श्वानों में पार्वो विषाणु का संक्रमण
डॉ जयंत भारद्वाज, डॉ मधु स्वामी, डॉ यामिनी वर्मा , डॉ अमिता दुबे
व्याधि विज्ञान विभाग, पशु चिकित्सा एवं पशु पालन महाविद्यालय, जबलपुर ( म . प्र . )
https://www.pashudhanpraharee.com/control-management-of-parvovirus-infection-in-dogs/
श्वानों में पार्वो विषाणु का संक्रमण बहुत ही सामान्य – सा रोग है | किसी भी श्वानों के चिकित्सालय में प्रवेश करने पर जब आपको अपनी नाक पर रूमाल रखने की आवश्यकता आ पड़े, तो समझ जाइए कि संभवतः यहाँ कोई पार्वो विषाणु से संक्रमित श्वान आया होगा | यह एक त्वरित संक्रामक रोग है, जिसमें आंत्र शोथ तथा हृद्पेशी शोथ प्रमुख लक्षण होते हैं | इस रोग में रुग्णता दर १००% तक तथा मृत्यु दर १०% तक पायी जाती है |
कारक –
यह रोग पार्वो नामक विषाणु से होता है, जो कि एक डीएनए विषाणु है | इसमें बाहरी परत ( एनव्लप ) तथा आवश्यक वसा नहीं होता | यह विषाणु पी एच 3 से लेकर पी एच 9 तक जीवित रह सकता है |फोमाइट्स में यह कई वर्षों तक जीवित रह सकता है |ईथर तथा क्लोरोफॉर्म का इस विषाणु पर कोई असर नहीं पड़ता है | यह विषाणु उच्च ताप पर भी जीवित रह सकता है | इस विषाणु की उत्परिवर्तन की गति भी तेज है |
किसमें होता है –
यह रोग श्वान,बिल्ली, सुअर, मानव , चूहा , मुर्गी , मिंक और हेम्स्टर में हो सकता है | डोबरमैन और लैब्राडोर जैसी श्वानों की नस्लों में इसका खतरा अधिक रहता है |
कैसे होता है – यह विषाणु संक्रमित जानवर या उसके उत्सर्जित पदार्थों के साथ सीधे संपर्क में आने से होता है | संक्रमित भोजन, जल , आवास स्थल इत्यादि से भी यह रोग फैल सकता है |12-14 दिवस तक विषाणु का उत्सर्जन संक्रमित पशु के द्वारा होता रहता है ।
व्याधिजनन – तेजी से विभाजित होने वाली कोशिकाओं में यह विषाणु तीव्र गति से विभाजित होता है | इस कारण से ही यह रोग उन श्वानों में अधिक तीव्रता से होता है जो कि अभी शारीरिक वृद्धि की अवस्था में होते हैं | यह विषाणु आंत्र उपकला तथा हृद पेशी को नुकसान पहुंचता है |यह विषाणु लसीकाणु तथा लसीका तंत्र को प्रभावित करता है जिससे पशु की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है | साथ ही यह विषाणु संवहनी उपकला, अनुमस्तिष्क , यकृत कोशिका तथा भ्रूण के ऊतकों को भी संक्रमित कर सकता है |श्वान की मृत्यु या तो आंत्रशोथ से हुए गंभीर निर्जलीकरण या फिर हृद् शोथ के कारण हुए हृद् पात से भी हो सकती है |
लक्षण –
पार्वो विषाणु का संक्रमण दो रूपों में देखा जाता है – आंत्रशोथ तथा हृद् शोथ |
जब आंत्रशोथ होता है तब प्रारंभ में तापमान बढ़ा हुआ तथा बाद में सामान्य से भी कम मिलता है |उल्टी, दस्त, भूख न लगना, उदासीनता, ज्यादा पानी पीना ,उबकाई तथा बेचैनी देखने को मिलती है |रोग की गंभीरता बढ़ने पर मल में रक्त भी आ सकता है |संक्रमण का यह रूप किसी भी उम्र के श्वान में हो सकता है |
जब हृद् शोथ होता है , तब हृद् पेशीयों को क्षति पहुंचती है | रक्त संचार विफलता , सांस लेने में समस्या तथा फुफ्फुसीय शोथ देखने को मिल सकता है | 10 हफ्ते से कम उम्र के श्वान आमतौर पर इससे पीड़ित होते हैं ।
अधिकतर 4 से 8 सप्ताह की उम्र के बीच अतिसंवेदनशील श्वानों की मौत देखने को मिलती है | अगर फिर भी जानवर बच जाता है , तो भविष्य में हृत्पेशीय और संचारीय जटिलताएं देखने को मिल सकती हैं |
निदान –
इस रोग का निदान विभिन्न प्रकार से किया जा सकता है जैसे –
अ) लक्षणों के आधार पर
ब) प्रयोगशाला जांच- जैसे कि पशु संरोपण परीक्षण, किण्वक सहृलग्न प्रतिरक्षा शोषक जांच (ELISA),सीरम निष्प्राभवन परीक्षण ,रक्त समूहन परीक्षण , रक्त समूहन निषेध परीक्षण , रक्त की जांच , फ्लोरोसेंट एंटीबॉडी जांच , आमाशय क्षरश्मि इत्यादि |
इलाज– इस विषाणु के लिए कोई भी विशेष उपचार नहीं है, परन्तु लक्षणों के आधार पर इस रोग का इलाज किया जा सकता है। शारीरिक द्रव्य तथा लवणों के नुक़सान की भरपाई हेतु बाहर से द्रव्य तथा लवण दिये जा सकते हैं। रक्तस्त्रावी जठरांत्र शोथ के उपचार हेतु श्वान को ब्रॉड स्पेक्ट्रम एंटीबायोटिक दिए जा सकते हैं। यदि रक्त का अत्यधिक स्त्राव हो गया है , तो रक्त भी चढ़ाया जा सकता है | उल्टियां रोकने हेतु दवाई दी जा सकती हैं।
दस्तों को रोकने हेतु विभिन्न स्तंभक भी दिए जा सकते हैं।
यदि श्वान लगातार उल्टियां कर रहा है, तो कम से कम 24 घंटों तक उसे कुछ भी ना खिलाएं | कोई भी ठोस पदार्थ खाने के लिए तभी देवे जब उल्टी – दस्त पूर्णतः बंद हो जाएं |
रोकथाम –
अ) श्वान के आवास स्थल की प्रतिदिन विषाणु नाशक जैसे कि २% फॉर्मेलिन , २% सोडियम हाइड्रॉक्साइड,२% सोडियम हाइपोक्लोराइट इत्यादि द्वारा साफ सफ़ाई करें तथा स्वान की स्वच्छता का भी पूरा ध्यान रखें।
बा) संक्रमित श्वानों को स्वस्थ श्वानों से दूर रखें।
स) श्वानों के मलमूत्र का तथा अन्य शारीरिक विसर्जनों का उचित रूप से निस्तारण करें ।
द) टीकाकरण-
1 मि.ली.अधस्तव्चीय Mega-vac ७ इन १ या mega-vac ६ इन १ या मेगा – वेक ९ इन १ या इस रोग के लिए उपयुक्त किसी अन्य टीके से अपने श्वान का ४५ दिन तथा उसका बुस्टर १ माह पश्चात अवश्य रूप से लगवावें। यह टिका १ वर्ष तक प्रभावी रहता है।
अतः उपर्युक्त बातों का ध्यान रखकर हमारे श्वान पालक भाई अपने श्वानो को पार्वो विषाणु के संक्रमण से पूर्णत: मुक्त रखकर उनके साथ आनंद से जीवन व्यतीत कर सकते है।
https://vetmedaz.com/2015/04/01/parvo-symptoms-treatment-prevention/