दुधारू पशुओं में थनैला रोग एवं रोकथाम

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थनैला रोग
थनैला रोग

दुधारू पशुओं में थनैला रोग एवं रोकथाम

1डॉ. सुविधि, 1*डॉ. सुदेश कुमार,

1सीनियर रिसर्च फेलो, राष्ट्रीय अश्व अनुसंधान केन्द्र, हिसार, हरियाणा-125001

 

     थनैला रोग मादा पशुओं में जीवाणुओं, द्वारा फैलने वाला थनो का संक्रामक रोग है, जो पशुओं को गंदे, गीले और कीचड़ भरे स्थान पर रखने से होता है। प्राचीन काल से यह बीमारी दूध देने वाले पशुओं एवं उनके पशुपालको के लिए चिंता का विषय बना हुआ हैं। थनैला रोग या स्तनशोथ (मेसटाइटीस) जिसे बोल- चाल की भाषा में लेवती/ अयन का सूजन और उगी के नाम से जाना जाता है, दुधारू पशुओं को लगने वाला एक रोग है। यह रोग ज्यादातर अधिक दूध देने वाली गायों एवं भैसों में अधिक होता है। यदि प्रारंभ में इस रोग की देखभाल उचित रूप से नहीं की जाती है तो पशुओं के थन को बेकार करके सुखा देती है। पशुधन विकास के साथ सफेद क्रांति की पूरी सफलता में अकेले यह बीमारी सबसे बड़ी समस्या है। इस रोग से पशु मरते तो नहीं है, परन्तु पशुपालकों की आर्थिक स्थिति को बहुत प्रभावित करता है। प्राचीन काल से यह बीमारी दूध देने वाले पशुओं एवं उनके पशुपालको के लिए चिंतन हैं।

थनैला रोग
थनैला रोग

कारण: इस रोग का मुख्य कारण जीवाणु होते हैं तथा पशुओं पर 70% जीवाणु का प्रभाव होता है। इसके अलावा 2% ईस्ट एवं मोल्ड एवं 28% शारीरिक चोट एवं खराब मौसम जैसे कुछ अज्ञात कारक (संक्रमित पशु के संपर्क में आने, दूध दुहने वाले के गंदे हाथों, पशुओं के गंदे आवास, अपर्याप्त और अनियमित रूप से दूध दुहने, खुरदरा फर्श और थन में चोट लगने व संक्रमण होने से) भी इसके लिए उत्तरदाई हैं। थनैला रोग से संबंधित मुख्य जीवाणु निम्नलिखित हैं
स्ट्रैप्टॉकोक्कस, स्टेफिलोकोक्कस कोरिनीबैक्टीरियम पायोजेनि स, माइकोबैक्टेरियम ट्यूबरक्लोसिस, ई.कोलाई।

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लक्षण: थनैला रोग फैलने के तीन अवस्थाएं प्रमुख होती है,सबसे पहले रोगाणु थन में प्रवेश करते हैं। इसके बाद संक्रमण उत्पन्न करते हैं तथा बाद में सूजन पैदा करते है। थन या आंचल में सूजन तथा दर्द होता है और कड़ा भी हो जाता है, बाद में थन में गांठ भी पड़ सकती है। दूध फट सा जाता है और फिर खून या मवाद पड़ जाता है। कभी-कभी दूध पानी जैसा पतला हो जाता है एवं दूध में छिछड़े अथवा रक्त मिश्रित दूध आने लगता हैं । रोग का उपचार समय पर न कराने से थन की सामान्य सूजन बढ़ कर अपरिवर्तनीय हो जाती है और थन लकडी की तरह कडा हो जाता है। इस अवस्था के बाद थन से दूध आना स्थाई रूप से बंद हो जाता है। सामान्यतः प्रारम्भ में में एक या दो थन प्रभावित होते हैं जो कि बाद में अन्य थनों में भी रोग फैल सकता है। कुछ पशुओं में दूध का स्वाद बदल कर नमकीन हो जाता है।

रोग परीक्षण:Ø  दूध को चखकर जांच: सामान्य तौर पर दूध में 0.12 प्रतिशत सोडियम क्लोराइड होता है लेकिन थनैला रोग से पीड़ित पशु के दूध में इसकी मात्रा 1.4% या अधिक हो जाती है।

  • अम्लीयता परीक्षण: सामान्य दूध का पीएच 0 से 6.8 परंतु थनैला रोग से युक्त दूध का पीएच 7.4 हो जाता है।
  • कैलिफोर्निया मॉस्टाईटिस सोल्यूशन के माध्यम से जांच।
  • संदेह की स्थिति में दूध कल्चर एवं सेन्सीटिभीटी जांच।

थनैला रोग की चिकित्सा:

रोग निदान शीघ्र हो जाने पर पशु का उपचार संभव है परंतु यदि जीवाणु अयन के अंदर पहुंचकर अपना समुचित विकास कर चुके हैं तो इसकी सफल चिकित्सा नहीं हो पाती है। इससे बचने के लिए दुधारु पशु के दूध की जाँच समय पर करवा कर जीवाणुनाशक औषधियों द्वारा उपचार पशु चिकित्सक द्वारा करवाना चाहिए।

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एंटीसेप्टिकऔषधिया:
1: 1000 एक्रीफ्लेविन घोल को थन के अंदर इंजेक्शन देने से लाभ होता है। सिप्रोफ्लाक्सासिन बोलस खिलाने से आशातीत लाभ होता है। मैंस्टोडिन स्प्रे या विसपरेक स्प्रे का छिड़काव करने पर सूजन और दर्द कम हो जाता है। प्रतिजैविकऔषधियां: इस रोग में एनरोफ्लाक्सासिन, पेनिसिलिन, जेंटामाइसिन, सीफोपेराजान+सलबैकटम, पेंडिस्ट्रिन, मेस्टीवर्क,मेस्टीसिलिन थनैला रोग को ठीक करने के लिए अत्यंत उपयोगी है। परंतु कोई भी औषधि या प्रतिजैविक औषधि खिलाने से पूर्व पशु चिकित्सक से सलाह अवश्य लें।

थन में ट्‌यूब चढा कर उपचार के दौरान पशु का दूध पीने योग्य नहीं होता। अतः अंतिम ट्‌यूब चढने के 48 घंटे बाद तक का दूध प्रयोग में नहीं लाना चाहिए। यह अत्यन्त आवश्यक है कि उपचार पूर्णरूपेण किया जाये, बीच में न छोडें। इसके अतिरिक्त यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि (कम से कम) वर्तमान ब्यांत में पशु उपचार के बाद पुनः सामान्य पूरा दूध देने लग जाएगा।

रोकथाम:

यह रोग अत्यधिक कुप्रबंधन से फैलता है, अत:ग्वालों के हाथों, कपड़ों , दूध निकालने वाली मशीनों, बर्तनों, पशुशाला, तथा अयन की स्वच्छता पर विशेष ध्यान देकर बचाव किया जा सकता है। रोग यदि फैल रहा हो तो रोगी अथवा स्वस्थ पशुओं में अलगाव की विधि अपनानी चाहिए। थन अथवा अयन पर लगी हुई चोटों का अतिशीघ्र उपचार करना चाहिए एवं एक भी पशु की आशंका होने पर सभी दुधारू पशुओं के दूध का परीक्षण करना चाहिए। थनैला की आशंका होते ही तत्काल उसका उपचार करना जरूरी है अन्यथा यह बीमारी चारों थनों को संक्रमित कर पशु को हमेशा के लिए बेकार कर देती है। कभी-कभी थनैला के साथ अयन में क्षय रोग के जीवाणु प्रविष्ट होकर इसे और भी जटिल बना देते हैं। दूध दोहने के बाद थन नली (टीट कैनाल) कुछ देर तक खुली रहती है व इस समय पशु के फर्श पर बैठ जाने से रोग के जीवाणु थन नली के अंदर प्रवेश पाकर बीमारी फैलाते हैं। अतः दूध देने के तुरंत बाद दुधारू पशुओं को पशुआहार दें जिससे कि वह कम से कम आधा घंटा फर्श पर न बैठे ।

दुधारू पशुओं में थनैला रोग का बचाव एवं रोकथाम : एक गौशाला का सफल केस स्टडी

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