दुधारू पशुओं में थनैला (Mastitis) रोग
डॉ.विनय कुमार एवं डॉ.अशोक कुमार
पशु विज्ञान केंद्र, रतनगढ़ (चूरु)
राजस्थान पशु चिकित्सा और पशु विज्ञान विश्वविद्यालय, बीकानेर
थनैला मुख्य रूप से दुधारू पशुओं के थन की बीमारी है। इस बीमारी से ग्रसित पशु का जो दूध होता है उसका रंग और प्रकृति बदल जाती है। थन में सूजन, दूध में छिछड़े, दूध फट के आना, मवाद आना या पस आना जैसे लक्षण दिखाई देते है।थनैला रोग एक जीवाणु जनित रोग है। यह रोग ज्यादातर दुधारू पशु गाय, भैंस, बकरी को होता है। जब मौसम में नमी अधिक होती है तब इस बीमारी का प्रकोप और भी बढ़ जाता है। देसी गायों की अपेक्षा ज़्यादा दूध देने वाली संकर नस्ल की विदेशी गायों पर इस बीमारी का हमला ज़्यादा होता है। थनैला एक ऐसी बीमारी है, जिसे पूरी तरह से मिटाया नहीं जा सकता, लेकिन सावधानियों से इसे घटा ज़रूर सकते हैं। थनैला से संक्रमित गाय का दूध इस्तेमाल के लायक नहीं रहता। वो दूध फटा हुआ सा या थक्के जैसा या दही की तरह जमा हुआ निकलता है। इसमें से बदबू भी आती है। गायों के थनों में गाँठ पड़ जाती है और वो विकृत हो जाते हैं। थन में सूजन और कड़ापन आ जाता है तथा दर्द होता है। थनैला से बीमार गायों को तेज़ बुख़ार रहता है और वो खाना-पीना छोड़ देते हैं। थनैला का संक्रमण थन की नली से ही गाय के शरीर में दाख़िल होता है। थनों के जख़्मी होने पर भी थनैला के संक्रमण का ख़तरा बहुत बढ़ जाता है। गलत ढंग से दूध दूहने से भी थन की नली क्षतिग्रस्त हो जाती हैं। थनैला किसी भी उम्र में हो सकता है। थनैला बीमारी की वजह -अगर बाड़े की साफ-सफाई की जाए तो इस बीमारी से पशुपालक आर्थिक नुकसान से बच सकता है। दूध का उत्पादन गिर जाता है और पशु के इलाज़ का बोझ भी पड़ता है। इस बीमारी का मुख्य कारण खराब प्रंबधन है। पशुपालक को पशु बाड़े की नियमित रूप से साफ-सफाई करनी चाहिए।
थनैला रोग के कारण :
थनैला रोग जीवाणुओं द्वारा होता है लेकिन इनके अलावा अन्य रोगाणु जैसे-विषाणु, कवक, माइकोप्लाज्मा इत्यादि भी यह रोग उत्पन्न करते हैं। इसके मुख्य जीवाणु स्टेफाइलोकॉकस और स्ट्रेप्टोकॉकस जो कि थनों की त्वचा पर सामान्य रूप से पाये जाते हैं। जबकि इकोलाई जीवाणु का बसेरा गोबर, मूत्र, फर्श और मिट्टी आदि में होता है। ये गन्दगी और थन के किसी चोट से कट-फट जाने पर थनैला का संक्रमण पैदा करते हैं। एक बार थनैला पनप जाए तो फिर इसके जीवाणु दूध दूहने वाले के हाथों से एक दूसरे में फैलते हैं। यदि दूध निकालने वाली मशीन संक्रमित हो तो उससे भी थनैला बीमारी फैलती है। थन में चोट लगना, बाड़े में अच्छी तरह साफ-सफाई का न होना, असंतुलित पशु आहार, रोजाना के आहार में खनिजों की कमी, संक्रमित पशु के संपर्क में आने, दूध दुहने वाले के गंदे हाथों, पशुओं के गंदे आवास,अनियमित रूप से दूध दुहने, खुरदरा फर्श,अपूर्ण दूध निकालना, बछड़े/ बछड़ी द्वारा दूध पीते समय चोट पहुंचाना, गलत तरीके से दूध निकालना, मक्खी मच्छरों का प्रकोप आदि रोग होने में मुख्य कारक हैं।
थनैला रोग के पहचान की जांच :
थनैला रोग मुख्यतः दो प्रकार का होता है – क्लिनिकल थनैला की पहचान बीमारी के लक्षणों को देखकर आसानी से की जाती है। जैसे थनों में सूजन आना, पानी जैसा दूध आना, दूध का नमकीन या बेस्वाद होना अथवा दूध में छिछ्ड़े आना। लेकिन सब-क्लिनिकल थनैला में रोग के बाहरी लक्षण नहीं दिखते। इसीलिए इसकी पहचान के लिए व्यावहारिक परीक्षण किये जाते हैं। स्ट्रिप कप टेस्ट और कैलिफोर्निया मेसटाइटीस टेस्ट के जरिए होती है। थनैला रोग में दूध के पी एच में बदलाव आता है जो कि सामान्यता अम्लीय (6.2-6.8) होता है परन्तु रोग ग्रस्त होने पर यह परिवर्तित होकर क्षारीय (7.2-7.4) हो जाता है। अतः संदेह की स्थिति में पी एच स्ट्रिप से दूध की जांच करके थनैला का पता किया जा सकता है। इसकी पहचान के लिए दूध की जांच करवाकर ही पता लगाया जा सकता है। रोग का सफल उपचार प्रारंभिक अवस्था में ही संभव है इसलिए उपचार में कभी देरी न करें। यदि एक बार अयन सख्त (फाइब्रोसिस) हो गया तो उसका इलाज हो पाना लगभग असंभव होता है। एंटीबॉयोटिक सेन्सिटिविटी परीक्षण से रोग के कीटाणु के लिए उपयुक्त दवा पता चल जाती है एवं इलाज आसान हो जाता है। वर्तमान में थनैला रोग दुधारू पशुओं में एक अत्यंत गंभीर समस्या है जो कि पशुपालक को आर्थिक तथा व्यावसायिक रूप से अत्यधिक हानि पहुंचाता है। अतः सही समय पर इस रोग का इलाज प्रारम्भ करना चाहिए।
थनैला रोग के प्रमुख लक्षण –
थनों में सूजन आना,
थनों को छूने पर दर्द होना,
थनों में कड़ापन आ जाना तथा लालिमा रहना,दूध दुहने पर पस अथवा रक्त का आना , दूध का नमकीन होना, रंग में बदलाव आना तथा दूध में थक्का पड़ना,दूध में फैट की मात्रा कम हो जाना।
गंभीर रूप से रोग के विकसित हो जाने पर थनों का सड़ कर गिर जाना।
इसमें पशु को तेज़ बुखार रहता है तथा वो चारा खाना छोड़ देते हैं।
उनके थनों में ज़बरदस्त सूजन आ जाती है और उन्हें बहुत ज़्यादा दर्द होता है।
इस में मवाद या ख़ून मिला दूध आता है।
दूध पानी जैसा पतला, छिछ्ड़ेदार, मवादयुक्त और ख़ून के थक्कों से मिला भी हो सकता है।
इस दशा में पशु का दूध उत्पादन घट जाता है और दूध की गुणवत्ता ख़राब हो जाती है।
थनैला रोग की रोकथाम –
थनैला एक संक्रामक रोग है तथा एक पशु से दूसरे पशु में तेजी से फैलता है। अतः संक्रमित पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग बांधना चाहिए।
एक पशु का दूध निकालने के बाद ग्वालों को अच्छी तरह से हाथों को साफ करना चाहिए तथा उसके बाद ही दूसरे पशु का दूध निकलना चाहिए।
स्वस्थ तथा संक्रमित पशुओं से दूध निकालने के लिए अलग अलग ग्वाले नियुक्त करने चाहिए तथा पहले स्वस्थ पशुओं का दूध निकाल लेने के बाद ही संक्रमित पशुओं का दूध निकालना चाहिए।
पशु के रहने के स्थान को स्वच्छ रखना चाहिए तथा फर्श को सूखा रखना चाहिए।
दूध दुहने से पहले हाथ साफ करें और साफ बर्तन में ही दूध निकालें। दूध निकालने से पहले और बाद में थन को लाल दवा से साफ करके उसे सूती कपड़े से पोछे।
दूध सही विधि से निकालना चाहिए। थन में घाव होने पर तुरंत उपचार करवाएं।
थनों की सफाई नियमित रूप से करनी चाहिए तथा पशुशाला में इस्तेमाल होने वाले सभी उपकरणों तथा कपड़ों को अच्छी तरह साफ करना चाहिए।
पशुओं के आवास में मक्खियां नहीं होनी चाहिए। पशुओं के आवास को साफ एवं स्वच्छ रखें।
समय-समय पर थनों तथा दूध की जांच करनी चाहिए और यदि दूध में किसी भी प्रकार का बदलाव दिखे तो तुरंत पशु चिकित्सक से परामर्श लेना चाहिए।
दूध दुहने के कुछ समय बाद तक थन नलिका खुली रहती है और जब पशु गंदे स्थान पर बैठता है तो इन थन नलिका के रास्ते थनैला रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणु थनों में प्रवेश कर जाते हैं। अतः दूध दुहने के तुरंत बाद पशु को नहीं बैठने देना चाहिए। पशु को दूध दुहने के बाद उच्च गुणवत्ता वाला पशुआहार देना चाहिए ताकि पशु खड़ा रह सके।
दुधारू पशु को खरीदने से पहले भी उनके दूध की थनैला जाँच अवश्य करवाएँ।
यदि दूध की दुहाई मशीन से की जाए तो मशीन की साफ़-सफ़ाई और देखरेख भी अच्छी तरह होनी चाहिए। मशीन के कप को दूध दूहने के बाद गुनगुने पानी से साफ़ करना चाहिए।
दुधारू पशुओं के आहार में विटामिन और लवण जैसे कॉपर, ज़िंक और सेलेनियम आदि को शामिल करें।
दूध निकालने के बाद थन का छेद लगभग 30 मिनट तक खुला रहता है। अतः दूध निकालने के बाद पशु को आधे घंटे तक बैठने ना दें। पशुपालक के दूध निकालते समय नाखून न हो और हाथों को अच्छी तरह से साफ किया हुआ होना चाहिए।
थनैला रोग से हानियां –
थनैला ग्रसित पशुओं में दूध उत्पादन में गिरावट आती है, जिसके कारण पशुपालक को आर्थिक रूप से हानि पहुँचती है।
गंभीर स्थिति में पशु के थनों से दूध आना हमेशा के लिए बंद हो जाता है।
थनैला रोग का उपचार –
प्रारम्भिक अवस्था में रोग का उपचार करने से रोग पर नियंत्रण करके उसे ठीक किया जा सकता है ,अन्यथा रोग के गंभीर अवस्था में पहुँचने पर रोग का उपचार करना कठिन हो जाता है
इलाज़ में देरी करने से थनैला रोग न सिर्फ़ बढ़ सकता है बल्कि लाइलाज़ हो सकता है। एक बार यदि पशु के थन सख़्त हो गये या उनमें ‘फाइब्रोसिस’ पनप गये तो उसका इलाज़ असम्भव हो जाता है।
थनैला रोग के इलाज़ के लिए पशु चिकित्सक की सलाह के अनुसार, ऐम्पिसिलिन, ऐमोक्सिसिलिन, एनरो फ्लोक्सासिन, जेंटामाइसिन, सेफ्ट्राइएक्सोन और सल्फा जैसी एंटीबॉयोटिक दवायें है। इसके अलावा थनों की सूजन को घटाने के लिए मेलॉक्सिकम, निमैसुलाइड आदि टीके भी लगवाने चाहिए।
पशुओं को नियमित संतुलित आहार व खनिज मिश्रण दें इससे उनकी रोगों से लड़ने की शक्ति बनी रहती है।
थनैला से पीड़ित पशुओं के थन में इंट्रा-मैमरी ट्यूब का इस्तेमाल भी किया जा सकता है।
पशुओं के थन की नली में कई बार ऐसी गाँठ बन जाती है जिससे दूध का स्राव रुक जाता है। इसीलिए पशु चिकित्सक टीट साइफन नामक उपकरण की मदद से थन की नली को खोलते हैं।
थनैला रोग से बचाव के लिए दुधारू पशुओं के बाडे को समतल, साफ व सूखा रखें, सभी थनों को दूध दुहने के बाद जीवाणु नाशक घोल में डुबोएं।
दूध हमेशा सही तरीके से निर्धारित समय पर, थनों को साफ पानी से धोकर, साफ कपडे़ से पोंछकर तथा सूखे हाथों से निकालें।
पशु को विटामिन ई तथा सेलेनियम युक्त पोषक तत्व खिलाने से थनैला के प्रकोप को कम किया जा सकता है।
थनैला रोग करने वाले जीवाणु का पता लगने पर उसके अनुसार जीवाणुनाशक औषधियां जैसे एंटीबायोटिक्स देनी चाहिए।
प्रारम्भिक अवस्था में जब एक थन प्रभावित होता है तब औषधि ट्यूब के द्वारा उसी प्रभावित थन में औषधि को डाला जाता है।
दूध दुहने से पहले तथा बाद में एंटीसेप्टिक घोल से थनों की अच्छी तरह से सफाई करनी चाहिए