मछली पालन की उन्नत तकनीक
मछली हेतु तालाब की तैयारी बरसात के पूर्व ही कर लेना उपयुक्त रहता है। मछली पालन सभी प्रकार के छोटे बड़े मौसमी तथा बारह मासी तालाबों में किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त ऐसे तालाब जिनमें अन्य जलीय वानस्पतिक फसलें जैसे-सिंघाड़ा, कमलगट्टा आदि ली जाती है, वे भी मत्स्य पालन हेतु सर्वथा उपयुक्त होते हैं। मछली पालन हेतु तालाब में जो खाद, उर्वरक, अन्य खाद्य पदार्थ इत्यादि डाले जाते हैं उनसे तालाब की मिट्टी तथा पानी की उर्वरकता बढ़ती है, परिणाम स्वरूप फसल की पैदावार भी बढ़ती है। इन वानस्पतिक फसलों के कचरे जो तालाब के पानी में सडग़ल जाते हैं वह पानी व मिट्टी को अधिक उपजाऊ बनाता है जिससे मछली के लिए सर्वोत्तम प्राकृतिक आहार प्लैंकटान (प्लवक) उत्पन्न होता है। इस प्रकार दोनों ही एक-दूसरे के पूरक बन जाते हैं और आपस में पैदावार बढ़ाने मे सहायक होते हैं। धान के खेतों में भी जहां जून-जुलाई से अक्टूबर-नवम्बर तक पर्याप्त पानी भरा रहता है, मछली पालन किया जाकर अतिरिक्त आमदनी प्राप्त की जा सकती है। धान के खेतों में मछली पालन के लिए एक अलग प्रकार की तैयारी करने की आवश्यकता होती है।
मौसमी तालाबों में मांसाहारी तथा अवाछंनीय क्षुद्र प्रजातियों की मछली होने की आशंका नहीं रहती है तथा बारहमासी तालाबों में ये मछलियां हो सकती है। अत: ऐसे तालाबों में जून माह में तालाब में निम्नतम जलस्तर होने पर बार-बार जाल चला कर हानिकारक मछलियों व कीड़े-मकोड़ों को निकाल दें। यदि तालाब में मवेशी आदि पानी नहीं पीते हैं तो उसमें ऐसी मछलियों को मारने के लिए 2000 से 2500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से महुआ खली का प्रयोग करें। महुआ खली के प्रयोग से पानी में रहने वाले जीव मर जाते हैं तथा मछलियां भी प्रभावित हो कर मरने के बाद ऊपर आती है। यदि इस समय इन्हें निकाल लिया जाये तो खाने तथा बेचने के काम में लाया जा सकता है। महुआ खली के प्रयोग करने पर यह ध्यान रखना आवश्यक है कि इसके प्रयोग के बाद तालाब को 2 से 3 सप्ताह तक निस्तार हेतु उपयोग में न लाया जावें। महुआ खली डालने के 3 सप्ताह बाद तथा मौसमी तालाबों में पानी भरने के पूर्व 250 से 300 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से चूना डाला जाता है जिसमें पानी में रहने वाली कीड़े-मकोड़े मर जाते हैं। चूना पानी के पीएच को नियंत्रित कर क्षारीयता बढ़ाता है तथा पानी स्वच्छ रखता है। चूना डालने के एक सप्ताह बाद तालाब में 10,000 किलोग्राम प्रति हेक्टर प्रति वर्ष के मान से गोबर की खाद डालें। जिन तालाबों में खेतों का पानी अथवा गाठोन का पानी वर्षा में बहकर आता है उनमें गोबर खाद की मात्रा कम की जा सकती है क्योंकि इस प्रकार के पानी में वैसे ही काफी मात्रा में खाद उपलब्ध रहता है। तालाब के पानी आवक-जावक द्वार मे जाली लगाने के समुचित व्यवस्था भी अवश्य ही कर लें।
मछली का आहार
तालाब में मत्स्य बीज डालने के पहले इस बात की परख कर लें कि उस तालाब में प्रचुर मात्रा में मछली का प्राकृतिक आहार (प्लैंकटान) उपलब्ध है। तालाब में प्लैंकटान की अच्छी मात्रा करने के उद्देश्य से यह आवश्यक है कि गोबर की खाद के साथ सुपर फास्फेट 300 किलोग्राम तथा यूरिया 180 किलोग्राम प्रति वर्ष प्रति हेक्टेयर के मान से डाली जाये। अत: साल भर के लिए निर्धारित मात्रा (10000 किलो गोबर खाद, 300 किलो सुपर फास्फेट तथा 180 किलो यूरिया) की 10 मासिक किश्तों में बराबर-बराबर डालें। इस प्रकार प्रतिमाह 1000 किलो गोबर खाद, 30 किलो सुपर फास्फेट तथा 18 किलो यूरिया का प्रयोग तालाब में करने पर प्रचुर मात्रा में प्लैंकटान की उत्पत्ति होती है।
मत्स्य बीज संचयन
सामान्यत: तालाब में 5000 से 10000 फिंगरलिंग प्रति हेक्टर की दर से संचय करें। यह अनुभव किया गया है कि इससे कम मात्रा में संचय से पानी में उपलब्ध भोजन का पूर्ण उपयोग नहीं हो पाता है तथा अधिक संचय से सभी मछलियों के लिए पर्याप्त भोजन उपलब्ध नहीं होता। तालाब में उपलब्ध भोजन के समुचित उपयोग हेतु कतला सतह पर, रोहू मध्य में तथा मृगल मछली तालाब के तल में उपलब्ध भोजन ग्रहण करती है।
पालने योग्य मछलियां
पालने योग्य देशी प्रमुख सफर मछलियों (कतला, रोहू, मृगल ) के अलावा कुछ विदेशी प्रजाति की मछलियां (ग्रासकार्प, सिल्वर कार्प, कॅामन कार्प) भी आजकल बहुतायत में संचय की जाने लगी है। अत: देशी व विदेशी प्रजातियों की मछलियों का बीज मिश्रित मछली पालन अंतर्गत संचय किया जा सकता है। विदेशी प्रजाति की ये मछलियां देशी प्रमुख सफर मछलियों से कोई प्रतिस्पर्धा नहीं करती है। सिल्वर कार्प मछली कतला के समान जल के ऊपरी सतह से, ग्रास कार्प रोहू की तरह मध्य से तथा कॉमन कार्प मृगल की तरह तालाब के तल से भोजन ग्रहण करती है। अत: इस समस्त छ: प्रजातियों के मत्स्य बीज संचयन होने पर कतला, सिल्वर कार्प, रोहू, ग्रास कार्प, मृगल तथा कॉमन कार्प को 20:20:15:15:15:15 के अनुपात में संचयन किया जाना चाहिए। सामान्यत: मछली बीज पॉलीथिन पैकट में पानी भरकर तथा ऑक्सीजन हवा डालकर पैक की जाती है। तालाब में मत्स्य बीज छोडऩे के पूर्व उक्त पैकेट को थोड़ी देर के लिए तालाब के पानी में रखें। तदपरांत तालाब का कुछ पानी पैकेट के अन्दर प्रवेश कराकर समतापन (एक्लिमेटाइजेेेश्न) हेतु वातावरण तैयार कर लें और तब पैकेट के मछली बीज को धीरे-धीरे तालाब के पानी में निकलने दें। इससे मछली बीज की उत्तर जीविता बढ़ाने में मदद मिलती है।
परिपूरक आहार
मछली बीज संचय के उपरांत यदि तालाब में मछली का भोजन कम है तो चावल की भूसी और सरसों-मंूगफली की खली लगभग 1:1के अनुपात में मछली को भोजन दें। इसे प्रतिदिन एक निश्चित समय पर डालें जिससे मछली उसे खाने का समय बांध लेती है एवं आहार व्यर्थ नहीं जाता है। उचित होगा कि खाद्य पदार्थ को बोरेे में भरकर डंडों के सहारे तालाब में कई जगह बांध दें तथा बोरे में बारीक-बारीक छेद कर दें। यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि बोरे का अधिकांश भाग पानी के अन्दर डुबा रहे तथा कुछ भाग पानी के ऊपर रहे। सामान्य परिस्थिति में प्रचलित पुराने तरीकों से मछली पालन करने में जहां 500-600 किलो प्रति हेक्टेयर प्रतिवर्ष का उत्पादन प्राप्त होता है वहीं आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति से मछली पालन करने से 3000 से 5000 किलो/हेक्टर/ वर्ष मत्स्य उत्पादन कर सकते हैं। आंध्रप्रदेश में इसी पद्धति से मछली पालन कर 7000 किलो/हेक्टर/वर्ष तक उत्पादन लिया जा रहा है।
मछली पालन आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत है मछली पालन कई मछुवारे परिवारो के जीवन व्यतीत करने का प्रमुख साधन/ व्यवसाय है परन्तु मछली पालन से जितना मत्स्य पालकों को लाभ प्राप्त होना चाहिए वो नही हो पाता है क्योकि मछलियों का उत्पादकता दर बहुत कम ही हो पाता है, जिसका प्रमुख कारण मछलियों को पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्वों का नहीं मिल पाना है
मछलियों में हो रहे पोषक तत्वों के कमी को खाद पदार्थो का उपयोग करके किया जा सकता है यह खाद पदार्थ बहुत से प्रकार के होते है जैसे की गाय के गोबर, सूअर, मुर्गी, पालन से निकल रहे अपशिस्ट पदार्थ इत्यादि।
चूंकि इन अपशिस्ट पदार्थों में बहूत सारे आवश्यक पोषक तत्व पाए जाते है जो तालाबों में सूक्ष्मजीवी जीवों के लिए आवश्यक आहार का कार्य करता है जिससे तालाबो में पादप प्लवक (phytoplankton) एवं जंतु प्लवक (zooplankton)की संख्या बढ़ जाती है एवं इन जीवों को मछलियाँ प्रमुख रूप से भोजन के रूप में उपयोग करती है
उत्पादकता:
उत्पादकता का विचार सर्वप्रथम १७६६ में प्रकृतिवाद के संस्थापक क्वेसने के लेख में सामने आया। उत्पादन दक्षता की औसत माप है। उत्पादकता को इस प्रकार से व्याखित किया जा सकता है। किसी भी एक स्थाई स्थान एवं स्थाई समय अन्तराल में जीवो के द्वारा अकार्बनिक पदार्थो से कार्बनिक पदार्थो का संश्लेषण करने को ही उत्पादकता कहते है
उत्पादकता को मुख्यत: (gC/m²/day) से दर्शाते है अत: उत्पादकता को इस प्रकार से भी परिभाषित किया जा सकता है “उत्पादन प्रक्रिया में आउटपुट और इनपुट के अनुपात को उत्पादकता कह सकते है”|
समुद्र सबसे बङे पारिस्थितिक तंत्र में से एक है और इसकी उत्पादकता विभिन्न जलवायु वाले क्षेत्रों में भिन्न –भिन्न होती है | समुद्र तट के किनारे उत्पादकता २-३ ग्राम प्रति वर्ग मी. प्रतिदिन होती है जबकि गहरे समुद्र में मात्र ०.५ ग्राम प्रति वर्ग मीटर प्रतिदिन होती है तथा झीलों में इसका मान ४-१० ग्राम प्रति वर्ग मीटर प्रतिदिन होती है |
उत्पादकता के प्रकार –
उत्पादकता को मुख्यत: दो भागो में बाटा गया है जो निम्न प्रकार से है –
१.प्राथमिक उत्पादकता:
किसी भी एक पारिस्थितिक तंत्र में उपस्थित कार्बिनक पदार्थों के संचय को प्राथमिक उत्पादकता कहते है” उत्पादकता साधरण अकार्बनिक पदार्थों से कार्बनिक पदार्थों का उत्पादन, हरे पौधों द्वारा उर्जा संचय की दर पर निर्भर करता है| इसउर्जा परिवर्तन की दर या कार्बनिक जैव भार में वृद्धि को प्राथमिक उत्पादकता कहते है | प्राथमिक उत्पादकता को पुनः दो भागो में बाटा गया है| ग्रॉस प्राथमिक उत्पादकता– प्रकाश संश्लेषण या रासायनिक संशलेषण के द्वारा निर्मित उत्पादन को ग्रास प्राथमिक उत्पादकता कहते हैं इसमे से कुछ पदार्थश्वसन क्रिया द्वारा कार्बनिक पदार्थों के विघटन द्वारा नष्ट हो जाते हैं नेट प्राथमिक उत्पादकता- श्वसन द्वारा नष्ट पदार्थों को ग्रास प्राथमिक उत्पादकता में से घटाने पर जो उर्जा बचता है उसे नेट प्राथमिक उत्पादकता कहते हैं
२. द्वितिय उत्पादकता:
द्वितीय उत्पादकता में उपभोक्ता एवं अपघटक भोजन को रासायनिक उर्जा में परिवर्तन करते है|
उत्पादकता की मापन विधियाँ –
उत्पादकता को निम्न विधियों से मापा जा सकता है|
- गैस आदान प्रदान रीती (लाइट एवं डार्क वाटर बोतल)- यह विधि गार्डर एंड ग्रान ने १९२७ में दिया था|
- कार्बन १४ रीती (रेडियो आइसोटोप रीती )- यह विधि विल्लार्ड लिब्बी ने १९४० में दिया था|
- हारवेस्ट रीती – बनर्जी एवं बेनर्जी ने १९६७ ने दिया था|
- बाम्ब कैलोरीमेट्री – लिथ ने १६६५ में दिया था|
कार्बनिक उत्पादकता:
कार्बनिक उत्पादकता का मुख्य तथ्य मिट्टी के साथ कार्य करना है | इसमें जानवरों के अपशिस्ट पदार्थो एवं पौधों से निकले अपशिष्ट पदर्थों का उपयोग मिट्टी की उर्वरक छमता को बढ़ाने के लिए करते है इन अपशिष्ट पदार्थों को सड़ा कर तालाबो में डाला जाता है इस सड़े हुए पदार्थ को खाद (fertilizer/ manure ) कहते हैं
यह मछलियों के साथ साथ अन्य प्रकार की खेती के लिए बहुत ही प्रभावकारी रीती है क्योकि इसके उपयोग से तालाबों एवं खेतो की मिट्टियों में पोषक तत्वों की मात्रा बढ़ जाती है जो तालबों में पादप प्लवक एवं जन्तु प्लवक की मात्रा को बड़ा देती है
इन पादप एवं जंतु प्लवक को मछलियाँ अपने प्रमुख भोजन की रूप में उपयोग करती है मुख्यता छोटी मछलियाँ ( fish larva) इसके उपयोग से मछलियों की वृद्धि तेजी से एवं अधिक होती है|
कार्बनिक खाद को पेड़ पौधों का भंडार गृह भी कहा जाता है इसके उपयोग से मिट्टी की उर्वरता तो बढ़ता है हीसाथ ही साथ मिट्टी को संरक्षित रखने में भी सहायता प्रदान करता है यह मिट्टी के छोटे-छोटे कणों के साथ बंध कर मिट्टी की दानेदार संरचना को बनाए रखता है
खाद मिट्टी के रंग को भी काला बनाये रखता है काली मिट्टी खेती के लिए बहुत ही लाभकारी होती है खाद के उपयोग से मिट्टी के तापमान को भी समान्य रूप में बनाये रखने में मदद मिलता है खाद के उपयोग से जल की स्वामित्व एवं दैहिक शक्ति को भी बढाया जा सकता है|
मछलियों के लिए अनुकूल कार्बन:नाइट्रोजन एवं नाइट्रोजन:फॉस्फोरस:पोटेशियम का अनुपात २०:१ एवं ८:४:२ होता है |
जैविक खाद के प्रकार:
जैविक खाद के सयोंजक:
जैविक खाद | नाइट्रोजन (%) | फॉस्फोरस (%) | पोटेशियम(%) |
गोबर खाद | ०.३ -०.४ | ०.१-०.२ | ०.१-०.३ |
घोड़ा के अपशिष्ट (खाद) | ०.४-०.५ | ०.३-०.४ | ०.३-०.४ |
मुर्गी के अपशिष्ट | १.० -१.८ | १.४-१.८ | ०.८-०.९ |
गंदे पानी एवं कीचड़ | २.०-३.५ | १.०-५.० | ०.२-०.५ |
फार्म यार्ड खाद | ०.५-१.५ | ०.४-०.८ | ०.५-१.९ |
वानस्पतिक खाद | ०.४-२.० | ०.३-१.० | ०.७-१.५ |
हरी खाद | ०.५-०.७ | ०.१-०.२ | ०.६-०.८ |
सुखा हुआ ब्लड | १०.०-१२.० | १.०-१.५ | १.० |
मछली के अपशिष्ट | ४.०-१०.० | ३.०-९.० | ०.३-१.५ |
अस्थिचुर्ण | २.०-४.० | २०.०-५.० | – |
घर से निकले अपशिष्ट | ०.५-१.९ | १.६-४.२ | २.३-१२.० |
धन का भुषा | ०.३-०.५ | ०.२-०.३ | ०.३-०.५ |
सूर्यमुखी का खली | ७.९ | २.२ | १.९ |
रुई के बिज का खली | ६.४ | २.९ | २.२ |
जैविक खादों के पोषकतत्वों का परीसंचरण-
जैविकखाद उपयोग के फायदे:
जैविक खाद के उपयोग से पेड़ पौधों एवं मिट्टी को आवश्यक पोषक तत्व नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटेशियम पर्याप्त मात्रा में मिल जाता है इसके उपयोग से मिट्टी एवं तालाबों में विषाक्तता नही होता है यह मछली के लिए प्राकृतिक भोजन का पर्याप्त मात्रा में उत्पादन करता है इसमे स्वाभाविक रूप से सङनशील की शक्ति को बढ़ा देता है|
अत: इस खाद के उपयोग मे प्रमुख समस्या यातायात एवं ज्यादा मात्रा में मिल नही पाना है साथ ही साथ इसके कारण खर्च भी बढ़ जाता है कार्बनिक खाद में मौजूद पोषक तत्व, जीवाणुओं के द्वारा प्रकाशित होता है इस क्रिया के लिए जल एवं नमी की आवश्यकता पडती है|जो हमेशा नहि मिल पाता है जिससे कभी कभी नुकशान हो जाता है
जैविक खाद का प्लवक उत्पादन में प्रमुख प्रभाव:
पादप प्लवक एवं जन्तु प्लवक की जनसँख्या, जानवरों एवं खाद के प्रकार के अनुसार विभिन्न विभिन्न होता है (चेन कियु, १९८२) जो निम्न है –
प्लवक उत्पादन | नियंत्रित टंकी | मुर्गी की खाद | सूअर की खाद | गोबर खाद |
पादप प्लवक | —- | ५८.१ मी.ग्रा/ ली | ४९.९ मी.ग्रा/ ली | ३५.३ मी.ग्रा/ ली |
जन्तु प्लवक | —- | ६८.०% | २९.७% | २९.५% |
तालबों में जैविक खाद डालने से तिलापिया मछली के विकास में हो रहे परिवर्तन का आकलन:
मापदण्ड | उपचार | |||
मुर्गी खाद | मवेशी के खाद | सूअर के खाद | बिना खाद | |
प्रारम्भिक भार | १८.३८±०.२६ | १८.३१±०.२६ | १८.२३±०.२५ | १८.१४±०.२७ |
अंतिम भार(ग्राम) | ३४.९४±०.४३ | २६.४७±०.६७ | २६.५०±०.६६ | २०.१६±०.६९ |
भार में वृद्धि (ग्राम) | १६.५६±०.४८ | ८.१६±०.७८ | ८.२७±०.६८ | २.५३ ±०.६९ |
प्रतिदिन भार में वृद्धि | ०.२०±०.०१ | ०.१०±०.०१ | ०.१०±०.०१ | ०.०३±०.०१ |
भार में वृद्धि (%) | ९४.५±३.६ | ४७.३±४.९ | ४६.७±४.० | १५.२±४.० |
SGR (% प्रतिदिन) | ०.७७±०.०२ | ०.४२±०.०४ | ०.४३±०.०३ | ०.१३ ±०.०४ |
बहुत से प्रकार के खाद डालने से तिलापिया मछलियों में हो रहे बदलाव जैसे की उपज का सकल लाभ, कुल उपज,पुरे साल का कुल उपज, उत्तरजीविता, प्रारम्भिक एवं अंतिम स्तिथि का आकलन “ब्राउन अ.ज” के द्वारा किया गया जो निम्न है –
मापदण्ड | उपचार | ||||
मुर्गी खाद | मवेशी खाद | सूअर खाद | खाद के बिना | ||
सकल लाभ (kgha-1) | ६८१.४±८.३ | ५११.९±१२.९ | ५१६.७±१२.९ | ३९३.१±१३.४ | |
कुल उपज (kgha-1) | ३१३.८±९.४ | १५.७±१५.१ | १५२.१±१३.२ | ४०.५±१३.५ | |
साल का कुल उपज(kg ha-1) | १.२५५±३८ | ५८३±६० | ६०८±५३ | १६२±५४ | |
उत्तरजीविता (%) | ९७.५±०.३ | ९६.७±०.४ | ९७.५±०.४ | ९७.५±०.६ | |
प्राम्भिक स्थिति | १.६४±०.०२ | १.५९±०.०२ | १.५९±०.०१ | १.५९±०.०१ | |
अंतिम स्थिति | १.६५±०.०५ | १.३९±०.०४ | १.३९±०.०४ | १.४२±०.०४ |
तालबों में जैविक खाद डालने के बाद तिलापिया मछलीयों के सम्पूर्ण शारीर में पोषकतत्वों की मात्रा का आकलन ब्राउन अ.ज के द्वारा २००६ में किया गया इनके अनुसार तिलापिया मछलियों (tilapia rendalli) में पोषकतत्वों की मात्र निम्न है –
उपचार | अनुमानित संघटन | |||
नमी (%) | राख (%) | लिपिड (%) | प्रोटीन (%) | |
प्राम्भिक | ६४.०८±०.२९ | १४.१५±०.२५ | ९.२२±०.०८ | ६६.६८±०.३० |
मुर्गी के अपशिष्ट | ६६.८४±०.०८ | ११.२६±०.०६ | १५.९४±०.०३ | ७.५१±०.२१ |
मवेशी के अपशिष्ट | ६७.२४±०.२५ | ९.५५±०.०५ | १५.३२±०.०७ | ६७.८६±०.१३ |
सूअर के अपशिष्ट | ६५.३५±०.३१ | ९.६३±०.०४ | १५.६३±०.०८ | ६६.५०±०.२६ |
बिना खाद के | ६४.३१±०.११ | ९.०१±०.०७ | १५.०४±०.०६ | ६२.९७±०.०९ |
ब्राउन अ.ज २००६ के आकलन अनुसार जैविक खाद के उपयोग से जन्तु प्लवक की मात्रा में वृद्धि होती है|
इसी प्रकार तैरते बत्तख भी बीट त्याग कर तालाब की उत्पादकता बढ़ाते है। सड़ी गली पत्तियां भी हरी खाद के रूप में तालाब की उर्वरकता को बढ़ाते हैं।
मछली पालन के लिए आवश्यक उर्वरक
मछलीपालन जलीय खेती है जिन उर्वरकों का प्रयोग खेतों में किया जाता है, उन उर्वरकों को ही मोटे तौर पर मछलीपालन के लिए आवश्यकता होती है। इन उर्वरकों को दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है।
कार्बनिक खाद/जैविक खाद जो निम्नलिखित है
क. भेड़, बकरी, सूअर का मल-मूत्र
ख. बत्तख.मुर्गी का मल-मूत्र
ग. मवेशियों को गोबर
घ. हरी खाद
अकार्बनिक खाद.रासायनिक खाद
इसमें यूरिया/सिंगर सुपर फास्फेट/डी.ए.पी. आदि शामिल है।
चूना
चूने का प्रयोग तालाब में किया जाना अनिवार्य है अतः इसे भी हम खाद की ही श्रेणी में रखते हैं। इसके प्रयोग से मिट्टी में वर्तमान पोषक तत्व पानी में उपलब्ध हो पाते हैं। कली चूने को बुझा आकर पानी में घोल का तालाब में इनका छिड़काव् किया जाता है। चूने के प्रयोग से निम्नांकित लाभ है।
- पानी के पी.एच. को 7.50 से 8.50 के बीच संतुलित रखता है अर्थात हल्का क्षारीय बनाये रखता है।
- पाने को स्वच्छ एवं स्वास्थ्यप्रद रखते हुए इसमें घुलनशील ऑक्सीजन की मात्रा को बढ़ाता है।
- मछलियों को रोगमुक्त रखने में सहायता करता है।
- मछलियों की वृद्धि तथा प्रजनकों को समय पर परिपक्व होने में सहायक है।
- जब कई दिनों से बादल के कारण सूर्य नहीं निकला हो या मछलियां सूर्योदय के पूर्व सतह पर आकर असमय व्यवहार करती हो तो मछलियों को आकस्मिक मृत्यु से बचाता है।
- तालाब में प्रयोग किये जाएं वाले गोबर आदि को तीब्रता से विघटित करता है। चूने का प्रयोग खाद डालने के एक सप्ताह पर्व किया जाता है।
खाद का प्रयोग
- खाद का प्रयोग जीरा डालने के पूर्व तथा चूना डालने के बाद किया जाता है।
- गोबर को तालाब के किनारे पर पानी के भीतर डाल दिया जाता है, ताकि धीरे-धीरे रिसकर तालाब के जल में घुलते रहे।
- गोबर डालने के दो सप्ताह बाद जीरा का संचय किया जाता है, ताकि इस अवधि में प्लवकों की मात्रा के अनुसार खाद को प्रयोग किया जाता है। जैविक एवं रासायनिक खाद का प्रयोग 15 दिनों के अंतराल पर किया जाना चाहिए।
- मुर्गी के बीट में कार्बनिक तथा अकार्बिनक दोनों तत्व उपलब्ध रहते हैं। अतः यह मत्स्यपालन के लिए विशेष लाभदायक है।
- अगर तालाब में पानी की गहराई कम हो अथवा पानी का रंग काला,भूरा या गहरा हरा दिखाई दे तो खाद का प्रयोग बंद कर देना चाहिए।
एक एकड़ तालाब में खाद की आवश्यकता
खाद का नाम | खाद की मात्रा |
गोबर | 10,000 किलो प्रतिवर्ष |
चूना | 200 किलो प्रतिवर्ष |
चूरिया | 150 किलो प्रतिवर्ष |
सिंगल सुपर फास्फेट | 150 किलो प्रतिवर्ष |
म्यूरेट और पोटाश | 25 किलो प्रतिवर्ष |
मत्स्यपालन में ध्यान देने वाली बातें
- मत्स्य बीज संचयन के कम कम दस दिन पूर्व तालाब में जाल चलाने के बाद 200 कि.ग्रा. प्रति एकड़ की दर से बुझा हुआ चूना का प्रयोग करें।
- तालाब में मत्स्य बीज छोड़ने के पहले मत्स्य बीज के पोलीथिन पैक या हांडी को तालाब के पानी में 10 मिनट रहने दें ताकि मत्स्य बीज वाले पानी और तालाब के पानी के तापमान एक हो जाए। उसके उपरात ही मत्स्य बीज को धीरे-धीरे तालाब के पानी में जाने दें।
- तालाब में जानवरों को प्रवेश करने से तालाब के तल का पानी एवं सतह का पानी मिलता रहता है जो मत्स्य पालन के लिए लाभदायक है।
- तालाब के आर-पार खड़े होकर तालाब के पानी पर रस्सी पीटने से/तालाब में जाल चलाने से/लोगों के तैरने से तालाब के पानी में ऑक्सीजन ज्यादा घुलता है तथा मछली का अच्छा व्यायाम होता है जो मछली की वृद्धि के लिए लाभदायक है।
- दिसम्बर माह के मध्य में तालाब में चूना का एक बार फिर प्रयोग करने से मछलियों में जाड़े में होने वाली लाल चकते की बिमारी से बचा जा सकता है।
- तालाब में जाल डालने के पहले जाल को नमक के पानी से अच्छी तरह धो लें इससे मछली में संक्रमण वाली बीमारी को प्रकोप नहीं होगा।
- तालाब में मछली की शिकार माही करते समय पकड़ी गई मछलियों को बिक्री हेतु ले जाने तक हप्पा में या जल में समेट का तालाब में जिन्दा रखने की कोशिश करें। इससे मछली बाजार में ताज़ी पहुंचेगी और उसका अच्छा मूल्य प्राप्त होगा।
- सुबह में तालाब के चारों ओर घूमें । तालाब के किनारे मिट्टी में बने पद चिन्हों या यहाँ वहां गिरे मछली या घास फूस से आपको तालाब में मछली की चोरी की जानकारी मिल सकती है। साथ ही साथ मछली की सुबह की गतिविधियों/तैरने की स्थिति से भी मछली के स्वास्थ्य की जानकारी प्राप्त होती है।
- तालाब का पानी यदि गहरा हरा हो जाए या उससे किसी तरह की दुर्गन्ध आती महसूस हो तो अविलम्ब तालाब में बाहर से ताजा पानी डालें तथा किसी भी तरह का भोजन या खाद तालाब में डालना बंद कर दें।
- यदि सदाबहार तालाब है तो प्रयत्न करें कि आधे किलो से ऊपर की मछली ही निकाली जाए।
- यदि आसपास मौसमी तालाब है तो उससे छोटे बच्चे 100-150 ग्राम का क्रय का अपने तालाब संचयन करें।
- मत्स्यपालन के कार्यकलाप के लिए एक डायरी संघारित करे जिससे इस पर होने वाले खर्च तथा आय एवं मछली के उत्पादन का ब्योरा लिखते रहे जो भविष्य में काम आएगा।
- आपात स्थिति में मत्स्य विशेषज्ञ से संपर्क करें।
बेहतर मछली उत्पादन हेतु मत्स्य पालन की कार्यों का विस्तृत विवरण
डॉ रविंद्र नाथ भारती, मत्स्य विशेषज्ञ, कैमूर