पशुओं के प्रमुख जीवाणु रोग

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पशुओं के प्रमुख जीवाणु रोग
डा0 राकेश कुमार गुप्ता
पशु विकृति विज्ञान विभाग,
पशु चिकित्सा विज्ञान एवं पशु पालन महाविद्यालय,
आचार्य नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कुमारगंज, अयोध्या -224229 उ0प्र0
देवाशीष नियोगी
पशु विकृति विज्ञान विभाग,
पशु चिकित्सा विज्ञान एवं पशु पालन महाविद्यालय,
आचार्य नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कुमारगंज, अयोध्या -224229 उ0प्र0
डा0 सत्यव्रत सिंह
पशु औषधि विज्ञान विभाग,
पशु चिकित्सा विज्ञान एवं पशु पालन महाविद्यालय,
आचार्य नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कुमारगंज, अयोध्या -224229 उ0प्र0

गलाघोट् (हीमोरेजिक सेप्टीसीमिया)

यह एक घातक छुत वाले रोग है जो मुख्यतया पास्चुरेला मल्टोसिडा नामक जीवाणु द्वारा होता है । मुख्यतः यह बीमारी गाय एवं भैसो में होती है । यह बीमारी ज्यादातर बरसात के दिनो में होती है । बाढग्रस्त अथवा पानी के जमाव वाले क्षेत्र्रो में अन्य महीनों में भी इसका प्रकोप हो सकता है । इस बीमारी का प्रकोप अधिकतर युवा एवं स्वस्थ पशुओं में होता है ।
लक्षणः- पशुओं में इस रोग की तीव्रता बहुत अधिक होती है। संक्रमण के लगभग दो दिन बाद एकाएक पशु के शरीर का तापमान बहुत बढ़ जाता है तथा पशु सुस्त दिखाई देता है, पशु की भूख मर जाती है और सॉंस लेने की गति बहुत तेज हो जाती है। साथ ही साथ पशु के मुॅंह से लार गिरना तथा ऑंखों का लाल होना व उनसे पानी गिरना आदि लक्षण दिखाई देते है। इसके उपरान्त पशु के गले में सूजन आ जाती है तथा पशु की जीभ मुंह से निकल आती है जो कि गहरे लाल रंग की दिखाई देती है। कंठ में सूजन आ जाने के कारण पशु को सांस लेने में कठिनाई होती है जिससे सांस लेने पर घर्र-घर्र की आवाज आती है। इसके उपरान्त अधिकतर पशु की मृत्यु हो जाती है, कुछ पशुओं में गोबर करते समय खांसी आना आदि लक्षण भी दिखाई दे सकते है। समय से उपचार को अभाव में पशु की मृत्यु अवश्यम्भावी है।
उपचारः- रोग की प्रारम्भिक अवस्था में पर्याप्त मात्रा में सल्फा औषधियों द्वारा रोगी का उपचार करने से अच्छे परिणाम आ सकते है। सल्फाडेमिडीन की 80-160 मि0ग्रा0 प्रति कि0ग्रा0 शरीर भार के अनुसार, पहले अंतः शिरा फिर अंतः मासंपेशीय विधि से देने पर अच्छे परिणाम मिलते है। टेट्रासाइक्लीन को भी 5-10 मि0ग्रा0 प्रति कि0ग्रा0 शरीर भार के अनुसार देना चाहिए। स्ट्रेप्टोमाइसीन और क्लोरम्फेनीकाल के भी अच्छे प्रभाव देखने को मिलता है। इसके अतिरिक्त पशु को दर्द आदि लक्षणों के लिए भी दवा देनी चाहिए तथा उत्तम प्रबन्ध, स्वच्छ पानी और पोषक भोजन का प्रबन्ध करना चाहिए।
(1) सल्फामेथाजीन 33.3 प्रतिशत घोल या डायोडीन घोल को शिरा के अन्दर 15.30 मिली0/50 किलो0 भार के अनुसार देना चाहिए।
(2) डाईक्रिस्टीसीन, टेरामाइसिन आदि इन्जेक्षनों का प्रयोग काफी लाभकर होता है।
बचावः- गलाघोंटू के बचाव हेतु टीकाकरण अनिवार्य माना जाता है। टीकाकरण उन स्थानों में अति आवश्यक है जहॉं बीमारी पायी जाती रही है। वर्षा आरम्भ होने के लगभग एक माह पूर्व मई या जून के महीनों में सभी पशुओं को टीका अवश्य लगवा देना चाहिए। टीका लगाने के 2-3 सप्ताह के पश्चात रोग प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न होती है जो कि एक वर्ष तक गलाघोंटू रोग से बचाव करती है। प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न होने तक स्वस्थ्य व संक्रमित पशुओं तथा उनके संपर्क में रहे पशुओं को अलग-अलग रखना चाहिए। इसके अलावा पशुशाला की सफाई तथा उत्तम प्रबन्ध की व्यवस्था करनी चाहिए।

थनैला

यह अधिक दुग्ध उत्पादन वाले मादा पशुओं का प्रमुख रोग है। इस रोग से पशु अपने जीवनकाल में कम से कम एक बार तो ग्रसित होता ही है। इस रोग के कारण पशुओं की दुग्ध उत्पादन क्षमता कम हो जाती है। दूध की गुणवत्ता में भी गिरावट आती है तथा दूध को फेंकना पड़ता है क्योंकि यह दूध स्वास्थ के लिए हानिकारक होता है।
कारण-
इस रोग के लिए जिम्मेदार कीटाणु सामान्यतः वातारण में पाए जाते है। अतः यह रोग अधिकतर वर्षा ऋतु में होता है जब वातारण विभिन्न जीवाणुओं की संख्या बृद्धि के लिए अनुकूल होता है ।
लक्षण-
थनैला रोग से ग्रसित पशु के थन तथा दूध में खराबी उत्पन्न हो जाती है। इन्ही परिवर्तनो तथा तीब्रता के आधार पर थनैला रोग को चार प्रकार में बॉंटा जाता है ।
1. तीब्र थनैला रोग-इस दशा में पशु के शरीर का तापमान बढ़ जाता है । अयन में सूजन हो जाती है तथा वह लाल और गर्म प्रतीत होता है । पशु दर्द का अनुभव करता है । थनों से दूध का निकलना बन्द हो जाता है थन से दही के समान फटा फटा सा या मवाद की तरह या लार की तरह द्रव निकलता है । कभी-कभी दूध रक्त मिला हुआ निकलता है।
2. कम तीव्र प्रकार : थनैला रेग के इस प्रकार में रोग की तीव्रता काफी कम होती है । सूजन काफी कम होता है । दूध असमान्य रहता है । अयन भी सामान्य की अपेक्षा ज्यादा सख्त रहता है । पशु के शरीर का तापमान सामान्य होता है । यद्यपि प्रभावित पशु को कम परेशानी होती है, परन्तु अधिक दिनो तक इस रोग के रहने के कारण थनो के खराब होने की सम्भावना बढ़ जाती है ।
3. चरका (दीर्घकाथिक) थैनला रोग : थनैला रोग के इस प्रकार में रोग कई सप्ताहों एवं महीनो तक थन को प्रभावित किए रहता है और अन्ततः प्रभावित थन को बेकार बना देता है । अयन ठंडा व कठोर हो जाता है । थन दबाने पर उसमें दर्द का अनुभव नही होता ।
4. अतिदीर्घकाथिक थनैला रोग : यह रोग लगभग 70 प्रतिशत दुधारू पशुओं को प्रभावित करता है । इस अवस्था में पशु के थन तथा दूध में कोई भी बदलाव नजर नहीं आता तथा पशु पूरी तरह स्वस्थ दिखाई देता है । प्रयोगशाला में दूद्य की जॉच के उपरान्त ही इस रोग का पता लगाया जा सकता है । इससे दूध का उत्पादन कम हो जाता है । जैसे ही पशु की रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर पड़ती है तो तीब्र थनैला उत्पन्न हो जाता है ।
उपचार :
रोगी पशु का शीघ्र उपचार करवाना चाहिए । तुरन्त चिकित्सा नहीं करवाने पर पशु का अयन बेकार हो जाता है और दूध निकलना बन्द हो जाता है । संक्रमण को ठीक करने के लिए पशु को नियमित रूप से सुबह-शाम एन्टीबायोटिक औषधियो की सूई देनी चाहिए । यदि सम्भव हो तो प्रयोगशाला में दूध भेजकर यह पता लगवा लेना चाहिए कि कौन सी ऐन्टीबायोटिक सबसे अघिक कारगर है । ऐसा करने से पशु की दशा में तुरन्त सुधार देखा जा सकता है । साथ ही में सूजन कम करने हेतु भी सुई लगवानी चाहिए । प्रभावित थनो में एन्टीबायोटिक औषधि चढाई जा सकती है । थनो में लगी हुई चोटो का समुचित उपचार करना आवश्यक है । बाह्य उपचार के रूप में मैगसल्फ, या बोरिक एसिड द्रव से थन को द्योना चाहिए । थन पर मैस्टीलेप, डर्मीनाल, विस्प्रैक नामक लेप लगाने से काफी आराम मिलता है ।
रोकथाम –
थनैला रोग पशुओ में आमतौर पर गन्दगी के कारण होता है । अस्वच्छता इस रोग के फैलने का मुख्य कारण है, अत : स्वच्छता सम्बन्धी उपाय सर्वाधिक उपयोगी हो जाता है । इस रोग की रोकथाम के लिए निम्न उपाय आवश्यक है :-
1.पशुओ के अयन को दूद्य दुहने के पहले व बाद में स्वच्छ पानी से धोना चाहिए । इसके लिए लाल दवा या डीटौल आदि का प्रयाग किया जा सकता है ।
2.धोने के बाद अयन को साफ कपडें़ से पोंछना चाहिए ।
3.दोहने के बाद पशु के कुछ देर तक बैठने नहीं देना चाहिए ।
4.थनैल रोगी पशु का दूध बाद में निकालना चाहिए, पहले स्वस्थ पशुओं को दुहना चाहिए ।
5.प्रभावित पशु के स्वस्थ थन का दूध पहले निकालना चाहिए ।
6.पशुओं का दूध दुहने वाले ग्वालों की साफ सफाई का विशेष घ्यान रखना चाहिए । खासी या अन्य रोग होने पर उन्हें पशुओं का दूध नहीं निकालने देना चाहिए । ग्वालो के हाथो, नाखून आदि की पूर्णतया सफाई रखनी चाहिए ।
7.पशुशाला की सफाई पर विशेष घ्यान देना चाहिए । पशुशाला के फर्श को कीटनाशक दवाओं के घोल से धोना चाहिए ।
8.पशु के अयन से पूर्ण रूप से दूध निकाल लेना चाहिए । यदि किसी कारणवश थन में दूध ठहर जाता है तो यह कारक कीटाणुओं की सख्या वृद्धि के लिए लाभदायक होते है ।
9.पशुओं को संतुलित आहर देना चाहिए ।
10.रोग की प्रारम्भिक अवस्था में ही किसी योग्य पशुचिकित्सक द्वारा उपचार करवाना चाहिए ।

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लंगड़ी रोग

इस रोग को लगंडिया रोग, सुजाव और जहखाद आदि नामों से भी जाना जाता है। यह एक जीवाणु जनित, अन्यंत घातक श्ीघ्र आपाती रोग है जो गोवंशीय पशुओं और भेड़ों में पाया जाता है। इस रागे से ग्रसित पशुओं की 12-36 घंटे के अन्दर मृत्यु हो जाती है। इस रोग में मांस पेशियों, विशेषकर जाघों तथा गर्दन में सुजन हो जाती है, जीवविषरक्तता और लंगड़ाहट इसके प्रमुख लक्षण है। इसकी व्यापकता इतनी ज्यादा होती है कि किसी-किसी क्षेत्र में पशुपालकों के शत-प्रतिशत पशु मर जाते है।

कारणः-लंगड़ी रोग क्लास्ट्रीडियम शोवियाई नामक जीवाणु के कारण होता है। यह एक दंडाकार जिसके सिरे गोल होते है और जो अकेले या श्रृँखला मे रहते है। ये ग्राम वर्णग्राही, बिना वायु के पनपने वाले और बीजाणु बनाने वाले जीवाणु है।

लक्षणः- लंगड़ी रोग तीब्र और अतितीब्र अवस्थाओं में पायी जाती है। अतितीब्र की स्थिति में रोग का प्रभाव तेजी से बढ़ता है और पशु बिना कोई लक्षण प्रदर्शित किये ही मृत्यु हो जाता है। कभी-कभी रोग के लक्षण दिखाई पड़ते है और पशु 12-36 घंटे मर जाती है। रोग की सुरूआती अवस्था में पशु में भूख कम लगती है, लंगड़ापन मिलता है, पशु जल्दी-जल्दी सॉंस लेता है और बेचैन दिखाई पड़ता है। तापमान लेने पर 1050 सेन्टीग्रडे फारनेहइड से 1060 सेन्टीग्रडे फारनेहइड तक बुखार मिलता है। और नाड़ी की गति 100 से उपर मिलती है। इन लक्षणों के बाद र्गदन, कंधे, पुट्ठे, नितम्ब, छाती, पीठ या कोख पर सुजन बढ़ने लगती है। सूजन के भीतर गैस भरी रहती है। यह भाग सुरूआत में गर्म होता है तथा दबाने पर कागज को मोड़ने जैसे करकराहट पैदा होती है और पशु को दर्द होता है। बाद में सूजन के उपर की खाल सूखकर काली हो जाती है। चीरा लगाने पर काले रंग का झागदर खून निकलता है जिसमें सड़े मक्खन जैसी दुर्गध आती है। पशुओं को खड़े होने में कठिनाई होती है। जीवविष की उत्पत्ति के कारण टांगों की पेशियों का परिगलन शुरू हो जाता है।

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उपचारः- रोग प्रारंभिक अवस्था में पिनसिलीन की 10000-20000 युनिट मात्रा प्रतिकिलोग्राम शरीर भार की दर से किये जाने पर पशु को आराम मिलता है। मगर देरी होने पर जव पेशियों में परिगलन सुरू हो चुका हो तो ज्यादा लाभ नही मिलता है। इसमें पहली खुराक क्रिस्टेलाइन पिनसिलीन अन्तःशिरा मार्ग से बाद में लम्बे समय तक क्रियाशील रहने वाली पिनसिलीन अन्ताः पेशी मार्ग द्वारा दी जानी चाहिए। पेशी विक्षति में भी पिनसिलीन का स्थानिक सुई दिया जाना लाभकारी रहता है। किसी एक रोगी पशु को दवा देने के बजाय पूरे झुंड़ का इलाज करना लाभकारी रहता है। लॅंगड़ी रोगरोधी सीरम का उपचार के लिए अन्धिक महत्व नहीं है जब तक कि इसको अधिक मात्रा में न दिया जाए। रोग के प्रारभिक चरण में लंगड़ी रोधी सीरम देने से लाभ हो सकता है।
नियंत्रणः- भारत में बहुजैविक टीकाकरण मिलता है जिसे फार्मेलडीहाइड धोल की प्रतिक्रिया से जीवित जीवाणु रहित एवं अविषाक्त इस प्रकार किया जाता हैं कि इसकी रोग निरोधक क्षमता बनी रहती है। टीका अवत्वक् मार्ग से दिया जाता है तथा इसकी 5 मि0ली0 मात्रा दी जाती है। आज कल एलयूनियम हाइड्राक्साइड जेल अवशोषित और एडजुएन्ट टीके उपलब्ध है जिनकी उपयोग में ली जाने वाली मात्रा कम रहती है और प्रतिरक्षा भी एक वर्ष तक देते है।

संसर्गी गर्भपात

यह एक चिरकालीन, जीवाणु जनित रोग है जो गर्भपात, बच्चों के मरने, दूध उत्पादन में कमी, अपरा का रूकना और स्थायी या अस्थायी रूप से बॉंझपन आदि से पहजाना जाता हैं। यह गावों में गर्भपात का मुख्य कारण भी हो सकता है। कई बार यह डेरी फामों पर महामारी के रूप में भी देखा जाता है।
कारकः- यह ब्रूसेला नामक जीवाणु के द्वारा होता है। इस जीवाणु का पता सबसे पहले 1889 में कर्नल ब्रस में किया था इसलिए जीवाणु का नाम बु्रसेला रखा गया। इसकी तीन प्रमुख जातियॉं पायी जाती है। बु्रसेला एबोर्टस, ब्रूसेला मेलिटेंसिस एवं ब्रूसेला सुइस नाम से जाना जाता है। ब्रूसेला एवोर्टस गो पशुओं में ब्रूसेला मेकिटेंसिस-बकरी तथा ब्रसेला सुइस शूकरों में पाया जाता है। इसके अलावा ये जातियांॅ अन्य जाति के पशुओं में भी रोग पैदा कर सकती है। ब्रूसेला मेलेटेंसिस मनुष्यों में सबसे ज्यादा संक्रमण करते है। बु्रसेला किसी भी स्तन पायी प्राणी को संक्रमित कर सकते है। मनुष्यों में यह उर्मिल ज्वर के नाम से जाना जाता है। सूर्य के प्रकाश में 4-5 घंटे तक तथा पोषक तत्वों के साथ सुखाने में अधिकतम 12 दिन तक जीवित रह सकता है।
लक्षणः- गर्भापात इस रोग का प्रमुख लक्षण है और इस रोग की तरफ ध्यान भी तभी जाता है जब कई जानवरो में गर्भकाल के तीसरे चरण में गर्भपात होने लगता है। गर्भपात प्रायः पॉंचवे से आठवें महीनें में होता है। गर्भपात के बाद यदि समय पूरा हो गया है तो बच्चा बच भी सकता है मगर वह बहुत कमजोर होता है। गायों में प्रायः जेर निकल जाती है मगर कई बार जेर रूकने की भी शिकायत पाई जाती है और बाद में इन जानवरों में बच्चेदानी से पस या मवाद जैसा स्राव भी निकलता है। कभी -कभी बिना गर्भाशय का मुॅंह खुले बच्चे की अन्दर ही मृत्यु हो जाती है और इसे सडा भ्रुण कहते है। इसमे गर्भाशय का पूरा तरल पदार्थ सुख जाता है और बच्चा मृत्यु के पश्चात बच्चेदानी से चपक कर सूख जाता है और कडा हो जात है केवल अस्थि भाग ही शेष बचता है।
रोग के अन्य लक्षणें में पशु के स्वास्थ्य में गिरावट, प्रजनन शक्ति में कमी, सुस्ती, बेचैनी, शारीरिक कमजोरी, जुगाली न करना और भूख का न लगना पाया जाता है। नर पशु में ज्वर का आना, वृश्ण कोण में सूजन, दर्द और लाल हो जाना पाया जाता है। एक से दो सप्ताह से सूजन कम हो जाती है और पषु में प्रजनन क्षमता में कमी या नपुंसकता भी उत्पन्न हो सकती है। इस रोग से ग्रसित बछडो में जोडों, टखनों में सूजन और बाद में मवाद पैदा हो सकता है।
सूक्ष्मदर्शीय परीक्षणः- अपरा, योनि स्राव के फेफडों या अमाशय से एकत्रित पदार्थ की अभिरजित करके सूक्ष्मदर्शीय परीक्षण करने पर बडी संख्या में जीवाणु देखे जा सकते है।
जीवाणु विलगनः- योनि स्राव, जेर, भूण के अमाशय या फेफडे गाय के दूध, लसिका ग्रंथि और बीर्य से जीवाणु विलगन किया जा सकता है।
सीरमीय परीक्षणः-इसमें ए.बी.आर. परीक्षण (एर्वाटय वैगरिग परीक्षण) प्लंट समूहन परीक्षण, उण्मा निष्क्रियण परीक्षण, पूरक स्थिर्राकरण परीक्षण आदि प्रमुख है। आजकल एलाइसा, डाट एलाइसा और ए. बी. एलाइसा प्रमुख सीरमीय परीक्षण विधियॉं है।
उपचारः- रोगी मादा पशु को गर्मी में आने पर कम से कम तीन चार मदन्त्रक तक गर्भाधान नहीं कराना चाहिए, इससे पशु रोधमुक्त हो जाता है। पशु में पेनिसिलीन और स्ट्रेपटोपेनिसिलीन से उपचार करना चाहिए। आज कल डाक्सीसाइक्लीन का भी प्रयोग लाभकारी पाया जाता है। पशु को अन्तः पेशीय एवं गभीशय दोनों भागों से उपचार करना लाभप्रद रहता है।
टीकाकरणः-बछड़ों में टीकाकरणः- टीका लगाने के पहले सीरमीय परीक्षण कर लेना चाहिए और उन्हीं जानवरों में उपयोग करना चाहिए जो इस रोग के स्वाभविक संक्रमण से मुक्त हो। यह टीका वछियों को लगाया जाता है। 5 मि.ग्रा. दवा पशु की उपत्वचा में लगाना चाहिए या 2 मि. ली. दवा अंतत्वचा में लगाना चाहिए। ये दोनों समान रूप से फायदेमंद है। इस टीका का प्रयोग पॉंच से नौ महीने के बछियों में करना चाहिए। यह टीका ब्रसेला स्ट्रेन-19 वैक्सीन कहलाती है।

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प्लीहा ज्वर

इस रोग को ऐन्थ्रेक्स, जहरी बुखार और गिल्टी रोग के नामों से भी जाना जाता है। गो पशुओं के अलावा यह भेड़ और बकरियों में भी यह रोग पाया जाता है। यह एक जीवाणु जनित अत्यधिक संक्रामक रोग है जो कि मनुष्यों में भी पाया जाता है। इस रोग में पशु की एकाएक मृत्यु हो जाती है और संक्रमित पशु के शव के वाहय छिद्रों से गहरे रंग का रक्तस्राव होने लगता है।
कारणः- यह बैसिलस ऐन्थ्रेसिस नामक जीवाणु से होता है जो आकार में गोल या दंडाकार होता है और आक्सीजन की उपस्थिती में बीजाणु बनाते है। इसके बीजाणु बहुत ही मजबूत और वातावरणीय परिस्थियों को सहने वाले होते है। ये बीजाणु गर्मी प्रकाश और जीवाणु नाशक रासायनों से आसानी से नहीं मरते है। इसी कारण से एक बार संदूषित हो जाने वाले जगह बहुत लम्बे समय तक संदूषित रहते है। प्रयोगशाला में ये 60 साल तक बने रहते है और वातावरण में 15 वर्षा तक नष्ट नहीं होते है। इन बीजाणुओं को नष्ट करने के लिए 10 प्रतिशत साद्रिता का फामैलीन 15 मिनट तक प्रयोग करना लाभकारी होता है और 5 प्रतिशत साद्रिता का सोडियम हाइड्राक्साइड घोल संतोषजनक परिणाम देते है।
लक्षणः- इस रोग का प्रकोप चरागाहों में खेले जानवरों में ज्यादा पाया जाता है, पशुशालाओं में बॉंधकर खिलाये जाने वाले प्शुओं में कभी-कभी छुटपुट इसका आक्रमण पाया जाता है। इस रोग के दो प्रकार होते है एक तो अति उस और दूसरा उग्र अवस्था।
1. अति उग्रः- इसमें पशु प्रायः पशुशाला या चारागाह में मरे पाये जाते है। मरने से पूर्व उनमें रोग का कोई भी लक्षण नहीं देखा जाता है। शरीर में ऐंठन होकर कुछ मिनटों से लेकर दो या तीन घंटों में रोगी की मृत्यु हो जाती है। पेशी ऐंठन, दॉंत पीसना, ह्दय की गति तीव्र ही जाना, श्लेष्मकलाओं का रक्तवर्ण होना, कष्टप्रद श्वासन और अचानक मृत्यु अति लक्षण पाये जाते है, मरने के बाद मुॅंह तथा नथूनों से रक्तयुक्त झाग तथा मलमूत्र मार्ग से रक्त का निकलना इस रोग की तरफ इंगित करता है।
2. उग्र अवस्थाः- उग्र रोग की अवधि 48 घंटे या उससे ज्यादा होती है। पशु में उदासीनता, सुस्ती का पाया जाना। कभी-कभी थोड़े समय के लिए उत्तेजन के बाद उदासीनता पायी जाती है। शरीर का तापमान 107 सेन्टीग्रेड फारनेहड तक पहुॅ।च जाता है। श्वसन तीव्र एंव गहरे होते है। श्लेष्मकलाओं का संकुलन होकर उनसे रक्तस्राव होने लगता है तथा नाड़ी गति एंव ह्दय गति बढ़ जाती है। पशु पशु चारा नहीं खाता तथा रूमेन गति में कमी आ जाती है। गभिन पशुओं गर्भपात हो जाता है। दूध देने वाली गायों में दूध उत्पादन घट जाता है तथा दूध का रंग रक्तरंजित या गहरा पीला हो जाता है। त्वचा के परिगलन तथा सूजन मिश्रित दस्तों के साथ आन्त्रार्ति, तनिका शोध के कारण उन्माद तथा उत्तेजना, वृक्क शोध के कारण हीमोग्लोबिन मंद तथा सूजी हुई लिम्फ ग्रंथियों आदि लक्षण पाये जाते है। सारे लक्षण एक ही पशु में नहीं पाये जाते है।
मरने बाद प्राकृतिक छिद्रों से रक्त स्राव तथा इस रक्त का थक्के का न बनना अनके प्रमुख लक्षण है। तिल्ली बहुत बढ़ जाती है, कभी-कभी यह सामान्य से दस या पन्द्रह गुनी तक बढ़ जाती है। इस रोग का शक होने पर पशु शव परीक्षण करने से बचना चाहिए।
उपचारः– रोग के लक्षण प्रकट होने पर इसकी चिकित्सा से कोई बहुत लाभ नहीं मिलता है। ऐन्थ्रेक्सरोधी सीरम का उपचार से प्रयोग कर सकते है। यदि रोगी पशु में ज्वार हो तथा अन्य लक्षण विकसित नष्ट हो पाएं तो उपचार प्रभावकारी होने की अम्भावना बढ़ जाती है। पेनिसिलिन 10,000 मात्रक/किलोगा्रम शरीर भार की दर से ओ बार देना अच्छा रहता है। स्ट्रेप्ओमाइसिन 25-50 मिलीगा्रम/किलोगा्रम भार देने पर भी अच्छा परिणाम मिलता है। आक्सीहेट्रासाइक्लिन 5-10 मिलीगा्रम/किलोगा्रम शरीर भार से देने पर अच्छा परिणाम देते है। एन्अीसीरम की 100 से 250 मिली लीटर मात्रा प्रतिदिन प्रतिजीवी के साथ देने पर उपचर व्यय मंहगा पड़ता है।
नियंत्रणः-ऐन्थ्रेक्स वेलट में पशु में प्रतिवर्ष टीका लगाना चाहिए। इसके लिए बीजाणु टीका आता है जिसे 1 मिली लीटर प्रति पशु की दर से देना चाहिए। इससे 10 दिन बाद रोगरोध क्षमता उत्पन्न हो जाती है जो एक वर्ष तक रहती है।

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