफाई पर भी ध्यान देना चाहिए। संक्रमित पशुओं की देखभाल करने वाले श्रमिक, स्वस्थ पशुओं से दूरी बनाकर रहें या फिर नहाने के बाद साफ़ कपड़े पहनकर स्वस्थ पशुओं की देखभाल करें। पूरे फ़ार्म की साफ़–सफाई का उचित प्रबंध होना चाहिए, फर्श एवं दीवारों को अच्छे से साफ़ करके एक दीवारों की साफ़–सफाई के लिए फिनोल (2 प्रतिशत) या आयोडीनयुक्त कीटनाशक घोल (1:33) का उपयोग करना चाहिए। बर्तन एवं अन्य उपयोगी सामान को रसायन से कीटाणु रहित करना चाहिए। इसके लिए बर्तन साफ़ करने वाला डिटरजेंट पाउडर, सोडियम हाइपोक्लोराइड, (2–3 प्रतिशत) या कुआटर्नरी अमोनियम साल्ट (0.5 प्रतिशत) का इस्तेमाल करना चाहिए। यदि कोई पशु लम्बे समय तक त्वचा रोग से ग्रस्त होने के बाद मर जाता है, तो उसे दूर ले जाकर गड्डे में दबा देना चाहिए। जो सांड इस रोग से ठीक हो गए हों, उनकी खून एवं वीर्य की जांच प्रयोगशाला में करवानी चाहिए। यदि नतीजे ठीक आते हैं, उसके बाद ही उनके वीर्य का उपयोग करना चाहिए। यह भी पढ़ें पॉली हाउस, शेडनेट हाउस, जैविक खेती, सब्जियों एवं फूलों की खेती पर अनुदान हेतु आवेदन करें अभी तक इस रोग का टीका नहीं बना है, लेकिन फिर भी यह रोग बकरियों में होने वाले गोट पॉक्स की तरह के टीके से उपचारित किया जा सकता है। गाय–भैंसों को भी गोट पॉक्स का टिका लगाया जा सकता है एवं इसके परिणाम भी बहुत अच्छे मिलते हैं इसके साथ ही दुसरे पशुओं को रोग से बचाने के लिए संक्रमित पशु को एकदम अलग बांधे एवं बुखार और लक्षण के हिसाब से उसका इलाज करवाना चाहिए। इलाज के लिए इन बातों का रखें ध्यान यह रोग विषाणु से फैलता है, जिसके कारण इस रोग का कोई विशिष्ट इलाज नहीं है। संक्रमण की स्थिति में अन्य रोग से बचाव के लिए पशुओं का इलाज करना चाहिए। रोगी पशुओं का इलाज के दौरान अलग ही रखना चाहिए, रोगी पशुओं के बचाव के लिए जरूरत अनुसार एंटीबायोटिक दवाइओं का उपयोग किया जा सकता है। दवाईयों का उपयोग डॉक्टर की सलाह अनुसार ही करना चाहिए। यदि पशुओं को बुखार है, तो बुखार घटाने की दवाई दी जा सकती है। यदि पशुओं के ऊपर जख्म हो, तो उसके अनुसार दवाई लगानी चाहिए। पशुओं की खुराक में नरम चारा एवं आसानी से पचने वाले दाने का उपयोग करना चाहिए।
संक्रमण कैसे फैलता है:
स्वस्थ पशुओं को यह बिमारी एलएसडी संक्रमित पशुओं के सम्पर्क में आने से व वाहक मच्छर/टिक्स (चमोकन) से होता है। एलएसडी की वजह से दुधारू पशुओं में दुध उत्पादन एवं अन्य पशुओं की कार्यक्षमता कम हो जाती है।
लक्षण:
एक या दो दिन तेज बुखार, शरीर एवं पांव में सुजन, शरीर में गठान व चकते, गठान का झड़कर गिरना एवं घाव का निर्माण।
बचाव:
संक्रमित पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग रखे, पशुओं एवं पशुघर में टिक्स मारक दवा का उपयोग करें।
उपचार:
चूँकि एलएसडी विषाणु जनित रोग है तथा टीका एवं रोग विषेष औषधी न होने के कारण पशु चिकित्सक के परामर्ष से लक्षणात्मक उपचार किया जा सकता है। बुखार की स्थिति में पैरासिटामाल, सुजन एवं चर्म रोग की स्थिति में एन्टी हिस्टामिनिक एवं एन्टी इंफलामेट्री दवाईयां तथा द्वितीयक जीवाणु संक्रमण को रोकने हेतु 3-5 दिनों तक एन्टीवायोटिक दवाईयों का प्रयोग किया जा सकता है।
अपील:
इस रोग में पशु मृत्यु दर नगण्य है। पशुपालकों से आग्रह किया गया है कि एलएसडी से भयभीत न होकर बताये जा रहे तरीकों से पशुओं का बचाव व उपचार करावें। विशेष परिस्थितियों में निकटम पशु चिकित्सक से तत्काल सम्पर्क करें।
ICAR ने मवेशियों में ढेलेदार त्वचा रोग के उपचार के लिए टीका विकसित किया
कई राज्यों में मवेशियों में ढेलेदार त्वचा रोग तेजी से फैल रहा है। ऐसे में अब इसके उपचार की दिशा में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने एक बड़ी सफलता हासिल की है। आईसीएआर के दो संस्थानों ने मवेशियों के इस रोग के उपचार के लिए एक स्वदेशी टीका विकसित किया है।
केंद्र ने आईसीएआर के दो संस्थानों द्वारा विकसित इस टीके के वाणिज्यिकरण की योजना बनाई है, ताकि गांठदार त्वचा रोग (एलएसडी) को नियंत्रित किया जा सके। इससे छह राज्यों में कई मवेशियों की मौत हो गई है।
मुख्य बिंदु
- आईसीएआर-नेशनल रिसर्च सेंटर ऑन इक्वाइन (आईसीएआर-एनआरसीई), हिसार (हरियाणा) ने आईसीएआर-भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान (आईवीआरआई), इज्जतनगर, उत्तर प्रदेश के सहयोग से एक सजातीय जीवित-क्षीण एलएसडी वैक्सीन या टीका ‘‘लुंपी-प्रोवैकइंड’’ विकसित है।
- नई तकनीक को केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और केंद्रीय मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्री पुरुषोत्तम रूपाला ने राष्ट्रीय राजधानी में आयोजित एक कार्यक्रम में जारी किया।
- आईसीएआर के उप महानिदेशक (पशु विज्ञान) बी एन त्रिपाठी ने कहा कि दोनों संस्थान प्रति माह इस दवा की 5 लाख खुराक का उत्पादन कर सकते हैं।
- उन्होंने कहा कि सजातीय जीवित एलएसडी टीकों से प्रेरित प्रतिरक्षा क्षमता आमतौर पर एक वर्ष की न्यूनतम अवधि के लिए बनी रहती है।
- भारत में पहली बार साल 2019 में ओडिशा से एलएसडी रोग की सूचना मिली थी।