शुष्क काल में गर्वित पशुओं का प्रबंधन

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शुष्क काल में गर्वित पशुओं का प्रबंधन

डॉ संजय कुमार मिश्रा1 एवं डॉ योगेंद्र सिंह पवार
1.पशु चिकित्सा अधिकारी चोमूहां मथुरा उत्तर प्रदेश

  1. मुख्य पशु चिकित्सा अधिकारी मथुरा

भारत की जनसंख्या के लगभग 70% लोग ग्रामीण क्षेत्र में निवास करते हैं। जिन का प्रमुख कार्य कृषि एवं पशुपालन है। वर्तमान में जनसंख्या बढ़ने के साथ प्रति व्यक्ति कृषि जोत कम हो रही है जिससे बड़ी संख्या में किसान, लघु एवं सीमांत कृषक तथा भूमिहीन की श्रेणी में आ गए हैं। वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में पशुपालन स्वरोजगार एवं आय का एक नियमित साधन बन चुका है। औद्योगिकरण एवं गांव गांव से शहरों में पलायन के कारण भारत में कृषि की हिस्सेदारी जीडीपी में घट रही है जबकि पशुधन द्वारा जीडीपी में हिस्सा बढ़ रहा है। इस समय डेयरी व्यवसाय आमदनी एवं विकास का उत्तम साधन बन चुका है। डेयरी पशु का दुग्ध उत्पादन पूर्व की तुलना में कई गुना बढ़ना विभिन्न प्रकार के डेयरी विकास कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक प्रतिबद्धता के साथ लागू करने से संभव हुआ है। वर्तमान में भारत विश्व में सर्वाधिक दुग्ध उत्पादक देश के रूप में प्रथम स्थान पर है परंतु प्रति पशु दुग्ध उत्पादन अपेक्षा से काफी कम है।
डेयरी पशु की दुग्ध उत्पादकता, पशु की गर्भावस्था एवं बच्चे के जन्म पर निर्भर करती है। गर्भकाल में गर्वित पशु को पशुपालक के लिए दुग्ध उत्पादन के साथ-साथ गर्भस्थ बच्चे की वृद्धि एवं स्वास्थ्य के लिए समुचित पोषण देने का कार्य भी करना पड़ता है। अतः इस अवधि में पशु के पोषण एवं आरामदायक आवास की व्यवस्था अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। पशु को गर्वित कराने की तिथि का लेखा जोखा एवं गर्भ परीक्षण करना भी अत्यंत आवश्यक है जिससे गर्वित होने पर पशु के ब्याने की संभावित तिथि का पता लगाया जा सके और पशु के बच्चा देने के समय विशेष ध्यान रखकर कई गंभीर घटनाओं से बचाया जा सकता है।
इस अवस्था में गर्वित पशु के शरीर में महत्वपूर्ण परिवर्तनों एवं अगले दुग्ध काल की तैयारी को ध्यान में रखते हुए पशु को ब्याने के लगभग 2 महीने पहले से दुग्ध निकालना बंद कर देना चाहिए। इस अवधि को ही शुष्क काल कहा जाता है। यद्यपि इस अवधि में पशु से दूध की प्राप्ति नहीं होती है। इसलिए पशुपालक अपने पशु पर ध्यान देने का महत्व नहीं समझते हैं जोकि नितांत हानिकारक है। गर्भकाल में पशु के विभिन्न परिवर्तनों की वजह से उत्पादन एवं विकास अत्यंत प्रभावित होता है। प्रमुख रूप से इस अवधि में आंतरिक परिवर्तन जिसमें थनों का विकास,खीस उत्पादन की तैयारी एवं दुग्ध उत्पादन हेतु तैयारी होती है जिसका दुग्ध उत्पादन में अपना विशेष महत्व है।
अक्सर गर्वित पशु ब्याने के कुछ दिन पूर्व दूध देना स्वयं बंद कर देते हैं। परंतु यदि दूध उतरना बंद न हो तो दूध का दुहान धीरे धीरे, कम मात्रा में करना चाहिए। प्रारंभिक सप्ताह में दिन में एक बार तथा अगले सप्ताह से एक दिन छोड़कर दूध निकाले। अंतिम दुहान के समय थनों में जीवाणु रोधी दवा से धोना चाहिए। पशुओं को ब्याने की अनुमानित तारीख से 60 दिन से लेकर 21 दिन तक तथा दूसरी श्रेणी में 2 से 20 दिन पहले से ब्याने के समय तक विशेष ध्यान रखें।

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आवास व्यवस्था:

पशु के रहने का स्थान खुला और ऐसी जगह पर हो जहां सूरज की रोशनी हर तरफ से आए ताकि फर्श हर समय सुखा रहे( मानक क्षेत्र2.5 से3.0 वर्ग मीटर प्रति पशु) सुव्यवस्थित आवास न होने की स्थिति में पशु को पाचन संबंधी समस्याएं हो सकती हैं।
स्वच्छ पानी की व्यवस्था छायादार स्थान पर हो और पशु को आसानी से उपलब्ध हो। फर्श पक्का एवं फिसलन रहित हो। विशेषता 24 घंटे में ब्याने की स्थिति वाले पशुओं के लिए जमीन पर पुआल बिछा दें। पशुओं को रोगी पशु से दूर रखें। विशेषकर गर्भपात हो चुके पशुओं की पशु चिकित्सक से नियमित जांच कराते रहें।

आहार व्यवस्था:

गर्वित पशुओं को ऐसा संतुलित आहार देना चाहिए किससे मां एवं पलने वाले बच्चे की संपूर्ण आवश्यकता पूरी हो सके। अधिक दाना देना भी हानिकारक हो सकता है। शुष्क कॉल के प्रारंभ में चारा एवं दाना समुचित मात्रा में खिलाना चाहिए परंतु ब्याने के समय आहार विशेष रुप से उसी प्रकार का दें जैसे दूध शुरू होते समय देते हैं। प्रारंभ में दाने की मात्रा 1 किलो जिसे अगले 2 सप्ताह में डेढ़ किलो तथा अंतिम 2 सप्ताह में ढाई किलो प्रति पशु देना चाहिए। खनिज लवण मिश्रण एवं विटामिंस को भी पशुओं को खिलावे। इसके अतिरिक्त निम्न बातों का विशेष ध्यान रखें:
१. चारा एवं दाने को नमी से यथासंभव दूर रखें एवं फफूंदी युक्त अथवा संक्रमित चारा न दें।
२. रुचिकर कर एवं सुपाच्य चारा ही देवें।
३. प्रोटीन युक्त मिश्रित आहार देना पोषक तत्वों के संतुलन के लिए लाभदायक है।
४. पर्याप्त मात्रा में फाइबर अर्थात रेशा लगभग 12 किलो प्रति पशु प्रतिदिन के हिसाब से देने से आमाशय के ,खिसकाव से बचाव संभव है।
५. आहार में 50 ग्राम कैल्शियम देने से मिल्क फीवर बीमारी से बचा जा सकता है।
६. पोटेशियम एवं सोडियम लवणों के उचित समन्वय वाले दाना देकर पशु को अयन शोथ अर्थात मैस्टाइटिस से बचाया जा सकता है।

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सामान्य प्रबंधन:

ब्याने के 60 से 21 दिन पूर्व तक दूध दुहना बंद करने से पहले, यह देख ले कि थन पूरी तरह से दूध रहित हो गए हैं।
नियमित एवं समयबद्ध टीकाकरण कराएं।
परजीवी से बचाव के लिए हर 3 महीने पर कृमि नाशक औषधि का पान कराएं। मैस्टाइटिस से बचाव हेतु थनों एवं अयन की विशेष देखभाल करें।
नियमित व्यायाम के लिए पशु को कुछ देर तक टहलाए।

सर्दियों में विशेष व्यवस्था:

पशु को सर्दी के प्रभाव से बचाने के लिए घर या बाड़े के अंदर ढके हुए स्थान के अंदर रखें। पशु को ढक कर रखने के साथ ही कमरे में ताजी हवा आने का प्रबंध भी अति आवश्यक है। अन्यथा अधिक नमी के कारण, पशु न्यूमोनिया से प्रभावित हो जावेगा। पशु के पास आग जलाकर न रखें अन्यथा पशु एवं पशुशाला में आग लगने के साथ पशु के दम घुटने का गंभीर खतरा पैदा हो सकता है।
गर्वित पशु को शुष्क काल में भी दुग्ध काल की भांति उत्तम पोषण, संतुलित आहार एवं उचित प्रबंधन द्वारा समन्वय स्थापित करते हुए ब्यॉत के पश्चात भी, स्वस्थ मां एवं बच्चा रखना संभव किया जा सकता है। इससे पशुओं की दुग्ध उत्पादन क्षमता का विकास कर पशुपालक लाभ लेकर अपनी आर्थिक एवं सामाजिक स्तर में बढ़ोतरी कर सकते हैं।

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