पूर्वी उत्तर प्रदेश की जलवायु के अनुकूल गंगातीरी गाय का संरक्षण एवं संवर्धन की आवश्यकता
छाया रानी1, उमेश सिंह2, मेघा पांडे3, अंजलि4, डी॰ दिव्या5
1पशु आनुवंशिकी एवं प्रजनन विभाग, भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान इज्जतनगर, बरेली– 243122, उत्तर प्रदेश
2अधिष्ठाता डीन, संजय गांधी इंस्टिट्यूट ऑफ़ डेरी टेक्नोलॉजी, जगदेव पथ, पटना – 800014, बिहार
3,4वैज्ञानिक, गौ शरीर क्रिया विज्ञान एवं प्रजनन विभाग, भा. कृ. अनु. प.-केंद्रीय गोवंश अनुसंधान, मेरठ-250001, उत्तर प्रदेश
5वैज्ञानिक, गौ आनुवंशिकी एवं प्रजनन विभाग, भा. कृ. अनु. प.-केंद्रीय गोवंश अनुसंधान, मेरठ-250001, उत्तर प्रदेश
हमारे देश का गौवंश अपनी विशेषताओ के कारण दुनिया के विभिन्न देशों में अपना अहम स्थान बना रहा है। विदशों में जब से भारतीय गौवंश के दूध, घृत, गो मूत्र -अर्क की विशेषताओ एवं उपयोगिता का ज्ञान हुआ है तब से वो भारतीय गौवंश की नस्ल को महत्त्व प्रदान करने लगे है। भारत में न केवल जनसखंया के लिहाज से मवेशियों के आनुवंशिक संसाधनों का विशाल भंडार है, अपितु 53 मान्यता प्राप्त गायों की नस्ल का प्रतिनिधित्व करने वाली आनुवंशिक विविधता भी है। गौवंश आनुवंशिक संसाधनों का पूल दुग्ध उत्पादन में 52% योगदान देता है जोकि भारत को विश्व का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक बनाता है। साठ -सत्तर के दशक में औसत दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए देसी गायों के संकरण को राष्ट्रीय प्रजनन नीति का हिस्सा बनाया गया, तत्पश्चात पिछले 40-50 वर्षो मे देसी गयो का अंधाधुंध संकरण कराया गया। शुरुआत में दुग्ध उत्पादन मे वृद्धि तो हुई परन्तु बाद में यह भी ज्ञात हुआ की इन संकर नस्ल के गायों की न केवल बीमारियो से लड़ने क लिए रोग प्रतिरोधक क्षमता की कमी है बल्कि ये स्थानीय जलवायु के अनुकूल भी नहीं है । देसी गायों के संकरण की कोई सुव्यवस्थित राष्ट्रीय नीति न होने के कारण अधिक दुग्ध उत्पादन की चाह में अंधाधुंध संकरण को बड़ावा दिया गया जिसके फलस्वरूप कई गोवंश विलुप्त होने क कगार पर पहुंच गए है। लिहाजा अब जड़ों की ओर लौटने की तैयारी है। भारत में 193 मिलियन गायों के साथ विश्व की 20.5 % गायों की आबादी पाई जाती है । 20 वीं पशुधन गणना के अनुसार, भारत में लगभग 193 मिलियन गायें है, जिनमें से 73.5% (142 M) अवर्णित स्वदेशी या ग्रेडेड स्वदेशी प्रकार की हैं तथा केवल 26.5 % (51. 46 M) संकर/ विदेशी गायें हैं। कुल स्वदेशी गायों (73.5%) में से केवल 22 % गायें ही शुद्ध स्वदेशी नस्ल के रूप मे राष्ट्रीय पशु आनुवांशिक संसाधन ब्यूरो द्वारा मान्यता प्राप्त हैं।
गंगातीरी: एक परिचय
गंगातीरी नस्ल इक दोहरे उद्देश्य वाली देसी नस्ल की गाय है । कठोर जलवायु परिस्थितियों तथा कम लागत में भी अच्छी उत्पादक होने की विशेषता के कारण यह भारत के लाखों सीमांत और ग्रामीण समुदाय के लोगों की जीविका का साधन है। इसे भारत के दुआबा बेल्ट समुदाय की आजीविका का अनिवार्य अंग माना जाता है। गंगातीरी गाय को बिहार और उत्तरप्रदेश के पश्चिमी भागों में गंगा के किनारे वाले क्षेत्रों में उत्पन्न होने के लिए जाना जाता है। है। गंगा किनारे उत्पत्ति होने के कारण इसे गंगातीरी क नाम से जाना जाता है। उत्तरप्रदेश के बलिया और गाजीपुर तथा बिहार के रोहतास और शाहबाद जिले इसके उद्गम स्थल हैं। गंगा नदी के किनारे के इलाकों में पायी जाने वाली ये गाये उत्तर भारत के मवेशियों की एक बहुत महत्वपूर्ण दोहरे उद्देश्य वाली मवेशी नस्ल है, जिसका उपयोग दूध उत्पादन के साथ -साथ कृषि उद्देश्यों के लिए भी किया जाता है।
यह हरियाना नस्ल से मिलती जुलती नस्ल है। गंगातीरी को पूर्वी हरयाणा या शाहबादी के नाम से भी जाना जाता है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने वर्ष 2015 में गंगातीरी को परिग्रहण संख्या (एक्सेसन नंबर) INDIA_CATTLE_2003_GANGATIRI_ 03039 वाली नस्ल के रूप में पंजीकृत किया है। वर्तमान में नस्ल के मुख्य प्रजनन पथ में वाराणसी, गाजीपुर, मिर्जापुर और उत्तर प्रदेश के बलिया जिले और बिहार राज्य के भोजपुर जिले शामिल हैं। गंगातीरी नस्ल की गायें सफेद या भूरे रंग की होती हैं। माथा उभरा हुआ, सीधा और चौड़ा होता है। पलकें, थूथन (मजल), खुर और पूंछ आम तौर पर काले रंग का होता है। यह गौ नस्ल उत्तर प्रदेश राज्य के संगठित डेयरी फार्म जैसे की पशुधन इकाई, शुआट्स (SHUATS, इलाहाबाद), राजकीय पशुधन सह कृषि फार्म (अराजीलाइन, वाराणसी), सुरभि शोध संस्थान (गीता गौशाला,डगमगपुर, मिर्ज़ापुर) में भी पाई जाती हैं।
गंगातीरी नस्ल की शारीरिक विशेषताएँ :-यह एक दोहरे उद्देश्य वाली नस्ल होती है। गंगातीरी पशुओं को दूध उत्पादन और कृषि उद्द्येश्यों के लिए पाला जाता है। बैल जुताई, तथा दुसरे कृषि कार्यो के लिए उचित माने जाते हैं।
- गंगातीरी गौ नस्ल पूरे सफेद (धावर) या भूरे रंग (सोकन)के बहुत सुंदर मवेशी हैं।
- गाय और बैल दोनों के सींग होते हैं। उनके सींग आकार में मध्यम होते हैं और पीछे की तरफ और ऊपर की ओर उठे हुए नुकीले नुस्खों से समाप्त होते हैं।
- उनके माथे बीच में उथले खांचे के साथ सीधे और चौड़े होते हैं।
- खुरों, थूथन और पलकों का रंग आम तौर पर काला होता है।
- परिपक्व बैलों की शरीर की औसत ऊंचाई कंधों पर लगभग 142 cm, और गायों के लिए लगभग 124 cm है।
गंगातीरी गाय का दूध उत्पादन :-
- गंगातीरी गाय की प्रजनन अवधि 14 महीने से 24 महीने के बीच की होती है।
- गंगातीरी गाय लगभग8 से 16 किलोग्राम तक दूध दे सकती है। इस प्रजाति की गायें काफी दुधारू होती हैं | आमतौर पर ये प्रतिदिन 2-4 लीटर दूध देती है।
- उनका दूध बहुत अच्छी गुणवत्ता वाला होता है, जिसमें लगभग 9 प्रतिशत बटरफैट सामग्री होती है, जो 4.1 से 5.2 प्रतिशत तक होती है।
क्रम संख्या | गौ-नस्ल | गंगातीरी |
1. | अन्य नाम | पूर्वी हरयाणा या शाहबादी |
2. | परिग्रहण संख्या (एक्सेसन नंबर) | INDIA_CATTLE_2003_GANGATIRI_ 03039 |
3. | उपयोगिता | दूध उत्पादन व कृषि कार्य |
4. | विशेषताएँ | शांत स्वभाव, सक्रिय, स्थानीय जलवायु के लिए अच्छी तरह से अनुकूलित, अच्छी दुग्ध उत्पादक |
5. | आकार | मध्यम |
6. | जलवायु सहनशीलता | स्थानीय जलवायु |
7. | रंग | अधिकांशतः सफ़ेद (धावर ) या ग्रे (सोकन) |
8. | सींग | उपस्थित |
9. | दुग्ध उत्पादन | औसतन (2-4 लिटर), अधिकतम (8-16) , 4.1 से 5.2 प्रतिशत बटरफैट |
गंगातीरी गाय: संरक्षण एवं संवर्धन की आवश्यकता
गंगातीरी पशुपालन पारंपरिक प्रथा का एक हिस्सा है जिसका उपयोग किसान कई पीढ़ियों से अपनी अजीविका के लिए करते रहे हैं। तथा इस क्षेत्र के किसानो के लिए गंगातीरी पशुपालन कृषि का अभिन्न अंग है। भारत में अधिकांश किसान सीमांत या छोटे भूमिधारक हैं। अतः छोटे और सीमांत किसानों के लिए गंगातीरी गाय एक महत्वपूर्ण नस्ल है। ये ज्यादातर छोटे झुंडों में, विशेष रूप से गंगा के मैदानी इलाकों के पास पाई जाती हैं। गंगातीरी गायें सरल स्वभाव की होती हैं। इनका दुग्ध काल 6 से 8 महीने तथा ब्यांत अंतराल 12 से 15 महीने पाया गया हैं जबकि शुष्क काल 5 से 6 महीने का पाया गया है। गंगातीरी पशुपालन से प्राप्त होने वाले दूध के अलावा इससे प्राप्त होने वाले अन्य उत्पाद गंगातीरी पालकों की आमदनी का मुख्य स्त्रोत है। गंगा किनारे बसे इलाकों में पायी जाने वाली ये गायें अच्छी दूध देने वाली मानी जाती हैं क्यूंकि इनका विकास हरयाणा नस्ल से किया गया है, जो दुधारू गायों के विकास का एक विस्तार है। ज्यादातर वाराणसी में पाली जाने वाली गंगातीरी गायों से प्रतिदिन 8 से 16 लीटर तक दूध प्राप्त किया जा सकता है। लेकिन फिर भी इस नस्ल की गायों की संख्या काफी कम है। ये नस्ल लुप्त होने की कगार पर है। गंगातीरी मवेशियों का जनसंख्या प्रतिशत भारत में मौजूद कुल मवेशियों का मात्र 0.4 % है (पशुधन जनगणना, 2019)। इनकी कुल संख्या 5 लाख है जिसमे से 2.4 लाख शुद्ध देसी है तथा 2.7 लाख ग्रेडेड प्रकार की हैं।
गंगातीरी गायें अपने वातावरण के अनुसार पूर्णतया अनुकूलित होती है। जहाँ एक और ये गौनस्ल गर्मियों में अत्यधिक गर्मी तथा सर्दियों में अत्यधिक ठण्ड सह सकती है वहीं दूसरी और इनमें बिमारियों एंव परजीवियों से लड़ने की अदभुत प्रतिरोधक क्षमता भी होती हैं।
गंगातीरी : विशिष्ट विशेषताएं
- रिपोर्टों से पता चलता है कि गंगातीरी एकमात्र ऐसी स्वदेशी गौ नस्ल है जो गर्मियों में 8-10 लीटर प्रतिदिन दूध देती है जहाँ अन्य गौ नस्ल असफल हो जाती हैं (टाइम्स ऑफ इंडिया)। इससे इससे पता चलता है कि ये गौ नस्ल अधिक उष्णता को सहन करने वाली गौ नस्ल हैं।
- गंगातीरी बैल कृषि कार्यों के लिए अच्छे होते है। दूध और दूध उत्पादों के साथ, गोबर की खाद और गोबर के उपलों की बिक्री के माध्यम से भी किसान काफी आय अर्जित कर अपनी आजीविका सुरक्षित कर सकते हैं।
- यह गौ नस्ल कई उत्पादन वप्रजनन संबंधी बीमारियों के प्रति अच्छी सहनशीलता तथा अन्तः एवं बाह्य-परजीवियों के प्रति अच्छी प्रतिरोधक क्षमता रखती हैं। यह भारत की एक महत्वपूर्ण दोहरे उद्देश्य वाली मवेशी नस्ल है जोकि अच्छी ड्राफ्ट और स्तनपान क्षमता के कारण किसानो की आजीविका में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं ।
- यहगौ नस्ल एक देसी नस्ल हैं जिनका बाह्य आवरण लचीला होता है इनमे नेवेल फ्लेप उभरा हुआ तथा ड्यूलप अच्छी तरह विकसित होता है। इन सभी के माध्यम से ये गौ नस्ल संकर नस्लों की तुलना में गर्मियों के दौरान तेज़ गर्मी से निपटने के लिए शरीर की सतह के बड़े क्षेत्र में बदलाव कर पाते है।
मवेशियों की यह नस्ल स्थानीय कृषि-जलवायु परिस्थितियों के लिए अच्छी तरह से अनुकूलित है। अतः कोई भी हस्तक्षेप जो इनकी उत्पादकता में सुधार कर सके, न केवल मवेशियों की पालन-पोषण में स्थिरता पर दूरगामी प्रभाव डालेगा बल्कि किसानों का बहुआयामी सशक्तिकरण मे भी मददगार होगा। किन्तु इसकी कम होती आबादी एक गंभीर चिंता का विषय बनी हुई है । गाय भारत की संस्कृति है और इसका संरक्षण करना हर किसी का दायित्व है। इसकी मूल्यवान विशेषताओ को देखते हुए, वर्तमान में, उत्तर प्रदेश सरकार गंगातीरी गायों को उनके मूल स्थान (पूर्वी उत्तर प्रदेश) मे संरक्षण एवं संवर्धन में प्रयासरत है।
उत्तर प्रदेश राज्य द्वारा संचालित गंगातीरी नस्ल विकास कार्यक्रम
सरकार और अन्य सक्रिय संगठनों ने इस नस्ल के विकास और संरक्षण के लिए गहरी रुचि दिखाई है। राष्ट्रीय गोकुल मिशन, हिमीकृत वीर्य स्टेशन की स्थापना जैसे विभिन्न कार्यक्रम इसी उद्देश्य से चलाये जा रहे हैं। गंगातीरी मवेशियों के उन्नयन (ग्रेडिंग) और सुधार के लिए, उत्तर प्रदेश कृषि अनुसंधान परिषद तथा हिमीकृत वीर्य स्टेशन (पूर्णिया, बिहार) जैसे कई संगठन हैं जो गंगातीरी, लाल सिंधी, बेचूर और साहीवाल जैसी स्वदेशी नस्लों के हिमीकृत वीर्य को उपलाभ करने व उसे बनाए रखने में सहायक हैं। राष्ट्रीय गोकुल मिशन के तहत वाराणसी में गंगातीरी गाय संरक्षण और विकास केंद्र के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी गई है ( द इकोनॉमिक टाइम्स)। । इसके तहत गंगातीरी गाय की नस्ल के साथ ही मेवाती, केहरीगढ़ और पोंवार गाय की नस्लों के साथ भदावरी भैंस की नस्लों को संरक्षित किया जाएगा। इनके संरक्षण के लिए राष्ट्रीय बोवाईन प्रजनन एवं डेयरी विकास कार्यक्रम के तहत यूपी को 37 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है। इससे प्रदेश में गोकुल ग्राम की स्थापना भी की जाएगी। उत्तर प्रदेश पशुधन विकास बोर्ड (UPLDB) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) डॉ. नीरज गुप्ता के अनुसार, यूपी में इस नस्ल को बढ़ावा देने के लिए वाराणसी जिले में संवर्धन का काम किया जा रहा है। साथ ही सीमन प्रत्यारोपण का भी काम किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश में इनकी संख्या 2 से 2.5 लाख है। जबकि, कीमत 40 से 60 हजार रुपये तक है। ”
निष्कर्ष
गंगातीरी गाय में न सिर्फ एक बेहतर दोहरे उद्देश्य वाली गौ-नस्ल के रूप में विकसित होने की क्षमता है बल्कि इसमें गंगातीरी गौपालकों एंव क्षेत्रीय किसानो के सम्पूर्ण एंव सुदृढ़ विकास की असीम सम्भावना छिपी हुई है। भले ही इनकी संख्या काफी कम है लेकिन वे बड़ी संख्या में मानव आबादी का पालन पोषण करते हैं। ये प्रतिकूल जलवायु में भी अच्छा प्रदर्शन करते हैं। ग्लोबल वार्मिंग के वर्तमान परिदृश्य में ग्रामीण और सीमांत किसानों के सतत विकास के लिए यह बहुत अच्छा विकल्प हो सकता है। सही मायने में, गंगातीरी मवेशियों को भारत के दौबा बेल्ट के ग्रामीण समुदाय के सतत विकास के लिए जीवन रेखा कहा जा सकता है। अपनी मूल्यवान विशेषताओं के कारण यह गौ- नस्ल अपनी एक विशिष्ट पहचान रखती है तथा छोटे एंव सीमांत किसानों के जीविकोपार्जन में गंगातीरी पशुओं का महत्वपूर्ण योगदान है, अतः इसके महत्व को ध्यान में रखते हुये इसका संरक्षण एवं संवर्धन आज के समय की आवश्यकता हैं।