लेखक -सविन भोगरा ,पशुधन विशेषज्ञ, हरियाणा
लेवटी व थनों में होने वाला दर्द न केवल दूध निकालने में दिक्कत देता है बल्कि थनैला बीमारी की ओर भी संकेत करता है। इस तरह की बीमारियों को हल्के में नहीं लेना चाहिए। ये बीमारियां जन्मजात या समय के साथ विकृति पैदा कर सकती हैं। थन और आंख की बीमारी का इलाज बड़ी सावधानी से करना चाहिए। इन बीमारियों के प्रति पशुपालकों को सजग रहने की जरूरत है और तभी नुकसान से भी बचा जा सकता है। थनों से संबंधी कुछ विकृतियां और बीमारियां इस प्रकार हैं।
दूध की नली में खनिजों से बनने वाले तत्व जमा हो जाते हैं। इससे दूध चरचरा जमा हो जाता है। ज्यादा खनिज एकत्र होकर पत्थर जैसे बन जाते हैं।(कठोर) यह पत्थर थन में उपर नीचे घूमकर दूध को रोक देते हैं। इन्हें मिल्क स्टोन कहा जात है। इसका उपचार ये है कि अगर ये छोटे छोटे हों तो थन को जोर से दबाने पर निकल जाते हैं। मगर बड़े बड़े बनने पर टिट टूनर द्वारा तोड़कर इन्हें निकालना पड़ता है।
दूध की नली पोलिप हो जाती है। ये मटर के दाने जितने होते हैं और दूध की नली से चिपक जाते हैं। इस कारण दूध रूक जाता है। इस बीमारी में टीट ट्यूमर एक्सट्रेटर से बाहर निकाला जाता है। इसके बाद एंटीबायोटिक का कोर्स किया जाता है।
और थन के अन्दर भी दवाई चढाई जाती। थन कि सोत (थन का प्रथम रास्ता) पर हल्दी और सरसों के तेल का पेस्ट लगाया जाता है।
कई बार थन का रास्ता बंद हो जाता है। यह बीमारी जन्म से होती है। इसमें थन की नली बंद होती है। इसके चलते बीमारी में हडसन टीट स्पाइरल से झिल्ली में सुराख किया जाता है। इसके अलावा आवश्यकतानुसार थन में चार पांच दिन एंटीबायोटिक का कोर्स किया जाता है।
दूध की नली में फाइब्रोसिस हो जाता है। दूध की नली में फाइबर की रस्सी बन जाती है। (जिसकों बहुत से भाई नड़ा बोलते है। जो हरियाणावी है वो समझ जाऐगें।) इसके बनने के मुख्य कारण चोट लगना, अंगूठे से दूध निकालना या फिर बछड़े के द्वारा थन को काटने से यह समस्या बन जाती है। इस बीमारी में गर्म पानी का सेक किया जाता है। इसके बाद इसमें आयोडिन क्रीम या ट्रपनटाइन तेल का मसाज किया जा सकता है।
थनों में पपड़ी या फटना
थनों में कोई चोट लगने, चेचक की बीमारी, मुंहखुर आदि के कारण थन फट जाते हैं। इस कारण थनों में दर्द होता है। इससे पशु थनों में हाथ नहीं लगाने देता। दूधारू पशुओं में धीरे धीरे यह अल्सर बन जाता है। यह अल्सर थन के बेस पर होता है। ऐसे थनों में दूध को साइफन से निकालना होता है।
उपचार:-
ऐसे घावों को लाल दवाई से धोना चाहिए। इसके बाद साफ कपड़े से पोंछकर जिंक ऑक्साइड या बिस्मित आइडोफॉम पैराफिन क्रीम लगानी चाहिए। घाव ठीक होने तक नजर रखनी चाहिए।
थन का तार-झाड़ी से फटना
इस तरह के थनों में दूध सुराख की बजाए अन्य जगहों से आना शुरू हो जाता है। इसे थन का फिस्चूला कहते हैं।
उपचार
इस अवस्था में पॉलीथिन कैथेटर थन की नली में डाला जाता है। इसके बाद टांके लगाने के बाद ठीक होने तक एंटीबायोटिक का कोर्स कराना पड़ता है।
लेवटी व थनों में मवाद
थनों की बजाए लेवटी में मवाद ज्यादा बनता है। यह मवाद थनैला बीमारी में जीवाणुओं से बनता है। इससे लेवटी गल भी जाती है।
उपचार
लेवटी में बनने वाली मवाद को पूरी तरह साफ करना चाहिए। इसके बाद टिंक्र ऑयोडिन या एक्रीफलेविन से ड्रेसिंग करनी चाहिए। कई बार थन को काटना((एंपूटेशन))करना पड़ता है।
थनों का ज्यादा होना
भैंसों और गायों में थनों की संख्या चार होती है। मगर कई बार देखने में आता है कि इन पशुओं में एक या दो थन ज्यादा हो जाता है। इस अतिरिक्त थन में दूध आएगा या नहीं इसका पशु के ब्याने के बाद ही पता चल पाता है। इस थन को हटाना केवल सुंदरता के लिए ही जरुरी नहीं है बल्कि यह दूध उत्पादन को भी प्रभावित करता है। कई बार थन आपस में चिपटे होते हैं। कई बार थन होते ही नहीं। इसके अलावा कई बार थन छोटे होते हैं। कई बार एक ही थन में दूध की दो नलियां बन जाती हैं।
उपचार:
ज्यादा थनों का उपचार केवल आपरेशन ही है। पशु के ब्याने से पहले बाल्यावस्था में इसका आपरेशन अच्छा रहता है। बहुत से भाई थनों में रिंग डाल देतें है कई बार वो नुकसान कर देता है। ज्यादा जानकारी के लिए पास के पशुहस्पताल मे सर्पक करें। घर पर वैध न बनें।
दूध में खून आना
जीवाणु या इंफेक्शन से ऐसा होता है। सबसे सस्ता और सही इलाज एक लीटर पानी में 10 से 20 एमएल फोरमलडिहाइड डालकर पशु को पिलाया जाता है। उपर से इसमें थोड़ा घी या सरसों का तेल देना अच्छा रहता है।
दूध का न बनना
कई बार पशु के ब्याने के बाद दूध नहीं बनता। लेवटी में इंफेक्शन होता है। दूध बढाने वाले पदार्थ और खनिज मिश्रण तत्व दिए जाते हैं। अक्सर खनिज लवणों की तरफ पशुपालक ध्यान ही नहीं रखते हैं।
अंधा थन
इस तरह के थन में सुराख नहीं होता या फिर चोट के कारण थन बंद हो जाता है। बीमारी में थन के बेस पर सुराख ही दूसरा करना पड़ता है। इसके बाद दूध आना शुरू हो जाता है।
थन का कैंसर : –
यह दूध देने वाली भैंसों की बजाए झोटियों में ज्यादा पाया जाता है। इसका निदान यही है कि थन से ट्यूमर को ऑपरेशन से निकाला जाता है।
बेस पर थन का बंद होना
इस बीमारी में थन का वॉल बंद हो जाता है। इससे दूध निकालने में दिक्कत हो जाती है। टीट ट्यूमर एक्सट्रेटर से थन को खोला जाता है और पॉलीथिन कैथेटर इसमें तीन से पांच दिन रखा जाता है।
थन से दूध टपकना
यह थन का वॉल चोटिल होने के कारण वॉल का ढीला होने के कारण होती है। इससे थन से दूध टपकता रहने से यह बीमारी थनैला का रूप ले लेती है। ऐसे केस में टींक्चर आयोडिन दिन में दो तीन बार व तीन से पांच दिन तक थन में डाला जाता है।
थनों की बीमारी में सही समय पर उपचार जरूरी।
यदि पशुपालन समझ कर करोगें। अच्छा पैसा है। नही करोगें घर मे जो भी जमा किया हुआ पैसा रखा है । वो सब साफ है।