“One World, One Health: Prevent Zoonoses, Stop the Spread”
एक विश्व, एक स्वास्थ्य: ज़ूनोसेस से बचाव, फैलने से रुकाव
डॉ भावना गुप्ता, डॉ रणविजय सिंह, डॉ रश्मि कुलेश एवं डॉ विष्णु गुप्ता
पशु जन स्वास्थ्य एवं महामारी विभाग
पशु चिकित्सा एवं पशु पालन महाविद्यालय,
नानाजी देशमुख पशु चिकित्सा विज्ञान विश्व विद्यालय जबलपुर (म. प्र.)
प्राचीन काल से ही “वसुधेव कुटुंबकम की अवधारणा हमारी भारतीय संस्कृति की मूल अबधारणा का हिस्सा है , हमारी संस्कृति “सर्वे भवन्तु सुखिना” अर्थात ” जियो और जीने दो ” के रही है इस अवधारणा में विश्वास में विश्वाश करते हुए बड़े हुए है , हमें यह यह सिखाया गया है की धरती हमारी माता है और हमें प्रकृति का सम्मान करते हुए समरसता से जीवन जीना चाहिये | कुछ दशकों से विश्व में विकास की बात के नाम पर हम सभी अंधी दौड़ में दौड़ने में लगे हुए है परन्तु अब जब बहुत से विनाशकारी परिवर्तन हमारे सामने आये है तब हम फिर अपनी पुरानी अवधारणाओं में विश्वास करने लगे है जिसमे हमें स्थाई दीर्घकालिक विकास प्रकृति के साथ रहते हुए कैसे करना है यह बताया गया था |
आज हम वैश्वीकरण,शहरीकरण के कारन यह कह सकते है की पूरा विश्व एक है अतः यदि हमें अपने स्वास्थ्य की बात करनी है तो पूरे विश्व के स्वास्थ्य की बात करनी पड़ेगी, इतना ही नहीं क्योकि हम सभी जीवो का जीवन हमारे पर्यावरण के कारन ही संभव है अतः हमे पर्यावरण के स्वास्थ्य के प्रति पुनः सचेत होना पड़ेगा |
सयुक्त राष्ट्र ने सतत विकास के १७ लक्ष्य २०३० तक प्राप्त करने हेतु तय किये है इनमे भी बेहतर स्वास्थय के प्रति जागरूकता बढ़ाई गई है ,गरीबी खत्म करना, पर्यावरण की रक्षा, जलवायु परिवर्तन, टिकाऊ उपभोग, शांति और न्याय जैसे नए विषय जोड़े गये हैं यह सब कही न कही एक स्वस्थ्य की परिकल्पना से ही संभव है , बहुत सी समस्याएं हम सभी देशो की सांझी है जैसे जलवायु परिवर्तन, बीमारिया आदि और इन समस्याओं के लिए हमे एक विश्व – एक स्वाथ्य की परिकल्पनाओं पर चल कर ही सफलता मिलेगी |
महामारी विज्ञान में एक त्रिकोण की अवधारण है जिसमे एजेंट (रोग करक- जीवाणु , विषाणु , परजीवी इत्यादि ) , होस्ट (पशु , पक्षी, मनुष्य, पेड़ पौधे ),एवं पर्यावरण किसी भी रोग की उत्पत्ति तथा फैलाव एवं विस्तार में महत्व पूर्ण भूमिका निभाते है |
अब यदि बात ज़ूनोटिक बीमारियों की हो तो ये वह बीमारिया है जो पशु-पक्षियों एवं मानव के बीच संचारित हो सकती है फैल सकती है | ज़ूनोटिक वीमारियों के फैलने में दूषित हवा, पानी एवं भोजन भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है , इसके अलावा भी बहुत सी बीमारियों के फैलने में बैक्टेर जैसे की मक्खी , मच्छर, किलनी , पिस्सू आदि भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है| हमारा पर्यावरण भी इसमें बहुत ही अहम् भूमिका निभाता है क्योकि चाहे हम एजेंट की बात करे या वेक्टर की और या होस्ट की हम सभी का आश्रय स्थल तो हमारा पर्यावरण ही है| एक स्वास्थ्य परिकल्पना की मूल अवधारणा ही यही है की हम पर्यावरण, पशु पक्षी , पेड़ पौधो सभी के स्वस्थ्य को एकीकृत रूप में देखें क्योकि किसी भी एक घटक के ऊपर पड़े बिपरीत प्रभाव का असर अन्य घटको पर भी पड़ता है उदाहरण के लिए औद्यगिकीकरण , परिवहन, पेड़ो की कटाई आदि के कारण वातावरण का तापमान बढ़ रहा है , हवा भी प्रदूषित हो रही है इसके कारन पशु पक्षी , मनुष्यो के स्वास्थ्य की समस्याये बढ़ रही है , जैव बिबिधता, जो की जीवन की मूलभूत जरूरत है , घट रही है , जीवो की प्रतिरोधकता घट रही है जिससे पुनः बीमारियों के होने की सम्भावना बाद रही है , इसके साथ गर्म एवं नम वातबरण में छोटे कीट बढ़ रहे है जो की वेक्टर का काम कर रहे है, इसके साथ साथ प्सुंतलन के कारन प्राकृतिक विपदाएं जैसे बाढ़ , भूकंप, भूस्खलन आदि घटनाये भी बढ़ रही है , अतः यदि हम मनुष्य अपने आप को स्वस्थ्य देखना चाहते है तो हमें प्रकृति तथा इसके सभी घटक – जीव जंतु , पशु पक्षी आदि के स्वस्थ्य का भी ध्यान रखते हुए सामंजस्य के साथ रहना होगा तभी हम स्थाई एवं दीर्घकालिक विकास की बात कर सकते है | जब से जानवरो के साथ हमारा सामाजिक जुड़ाव हुआ है तभी से उनको होने वाली बहुत सी बीमारियों के लिए भी हम सवेदनशील हो गए , कुछ ज़ूनोटिक बीमारिया तो बहुत ही पुराने समय से ज्ञात है जैसे क्षय (टी . बी .), ब्रुसलोसिस रैबीज, एंथ्रेक्स , इन्फ्लुएंजा , आदि , परन्तु आज हम बहुत सी नयी बीमारियों को भी देख रहे यही जैसे इबोला , मारबर्ग , क्यसनूर फारेस्ट डिजीज , क्रीमियन कांगो हीमोरैजिक फीवर, आदि |
ज़ूनोटिक बीमारियों की उत्पत्ति एवं फैलने के कारण–
प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन , वृक्षों की कटाई , औद्योगिकीकरण , अनियंत्रित निर्माण, जनसँख्या बृद्धि ,आदि के कारण पर्यावरण प्रदूषित हुआ है , वातावरण का तापमान एवं नमी बड़ी है , जलवायु परिवर्तन के कारन भी वाहक कीटो की संख्या में भी बृद्धि हुई है , इसके साथ साथ रोग फ़ैलाने वाले सूक्ष्म जीवो में भी प्रतिरोधकता बड़ी है और मनुष्यो एवं अन्य जीव जन्तुओ की प्रतिरोधक क्षमता घटी है , इन सभी कारणों से भी ज़ूनोटिक बीमारियों को प्रकोप बढ़ रहा है और हमे नई नई समस्याओ का सामना करना पड रहा है | इसके अलावा भी पशु तथा इनके उत्पादो से जुड़े व्यापार में पारदर्शिता एवं मानकीकरण की कमी आदि के कारन भी गैर क़ानूनी रूप से पशु उत्पादों को खरीदा एवं बेच जा रह है जो की पुनः नई किस्मो की बीमारियों की उत्पत्ति का कारन हो सकता है जैसा की हम कोरोना के लिए कह रहे है |
ज़ूनोटिक बीमारियों का संक्षिप्त वर्गीकरण–
- डायरेक्टज़ूनोसेस – जैसे की रैबीज,ब्रूसीलोसिस आदि यह बीमारिया मुख्य रूप से पशुओ को प्रभावित करती है परन्तु यदि सावधानी नहीं राखी गई तो मनुष्य भी इनकी चपेट में आ सकते है |
- साइक्लोज़ूनोसिस – इन बीमारियों के वाहक पशु एवं मनुष्यो दोनों को ही प्रभावित करते है उदहारण के लिए टीनिया परजीवी |
- मेटाज़ूनोसेस – इस तरह की बीमारियों के संक्रमण में कीट , पतंगे , मक्खी , मच्छर आदि महत्व पूर्ण भूमिका निभाते है जैसे की प्लेग , चिकनगुनीआ , डेंगू , रिफ्ट वेळी फीवर आदि |
- सेप्रोज़ूनोसेस – इस प्रकार की ज़ूनोटिक विमारियो के फैलने में निर्जीव वस्तुओ जैसे की भोजन, मिटटी, पानी, हवा, या अन्य उपयोग की वस्तुए जैसे टोलिया, कपडे, कंघी , दरवाजे के हत्थे आदि की भूमिका होती है जैसे- दाद , अमीबा , फासिओलोप्सिस आदि |
इसके अलावा हम जीवाणु जनित, विषाणु जनित,परजीवी जनित फफूंद जनित इस तरह से भी ज़ूनोटिक बीमारयों को वर्गीकृत कर सकते है
ज़ूनोटिक बीमारियों के फैलने के प्रकार –इसके अलावा भी अब कुछ नए तरीके जैसे अंग प्रत्यारोपण, रक्ताधान आदि से भी बहुत बीमारियों का संक्रमण देखा गया है जैसे रेबीज, इबोला, मारबर्ग आदि |
विश्व एवं भारत में कुछ मुख्य ज़ूनोटिक बीमारिया–
जीवाणु जनित | क्षय रोग (टी . बी .), ऐन्थ्रैक्स, ब्रूसेला, कैंपाईलोबैक्टर, ग्लेंडर, लेप्टोस्पिरा , लिस्टेरिया, लाइम डिसीज, प्लेग, तुलारीमिया, क्यू फीवर |
विषाणु जनित
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रेबीज, जापानीस इन्सेफेलाइटिस, वेस्ट नाइल फीवर , डेंगू , क्यसनूर फारेस्ट डिसीज, येल्लो फीवर , इन्फ्लुएंजा, चिकन गुनिया, रिफ्ट वेली फीवर, निपाह , हन्टा फीवर , हेनड्रा, इबोला , मारबर्ग , क्रीमियन कांगो फीवर , गंजम वायरस |
प्रीयान डिसीज | बोवाइन स्पोन्गिफोर्म इन्सेफेलाइटिस , |
परजीवी जनित
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टोक्सोप्लास्मा, क्रिप्टोस्पोरिडियम , टीनिया, हाइडेटिड सिस्ट , लिशमानिआ ,लार्वा माइग्रेन्स, फेसिओला , डाइफिलोबोथ्रियम , सिस्टोसोमा |
कुछ प्रमुख रोगो की भारत में स्थिति–
- क्षय(टी. बी.)- यह बहुत ही प्राचीन संक्रमण है आज के परिवेश में बात करे तो मनुष्य के पास इस बीमारी का इलाज भी है और रोकथाम के उपाय भी है परन्तु जीवाणु में दवा के प्रति प्रतिरोधकता का विकास होने से यह रोग हमारे लिए एक जटिल समस्या बन गया है, CDC के अनुसार विश्व की एक चौथाई आवादी आज इस बीमारी की चपेट में है , टी.बी. के कुल मरीजों का लगभग २५ % , भारत में है ,यह जीवाणु एक अवसरवादी जीवाणु है जैसे ही किसी वयक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता किसी भी कारन से घटती है, यह उसे अपनी ज़द में ले लेता है, रोग प्रतिरोधकता के घटने के कारन कोई दूसरा इन्फेक्शन जैसे- HIV , कुछ ख़राब जीवन शैली जैसे – तंबाखू ,गुटखा आदि का सेवन, नशे की आदते, या कच्चे दूध या मांश का सेवन भी इस बीमारी के संक्रमण की सम्भावना को बढ़ाता है |इसके आलावा भी इस जीवाणु में एंटी ट्यूबरर्क्युलर दवाइयों के प्रति प्रतिरोधकता विकसित होने की भी समस्या देखी गई है |संयुक्त राष्ट्र संघ ने २०३० तक टी.बी. के उन्मूलन का लक्ष्य रखा है, भारत में भी टी. बी.को ख़त्म करने का लक्ष्य २०२५ तक का रखा गया है |
- ब्रूसेला– यहलगभग सभी राज्यों में पाई गई है तथा इसे अब भारत मे स्थानिक (एंडेमिक) के दर्जे में रखा गया है | राष्ट्रीय पशु रोग नियंत्रण कार्यक्रम के अंतर्गत इस रोग के नियंत्रण एवं उन्मूलन हेतु २०३० का लक्ष्य रखा गया है इसके अंतर्गत ४-८ माह की मादा गौवंश का शाट प्रतिशत टीकाकरण किया जा रहा है ताकि इस बीमारी के प्रसार को पशुओं एवं मनुष्यो रोका जा सके |
- ऐन्थ्रैक्स–विश्व में यह एशिया , अफ्रीका , यूरोप, अमेरिका में पाई गई है ,भारत में यह बीमारी स्पोरेडिक रूप में विभिन्न राज्यों जैसे जम्मू कश्मीर, कर्णाटक, तमिनाडु, ओडिसा, आँध्रप्रदेश में फैली हुई है , समय समय पर कुछ अन्य राज्यों जैसे मध्यप्रदेश , महाराष्ट्र आदि में भी इसके कुछ केस पाए गए है, इस बीमारी के कासीघर में काम करने वालो , चमड़ा निकलने वालो एवं उून की छटाई करने वालो आदि में उनके व्यवसाय के कारन ज्यादा सम्भावना है , यह गर्म – नम, वातावरण, में ज्यादा मिलती है , ऐसी जगह जहा की मिटटी क्षारीय हो (६.८-८.५ ) तथा तलहटी के इलाको में इसकी सम्भावना अधिक होती है क्योकि यह जीवाणु , विजाणु के रूप में मिटटी में कई सालो तक जीवित रह सकता है , यह संक्रमित पशु के मांश के सेवन से भी फेल सकता है , जंगली जानवरो में भी इसका संक्रमण देखा गया है अतः जंगली जानवरो के मांश के उपयोग के समय भी सावधानी बरतनी चाहिए , यह रोग सभी नियततापी या गर्मरक्ती जीवो में हो सकता है |
- ग्लेंडर– ग्लेंडरभी एक जीवाणु जनित रोग है, यह मुख्य रूप से अश्व वंश में होता है परन्तु ऊँट, मांसाहारी जानवर , मनुष्य भी इस रोग की चपेट में आ सकते है , यह रोग भी व्यवसायिक गतिविधियों के कारण ,संक्रमित मांश से फैलता है | उत्तरी अमेरिका ,यूरोप , ऑस्ट्रेलिया में इस रोग पर नियंत्रण पा लिया है किन्तु अफ्रीका , एशिया , मध्य पूर्व, दक्षिणी अमेरिका में इस रोग का प्रकोप समय समय पर देखा गया है , भारत में भी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा ,पंजाब, महाराष्ट्र , राजस्थान , आंध्र प्रदेश , आदि में इस रोग को देखा गया है, इस रोग पर नियंत्रण पा लिया गया था परन्तु २००६ से इसका समय समय पर प्रकोप देखा गया है , भारत में यह रोग अधिसूचित बिमारिओ के अंतर्गत आता है |
- लेप्टोस्पाईरा–यह बीमारी चूहे, गाय , सूअर, कुत्ते , घोड़े आदि से मनुष्यो में फैलती है,संक्रमित पशुओ के मूत्र से यह जीवाणु , पानी को प्रदूषित करते है, जिससे यह बीमारी मनुष्यो तक फैलती है , भारत में यह बीमारी तटीय क्षेत्रो , तमिलनाडु, महाराष्ट्र , गुजरात , तमिल नाडु, कर्नाटक , अंदमान निकोबार, आदि में पाई गई है , पिछले कुछ सालो से यह बीमारी मध्यप्रदेश, राजस्थान आदि में भी इसका प्रकोप देखा गया है, बरसात के मौसम में इसका प्रकोप ज्यादा होता है |
- प्लेग–यह एक प्राचीन बीमारी है १९ बी सदी में इस बीमारी का प्रकोप पूरे विश्व में देखा जाता था समय के साथ साथ इस बीमारी पर नियंत्रण पा लिया गया था परन्तु भारत सहित विश्व के कई हिस्सों में पुनः इस बीमारी का प्रकोप देखा गया है तथा कुछ हिस्सों में इस बीमारी को स्थानिक (एंडेमिक) के दर्जे में रखा गया है जैसे अफ्रीका के कुछ हिस्सों जैसे मेडागास्कर और डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कांगो , अमेरिका के पश्चिमी हिस्से जैसे- नई मेक्सिको, एरिज़ोना आदि, चीन में दक्षिण-पूर्वी तट यूनांन, फ़ुज़ियान आदि हिस्से , भारत में में गुजरात, महाराष्ट्र, हिमांचल प्रदेश , उत्तराखंड के कुछ हिस्से , हिमालय का तराई हिस्सा आदि इस बीमारी का मनुष्यो के लिए मुख्य रिजर्वायर चूहे है, परन्तु गिलहरिया,कुत्ते , बिल्लिया, खरगोश आदि भी इस जीवाणु के रिजर्वायर का काम कर सकते है , यह बीमारी मनुष्यो में पिस्सुओं द्वारा या रोगी के साथ बहुत अधिक समय बंद जगह में साथ रहने से हवा से या संक्रमित पशु या व्यक्ति के शरीर के तरल पदार्थ के सम्पर्क में आने से फ़ैल सकती है |
- लिस्टेरिया–यहभी एक जीवाणु जनित रोग है जो मुख्या रूप से संक्रमित भोजन के जरिये फैलता है , कच्ची सब्जियों, स्लाड, क्रीम, पनीर,मांस ,दूध आदि कुछ महत्वपरूर्ण भोजन सामग्री है जिनसे यह बीमारी फ़ैल सकती है यह बीमारी विश्व में मुख्य रूप से विकसित एवं विकाशसील देशो जैसे अमेरिका, यूरोप, एशिया ,अफ्रीका में पाई गई है , भारत में भी विभिन्न हिस्सों से इसके रोगी पाए गए है , गर्भवती महिलाये एवं बच्चे इसके लिए ज्यादा संवेदन शील है , यह गर्भपात, मष्तिस्क में सूजन ला सकता है , जैसे जैसे कच्चिया काम पाकी हुई , होटल – रेसोरेन्ट आदि का चलन बाद रह है इस बीमारी को एक उभरती हुई ज़ूनोटिक बीमारी के रूप में रख सकते है.
- कैंपाईलोबैक्टर–यह भी एक उभरती हुई बीमारी है, भारत में बच्चो में यह ई कोलाई ,शिगेला के बाद तीसरे स्थान पर आता है , इसका प्रभाव भी दिन पर दिन बढ़ रहा है , ५ वर्ष से छोटे बचे एवं बृद्ध लोग ज्यादा संवेदनशील होते है , भारत के लगभग सभी हिस्सों में इस भीमारी का प्रकोप है , यह भी कच्चे सलाद ,सब्जियों आदि से , अंडो से फ़ैल सकती है , इस बीमरी के कारन कभी कभी गुलियन बारे सिंड्रोम भी देखा जा सकता है इसमें तंत्रिका तंत्र प्रभावित होने से रोगी चलने असमर्थता दिखता है एवं लकवे जैसी स्थिति निर्मित हो सकती है|
- लाइमडिसीज– इस बीमारी का जीवाणु किलनी के काटने से एक संक्रमित पशु या मनुष्य से दूसरे तक फैलता है ,इसमें बहुत से जंगली पशु जैसे हिरन , गिलहरी ,पक्षी आदि हो सकते है ,यह बीमरी विश्व में अमेरिका ,यूरोप,एशिया के विभिन्न हिस्सों में यह देखि गयी है भारत में भी यह बीमारी उत्तर में हिमालय की तराई हिमांचल, दक्षिण में केरल में पाई गई है, हाल ही में इसका प्रकोप हरियाणा में भी देखा गया है, बढ़ती हुई गर्मी एवं नमी के कारन जिस तरह किलनी, मच्छर आदि कीटो को प्रकोप बढ़ रह है आगे आने बाले समय में यह रोग सभी प्रदेशो में जहा जहा किलनी आदि का संक्रमण पशुओ में है वह फैलने की सम्भावना दर्शाता है|
- रेबीज–भारत में रेबीज के फैलाव में कुत्तो की महत्वपूर्ण भूमिका है ,इसके अलाव जंगली जनवरो सभी रेबीज हो सकता है , यह विषाणु जनित रोग है जिसका कोई उपचार अभी तक उपलब्ध नहीं है , विश्व में रेबीज के सर्वाधिक मामले भारत में पाए गए है , प्रतिवर्ष १८०००-२००००० मौतें इस बीमारी से होती है , जिसमे से भी बच्चे इस से ज्यादा प्रभावित हो रहे है , इसके पीछे बच्चो का कुत्तो के प्रति लगाव, बीमारी की जानकारी का आभाव मुख्या कारन हो सकता है , इस बीमरी से बचने हेतु सबसे अच्छी राण नीति कुत्तो की आवादी का नियंत्रण, १०० प्रतिशत टीकाकरण एवं आम जनता में जागरूकता का प्रसार हो सकता है ,इस दिशा में हमारे देश में काम भी शुरू हो चुका है तथा हमने रेबीज उन्मूलन हेतु राष्ट्रीय कार्य योजन बना कर २०३० तक नियंत्री करने का लक्ष्य रखा है |
- इन्फ्लुएंजा–समय समय पर इस बीमारी का प्रकोप विश्व के सभी देशो में देखा गया है ,यह एक विषाणु जनित रोग है इस विष्णु में अपने अनुवांशिक कूट में बदलाव लेन की क्षमता होती है और इस तरह से कई बार उच्च रोग करक प्रकार का निर्माण होने से इस बीमरी का व्यापक प्रसार देखा जा सकटा है , यहाँ इन्फ्लुएंजा का विषाणु के विभिन्न प्रकार पक्षियों में होते है , यहाँ सूअर एक मिक्सिंग होस्ट का काम करता है तथा इस प्रकार किसी नए प्रकार के इन्फ्लुएंजा का निर्माण हो सकता है , जो की अधिक घातक हो , अतः इस बीमारी की निरंतर निगरानी की आवश्याकता है |
- जापानीस इन्सेफेलाइटिस– यह एक विषाणु जनित रोग है , यह मुख्य रूप से ५-१५ साल के बच्चो में देखा गया है, इसमें केंद्रीय तंत्रिका तंत्र मुख्य रूप से प्रभावित होता है,और यदि समय पर उपचार न हो तो कई मामलो में मृत्यु भी देखि गई है,यह रोग एशिया और पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में मुख्य रूप से है ,जलीय पक्षी और घोड़े जैसे जानवर भी जेईवी से संक्रमित हो सकते हैं, सूअर में इस विष्णु की सांद्रता बढ़ जाती है,संक्रमित पशु से मनुष्यो में यह रोग क्यूलेक्स मच्छर द्वारा फैलता है। यह ग्रामीण और कृषि क्षेत्रों में ज़्यादा होता है। भारत में यह रोग उत्तर में हरियाणा, पंजाब, उत्तर पूर्वी राज्यों तथा दक्षिणी राज्यों में फ़ैल चुका है , उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में, इस रोग का संक्रमण साल भर मिलता है, लेकिन अक्सर बारिश के मौसम और चावल की खेती वाले क्षेत्रों में कटाई से पहले इसका प्रकोप तीव्र हो जाता है।बीमारी को रोकने के लिए सुरक्षित और प्रभावी जेई टीके उपलब्ध हैं।
- डेंगू– सूअर, मार्सुपियल्स, चमगादड़, पक्षी, घोड़े, गोवंश,चूहे ,बंदर और कुत्ते आदि डेंगू के श्रोत का काम करते है तथा इन पशुओं से डेंगू वायरस जो की फ्लेविवायरस है एडिस मच्छर द्वारा मनुष्यो के बीच फैलता है ,इसमें तेज बुखार, त्वचा पर लाल चकत्ते, त्वचा से रक्तस्राव और सदमा आदि प्रमिख लक्षण है, किसिस व्यक्ति में यदि डेंगू का दोबारा संक्रमण होता है तो यह और भी गंभीर रूप में दिख सकता है |
- चिकुन गुनिया– चिकनगुनिया दुनिया भर में खासकर अफ्रीका और दक्षिण-पूर्व एशिया,यूरोप,अफ्रीका और अमेरिका के 60 से ज़्यादा देशों में देखा गया है। यह वायरल संक्रामक बीमारी है, जो मच्छरों के काटने से फैलता है। यह संक्रमित मच्छरों के जरिए मानवों में फैलता है। तेज बुखार , जोड़ों का दर्द , मांसपेशियों में दर्द, सिर दर्द, थकान और चकत्ते इसके प्रमुख लक्षण है , भारत में चिकनगुनिया का पहला प्रकोप 1963 में कोलकाता में देखा गया, 2005 में हिंद महासागर के द्वीपों में उभरने के बाद, 32 साल बाद भारत में भी इसी दौरान फिर से उभरा है तथा वर्तमान में, यह 24 भारतीय राज्यों और 6 केंद्र शासित प्रदेशों में स्थानिक है, जो दर्शाता है कि यह हमारे देश में एक महत्वपूर्ण स्वास्थ्य समस्या है |
- वेस्टनाइल फीवर – वेस्ट नाइल वायरस मनुष्यों में घातक न्यूरोलॉजिकल बीमारी पैदा कर सकता है,पहली बार 1937 में युगांडा के वेस्ट नाइल जिले में एक ज्वरग्रस्त वयस्क महिला में पाया गया था।यह पूरे अफ्रीका, यूरोप और मध्य पूर्व, पश्चिम एशिया, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, वेनेजुएला और संयुक्त राज्य अमेरिका के क्षेत्रों में पाया जा सकता है। मच्छरों के काटने से फैलता है इसके फैलने में प्रवासी पक्षियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है ,भारत में इसका सबसे पहला मामला मुंबई में १९५२ में मिला था , भारत के केरल में वेस्ट नाइल फीवर का पहला मामला 2011 में सामने आया था इसके बाद 2019 , 2022 में भी इस वायरस का प्रकोप पाया गया |
- क्यसनूरफारेस्ट डिसीज– यह एक गंभीर बीमारी है जिसकी पहचान सबसे पहले 1950 के दशक में भारत के क्यासनूर वन कर्नाटकमें हुई थी। तब से ये बीमारी कई बार सामने आ चुकी है। हर साल इसके 400 से 500 मामले दर्ज किये जा रहे हैं। यह केएफडी वायरस के कारण होता है। हार्ड टिक्स ( हेमाफिसेलिस स्पिनिगेरा ) केएफडी वायरस को लोगों और जानवरों, जैसे बंदरों और कृन्तकों में फैलाते हैं मनुष्यों में इसका संक्रमण टिक (किलनी) के काटने या किसी संक्रमित जानवर के संपर्क में आने के बाद फैल सकता है। भारत के जिन भागों में केएफडी पाया जाता है, वहां के लिए केएफडी का टीका उपलब्ध है |
- रिफ्टवेली फीवर– यह बीमारी मनुष्यो तथा पशुओं में मच्छरों के काटने से फैलती है क्योकि इस बीमारी के वॉयरस मच्छर से परिवाहत होते है | इसके अलावा गाय ,भैंस , बकरी आदि में भी यह बीमारी हो सकती है पशु में इसके कारण गर्भपात होता है | मनुष्य तथा घोड़े इस बीमारी में डेड एन्ड होस्ट का काम करते है | पहली बार 1931 में केन्या की रिफ्ट वैली के एक खेत में भेड़ की महामारी के रूप में पहचाना गया था। तब से, उप-सहारा अफ्रीका और उत्तरी अफ्रीका में इस महामारी के प्रकोप की सूचना मिली है। | समय पर उपचार नहीं मिलने पर मनुष्यों में इस बीमारी के कारण बुखार उल्टी दस्त तथा उल्टी के साथ खून , पेट में दर्द , कमजोरी कोमा व आँखों से कुछ न दिखाई देने की समस्या भी आ सकती है |बरसात में मच्छरों के कारण यह बीमारी इस मौसम में ज्यादा पायी जाती है |यह वायरस फ़्लेबोवायरस जीनस के सदस्य से फैलता है | १९९५ में राजस्थान में इस बीमारी का प्रकोप देखा गया था |2000 में, अफ़्रीकी महाद्वीप के बाहर इस बीमारी का पहला मामला सऊदी अरब और यमन से आया था। मनुष्यो में २०१६ में चीन में तथा २०१९ में फ़्रांस में इस बीमारी को देखा गया है, यह एक चेतवानी है की हमें इस बीमरी के प्रति सचेत होना होगा |
- हंटाफ़ीवर – दुनिया में यह बीमारी अमेरिका एशिया और यूरोप के कई देशों में देखने को मिली है | भारत में हंटा फ़ीवर वायरस रोग का कोई दस्तावेजी मामला सामने नहीं आया है,हालांकि सीरोलॉजिकल साक्ष्य मौजूद हैं लेकिन भारत के नजदीकी देश चीन में हर साल हंटा फ़ीवर वायरस रोग के लगभग 10,000 मामले देखे जाते हैं| मनुष्यों में इस बीमारी के कारण बुखार, ठंड लगना, मतली तीव्र सिरदर्द पीठ और पेट में दर्द धुंधली दृष्टि आँखों की सूजन या लाल दाने, संवहनी रिसाव तीव्र गुर्दे की विफलता गुर्दे के लक्षणों की शुरुआत इत्यादि दिखाई देता है| चूहे के मूत्र, लार या मल के संपर्क से मनुष्य इस बीमारी से संक्रमित हो सकते हैं|
- क्रीमियनकांगो फीवर – क्रीमियन कांगो फीवर – यह एक किलनी (Tick) जनित वायरल रोग हैं| यह वायरस मुख्य रूप से मनुष्यों में टिक्स और पशुओं से होती है। दुनिया में यह बीमारी अफ्रीका, बाल्कन, मध्य पूर्व और एशिया में प्रचलित है, ।भारत में क्रीमियन कांगो फीवर की उपस्थिति सबसे पहले हुई गुजरात राज्य में नोसोकोमियल इन्फेक्शन के कारण 2011 में समय पुष्टि की गई थी | इस बीमारी हेतु गेम बर्ड जैसे एमु , ऑस्ट्रिच आदि भी मनुस्यो एवं अन्य पशुओ हेतु संक्रमण के स्रोत का कारण हो सकते है तब से, कई प्रकोप गुजरात राज्य के विभिन्न जिलों से इस बीमारी के छिटपुट मामले सामने आए हैं | लक्षणों की शुरुआत अचानक होती है, जिसमें बुखार, मांसपेशियों में दर्द, चक्कर आना, गर्दन में दर्द और अकड़न, पीठ दर्द, सिरदर्द, आंखों में दर्द और फोटोफोबिया (प्रकाश के प्रति संवेदनशीलता) शामिल हैं। शुरुआत में मतली, उल्टी, दस्त, पेट में दर्द और गले में खराश हो सकती है, इसके बाद मूड में बदलाव और भ्रम हो सकता है। यह बीमारी संक्रमित मनुष्य के साथ बहुत अधिक संपर्क में रहने से, व्यक्ति के शरीर के तरल पदार्थ के सम्पर्क में आने से भी फेल सकती है |
- हेनड्राफीवर – यह फीवर 1994 में ऑस्ट्रेलिया के ब्रिस्बेन उपनगर हेनड्रा पहली बीमारी के प्रकोप के रूप में पहचाना गया था। इस प्रकोप में 21 रेसहॉर्स और दो मनुष्यों मामले शामिल थे।मनुष्यों में हेनड्रा वायरस संक्रमण के लक्षण हल्की इन्फ्लूएंजा जैसी बीमारी से लेकर घातक श्वसन या तंत्रिका संबंधी रोग तक हो सकते है । घोड़े में ऑस्ट्रेलियाई फ्लाइंग फॉक्स चमगादड़ों या उनके तरल पदार्थों के संपर्क में आने के बाद हेनड्रा रोग से बीमार हो जाते हैं तथासंक्रमित घोड़ों के संपर्क में आने के बाद मनुष्य संक्रमित हुए हैं।
- निपाहफीवर – निपाह वायरस जानवरों जैसे चमगादड़ या सुअर से,दूषित भोजन से मनुष्यों में फैल सकता है और सीधे मनुष्यों-से- मनुष्यों में भी फैल सकता है।संक्रमित मनुष्यों में बिना लक्षण से लेकर तीव्र श्वसन रोग और घातक मस्तिष्कशोथ (इन्सेफेलाइटिस ) शामिल हैं | निपाह वायरस को पहली बार 1998 में मलेशिया में हुए एक प्रकोप के दौरान पहचाना गया था। मलेशिया और सिंगापुर में प्रारंभिक प्रकोपों के बाद, भारत ने 2001 और 2007 में बीमारी के प्रकोप दर्ज की है । बांग्लादेश ने भी 2001 से 2012 तक बीमारी के आठ प्रकोपों की सूचना दी है | बांग्लादेश और भारत में होने वाले इस बीमारी के प्रकोप की वजह, संक्रमित चमगादड़ों के मूत्र या लार से दूषित फलों या फल उत्पादों (जैसे कि कच्चा खजूर का रस) का सेवन संभव संक्रमण का प्रमुख स्रोत था।
- गंजमवायरस– इस वायरस को पहली बार 1954-55 के दौरान भारत के ओडिशा राज्य (गंजम जिला )में लंबर पैरालिसिस से पीड़ित बकरियों की किलनी (टिक )से प्राप्त किया गया था, और उस स्थान के नाम पर इस वायरस नामकरण किया गया था। भारत के विभिन्न हिस्सों में गंजम वायरस का व्यापक प्रसार पाया गया है और विभिन्न जीवों जैसे कि भेड़, बकरी और मनुष्य को संक्रमित करने में विविधता के कारण इसे एक महत्वपूर्ण जूनोटिक एजेंट बनाती है।” पुणे में किलनी से वायरस की प्राप्ति और तमिलनाडु में भेड़, बकरी और मानव के रक्त में इस वायरस की प्रतिरक्षा की मौजूदगी संकेतक हैं कि देश में वायरस का परिसंचरण हो रहा है इसलिए इस बीमारी की जांच की जरूरत है ताकि इसके आगे फैलाव को नियंत्रित किया जा सके।
- इबोलावायरस – जंगली जानवरों (जैसे फल चमगादड़, साही और गैर-मानव प्राइमेट) से मनुष्यों में फैलता है और फिर संक्रमित लोगों के रक्त, स्राव, अंगों या अन्य शारीरिक तरल पदार्थों और सतहों के सीधे संपर्क के माध्यम से मानव आबादी में फैलता है। इबोला वायरस के लक्षण अचानक हो सकते हैं और बुखार, थकान, मांसपेशियों, दर्द, सिरदर्द और गले में खराश, उल्टी, दस्त, दाने, खराब गुर्दे और यकृत के लक्षण, और कुछ मामलों में आंतरिक और बाहरी रक्तस्राव (जैसे मसूड़ों से रिसना, मल में रक्त) होता है। मारबर्ग वायरस रोग से मानव संक्रमण चमगादड़ ,मारबर्ग संक्रमित मनुष्यों के रक्त, स्राव, अंगों या अन्य शारीरिक तरल पदार्थों और सतहों और सामग्रियों के सीधे संपर्क (टूटी हुई त्वचा या श्लेष्म झिल्ली के माध्यम से) के माध्यम से मानव-से-मानव संचरण के माध्यम से फैल सकता है |मारबर्ग वायरस से तेज बुखार, गंभीर सिरदर्द और गंभीर अस्वस्थता के साथ अचानक शुरू होती है। मांसपेशियों में दर्द और दर्द एक आम बात है। तीसरे दिन पानी जैसा दस्त, पेट में दर्द और ऐंठन, मतली और उल्टी शुरू हो सकती है। अभी तक रिपोर्ट के अनुसार, भारत ने मनुष्यों में इबोला वायरस रोग (ईवीडी) और मारबर्ग कोई मामले दर्ज नहीं किये गए है।इबोला वायरस मुख्य रूप से मध्य और पश्चिम अफ्रीका के क्षेत्रों को प्रभावित करता है।हालाँकि, भारत सहित वैश्विक स्वास्थ्य संगठन इबोला और मारबर्ग बीमारी के निगरानी और निवारक उपायों के माध्यम से संभावित प्रकोपों के लिए तैयार रहते है ।इसके आलावा भी वेक्टर जनित वायरल एवं परजीवी जनित बीमारियों जैसे लिशमानिओसिस, क्रिप्टोस्पोरिडीओसिस, न्यूरॉसिस्टिसरकोसिस आदि का प्रकोप भी दिन पर दिन बढ रहा है इसका मुख्या कारन प्रदुषण,अपशिस्ट के उचित निष्काशन की कमी, पीने साफ़ पानी की कमी मक्खी – मच्छर आदि की बृद्धि, जैव सुरक्षा की कमी, नागरिको की उदासीनता है |
प्रयास एवं सुझाव –
१. सुनियोजित विकास –
दीर्घकालिक विकास के लिए इसका सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित होना अति आवश्यक है, हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाते हुए विकास करना होगा, अन्यथा अंधी दौड़ दौड़ने के दुष्परिणाम मानव ने समय – समय पर भुगते है चाहे वो महामारियों के रूप में हो या प्राकृतिक आपदाओं के रूप में |
२. मनुष्यो एवं पशुओं में नियमित टीकाकरन
यदि हम बीमारियों से सम्बंधित टेके लगा क्र पशुमे रोग को नियंत्रित कर लेंगे तो रोग के मनुष्यो में संचरण की संभावना कम हो जाएगी, बहुत सी ऐसी बीमारिया जिनके टीके उपलब्ध है उनको नियंत्रित करने में टीकाकरण ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है उदाहरण के लिए – रेबीज, ब्रूसेला, जापानीस इन्सेफेलिटिस आदि |
३. संशाधनो का कम उपयोग, पुनः उपयोग तथा पुनर्चक्रीकरण, न्यूनतम जीवनशैली –
संशाधनो का कम उपयोग,पुनः उपयोग तथा पुनर्चक्रीकरण मुख्य रूप से ऐसे संशाधा जिनका नवीनीकरण या तो संभव नहीं है या बहुत ज्यादा धीमी गति से होता है उनका जितना संभव हो काम से काम उपयोग, जहा संभव हो पुनः उपयोग तथा पुनर्चक्रीकरण प्रकृति पर दवाव को कम करता है एवं परस्थिक संतुलन बनाये रखता है, इस तरह यह नई नई बीमारियों की सम्भावना को भी कम करता है |
४. बीमारियों की त्वरित जाँच एवं उपचार–
इस तरह से हम रोग के गंभीर होने से पहले ही उसका उचित उपचार शुरू कर सकते है एवं अन्य सावधानिया व्रत क्र हम रोग को अन्य पशुओं में तथा मनुष्यो में फैलने से रोक सकते है |
५. बीमारियों की कड़ी निगरानी, कड़े कानून, एवं बीमार तथा नए पशुओ के लिए, आइसोलेशन तथा क्वारंटाइन –
राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय दोनों ही स्तर पर बीमारयों की निगरानी भी एक मत्वपूर्ण मुद्दा है,इसका गंभीरता से पालन बीमारियों की रोकथाम में मददगार साबित हो सकता है |
६. बृक्षारोपण –
यह पर्यावरणीय संतुलन को स्थापित करने में, वायु शुद्धिकरण में,वातावरण के तापमान के नियंत्रण में, ध्वनि प्रदूषण को रोकने में बहुत मदगार सिद्धः हो सकता है, इसके अलावा भी पेड़ वर्षा, पशु पक्षियों एवं मनुष्यो को भोजन तथा आश्रय देते है |
७. आम जनता में जागरूकता –
जन भागीदारी तथा जागरूकता ज़ूनोटिक बीमारियों के रोकने में महत्वपूर्ण तथा सक्रीय भूमिका निभा सकती है, आम लोगो में जानकारी हेतु बहुत से प्रयास किये जा रहे है, इसी तरह अब बहुत से दिन जैसे विश्व टी.बी. दिवस – २४ मार्च, ज़ूनोसेस दिवस – ६ जुलाई, रेबीज दिवस -२८ सितम्बर आदि भी मनाये जाते है एवं विभिन्न जागरूकता अभियान, कैंप, आदि भी उपयोगी सिद्धः हो रहे है| इसी क्रम में ६ जुलाई को विश्व ज़ूनोसिस दिवस मनाते है, जिसका उद्देश्य आम जनता में मनुष्यो और पशु स्वास्थ्य पर ज़ूनोटिक रोगों के जोखिमों और प्रभावों के बारे में शिक्षित करना है।
८. जनसंख्या नियंत्रण –
बहुत सी समस्यो के समाधान में जनसंख्या नियंत्रण उपयोगी हो सकता है,ज़ूनोटिक डिसीसेस में भी जनसँख्या नियंत्रण से हम घनत्व को काम कर प्रकृति पर दवाव को कम कर सकते है, यह बीमारियों के विस्तार को भी नियंत्रित करता है |
९. कुछ नहीं करे–
प्रकृति आपना संतुलन स्वयं बना सकती है परन्तु यह एक धीमी गति से होने वाली क्रिया है और यकीन मानिये यदि हम मनुष्यो ने प्रकृति में हस्तक्षेप करना कम कर दिया तो यह अपने बहुत ही सुंदर रूप में निखर कर हमारे सामने आएगी यह हम सभी ने कोविड महामारी के समय देखा की कैसे हवा, पानी सभी की गुणवक्ता में सुधार देखा गया था, क्योकि मनुष्यो के द्वारा फैलाया जाने वाला प्रदूषण कम हो गया था |