लाइम रोग– चिचड़ जनित बीमारी
नेहा परमार, रणधीर सिंह, हिना मलिक, शुमैला तस्कीन, सिमरनप्रीत कौर, जसबीर सिंह बेदी
सेंटर फॉर वन हेल्थ (Centre for One Health),
गुरु अंगद देव पशु चिकित्सा एवं पशु विज्ञान विश्वविद्यालय,
लुधियाना, पंजाब
भूमिका:
लाइम रोग एक महत्वपूर्ण उभरती हुई जूनोटिक बीमारी है, जो की बोरेलिया बर्गडोरफेरी नामक कीटाणु से होती है। यह रोग संक्रमित चिचड़ों (Ticks) के काटने से मनुष्यों को स्थानांतरित होती है। आमतौर पर यह चिचड़ (Ticks) जंगलो में रहने वाले जानवरों पर पाए जाते हैं। यह बीमारी मुख्यतः मनुष्यों की मांसपेशिओं, ह्रदय तंत्र, नसों के तंत्र (Nervous system) को प्रभावित करती है। यह रोग सबसे अधिक अमेरिका, यूरोप और एशिया जैसे महाद्वीपों में पाया जाता है। जलवायु परिवर्तन और वन्यजीवों की प्रचुरता इस बीमारी के फैलाव के मुख्य कारण हैं। वर्षा या तापमान में मौसमी उतार-चढ़ाव इस बीमारी को फ़ैलाने वाले चिचड़ों को फलने फूलने में मदद करते हैं जो की आगे बीमारी के फैलाव का कारण बनता है। यूरोप में लाइम रोग के सालाना लगभग 85,000 मामले सामने आते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में सालाना लगभग 300,000 लोग इस बीमारी से संक्रमित होते हैं। अब यह रोग वयस्कों के आलावा बच्चों को भी प्रभावित कर रहा है।
बीमारी का कारण:
लाइम रोग बोरेलिया बर्गडोरफेरी नामक कीटाणु के कारण होता है, जो की एक जूनोटिक टिक-जनित रोगज़नक़ है। आमतौर पर यह कीटाणु चूहों, गिलहरिओं, पक्षिओं और अन्य छोटे जानवरों में पाया जाता है। चिचड़ जब इन जीवों का खून पीते हैं तो यह कीटाणु चिचड़ों में स्थानांतरित हो जाता है और यही चिचड़ जब मनुष्यों का खून पीते हैं तो मनुष्यों को इस बीमारी से संक्रमित कर देते हैं। यह चिचड़ आमतौर पर झाड़ियों, लंबी घास, कूड़े या लकड़ी के ढेर में पाए जाते हैं। जंगली क्षेत्रों में पालतू कुत्तों और बिल्लिओं के घूमने से और मनुष्यों द्वारा झाडिओं की सफाई करने से यह चिचड़ शरीर पर चिपक कर संक्रमण का कारण बन सकते हैं। चिचड़ आम तौर पर जमीन के करीब पत्तियों या घास में रहते हैं और जब भी कोई व्यक्ति इन चिचड़ों के संपर्क में आता है तो यह चिचड़ तेजी से व्यक्ति के शरीर से चिपक जाते हैं और संक्रमण का कारण बनते हैं।
शहरीकरण भी मनुष्यों में लाइम रोग के प्रसार में सहायक हैं। रिहाइशी स्थानों के विस्तार के लिए जंगलो की कटाई हो रही है जिससे मनुष्यों और चिचड़ों के निवासस्थानों के बीच आपसी सम्पर्क बढ़ रहा है जो की इस बीमारी के फैलाव में उपयोगी हो सकती है । मानव विस्तार के परिणामस्वरूप उन शिकारी जानवरों में भी कमी आई है जो हिरणों के साथ-साथ चूहों और अन्य छोटे जानवरों का शिकार करते हैं । मेज़बान (Host) और रोग वाहक (vector) के साथ मानव संपर्क में वृद्धि के परिणामस्वरूप, रोग के संचरण की संभावना बहुत बढ़ गई है।
हाल ही में इस बीमारी की घटनाओं में वृद्धि देखी गई है और यह बीमारी अब सभी देशों से पाई जा रही है। इस बीमारी की प्रचुरता का श्रेय राष्ट्रों में लोगों के बढ़ते प्रवासन को भी दिया गया है। भारत के दृष्टिकोण से भी यह बीमारी अपने पैर पसार रही है। अब तक यह बीमारी हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, नागालैंड, मणिपुर, असम, कर्नाटक, केरल, बिहार, उत्तराखंड राज्यों में पाई गयी है। उत्तर भारत के एक राज्य, हरियाणा में लाइम रोग के उभरने का संभावित कारण खेतों में पाए जाने वाले चिचड़ हैं जो की ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले मनुष्यों को प्रभावित करते हैं। जो समुदाय भारी जंगली इलाकों में बने घरों में रहते हैं जहां की संक्रमित चिचड़ पाए जाते हैं, वह समुदाय विशेष रूप से इस रोग से संक्रमित होने के जोखिम में होते हैं।
लाइम रोग का संचरण चक्र:
मनुष्य |
चूहे |
पक्षी |
चिचड़ |
चिचड़ |
अंडे |
हिरण |
कुत्ता |
बिल्ली |
निम्फ |
चिचड़ी चिचड़ |
बीमारी के लक्षण:
प्रारंभिक चरण में (टिक के काटने के 3 से 30 दिनों के भीतर) बुखार, थकान, मांसपेशियों और जोड़ों में दर्द और ग्रंथियों (Lymph nodes) में सूजन होती हैं। चिचड़ के काटने वाले स्थान पर त्वचा में चकत्ते (rashes) हो जाते हैं जो की लगभग 70 – 80 प्रतिशत संक्रमित व्यक्तिओं में पाए जा सकते हैं। बाद के चरण में गंभीर सिरदर्द, गर्दन की जकड़न, गठिया, अनियमित दिल की धड़कन, नसों में दर्द और चेहरे का अधरंग (paralysis) शामिल हैं। इस बीमारी से एक बार उभरने के उपरांत यदि मनुष्य को चिचड़ दुबारा से काट लेते हैं तब भी यह संक्रमण मनुष्य को दुबारा हो सकता हैं क्युंकि इस बीमारी में बनने वाली प्रतिरोधक क्षमता ज्यादा समय तक नहीं रहती है। पशुओं जैसे गायों में इस बीमारी के कारण बुखार, लंगड़ापन, आँखों का रोग और चमड़ी का रोग हो जाता है। घोड़ों में अंधापन, दिमागी सूजन, चेहरे का पक्षाघात, गठिया एवं अनियमित दिल की धड़कन पाई जाती है। कुत्तों में इस बीमारी में बुखार, भूख न लगना, जोड़ों में दर्द या सूजन, लंगड़ापन, सूजी हुई ग्रन्थिआ और सुस्ती शामिल हैं। यदि कुत्तों में लाइम रोग का उपचार नहीं किया जाता है तो यह बीमारी गुर्दे, नसों के तंत्र और हृदय को नुकसान पहुंचा सकती है।
बीमारी की पहचान:
लाइम रोग की पहचान आमतौर पे मनुष्यों और जानवरों में पाए गए लक्षणों, त्वचा पर मौजूद चकतों द्वारा की जाती है। यदि त्वचा पर चकत्ते मौजूद नहीं होते हैं, तो प्रयोगशाला में खून की जांच द्वारा इस बीमारी के संक्रमण का पता लगाया जा सकता है। बोरेलिया बर्गडोरफेरी कीटाणु को जोखिम समूह 2 जीवाणु रोगजनक (risk group 2 bacterial pathogen) में वर्गीकृत किया गया है। इस बीमारी की पहचान बी एस एल-२ प्रयोगशाला परिस्थितियों में की जाती है। इस बीमारी की पहचान के लिए बी एस एल-२ प्रयोगशाला परिस्थितियों में कोट और दस्ताने सहित सुरक्षात्मक कपड़े पहने जाते हैं।
बीमारी का इलाज:
आम तौर पर शुरुआती चरण में बीमारी की सही से पहचान और उपयुक्त इलाज़ इस बीमारी के इलाज़ में सहायक होती है। सही समय पर जीवाणुनाशक दवाओं के प्रयोग से इस बीमारी पर पूर्णरूप से काबू पाया जा सकता है। वयस्कों में लाइम रोग के उपचार के लिए आमतौर पर डॉक्सीसाइक्लिन @ 100 मिलीग्राम प्रतिदिन दो बार या एमोक्सीसिलिन 500 मिलीग्राम दिन में तीन बार या सेफुरोक्साइम 500 मिलीग्राम प्रतिदिन दो बार इस्तेमाल की जाती हैं। परन्तु किस दवा का प्रयोग करना है यह स्वास्थ्य कर्मचारी की सलाह के अनुसार ही करना चाहिए।
मनुष्यों में रोकथाम एवं नियंत्रण:
लाइम रोग की रोकथाम के लिए मनुष्यों को मुख्य रूप से चिचड़ों के काटने से बचना चाहिए। चिचड़ों के काटने से बचने के लिए टिक रिपेलेंट और ऐसे कपड़ों का इस्तमाल करना चाहिए जिसमे शरीर के सभी अंग ढके रहें। यह चिचड़ हल्के रंग के कपड़ों पर स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं इसीलिए व्यक्तिओं को हल्के रंग के कपड़े पहनने चाहिए। यदि चिचड़ कहीं भी शरीर पर पाए जाते हैं, तो एक चिमटी द्वारा चिचड़ के सिर या मुंह को पकड़ कर, उसको धीरे से खींचकर हटा देना चाहिए। हटाए गए चिचड़ को एक पात्र में अल्कोहल डाल कर रख देना चाहिए या शौचालय में फ्लश कर देना चाहिए। इस बीमारी को फैलने से बचाने के लिए कीटाणुनाशक दवाएं जैसे 1% सोडियम हाइपोक्लोराइट या 70% इथेनॉल का प्रयोग किया जा सकता है, जो की बीमारी फ़ैलाने वाले बोरेलिया बर्गडोरफेरी कीटाणु को निष्क्रिय करने में मदद करते हैं। जब भी व्यक्ति या पालतू जानवर घर के अंदर आता हैं तो व्यक्ति को अपने कपड़ों और पालतू जानवर की जाँच करनी चाहिए ताकि कोई चिचड़ शरीर पे मौजूद न हो। विशेष रूप से चिचड़ों की उपस्थिति के लिए बगल, पैरों के बीच, घुटने के पीछे, नाभि, धड़ और बच्चों के कान, गर्दन और बालों में सावधानी से जाँच करनी चाहिए। इस बीमारी की रोकथाम के लिए दूर्वा-क्षेत्र की घास (Lawn grass), जंगली घास (weeds) और पत्तों के कूड़े को साफ़ करना चाहिए। चिचड़ों को मारने के लिए दूर्वा क्षेत्र वाले स्थान पर कीटनाशक (Acaricide) का छिड़काव करना चाहिए।
पशुओं में रोकथाम एवं नियंत्रण:
पशुओं में इस बीमारी के रोकथाम के लिए रोज़ाना जांच होनी चाहिए और यदि पशु के शरीर पर चिचड़ पाए जाते हैं तो चिचड़ों को पशु के शरीर से हटा देना चाहिए । चिचड़ की पहचान इस रोग की रोकथाम में सहायक हो सकती है। इस बीमारी की रोकथाम के लिए पालतू जानवरों को स्वतंत्र रूप से जंगलों या चिचड़ के आवासी स्थानों में घूमने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। कुत्तों में इस बीमारी को रोकने के लिए प्रभावशाली टिक-नियंत्रण दवाओं का उपयोग किया जाना चाहिए। पालतू कुत्तों को नियमित रूप से चिचड़ों की उपस्थिति के लिए जांचना चाहिए, खासकर जब कुत्ते लंबी घास वाले क्षेत्र में घूम कर आए हों। कुत्तों के बालों को नियमित रूप से कंघी या ब्रश किया जाना चाहिए। यदि चिचड़ कुत्ते के शरीर से नीचे गिरते हैं तो उन चिचड़ों को ध्यान से पकड़ कर कुत्ते से दूर कर देना चाहिए क्यूंकि यह चिचड़ दुबारा से शरीर पर चिपक सकते हैं।
निष्कर्ष:
इस बीमारी ने अबतक कई देशों में अपने पैर पसार लिए है। भारत में भी इस बीमारी के संक्रमण का विस्तार हो रहा है। आम जनता को इस बीमारी के बारे में जानकारी नहीं है। लेकिन यह बीमारी आगे के समय में काफी खतरनाक रूप ले सकती है। इस बीमारी से मनुष्यों के साथ साथ पशु भी प्रभावित हो रहे हैं। इस बीमारी के प्रति लोगों में उचित जागरूकता और उपयुक्त इलाज़ इस बीमारी के रोकथाम में मददगारक साबित हो सकती है। यदि कोई व्यक्ति या उसका पशु इस बीमारी से मिलते जुलते लक्षण दर्शा रहा हो तो जल्दी से जल्दी स्वस्थ्य अधिकारी से संपर्क करना चाहिए और जाँच एवं उपचार सम्बन्धी परामर्श लेना चाहिए।