डेयरी व्यवसाय की सफलता हेतु व्यवहारिक जानकारी
डॉ संजय कुमार मिश्र
पशु चिकित्सा अधिकारी चोमूहां मथुरा
भारत में कुल जनसंख्या के, लगभग 60 % लोग गांव में निवास करते हैं। इनका प्रमुख कार्य कृषि एवं पशुपालन है। वर्तमान में आबादी बढ़ने के साथ प्रति व्यक्ति कृषि जोत कम हो रही है जिससे बड़ी संख्या में किसान, लघु एवं सीमांत कृषक तथा भूमिहीन की श्रेणी में आ गए हैं। आज के परिप्रेक्ष्य में पशुपालन स्वरोजगार एवं आयका नियमित साधन बन चुका है। औद्योगिकरण एवं गांव से शहरों में पलायन के कारण भारत में कृषि की हिस्सेदारी सकल घरेलू उत्पाद अर्थात जी.डी.पी.में घट रही है जबकि पशुधन द्वारा जी.डी.पी.में हिस्सा बढ़ रहा है। इस समय डेयरी पालन आय एवं विकास का उत्तम साधन बन चुका है। डेयरी पशु का दूध उत्पादन पहले की तुलना में कई गुना बढ़ना विभिन्न प्रकार के डेयरी विकास कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक लागू करने से संभव हुआ है। आज हम विश्व में सर्वाधिक दुग्ध उत्पादक देश के रूप में प्रथम स्थान पर हैं, परंतु प्रति पशु दुग्ध उत्पादकता अभी भी काफी कम है, जिसे समेकित प्रयासों से अभी और अधिक बढ़ाया जा सकता है।
डेयरी व्यवसाय के वैज्ञानिक तरीके अपनाकर पशुपालक अपने पशुओं के दूध को 2 से 3 गुना तक बढ़ा सकते हैं। इससे संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बातों की जानकारी दी जा रही है, जिन पर पशुपालकों को ध्यान देना नितांत आवश्यक है –
डेरी पशु की दुग्ध उत्पादकता पशु की गर्भावस्था एवं बच्चे के जन्म पर निर्भर करती है। गर्भकाल में में गर्भित पशु को पशुपालक के लिए दुग्ध उत्पादन के साथ-साथ गर्भस्थ बच्चे की वृद्धि एवं स्वास्थ्य के लिए पोषण देने का कार्य भी करना पड़ता है। पशु की गर्भित कराने की तिथि का लेखा जोखा एवं गर्भ परीक्षण कराना भी अत्यंत आवश्यक है ताकि गर्भित होने पर पशु के ब्याने की संभावित समय का पता लगाया जा सके और पशु को भी बच्चा देते समय विशेष ध्यान रखकर अनहोनी से बचाया जा सके। इस अवस्था में गर्भित पशु के शरीर में महत्वपूर्ण परिवर्तनों एवं अगले दूध काल की तैयारी को ध्यान में रखते हुए पशु को ब्याने के लगभग 2 माह पहले से दूध निकालना बंद कर देना चाहिए । इस अवधि को शुष्क काल कहा जाता है। इस अवधि में पशु से दुग्ध प्राप्त नहीं होता है इसलिए पशुपालक पशु पर ध्यान देने का महत्व नहीं समझते हैं, जो कि नितांत गलत है। गर्भकाल में पशु के विभिन्न परिवर्तनों की वजह से उत्पादन एवं विकास प्रभावित होता है। प्रमुख रूप से इस अवधि में आंतरिक परिवर्तन जिसमें थनों का विकास, खीस एवं दुग्ध उत्पादन की तैयारी होती है, जिसका दुग्ध उत्पादन में अत्यंत महत्त्व है।
अधिकांश गर्भित पशु ब्याने से कुछ दिन पूर्व स्वयं दूध देना बंद कर देते हैं। परंतु यदि दूध उतरना बंद न हो तो दूध का दुहान धीरे-धीरे कम मात्रा में करना चाहिए। प्रारंभ में सप्ताह में दिन में एक बार तथा अगले सप्ताह से एक दिन छोड़कर दूध निकालें। अंतिम दुहान के समय थनों में कीटाणुरोधी औषधि से धोना चाहिए। पशुओं को ब्याने की अनुमानित तिथि से 2 माह से लेकर 3 हफ्ते तक तथा दूसरी श्रेणी में 2 से 20 दिन पहले से ब्याने के समय तक विशेष सावधानी रखें।
डेयरी प्रबंध–
पशु के रहने का स्थान खुला और ऐसी जगह पर हो जहां सूर्य की रोशनी हर तरफ से आए ताकि फर्श हर समय सूखा रहे( मानक क्षेत्र 2.5 से 3 वर्ग मीटर प्रति पशु)। सुव्यवस्थित आवास न होने की स्थिति में पशु को पाचन संबंधी समस्याएं हो सकती हैं। स्वच्छ पानी की व्यवस्था छायादार जगह पर हो और पशु को आसानी से उपलब्ध हो। फर्श पक्का एवं फिसलन रहित हो। 24 घंटे में ब्याने की स्थिति वाले पशुओं के लिए विशेष रुप से जमीन या फर्श पर पुआल बिछा दें। स्वस्थ पशुओं को रोगी पशुओं से दूर रखें। विशेषकर गर्भपात हो चुके पशुओं की पशु चिकित्सक से नियमित जांच कराते रहें।
ताजा और स्वच्छ पानी नियमित रूप से सर्दियों में तीन बार तथा गर्मियों में 5 बार अवश्य पिलाएं। यदि पशु खुले आवास में रहते हैं तो उनके बच्चों को समय पर अर्थात 2 हफ्ते के अंदर सींग रहित कराएं। नर बछड़े का 6 माह की उम्र पर बधियाकरण अवश्य कराएं। तेज गर्मी के मौसम में भैंसों को पानी से जरूर नहलाएं तथा डेयरी पशुओं के लिए पशुशाला के आसपास छायादार वृक्ष अवश्य लगाएं।
पशु पोषण-
नवजात बच्चों को जन्म के 1 घंटे के अंदर खीस अवश्य पिलाएं। पशुओं को वर्ष भर हरा चारा खिलाएं। 10 लीटर तक दूध देने वाली गाय को 20 से 30 किलोग्राम हरा चारा खिलाएं। जिसमें दलहनी एवं गैर दलहनी चारा मिला हुआ हो अथवा 15 किलोग्राम हरा चारा 5 किलोग्राम शुष्क पदार्थ के साथ प्रतिदिन खिलाएं। पशुओं को जीवन रक्षा हेतु एक से डेढ़ किलोग्राम दाना मिश्रण अवश्य खिलाएं। हरा चारा उगाने के लिए उन्नत किस्म के बीजों का प्रयोग करें जिससे प्रति एकड़ भूमि पर अधिक चारा उत्पन्न हो सके। सिंचाई के समुचित साधनों की व्यवस्था करें तथा चारे की फसलों के लिए जैविक खाद का प्रयोग करें।
गर्भित पशुओं को ऐसा संतुलित आहार देना चाहिए जिससे मां एवं पलने वाले बच्चे की आवश्यकता पूरी हो सके। शुष्क कॉल के प्रारंभ में चारा एवं दाना उचित मात्रा में खिलाना चाहिए परंतु ब्याने के समय आहार विशेष रुप से उसी प्रकार का दें जैसा दूध शुरू होते समय देते हैं। प्रारंभ में दाने की मात्रा 1 किलो जिसे अगले 2 सप्ताह में डेढ़ किलो तथा अंतिम 2 सप्ताह में ढाई किलो प्रति पशु देना चाहिए। पशु को मिनरल मिक्सचर एवं विटामिंस भी खिलाएं।
पशुपालक निम्न बातों का विशेष ध्यान रखें-
चारा एवं दाना नमी से दूर रखें एवं फफूंदी युक्त या संक्रमित चारा न दें।
रुचिकर एवं सुपाच्य चारा ही दें। प्रोटीन युक्त मिश्रित आहार देना पोषक तत्वों के संतुलन के लिए अति उत्तम है। ब्याने से पहले अधिक वसायुक्त आहार देने से यकृत खराब हो जाता है जो स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है। पर्याप्त मात्रा में फाइबर रेशा 12 किलो प्रति पशु प्रतिदिन देने से आमाशय के खिसकाव से बचाव संभव है।
आहार में 50 ग्राम, खड़िया अर्थात कैल्शियम देने से मिल्क फीवर बीमारी से बचाव किया जा सकता है। परंतु यहां यह विशेष ध्यान रखना है की गर्भित पशु को ब्याने की संभावित तिथि से 45 दिन पूर्व कैल्शियम देना बंद कर देना चाहिए, जिससे आने वाली व्यॉत में, पशु पूरी क्षमता से दूध उत्पादन कर सके ।
पोटेशियम व सोडियम लवणों के उचित समन्वय वाले दाना देकर उसको अयन शोथ अर्थात मैस्टाइटिस से बचाया जा सकता है।
दुग्ध दोहन-
दूध दोहन से पूर्व हाथों को साबुन एवं पोटेशियम परमैंगनेट के घोल से धोएं। दुग्ध दोहन के दौरान पशु की पूंछ को बांध दें। दूध दोहन का क्षेत्र साफ रखें, उसमें मक्खियों को न आने दे, धूल आदि को साफ करते रहें। दोहन के स्थान को धुएं से रहित रखें। दोहन के बर्तनों की सफाई पर विशेष ध्यान रखें। दूध निकालने के पश्चात, बच्चे को दूध पीने के लिए ना छोड़े एवं थनों को पोटेशियम परमैंगनेट के १:१००० घोल से धुलाई करें ।
पशु स्वास्थ्य रक्षा-
पशुओं में संक्रामक बीमारियों की रोकथाम के लिए टीकाकरण समय से करवाएं ।जैसे गलाघोंटू वर्षा के आरंभ से पहले एवं खुरपका मुंहपका रोग के लिए फरवरी और सितंबर महीना उपयुक्त होते हैं। जो पशु संक्रामक रोग से ग्रसित हो उन्हें स्वस्थ पशुओं से अलग रखें, बीमार पशुओं का उपचार योग्य पशु चिकित्सक से कराएं। पशुओं में परजीवियों की रोकथाम के लिए पेट के कीड़ों को मारने के लिए उपयुक्त दवा पशु चिकित्सक की सलाह से दें। गर्भित पशु को शुष्क काल में भी दुग्धकाल की भांति उत्तम पोषण, संतुलित आहार एवं उचित प्रबंधन द्वारा समन्वय करते हुए व्यांत के पश्चात भी स्वस्थ पशु एवं बच्चा रखना संभव किया जा सकता है। इससे पशु की दुग्ध उत्पादन क्षमता का विकास कर पशुपालक लाभ लेकर अपने आर्थिक एवं सामाजिक स्तर में बढ़ोतरी कर सकते हैं।