पशुओं में नेजल सिस्टोसोमोसिस
डा॰ पंकज कुमार एवं डा॰ अवनिश कुमार गौतम
बिहार पशु विज्ञान विश्वविद्यालय, पटना-14
नेजल सिस्टोसोमोसिस का प्राकोप उत्तर बिहार व आस – पास के प्रदेशों में देखा गया है जहाँ नदियों की बहुतयात व बाढ़ की समस्या है और घोंघा जनित पर्ण-कृमि परजीवी बिमारियों की दर अधिक हैं। इन क्षेत्रों में इसे सामान्य भाषा में नकड़ा या सुनसुना कहते हैं। इस रोग से ग्रसित गाय व भैंसों की सांस में जो घरघराहत की आवाज होती हे वह खर्राटे जैसी लगती है। यह बीमारी सिस्टोसोमा नेजेलिस नामक परजीवी से होती है। सिस्टोसोमा रक्त वाहिकाओं में पाये जाने वाले फ्लूक हैं और सिस्टोसोमा नेजेलिस मुख्यतया नासिका श्लोष्मा में पाये जाने वाली रक्त वाहिकाओं में मौजूद रहते हैं। इस परजीवी के नर व मादा की संरचना अलग-अलग होती है और लंबाई में ये करीब 6 से 11ण्5 मि० मी० तक धागे जेसै होते है। मादा रक्त वाहिकाओं में ही बूमरैंग के आकार के अंडे देती है।
रोग के लक्षण – रोग ग्रसित पशु में सांस में घरघराहट की आवाज के साथ नासिका रंधों से म्यूकस का स्त्राव होता रहता है। नासिका छिद्रों का ध्यानपूर्वक अवलोकन करने पर श्लेष्मा में छोटे-छोटे उभार दिखाई देते हैं। गायों में छोटे फूलगोभी के स्वरूप् नजर आते हैं जबकि भैंसो में इसका आकार मटर के दाने सा होता है। पशुओं को लगातार छींक आती रहती है व सांस लेने में अवरोध महसूस होता है। रक्त वाहिकाओं में वयस्क परजीवी थक्का पैदा कर घाव करते हैं। ग्रस्त पशु बहुत बेचैन नजर आता है और उसकी दूध देने की क्षमता घट जाती हैं। गाय में रोग के लक्षण बहुत प्रभावी दिखाई देते हैं जबकि भैंसें, इस रोग से ज्यादा ग्रसित होती हैं परन्तु रोग के लक्षण ज्यादा नजर नहीं आते हैं। बैलों में यह बीमारी काफी गंभीर होती है और खर्राटों की आवाज जैसी सांस में घरघराहट होती है। कभी-कभी इस बीमारी से पशु की मृत्यु भी हो जाती है। बकरी और भेड़ों में वे बीमारी साधारणतया बहुत कम ही होती है।
संवहनः – इंडोप्लेनोरबिस इक्स्टस प्रजाति के घोंघे इस परजीवी के मध्यपोषी होते हैं और सिस्टोसोमा नेजेलिए के सरकेरिया चरने के समय पशुओं की त्वाचा बेध कर रक्त वाहिकाओं में प्रवेश करते है तथा आनेवाले दिनों में व्यस्क होते हैं तथा प्रजनन करते हैं। मादा बड़ी संख्या में अंडे देती हैं। ये अंडे नासिका स्त्राव या गोबर के साथ बाहर आते हैं और अंडों से मुक्त हुये भिरासीडियम घोंघों में प्रवेश करते हैं।
निदानः पशु में रोग के लक्षणों का अवलोकन करते हुये नासिका रंघों में उभार (ग्रेनुलोमा) को देखना चाहिये तत्पश्चात नाक के स्त्राव व गोबर का परीक्षण करवाना चाहिये। इस स्त्राव में बूमरैंग का आकार के अंडे दिखाई देते हैं।
उपचारः-
(1) पहले क्लोरफिनरमिन भेलेट (जीत) – 10 मि० ली० माँस में सुई द्वारा दिया जाता है।
(2) इसके उपचार में मुख्य रूप से “टार्टर ईमेटिक” (सोडियम एंटीमनी टारटेरेट) 0Û5 ग्रा० से 1 ग्रा० को 100 मि० ली० डेस्कट्रोज सलाईन में मिलाकर नस में एक दिन बीच कर 6 दिन दिया जाता है। परंतु नस के बाहर “टार्टर ईमेटिक” जाने पर ऊतकों में विष पैदा करता है जिससे ऊतक मर जाता है।
(3) या एथियोमेलिन – 25 मि० ली० माँस में सुई द्वारा एक दिन बीच कर 4-5 बार दिया जाता ळें
बचावः
(1) पशुओं को ऐसी जगह चरने से बचाना चाहिये जहाँ घोंघों का प्रकोप हो।
(2) पशुओं को सरकेरिया से संक्रमित चारा नहीं देना चाहियैं
(3) रोग के लक्षण नजर आते ही पशु चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिये व नासिका स्त्राव का परीक्षण करवाना चाहिये।