कृत्रिम गर्भाधान से लेकर बच्चा देने तक मादा पशु की देखभाल संबंधी आवश्यक जानकारी ।

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१.डॉ संजय कुमार मिश्र
पशु चिकित्सा अधिकारी चोमूहां मथुरा ।

२. प्रो०(डॉ) अतुल सक्सेना
निदेशक शोध, उत्तर प्रदेश पंडित दीन दयाल उपाध्याय पशु चिकित्सा विज्ञान विश्वविद्यालय एवम गौ- अनुसंधान संस्थान मथुरा

भारतवर्ष में गाय अपना एक महत्वपूर्ण धार्मिक एवं आर्थिक महत्त्व रखती है व पूज्यनीय है । वेदों के अनुसार गाय की उत्पत्ति समुद्र मंथन के पश्चात हुई इसे माता का स्वरूप माना गया है गाय के दूध को अमृत तुल्य माना गया है हमारे धार्मिक अनुष्ठानों में पंचामृत का बहुत महत्व है इसके पांच तत्व में तीन तत्व गाय का दूध दही व गी भी है । किसी भी मादा पशु को गर्भधारण के लिए गर्मी में आना जरूरी है अर्थात उसमें ऋतु चक्र चले। इस ऋतु चक्र में जब पशु गर्मी के लक्षण दिखाता है तो किसी नर की संगति में या फिर कृतिम विधि द्वारा मादा को गर्भित किया जाता है तदोपरांत अंडे व शुक्राणु का निषेचन होने से भ्रूण की स्थापना होती है। छोटी बछिया जब परिपक्वता को प्राप्त होती है तो ऋतु चक्र को प्रेषित करती है गायों की बछिया जब लगभग 16 महीने से लेकर 26 महीने तक परिपक्वता को प्राप्त कर लेती है । यह सब एक संतुलित आहार के ऊपर निर्भर है व परिपक्वता का समय इनके अभाव में बढ़ जाता है ठीक उसी प्रकार हर गाय जो कि सही रूप से बच्चा दे चुकी हो अर्थात उसके प्रसव वह उसके बाद के समय में कोई बीमारी ना हुई हो तो उसे भी 50 से 60 दिन ब्याने के बाद गर्मी में आना व गर्भधारण करना चाहिए यदि ऐसा नहीं होता है तो आर्थिक रूप से हानि होती है। जैसा कि आप जानते हैं कि बिना जनन के उत्पादन अर्थात यहां दूध से तात्पर्य है का बना रहना संभव नहीं है। अत़ हर गाय को समय पर बच्चा देना चाहिए ताकि उनसे अधिकांश समय तक दूध लिया जा सके। इसके लिए हमें एक नारे को याद रखना चाहिए कि वह यह है कि हर साल गाय बच्चा दे इसे हमें एक छोटे से गणित के रूप में समझना चाहिए। एक वर्ष में 365 दिन, गाय का गर्भकाल 280 दिन साल में से 280 दिन हटाने पर शेष 85 दिन इनमें से प्रसव के बाद 40 से 45 दिन तक गर्भ नहीं होना चाहिए। यह समय बच्चेदानी, बच्चा देने के उपरांत सिकुड़ कर अपने सामान्य स्थान पर वापस आने वह पुनः गर्भधारण की स्थिति में रखने में आमतौर से लेती है। 85 शेष दिनों से 45 दिन निकालने पर बचे हुए 40 दिन में दो गर्मियां आ सकती हैं। ब्याने के बाद लगभग 3 माह में गायों को गर्वित हो जाना चाहिए तभी मुख्य रूप से गायों को पालना लाभकारी सिद्ध हो सकता है । प्रजनन के इस नारे को साकार करने के लिए जरूरी है कि हमारा पशु गर्मी में आए वह हर गर्मी को सही आंक कर गर्भाधान के लिए प्रस्तुत किया जाए। आप सभी जानते हैं कि मादा पशु गर्मी में आने पर कुछ लक्षणों को प्रकट करती है जैसे –
१.योनि द्वार से तरल पदार्थ का स्राव जो पारदर्शी हो व, नीचे तक लटके ।
२.योनि द्वार का सूजना ।
3.योनि द्वार को खोलने पर अंदर की झिल्ली का हल्का गुलाबी होना ।
4.बार बार पेशाब करना, चारा कम खाना,दूध में कमी का आ जाना
५.अपने समूह के अन्य पशुओं पर चढ़ना व खुद पर भी समूह के अन्य पशुओं को चढ़ने देना इत्यादि इत्यादि। इन सभी लक्षणों में एक लक्षण अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि वह अंडाशय से अंडा निकलने के अत्यंत करीब होता है। यह लक्षण है जब गर्मी वाला पशु अपने ऊपर अन्य पशुओं को चढ़ने दे । इसे वैज्ञानिक भाषा में स्टैंडिंग हीट के नाम से जानते हैं इस लक्षण को पहचान कर अगले 12 घंटे में गर्भाधान कराने पर गर्भ ठहरने की संभावना सबसे, अधिक होती है। यहां यह भी बताना उचित होगा यह इसलिए भी जरूरी है की अंडाशय से निकले अंडे की अधिकतम आयु 6 से 12 घंटे है वह वही शुक्राणु की आयु 24 घंटे हैंl अतः सफल निषेचन के लिए शुक्राणु जोकि कृतिम अथवा प्रकृतिक विधि द्वारा पहुंचाए जाते हैं अंडे के निकलने से कुछ घंटे पूर्व मादा के जनन अंग में पहुंचने से सफल निषेचन की संभावना अत्याधिक रहती है। गर्भधारण की विधियों में कृत्रिम गर्भाधान एक उचित तरीका है,व इसे अपनाकर नस्ल सुधार की तरफ अग्रसर हुआ जा सकता है जहां एक ओर इस के अनेक लाभ लाभ हैं वह आर्थिक रूप से नर को पालने व रखरखाव के खर्च को यह कम करती है इस विधि को अपनाते वक्त गायों को सही गर्मी में पहचानना व गर्भाधान के लिए प्रस्तुत करना एक कठिन काम है। प्राकृतिक विधि से गर्भाधान कराने पर एक दूसरा बड़ा खतरा जननांगों में संक्रमण के फैलने का है। ऐसा होने पर भारी नुकसान गर्भपात के रूप में अथवा बांझपन की समस्या के रूप में सामने आता है जिस से निजात पाना एक टेढ़ी खीर है। इसके साथ साथ नर पशुओं को समय-समय पर जनन के लिए स्वस्थ रखने के लिए हर छह माह पर जांच की आवश्यकता भी होती है। गाय के गर्मी में आने व तत्पश्चात गर्भाधान कराने के बाद यदि गाय दोबारा गर्मी में नहीं आती है तो उसके गर्वित होने की काफी संभावना होती है। किंतु फिर भी गर्भाधान से 40 से 50 दिन बाद गर्भ की जांच करवानी जरूरी है। यदि परीक्षण के बाद भी कोई पशु खाली अर्थात गर्भित नहीं रह जाता है तो उसे उचित उपचार के द्वारा पुनः गर्मी में वापस लाने के प्रयास करने चाहिए। ध्यान रहे कि उपलब्ध सुविधाओं के अनुसार गर्भ की जांच जितनी जल्द से जल्द हो जाए उतना उत्तम है जिससे कि बिना गर्वित पशुओं को समय से दोबारा गर्मी पर लाया जा सके। प्राय आपने भी अपनी गायों को बार-बार गर्मी में आने के पश्चात गर्भाधान कराने पर भी गर्भधारण करने में असमर्थ देखा होगा। इस समस्या से जूझते समय कृपया ध्यान जरूर रखें कि आप की गाय क्या नियमित समय अंतराल पर गर्मी में आ रही है अथवा गर्मी में आने का समय निश्चित अंतराल पर नहीं है , वह जल्दी-जल्दी गर्मी में आ रही है। यदि दो गर्मी के बीच का अंतराल समान नहीं है व जल्दी-जल्दी गर्मी में आती है तो यह एक रोग है जिसे निमफोमेनिया कहा जाता है।
यदि दो गर्मियों के बीच का अंतराल समान है तो हमें गर्भाधान के समय को सही करना जरूरी है अर्थात सही गर्मी को आने पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए तो सही गर्मी पर गाय को गर्भाधान कराना चाहिए। नर पशु की जांच वीर्य की जांच व रखरखाव तथा गर्भाधान के कार्यों में लगे चिकित्सक की कुशलता की परख करना भी ऐसे में अत्यंत आवश्यक हो जाता है। गर्भ धारण किए हुए पशु को गर्भ काल के दौरान समय-समय पर गुदा परीक्षण के द्वारा जांच कर गर्भ के सही रूप से वृद्धि होने की जानकारी रखना भी अत्यंत आवश्यक है । इस प्रकार की जांच से कुछ समस्याओं से बचा जा सकता है। जैसे गर्भ में बच्चे का सूख जाना/ मम्मी फिकेशन ,बच्चेदानी का अंटा लग जाना बच्चेदानी में पानी का अधिक होना इत्यादि इत्यादि।
गर्भ काल के दौरान सबसे अधिक समस्या गर्भ के अंतिम दिनों में बेली का निकलना है यह समस्या अधिकांशत गर्भ के अंतिम तिमाही में देखने को मिलती है। इसके दौरान बच्चेदानी के बाहर के हिस्से अर्थात वजाइना व बच्चेदानी का मुंह योनि द्वार से बाहर आ जाता है वह मांस के लोथड़े के रूप में बाहर प्रकट होता है जिसे बेली के नाम से जाना जाता है। यह मांस का लोथड़ा मांसाहारी पशु जैसे कुत्ता व पक्षियों जैसे कौवा को आकर्षित करता है जो कि इसे अपना आहार मानते हुए नुकसान पहुंचाते हैं। इनके द्वारा नुकसान पहुंचाने से अत्याधिक रक्त स्राव होता है व समय से उपचार न मिलने से पशु की मृत्यु होना भी संभव है। उपचार के बाद भी फटे स्थान को सिलने से ब्याने के वक्त समस्या उत्पन्न होने की संभावना होती है अधिक समय तक यदि यह प्रोलेप्स बना रहता है तो इसमें सूजन आती है ,रक्त का प्रवाह बाधित होता है ,वातावरण में स्थित विषाणु व जीवाणु इस पर अपना प्रभाव डालते हैं परिणाम स्वरूप पसु को ठीक होने में समय लगता हैं, मूतर बी एकत्रित होता रहता है। यह सब पशु की एेटन को और बढ़ाने में वह अधिक समय तक बने रहने के लिए मजबूर करती है। इस रोग से बचने के लिए गाय के गर्भ काल के अंतिम तिमाही में पशु को खड़िया और नमक का सेवन उसके दाने में प्रतिदिन 25 से 50 ग्राम के हिसाब से दिया जा सकता है।। हड्डी के चूर्ण को भी हिसाब में देना एक उत्तम उपाय है । बाजार में उपलब्ध कैल्शियम और फास्फोरस मिश्रित अच्छी दवाओं को भी 25 से 50 मिलीलीटर प्रतिदिन के हिसाब से दिया जा सकता है सावधानी बस गाय को कभी भी 24 घंटे से ज्यादा रखा हुआ चारा नहीं खिलाए। कवक लगे चारे को नहीं देना चाहिए। कटे-फटे अनाज को जो कि काफी समय से गोदामों में रखे हुए हो उसे नहीं देना चाहिए इनमें फाइटोएस्ट्रोजन होने के कारण यह पशु को बेली फेंकने में सहायक सिद्ध होते हैं। यदि बेली निकल जाती है तो कुछ बातों का अवश्य ध्यान रखें। निकले हुए हिस्से को गीले कपड़े से ढक के जिस जगह आपका पशु बंधा हो वहां किसी भी प्रकार के कृषि यंत्र इत्यादि ना हो। खड़े होने पर बेली के इन यंत्रों से टकराने पर फटने का डर बना रहता है। पशु को खुले स्थान पर बांधे। यदि बेली को निकले हुए 6 से 7 घंटे से अधिक हो गए हैं तो निकले हुए भाग को सवच कपड़े की मदद से पूछ की तरफ ऊपर उठाएं ऐसा करने से रुका हुआ मूत्र मूत्राशय से बाहर निकल आएगा व पशु आराम महसूस करेगा।। जब पशु ब्याने को हो जिसे कि आप कुछ महत्वपूर्ण लक्षणों जैसे दूध का थनों में उतरना, पुट्ठे का टूटना ,योनि का शिथिल पड़ जाना इत्यादि से पहचान कर सकते हैं यह अवश्य ध्यान रखें कि जहां पर पशु रह रहा हो उसके आसपास साफ-सफाई का अच्छा प्रबंध हो। हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि ब्याने के बाद होने वाले रोगों में ब्याने के समय की स्वच्छता न होना एक प्रमुख कारण होता है वहीं ब्याने के समय पशु की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी काफी कम हो जाती है यह सब रोग ग्रहण करने में मददगार साबित होते हैं।। ब्याने के पूरे लक्षणों के प्रकट होने के बाद यदि पशु दर्द ले,व दर्द लेने की प्रक्रिया को एक घंटा से अधिक हो जाए तो तुरंत पशु चिकित्सक को दिखाना आवश्यक होता है। यदि दर्द लेने के बाद व पानी की थैली फूट जाने के पश्चात भी बच्चे का कोई अंग इत्यादि योनि द्वार पर प्रकट ना हो तो भी तुरंत चिकित्सक को दिखाना आवश्यक है। कभी भी बच्चे के योनि द्वार से निकले हुए पैर खींचने की कोशिश ना करें। यदि पैर के साथ बच्चे का मुख आ रहा हो तो पैर के साथ सिर को खींचकर बच्चे को निकालने में सहायता की जा सकती है।। ब्याने के समय आई किसी भी दिक्कत को एक पशु चिकित्सक की मदद से ही सुलजाना एक उचित वह समझदारी भरा उपाय है। अनाड़ी व्यक्ति से छेड़छाड़ करवाने से मां व बच्चे दोनों की जान का खतरा रहता है।।
बच्चा देने के बाद जल्द से जल्द अगले 24 घंटों में बच्चे को मां का दूध जिसे पेबसी खीस या कोलोस्ट्रम कहते हैं थोड़ी-थोड़ी अंतर पर अधिकतम पिलाना चाहिए इस समय बच्चे की आंत से दूध में छिपे प्रतिरोधक तत्व ज्यादा से ज्यादा शोषित होते हैं जो कि इसे आगे के जीवन में रोगों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न करते हैं। यदि किसी बच्चे की मां की मृत्यु हो जाए तो उसे अन्य मां जो कि हाल में ही ब्याई हो, के दूध का सेवन करा सकते हैं। आप किसी मां के कोलोस्ट्रम को ठंडे तापक्रम में जमा कर अन्य पैदा होने वाले बच्चे के लिए उपयोग में ला सकते हैं।। ब्याने के बाद पशु एक विशेष प्रकार का चटाव करता है जोकि उसके बच्चेदानी के सिकुड़ने के लक्षण को दर्शाता है यह चटाव आमतौर पर 7 से 10 दिन तक रहता है । यदि लंबे समय तक चटाव बना रहे व उसमे सफेद पन आ जाए तो उसे एक रोग की शुरुआत मानना चाहिए जिसे गर्भाशय शोध या मेट्राइटिस कहां जाता है ऐसा होने पर दूध का उत्पादन धीरे-धीरे कम होने लगता है पशु देर से गर्मी पर आता है। इलाज न कराने पर रोग घातक हो सकता है । पुनः दुग्ध उत्पादन के बढ़ाने में अत्यंत कठिनाई रहती है। अगले गर्भ को ठहरने में भी परेशानी आती हैं।।
ब्याने के बाद जेर का रुकना भी एक आम बीमारी है इससे बचने के लिए पसु को स्वस्थ रखना व अंतिम तिमाही में संतुलित आहार देना अनिवार्य है। चारे में खड़िया व नमक का सेवन प्रतिदिन कराना चाहिए। जेर के रुकने पर बच्चे को दूध पिलाएं यह जेर को निकालने में मददगार सिद्ध होता है। जेर रुक जाने पर यदि हाथ से निकलवाना पड़े तो जितना देर से जेर निकाला जाए उतना ही लाभदायक रहेगा। इसे घणा की दृष्टि से ना देखें। जेर निकलवाने के बाद पूर्ण उपचार करवाना उचित उपाय है। गर्भपात होने पर जेर रुकने की संभावना बहुत अधिक रहती है वह इसे किसी प्रकार की दवाओं से नहीं निकाला जा सकता है।। जेर रुकने से गर्भाशय सोत या मेट्राइटिस की संभावना बनी रहती है। मेट्राइटिस,जेर रुकना, बच्चे का फंसना, गर्भपात इत्यादि होने पर पशु के गमी के चक्र को दोबारा शुरू होने में देर लगती है अत इन रोगों से तुरंत निपटना चाहिए।। एक साधारण तरीके से ब्याई गाय ब्याने के लगभग 25 से 35 दिन के भीतर गर्मी के लक्षण दर्शाती है। किंतु कम से कम 45 से 50 दिन बाद ही गर्वित करवाना चाहिए। यदि पशु ब्याने के बाद 45 से 50 दिन तक गर्मी में ना आए तो पशु चिकित्सक को दिखाना चाहिए।। हमें कभी भी यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा पशु यदि आवश्यकता से अधिक समय तक बिना गर्भ धारण किए रहेगा तो यह हमें आर्थिक रूप से नुकसान पहुंचाता है।।।
निष्कर्ष रूप में अपने मादा पशु से निरंतर दूध प्राप्त करने के लिए हमें उपरोक्त बातों पर गहन तरीके से विचार एवं कार्य करना चाहिए। याद रहे हमारा लक्ष्य हर गाय से 1 वर्ष में एक बच्चे की प्राप्ति होनी चाहिए तभी हम आर्थिक रूप से गोपालन के क्षेत्र में समृद्ध होंगे ।कृत्रिम गर्भाधान से लेकर बच्चा देने तक मादा पशु की देखभाल संबंधी आवश्यक जानकारी ।
१.डॉ संजय कुमार मिश्र
पशु चिकित्सा अधिकारी चोमूहां मथुरा ।

READ MORE :  पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान की संपूर्ण जानकारी

२. प्रो०(डॉ) अतुल सक्सेना
निदेशक शोध, उत्तर प्रदेश पंडित दीन दयाल उपाध्याय पशु चिकित्सा विज्ञान विश्वविद्यालय एवम गौ- अनुसंधान संस्थान मथुरा

भारतवर्ष में गाय अपना एक महत्वपूर्ण धार्मिक एवं आर्थिक महत्त्व रखती है व पूज्यनीय है । वेदों के अनुसार गाय की उत्पत्ति समुद्र मंथन के पश्चात हुई इसे माता का स्वरूप माना गया है गाय के दूध को अमृत तुल्य माना गया है हमारे धार्मिक अनुष्ठानों में पंचामृत का बहुत महत्व है इसके पांच तत्व में तीन तत्व गाय का दूध दही व गी भी है । किसी भी मादा पशु को गर्भधारण के लिए गर्मी में आना जरूरी है अर्थात उसमें ऋतु चक्र चले। इस ऋतु चक्र में जब पशु गर्मी के लक्षण दिखाता है तो किसी नर की संगति में या फिर कृतिम विधि द्वारा मादा को गर्भित किया जाता है तदोपरांत अंडे व शुक्राणु का निषेचन होने से भ्रूण की स्थापना होती है। छोटी बछिया जब परिपक्वता को प्राप्त होती है तो ऋतु चक्र को प्रेषित करती है गायों की बछिया जब लगभग 16 महीने से लेकर 26 महीने तक परिपक्वता को प्राप्त कर लेती है । यह सब एक संतुलित आहार के ऊपर निर्भर है व परिपक्वता का समय इनके अभाव में बढ़ जाता है ठीक उसी प्रकार हर गाय जो कि सही रूप से बच्चा दे चुकी हो अर्थात उसके प्रसव वह उसके बाद के समय में कोई बीमारी ना हुई हो तो उसे भी 50 से 60 दिन ब्याने के बाद गर्मी में आना व गर्भधारण करना चाहिए यदि ऐसा नहीं होता है तो आर्थिक रूप से हानि होती है। जैसा कि आप जानते हैं कि बिना जनन के उत्पादन अर्थात यहां दूध से तात्पर्य है का बना रहना संभव नहीं है। अत़ हर गाय को समय पर बच्चा देना चाहिए ताकि उनसे अधिकांश समय तक दूध लिया जा सके। इसके लिए हमें एक नारे को याद रखना चाहिए कि वह यह है कि हर साल गाय बच्चा दे इसे हमें एक छोटे से गणित के रूप में समझना चाहिए। एक वर्ष में 365 दिन, गाय का गर्भकाल 280 दिन साल में से 280 दिन हटाने पर शेष 85 दिन इनमें से प्रसव के बाद 40 से 45 दिन तक गर्भ नहीं होना चाहिए। यह समय बच्चेदानी, बच्चा देने के उपरांत सिकुड़ कर अपने सामान्य स्थान पर वापस आने वह पुनः गर्भधारण की स्थिति में रखने में आमतौर से लेती है। 85 शेष दिनों से 45 दिन निकालने पर बचे हुए 40 दिन में दो गर्मियां आ सकती हैं। ब्याने के बाद लगभग 3 माह में गायों को गर्वित हो जाना चाहिए तभी मुख्य रूप से गायों को पालना लाभकारी सिद्ध हो सकता है । प्रजनन के इस नारे को साकार करने के लिए जरूरी है कि हमारा पशु गर्मी में आए वह हर गर्मी को सही आंक कर गर्भाधान के लिए प्रस्तुत किया जाए। आप सभी जानते हैं कि मादा पशु गर्मी में आने पर कुछ लक्षणों को प्रकट करती है जैसे –
१.योनि द्वार से तरल पदार्थ का स्राव जो पारदर्शी हो व, नीचे तक लटके ।
२.योनि द्वार का सूजना ।
3.योनि द्वार को खोलने पर अंदर की झिल्ली का हल्का गुलाबी होना ।
4.बार बार पेशाब करना, चारा कम खाना,दूध में कमी का आ जाना
५.अपने समूह के अन्य पशुओं पर चढ़ना व खुद पर भी समूह के अन्य पशुओं को चढ़ने देना इत्यादि इत्यादि। इन सभी लक्षणों में एक लक्षण अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि वह अंडाशय से अंडा निकलने के अत्यंत करीब होता है। यह लक्षण है जब गर्मी वाला पशु अपने ऊपर अन्य पशुओं को चढ़ने दे । इसे वैज्ञानिक भाषा में स्टैंडिंग हीट के नाम से जानते हैं इस लक्षण को पहचान कर अगले 12 घंटे में गर्भाधान कराने पर गर्भ ठहरने की संभावना सबसे, अधिक होती है। यहां यह भी बताना उचित होगा यह इसलिए भी जरूरी है की अंडाशय से निकले अंडे की अधिकतम आयु 6 से 12 घंटे है वह वही शुक्राणु की आयु 24 घंटे हैंl अतः सफल निषेचन के लिए शुक्राणु जोकि कृतिम अथवा प्रकृतिक विधि द्वारा पहुंचाए जाते हैं अंडे के निकलने से कुछ घंटे पूर्व मादा के जनन अंग में पहुंचने से सफल निषेचन की संभावना अत्याधिक रहती है। गर्भधारण की विधियों में कृत्रिम गर्भाधान एक उचित तरीका है,व इसे अपनाकर नस्ल सुधार की तरफ अग्रसर हुआ जा सकता है जहां एक ओर इस के अनेक लाभ लाभ हैं वह आर्थिक रूप से नर को पालने व रखरखाव के खर्च को यह कम करती है इस विधि को अपनाते वक्त गायों को सही गर्मी में पहचानना व गर्भाधान के लिए प्रस्तुत करना एक कठिन काम है। प्राकृतिक विधि से गर्भाधान कराने पर एक दूसरा बड़ा खतरा जननांगों में संक्रमण के फैलने का है। ऐसा होने पर भारी नुकसान गर्भपात के रूप में अथवा बांझपन की समस्या के रूप में सामने आता है जिस से निजात पाना एक टेढ़ी खीर है। इसके साथ साथ नर पशुओं को समय-समय पर जनन के लिए स्वस्थ रखने के लिए हर छह माह पर जांच की आवश्यकता भी होती है। गाय के गर्मी में आने व तत्पश्चात गर्भाधान कराने के बाद यदि गाय दोबारा गर्मी में नहीं आती है तो उसके गर्वित होने की काफी संभावना होती है। किंतु फिर भी गर्भाधान से 40 से 50 दिन बाद गर्भ की जांच करवानी जरूरी है। यदि परीक्षण के बाद भी कोई पशु खाली अर्थात गर्भित नहीं रह जाता है तो उसे उचित उपचार के द्वारा पुनः गर्मी में वापस लाने के प्रयास करने चाहिए। ध्यान रहे कि उपलब्ध सुविधाओं के अनुसार गर्भ की जांच जितनी जल्द से जल्द हो जाए उतना उत्तम है जिससे कि बिना गर्वित पशुओं को समय से दोबारा गर्मी पर लाया जा सके। प्राय आपने भी अपनी गायों को बार-बार गर्मी में आने के पश्चात गर्भाधान कराने पर भी गर्भधारण करने में असमर्थ देखा होगा। इस समस्या से जूझते समय कृपया ध्यान जरूर रखें कि आप की गाय क्या नियमित समय अंतराल पर गर्मी में आ रही है अथवा गर्मी में आने का समय निश्चित अंतराल पर नहीं है , वह जल्दी-जल्दी गर्मी में आ रही है। यदि दो गर्मी के बीच का अंतराल समान नहीं है व जल्दी-जल्दी गर्मी में आती है तो यह एक रोग है जिसे निमफोमेनिया कहा जाता है।
यदि दो गर्मियों के बीच का अंतराल समान है तो हमें गर्भाधान के समय को सही करना जरूरी है अर्थात सही गर्मी को आने पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए तो सही गर्मी पर गाय को गर्भाधान कराना चाहिए। नर पशु की जांच वीर्य की जांच व रखरखाव तथा गर्भाधान के कार्यों में लगे चिकित्सक की कुशलता की परख करना भी ऐसे में अत्यंत आवश्यक हो जाता है। गर्भ धारण किए हुए पशु को गर्भ काल के दौरान समय-समय पर गुदा परीक्षण के द्वारा जांच कर गर्भ के सही रूप से वृद्धि होने की जानकारी रखना भी अत्यंत आवश्यक है । इस प्रकार की जांच से कुछ समस्याओं से बचा जा सकता है। जैसे गर्भ में बच्चे का सूख जाना/ मम्मी फिकेशन ,बच्चेदानी का अंटा लग जाना बच्चेदानी में पानी का अधिक होना इत्यादि इत्यादि।
गर्भ काल के दौरान सबसे अधिक समस्या गर्भ के अंतिम दिनों में बेली का निकलना है यह समस्या अधिकांशत गर्भ के अंतिम तिमाही में देखने को मिलती है। इसके दौरान बच्चेदानी के बाहर के हिस्से अर्थात वजाइना व बच्चेदानी का मुंह योनि द्वार से बाहर आ जाता है वह मांस के लोथड़े के रूप में बाहर प्रकट होता है जिसे बेली के नाम से जाना जाता है। यह मांस का लोथड़ा मांसाहारी पशु जैसे कुत्ता व पक्षियों जैसे कौवा को आकर्षित करता है जो कि इसे अपना आहार मानते हुए नुकसान पहुंचाते हैं। इनके द्वारा नुकसान पहुंचाने से अत्याधिक रक्त स्राव होता है व समय से उपचार न मिलने से पशु की मृत्यु होना भी संभव है। उपचार के बाद भी फटे स्थान को सिलने से ब्याने के वक्त समस्या उत्पन्न होने की संभावना होती है अधिक समय तक यदि यह प्रोलेप्स बना रहता है तो इसमें सूजन आती है ,रक्त का प्रवाह बाधित होता है ,वातावरण में स्थित विषाणु व जीवाणु इस पर अपना प्रभाव डालते हैं परिणाम स्वरूप पसु को ठीक होने में समय लगता हैं, मूतर बी एकत्रित होता रहता है। यह सब पशु की एेटन को और बढ़ाने में वह अधिक समय तक बने रहने के लिए मजबूर करती है। इस रोग से बचने के लिए गाय के गर्भ काल के अंतिम तिमाही में पशु को खड़िया और नमक का सेवन उसके दाने में प्रतिदिन 25 से 50 ग्राम के हिसाब से दिया जा सकता है।। हड्डी के चूर्ण को भी हिसाब में देना एक उत्तम उपाय है । बाजार में उपलब्ध कैल्शियम और फास्फोरस मिश्रित अच्छी दवाओं को भी 25 से 50 मिलीलीटर प्रतिदिन के हिसाब से दिया जा सकता है सावधानी बस गाय को कभी भी 24 घंटे से ज्यादा रखा हुआ चारा नहीं खिलाए। कवक लगे चारे को नहीं देना चाहिए। कटे-फटे अनाज को जो कि काफी समय से गोदामों में रखे हुए हो उसे नहीं देना चाहिए इनमें फाइटोएस्ट्रोजन होने के कारण यह पशु को बेली फेंकने में सहायक सिद्ध होते हैं। यदि बेली निकल जाती है तो कुछ बातों का अवश्य ध्यान रखें। निकले हुए हिस्से को गीले कपड़े से ढक के जिस जगह आपका पशु बंधा हो वहां किसी भी प्रकार के कृषि यंत्र इत्यादि ना हो। खड़े होने पर बेली के इन यंत्रों से टकराने पर फटने का डर बना रहता है। पशु को खुले स्थान पर बांधे। यदि बेली को निकले हुए 6 से 7 घंटे से अधिक हो गए हैं तो निकले हुए भाग को सवच कपड़े की मदद से पूछ की तरफ ऊपर उठाएं ऐसा करने से रुका हुआ मूत्र मूत्राशय से बाहर निकल आएगा व पशु आराम महसूस करेगा।। जब पशु ब्याने को हो जिसे कि आप कुछ महत्वपूर्ण लक्षणों जैसे दूध का थनों में उतरना, पुट्ठे का टूटना ,योनि का शिथिल पड़ जाना इत्यादि से पहचान कर सकते हैं यह अवश्य ध्यान रखें कि जहां पर पशु रह रहा हो उसके आसपास साफ-सफाई का अच्छा प्रबंध हो। हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि ब्याने के बाद होने वाले रोगों में ब्याने के समय की स्वच्छता न होना एक प्रमुख कारण होता है वहीं ब्याने के समय पशु की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी काफी कम हो जाती है यह सब रोग ग्रहण करने में मददगार साबित होते हैं।। ब्याने के पूरे लक्षणों के प्रकट होने के बाद यदि पशु दर्द ले,व दर्द लेने की प्रक्रिया को एक घंटा से अधिक हो जाए तो तुरंत पशु चिकित्सक को दिखाना आवश्यक होता है। यदि दर्द लेने के बाद व पानी की थैली फूट जाने के पश्चात भी बच्चे का कोई अंग इत्यादि योनि द्वार पर प्रकट ना हो तो भी तुरंत चिकित्सक को दिखाना आवश्यक है। कभी भी बच्चे के योनि द्वार से निकले हुए पैर खींचने की कोशिश ना करें। यदि पैर के साथ बच्चे का मुख आ रहा हो तो पैर के साथ सिर को खींचकर बच्चे को निकालने में सहायता की जा सकती है।। ब्याने के समय आई किसी भी दिक्कत को एक पशु चिकित्सक की मदद से ही सुलजाना एक उचित वह समझदारी भरा उपाय है। अनाड़ी व्यक्ति से छेड़छाड़ करवाने से मां व बच्चे दोनों की जान का खतरा रहता है।।
बच्चा देने के बाद जल्द से जल्द अगले 24 घंटों में बच्चे को मां का दूध जिसे पेबसी खीस या कोलोस्ट्रम कहते हैं थोड़ी-थोड़ी अंतर पर अधिकतम पिलाना चाहिए इस समय बच्चे की आंत से दूध में छिपे प्रतिरोधक तत्व ज्यादा से ज्यादा शोषित होते हैं जो कि इसे आगे के जीवन में रोगों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न करते हैं। यदि किसी बच्चे की मां की मृत्यु हो जाए तो उसे अन्य मां जो कि हाल में ही ब्याई हो, के दूध का सेवन करा सकते हैं। आप किसी मां के कोलोस्ट्रम को ठंडे तापक्रम में जमा कर अन्य पैदा होने वाले बच्चे के लिए उपयोग में ला सकते हैं।। ब्याने के बाद पशु एक विशेष प्रकार का चटाव करता है जोकि उसके बच्चेदानी के सिकुड़ने के लक्षण को दर्शाता है यह चटाव आमतौर पर 7 से 10 दिन तक रहता है । यदि लंबे समय तक चटाव बना रहे व उसमे सफेद पन आ जाए तो उसे एक रोग की शुरुआत मानना चाहिए जिसे गर्भाशय शोध या मेट्राइटिस कहां जाता है ऐसा होने पर दूध का उत्पादन धीरे-धीरे कम होने लगता है पशु देर से गर्मी पर आता है। इलाज न कराने पर रोग घातक हो सकता है । पुनः दुग्ध उत्पादन के बढ़ाने में अत्यंत कठिनाई रहती है। अगले गर्भ को ठहरने में भी परेशानी आती हैं।।
ब्याने के बाद जेर का रुकना भी एक आम बीमारी है इससे बचने के लिए पसु को स्वस्थ रखना व अंतिम तिमाही में संतुलित आहार देना अनिवार्य है। चारे में खड़िया व नमक का सेवन प्रतिदिन कराना चाहिए। जेर के रुकने पर बच्चे को दूध पिलाएं यह जेर को निकालने में मददगार सिद्ध होता है। जेर रुक जाने पर यदि हाथ से निकलवाना पड़े तो जितना देर से जेर निकाला जाए उतना ही लाभदायक रहेगा। इसे घणा की दृष्टि से ना देखें। जेर निकलवाने के बाद पूर्ण उपचार करवाना उचित उपाय है। गर्भपात होने पर जेर रुकने की संभावना बहुत अधिक रहती है वह इसे किसी प्रकार की दवाओं से नहीं निकाला जा सकता है।। जेर रुकने से गर्भाशय सोत या मेट्राइटिस की संभावना बनी रहती है। मेट्राइटिस,जेर रुकना, बच्चे का फंसना, गर्भपात इत्यादि होने पर पशु के गमी के चक्र को दोबारा शुरू होने में देर लगती है अत इन रोगों से तुरंत निपटना चाहिए।। एक साधारण तरीके से ब्याई गाय ब्याने के लगभग 25 से 35 दिन के भीतर गर्मी के लक्षण दर्शाती है। किंतु कम से कम 45 से 50 दिन बाद ही गर्वित करवाना चाहिए। यदि पशु ब्याने के बाद 45 से 50 दिन तक गर्मी में ना आए तो पशु चिकित्सक को दिखाना चाहिए।। हमें कभी भी यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा पशु यदि आवश्यकता से अधिक समय तक बिना गर्भ धारण किए रहेगा तो यह हमें आर्थिक रूप से नुकसान पहुंचाता है।।।
निष्कर्ष रूप में अपने मादा पशु से निरंतर दूध प्राप्त करने के लिए हमें उपरोक्त बातों पर गहन तरीके से विचार एवं कार्य करना चाहिए। याद रहे हमारा लक्ष्य हर गाय से 1 वर्ष में एक बच्चे की प्राप्ति होनी चाहिए तभी हम आर्थिक रूप से गोपालन के क्षेत्र में समृद्ध होंगे ।

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