भारत में बकरी पालन के वैज्ञानिक तरीके
वैज्ञानिक तरीके से बकरी पालन करके पशुपालक किसान अपनी कमाई को दोगुनी से तिगुनी तक बढ़ा सकते हैं। इसके लिए बकरी की उन्नत नस्ल का चयन करना, उन्हें सही समय पर गर्भित कराना और स्टॉल फीडिंग विधि को अपनाकर चारे-पानी का इन्तज़ाम करना बेहद फ़ायदेमन्द साबित होता है।
बकरी पालन, हर लिहाज़ से किफ़ायती और मुनाफ़े का काम है। फिर चाहे इन्हें दो-चार बकरियों के घरेलू स्तर पर पाला जाए या छोटे-बड़े व्यावसायिक फॉर्म के तहत दर्ज़नों, सैकड़ों या हज़ारों की तादाद में। बकरी पालन में न सिर्फ़ शुरुआती निवेश बहुत कम होता है, बल्कि बकरियों की देखरेख और उनके चारे-पानी का खर्च भी बहुत कम होता है। लागत के मुकाबले बकरी पालन से होने वाली कमाई का अनुपात 3 से 4 गुना तक हो सकता है, बशर्ते इसे वैज्ञानिक तरीके से किया जाए।
कैसे चुनें बकरी की सही नस्ल?
दुनिया में बकरी की कम से कम 103 नस्लें हैं। इनमें से 21 नस्लें भारत में पायी जाती हैं। इनमें प्रमुख हैं – बरबरी, जमुनापारी, जखराना, बीटल, ब्लैक बंगाल, सिरोही, कच्छी, मारवारी, गद्दी, ओस्मानाबादी और सुरती। इन नस्लों की बकरियों की बहुतायत देश के अलग-अलग इलाकों में मिलती है। 2019 की पशु जनगणना के अनुसार, देश में करीब 14.9 करोड़ बकरियाँ हैं। देश के कुल पशुधन में गाय-भैंस का बाद बकरियों और भेड़ों का ही स्थान है।
बकरी की नस्ल कैसे चुनें?
बकरी की ज़्यादातर नस्लों को घूमते-फिरते हुए चरना पसन्द होता है। इसीलिए इनके साथ चरवाहों का रहना ज़रूरी होता है। लेकिन उत्तर प्रदेश और गंगा के मैदानी इलाकों में बहुतायत से पायी जाने वाली बरबरी नस्ल की बकरियों को कम जगह में खूँटों से बाँधकर भी पाला जा सकता है। इसी विशेषता की वजह से वैज्ञानिकों की सलाह होती है कि यदि किसी किसान या पशुपालक के पास बकरियों को चराने का सही इन्तज़ाम नहीं हो तो उसे बरबरी नस्ल की बकरियाँ पालनी चाहिए और यदि चराने की व्यवस्था हो तो सिरोही नस्ल की बकरियाँ पालने से बढ़िया कमाई होती है।
बरबरी नस्ल की विशेषताएँ
बरबरी एक ऐसी नस्ल है, जिसे चराने का झंझट नहीं होता। ये एक बार में तीन से पाँच बच्चे देने की क्षमता रखती हैं। इनका क़द छोटा लेकिन शरीर काफी गठीला होता है। ये अन्य नस्लों के मुकाबले ज़्यादा फुर्तीली होती हैं। बरबरी नस्ल तेज़ी से विकासित होती है, इसीलिए इसके मेमने साल भर बाद ही बिकने लायक हो जाते हैं।
बरबरी नस्ल की बकरी रोज़ाना करीब एक लीटर दूध देती है। इसे कम लागत में और किसी भी जगह पाल सकते हैं। इन्हें बीमारियाँ कम होती हैं, इसलिए रख-रखाव आसान होता है। इसके माँस को ज़्यादा स्वादिष्ट माना जाता है। इसीलिए बाज़ार में इसका अच्छा दाम मिलता है। बकरीद के वक़्त तो बरबरी के पशुपालक और भी बढ़िया दाम पाते हैं। बरबरी बकरी को फॉर्म हाउस के शेड में एलीवेटेड प्लास्टिक फ्लोरिंग विधि (स्टाल-फेड विधि) से भी पाला जा सकता है। इस विधि में चारे की मात्रा और गुणवत्ता को बकरियों उम्र की और ज़रूरत के अनुसार नियंत्रित किया जाता है। इसमें बकरियों के रहने की जगह की साफ़-सफ़ाई रखना ख़ासा आसान होता है।
बकरी पालन के लिए प्रशिक्षण
मथुरा स्थित केन्द्रीय बकरी अनुसन्धान संस्थान [फ़ोन: (0565) 2763320, 2741991, 2741992, 1800-180-5141 (टोल फ्री)] और लखनऊ स्थित द गोट ट्रस्ट (Mobile – 08601873052 to 63) की ओर से बकरी पालन के लिए साल में चार बार प्रशिक्षण कोर्स चलाता है। इसमें व्यावयासिक रूप से बकरी पालन करने वालों का मार्गदर्शन भी किया जाता है। इसके अलावा कृषि विज्ञान केन्द्र से भी बकरी पालन से सम्बन्धित प्रशिक्षण लिया जा सकता है।
वैज्ञानिक तरीका अपनाएँ
वैज्ञानिक तरीके से बकरी पालन करके पशुपालक किसान अपनी कमाई को दोगुनी से तिगुनी तक बढ़ा सकते हैं। इसके लिए बकरी की उन्नत नस्ल का चयन करना, उन्हें सही समय पर गर्भित कराना और स्टॉल फीडिंग विधि को अपनाकर चारे-पानी का इन्तज़ाम करना बेहद फ़ायदेमन्द साबित होता है। उत्तर भारत में बकरियों को सितम्बर से नवम्बर और अप्रैल से जून के दौरान गाभिन कराना चाहिए। सही वक़्त पर गाभिन हुई बकरियों में नवजात मेमनों की मृत्युदर कम होती है।’
साफ़-सफ़ाई है सबसे ज़रूरी
ज़्यादातर किसान बकरियों के बाड़े की साफ़-सफ़ाई के प्रति उदासीन रहते हैं। इससे बकरियों में होने वाली बीमारियों का खतरा बहुत बढ़ जाता है। इसीलिए यदि बाड़े की फर्श मिट्टी की हो तो समय-समय पर उसकी एक से दो इंच की परत को पलटते रहना चाहिए क्योंकि इससे वहाँ पल रहे परजीवी नष्ट हो जाते हैं। बाड़े की मिट्टी जितनी सूखी रहेगी, बकरियों को बीमारियाँ उतनी कम होंगी।
माँ का पहला दूध
बकरी पालकों की अक्सर शिकायत होती है कि बकरी के तीन बच्चे हुए, लेकिन उनमें से बचा एक ही। आमतौर पर ऐसा इसलिए होता है क्योंकि बकरी का दूध नहीं बचता। इसलिए जब बकरी गाभिन हो तो उसे ख़ूब हरा चारा और खनिज लवण देना चाहिए। पशुपालक जेर गिरने तक बच्चे को दूध नहीं पीने देते, जबकि बच्चे जितना जल्दी माँ का पहला दूध (खीस) पीएँगे, उनकी रोग-प्रतिरोधक क्षमता उतनी तेज़ी से बढ़ेगी और मृत्युदर में कमी आएगी।
चारा और दाना
ज़्यादातर बकरी पालक बकरियों के आहार प्रबन्धन पर ध्यान नहीं देते। उन्हें चराने के बाद खूँटे से बाँधकर छोड़ देते हैं। जबकि चराने के बाद भी बकरियों को उचित चारा देना चाहिए, ताकि उनके माँस और दूध में वृद्धि हो सके। तीन से पाँच महीने के बच्चों को चारे में दाने के साथ-साथ हरी पत्तियाँ खिलाना चाहिए।
स्लॉटर ऐज (slaughter age) यानी माँस के लिए इस्तेमाल होने वाले 11 से 12 महीने के बच्चों के चारे में 40 प्रतिशत दाना और 60 प्रतिशत सूखा चारा होना चाहिए। दूध देने वाली बकरियों को रोज़ाना चारे के साथ करीब 400 ग्राम अनाज देना चाहिए। प्रजनन करने वाले वयस्क बकरों को प्रतिदिन सूखे चारे के साथ हरा चारा और 500 ग्राम अनाज देना चाहिए।
बकरियों के पोषण के लिए प्रतिदिन दाने के साथ सूखा चारा होना चाहिए। दाने में 57 प्रतिशत मक्का, 20 प्रतिशत मूँगफली की खली, 20 प्रतिशत चोकर, 2 प्रतिशत मिनरल मिक्चर और 1 प्रतिशत नमक होना चाहिए। सूखे चारे में सूखी पत्तियाँ, गेहूँ, धान, उरद और अरहर का भूसा होना चाहिए। ठंड के दिनों में बकरियों को गन्ने का सीरा भी ज़रूर दें। यदि ऐसा पोषक खाना बकरियों को मिले तो उसके माँस और दूध में बढ़ियाँ इज़ाफ़ा होगा और अन्ततः किसानों की आमदनी दोगुनी से तीन गुनी हो जाएगी।
प्रजनन प्रबन्धन कैसे करें?
समान नस्ल की मादा और नर में ही प्रजनन करवाएँ। प्रजनन करने वाले परिपक्व नर बकरों की उम्र डेड़ से दो साल होनी चाहिए। ध्यान रहे कि एक बकरे से प्रजनित सन्तान को उसी से गाभिन नहीं करवाएँ। यानी, बाप-बेटी का अन्तः प्रजनन नहीं होने दें। इससे आनुवांशिक विकृतियाँ पैदा हो सकती हैं। 20 से 30 बकरियों से प्रजनन के लिए एक बकरा पर्याप्त होता है। मादाओं में गर्मी चढ़ने के 12 घंटे बाद ही उसका नर से मिलन करवाएँ। प्रसव से पहले बकरियों के खाने में दाने का मात्रा बढ़ा दें।
मेमने का प्रबन्धन कैसे करें?
प्रसव के बाद मेमने को साफ़ कपड़े से पोछें। गर्भनाल को साफ़ और नये ब्लेड से काटें और उस पर आयोडीन टिंचर लगाएँ। जन्म के फ़ौरन बाद मेमनों को माँ का पहला दूध पीने दें। जब मेमने 15 दिन के हो जाएँ तो उन्हें हरा चारा और दाना देना शुरू करें तथा धीरे-धीरे दूध की मात्रा घटाते रहें। तीन महीने की उम्र के बाद मेमनों को टीके लगवाएँ। इसके लिए पशु चिकित्सालय से सम्पर्क करें। वहाँ सभी टीके मुफ़्त लगाये जाते हैं।
वज़न करके ही बेचें बकरियाँ
बकरियों को नौ महीने के बाद ही बेचना फ़ायदेमन्द होता है, क्योंकि तब तक वो पर्याप्त विकसित हो जाते हैं। बेचने के लिए घूमन्तू व्यापारियों से बचना चाहिए क्योंकि अक्सर वो बकरी पालक किसानों को कम दाम देते हैं। इसीलिए बकरियों को पशु बाज़ार या कसाई या बूचड़खाने को सीधे बेचने की कोशिश करनी चाहिए और बेचते वक़्त बकरी के वजन के हिसाब से ही उसका भाव तय किया जाना चाहिए। बकरी पालकों में इन बातों को लेकर जागरूकता बेहद ज़रूरी है, वर्ना उनका मुनाफ़ा काफ़ी कम हो सकता है।
बकरी पालन के लिए प्रोत्साहन योजना
ज़्यादातर राज्य सरकारें बकरी पालकों को प्रोत्साहित करने के लिए उन्हें रियायती दरों पर बैंकों से कर्ज़ लेने की योजनाएँ चलाती हैं। इसके बारे में किसानों को नज़दीकी बैंक, कृषि विज्ञान केन्द्र या पशु चिकित्सालयों से सम्पर्क करना चाहिए।
अन्य सावधानियाँ
बकरी पालन से जुड़े उपकरणों की सफ़ाई के लिए पशु चिकित्सक की सलाह लेकर ही कीटाणु नाशक दवाओं का उपयोग करें। बकरियों को पौष्टिक आहार दें, उन्हें सड़ा-गला और बासी खाना नहीं खिलाएँ, वर्ना वो बीमार पड़ सकती हैं। बकरियाँ खरीदने से पहले उन्हें पशुओं के डॉक्टर को ज़रूर दिखाएँ, क्योंकि बकरियों में कुछ ऐसी भी बीमारी होती हैं जिनके सम्पर्क और संक्रमण से स्वस्थ बकरियाँ भी मर सकती हैं। बीमारी से मरने वाली बकरी को जला या दफ़ना दें।
Compiled & Shared by- This paper is a compilation of groupwork provided by the
Team, LITD (Livestock Institute of Training & Development)
Image-Courtesy-Google
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