आपदा में पशुधन का उचित प्रबन्धन, पोषण एवं खाद्य सुरक्षा

0
679

आपदा में पशुधन का उचित प्रबन्धन, पोषण एवं खाद्य सुरक्षा

डा. दीप नारायण सिंह, डा. मनीषा त्यागी, डा. अजय कुमार, डा. ममता, डा. रजनीश सिरोही,
डा. यजुवेन्द्र सिंह एवं डा. अमित सिंह
पशुधन उत्पादन एवं प्रबन्धन विभाग, पशु चिकित्सा संकाय
उ.प्र. पंडित दीनदयाल उपाध्याय पशुचिकित्सा विश्वविद्यालय एवं गो-अनुसंधान संस्थान, मथुरा।

सारांश

हमारे देश में पशुधन का अभूतपूर्व भंडार उपलब्ध है। पशुपालन भारतीय कृषि का सबसे महत्वपूर्ण घटक है जो हमारे देश के ग्रामीण, विशेष रूप से सीमांत, छोटे और भूमिहीन किसानों की दो तिहाई से अधिक की आजीविका का समर्थन करता है। पशु पोषक तत्वों से भरपूर खाद्य उत्पाद (दूध, ऊन, अंडा, मांस आदि) पशु शक्ति, जैविक खाद और घरेलू ईंधन, खाल और त्वचा के साथ-साथ ग्रामीण परिवारों के लिए नकद आय का एक नियमित स्रोत प्रदान करते हैं। भारत में पशुधन संपत्ति की वृद्धि अनुमानित 6.00 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से है। सूखे, अकाल और अन्य प्राकृतिक आपदाओं में पशुधन किसानों के लिए सबसे अच्छा बीमा स्वरूप है। भारत जैसे विकासशील देशों में, आपदाएं हर साल एक आम घटना होती हैं। आपदा में सबसे अधिक प्रभावित भारत देश में गरीब और आम समुदायों के लोग हैं, जो आपदा होने पर मानव और संपत्ति के नुकसान के मामले में सबसे ज्यादा पीड़ित हैं। किसी भी अनचाहे आपदा से लोगों को आपदा प्रबंधन विषय पर समय-समय पर उचित प्रशिक्षण एवं आवश्यक ज्ञान प्रदान करना अत्यंत आवश्यक है। जिससे आपदा के समय पशुधन का उचित प्रबंधन किया जा सके तथा साथ ही किसी भी अप्रिय घटना से बचते हुये हमारे पशुपालक भाई विपरीत परिस्थितियों में भी अधिक से अधिक लाभ प्राप्त कर सकें एवं अपनी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बना सकें तथा पोषण एवं खाद्य सुरक्षा के प्रति भी अपने दायित्वों का निर्वहन करने में योगदान दे सकें।

मुख्य शब्द : आपदा, ओलावृष्टि, बाढ़, पोषण, सूखा, भूकंप, वर्णित, पशुधन।

परिचय

पशुपालन एक आर्थिक उद्यम है और इसे भारत में लाखों लोगों के लिए “उत्तरजीविता उद्यम“ माना जाता है, विशेष रूप से शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में। भारत में 85 प्रतिशत पशुधन रखने वाले छोटे और सीमांत किसान हैं, जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम भूमि है, जो फसल की खेती के लिए 44 प्रतिशत भूमि का संचालन करते हैं और देश के दूध उत्पादन में 69 प्रतिशत से अधिक का योगदान करते हैं। पशुधन का भारत में स्थायी कृषि विकास और खाद्य सुरक्षा का भविष्य निर्धारण में महतवपूर्ण योगदान है। पशुधन का तात्पर्य उन पालतु पशुओं से है जिनसे हमें प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से लाभ प्राप्त होता है तथा जिसमें संतानोत्पत्ति की प्रचुर क्षमता विद्यमान रहती है। वर्तमान में 20वीं पशुगणना के अनुसार हमारे देश में कुल पशुधन की संख्या 535.78 मिलियन से अधिक है जिसमें गोवंशीय पशुओं की संख्या लगभग 192.49 मिलियन जबकि महिषवंशीय पशुओं की संख्या 109.85 मिलियन से भी अधिक है। मादा गोवंश की कुल संख्या 145.12 मिलियन है जो पिछली गणना सन 2012 की तुलना में लगभग 18.0 प्रतिशत अधिक है। विदेशी/शंकर नस्ल और स्वदेशी/अवर्णित की कुल संख्या देश में क्रमशः 50.42 एवं 142.17 मिलियन है। स्वदेशी/अवर्णित मादा गायों की कुल संख्या वर्ष 2019 में पिछली गणना की तुलना में लगभग 10.0 प्रतिशत, विदेशी/संकर नस्ल वाली गायों में 26.9 प्रतिशत बढ़ एवं स्वदेशी/अवर्णित पशु की कुल संख्या पिछली गणना की तुलना में लगभग 10 प्रतिशत बढ़ गई है। वर्तमान में महिषवंशीय पशुओं की संख्या भी विगत 2012 की पशुगणना के सापेक्ष 1.0 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। विश्व में पशुओं की संख्या के हिसाब से भारत का एक महत्वपूर्ण स्थान है। विश्व की कुल पशु संख्या का लगभग 56.7 प्रतिशत भैसों की आबादी, 12.5 प्रतिशत गायों की, 20.4 प्रतिशत भेड़ एवं बकरी, 2.4 प्रतिशत ऊँट, 1.4 प्रतिशत घोडे, 1.5 प्रतिशत सूकर एवं 3.1 प्रतिशत मुर्गी भारत में पाई जाती है। वर्ष 2019 की पशु जनगणना के अनुसार भारत वर्ष में 192.49 लाख गाय, 109.85 लाख भैस, 74.26 लाख भेंड, 148.88 लाख बकरी, 9.06 लाख सूकर एवं 851.81लाख मुर्गी उपलब्ध है । भारत के पास 50 देषी गाय की नस्लें, भैसों की 19, बकरी की 34, भेडो की 44, सूकर की 10, ऊँट की 9, घोडो की 7, और पोल्ट्री की 19 नस्ले दर्ज हैं।
प्राकृतिक आपदायें प्रमुख रूप से सूखा, बाढ़, चक्रवाती तूफानों, भूकम्प, भूस्खलन, वनों में लगने वाली आग, ओलावृष्टि, टिड्डी दल और ज्वालामुखी फटने जैसी विभिन्न घटनायें, जिनका अनुमान लगाना एवं उचित प्रबंधन करना अत्यंत कठिन है। आपदाओं का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है, न ही इन्हें रोका जा सकता है, लेकिन इनके प्रभाव को एक सीमा तक जरूर कम किया जा सकता है, जिससे कि जान-माल का कम से कम नुकसान हो। यह कार्य तभी किया जा सकता है, जब सक्षम रूप से आपदा प्रबंधन का उचित ज्ञान हो तथा अपेक्षित सहयोग मिले। प्रत्येक वर्ष प्राकृतिक आपदाओं से अनेकानेक लोगों एवं पशुधन की मृत्यु हो जाती है, जिससे हमारे देश एवं पशुपालक भाईयों को बहुत नुकसान होता है। प्राकृतिक आपदा से होने वाले नुकसान में भारत का दसवां स्थान है। आपदा प्रबंधन के दो महत्वपूर्ण आंतरिक पहलू हैं। वह हैं पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती आपदा प्रबंधन। पूर्ववर्ती आपदा प्रबंधन को जोखिम प्रबंधन के रूप में जाना जाता है। आपदा प्रबंधन का पहला चरण है खतरों की पहचान। इस अवस्था पर प्रकृति की जानकारी तथा किसी विशिष्ट अवस्थल की विशेषताओं से संबंधित खतरे की सीमा को जानना शामिल है। साथ ही इसमें जोखिम के आंकलन से प्राप्त विशिष्ट भौतिक खतरों की प्रकृति की सूचना भी समाविष्ट है। आपदा के बाद की स्थिति आपदा प्रबंधन का महत्वपूर्ण आधार है। जब आपदा के कारण सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जाता है तब लोगों को स्वयं ही उजड़े जीवन को पुनः बसाना होता है तथा अपने दिन-प्रतिदिन के कार्य पुनः शुरू करने पड़ते हैं।

READ MORE :  MANAGEMENT OF LIVESTOCK DURING DISASTER IN INDIA

हमारे देश में पशुधन को प्रभावित करने वाली प्रमुख आपदायें एवं उनका प्रबंधन निम्नवत हैं-

1. सूखा –सूखा एक ऐसी स्थिति है जहां पर्याप्त अवधि के लिए वर्षा की कमी होती है, तथा वातावरणीय तापक्रम अधिक होता है। नदियों, नालों और भूमिगत पानी में पानी के स्तर में असंतुलन के कारण औसत से कम वर्षा हो सकती है। सूखा पडने की वजह से हरे चारे एवं अनाज उत्पादन में कमी होती है, जिसके फलस्वरूप पशुओं की वृद्धि, उत्पादकता एवं प्रजनन क्षमता कम हो जाती है। सूखा पडने की स्थिति में हमें पहले से ही तैयारी रखनी चाहिये, जिसकी चेतावनी अथवा संभावनायें पूर्व में ही सरकार द्वारा घोषित कर दी जाती हैं। ट्यूबवेल की मरम्मत, टैंकों की सफाई, टैंकों या बड़े तालाबों में वर्षा जल संचयन की तैयारी के माध्यम से पानी की कमी के समय अतिरिक्त पानी की आपूर्ति के लिए प्रावधान करना चाहिए। परंपरागत चारा संसाधनों के उपयोग का अन्वेषण करें और मवेशी खाद्य संयंत्रों में पशु आहार की आपूर्ति को प्रोत्साहित करें। सूखे चारा भंडार, हरे चारे का संरक्षण, यूरिया खनिज मोलासेस की ईंट एवं यूरिया उपचारित चारा को गोदाम में संरक्षित करके रखना चाहिये। बीज भंडार का उपयोग करके और वैकल्पिक सूखा प्रतिरोधी चारा फसलों का अन्वेषण कर उनका रोपण एवं बुवाई करना चाहिये। बेहतर स्वास्थ्य प्रबंधन के माध्यम से रोग प्रकोप की रोकथाम हेतु भी आवश्यक उपाय करना चाहियें।

2. भूकंप-भूकंप इमारतों, बुनियादी ढांचे, पुलों, बांधों, सड़कों और रेलवे को नुकसान पहुंचाता है। भारत के अधिकांश स्थानों में, जानवर ज्यादातर बाहर बंधे होते हैं या आश्रय स्थल में रखा जाता है जहां शारीरिक चोटों की संभावना कम होती है। लेकिन जब जानवर बंधे होते हैं तो उनके भागने की संभावना कम हो जाती है और चोटिल होने की संभावनायें बढ़ जाती है। अतः भूकम्प के दौरान सभी कृषि उपकरण और अन्य वस्तुओं को पशुओं को दीवार से दूर रखा जाना चाहिए क्योंकि उनके द्वारा उन्हें गंभीर चोट लगने की संभावना होती है।

READ MORE :  बाढ़ के समय पशुओं की देखभाल

3. बाढ़- बाढ़ सबसे आम प्राकृतिक आपदाओं में से एक है जो संपत्ति, पशुधन, फसलों और मानव जीवन को व्यापक नुकसान पहुंचाती है। वर्तमान में भी कई राज्य एवं देश बाढ़ की समस्या से ग्रसित हैं। यद्यापि जानवर प्राकृतिक तैराक हैं, फिर भी बंधे होने एवं तेज बहाव की स्थिति में डूबने से मर सकते हैं। अतः बाढ़ की स्थिति में अपने पशुधन को कभी भी बांध कर मत रखें, तथा उन्हें किसी ऊंचाई वाले स्थान पर स्थान्तरित कर देना श्रेयस्कर होता है। यदि आपदा का पूर्वानुमान पहले से ही है तो जानवरों को सुरक्षित स्थानों पर स्थानांतरित करें। बाढ़ से पर्यावरण, पीने के पानी और नदियां प्रदूषित हो जाती हैं। अनुचित प्रबंधन से टिटनस, डीसेंटरी, हेपेटाइटिस और खाद्य विषाक्तता जैसी संक्रामक बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाता है। सभी जानवरों को सभी संक्रामक बीमारियों से बचने के लिए टीका अवश्य लगवायें।

4. चक्रवात –वर्तमान समय में मौसम वैज्ञानिकों द्वारा चक्रवात की कुछ सटीकता के साथ भविष्यवाणी की जा रही है, जिसके परिणामस्वरूप पूर्व में ही उचित प्रबंधन तकनीकी अपनाकर अधिक नुकसान से बचा जा सकता है। चक्रवात क्षेत्र से दूर पशुओं के लिए चक्रवात आश्रय बनाया जाना उचित होगा साथ ही उन्हें किसी ऊंचाई वाले स्थान पर स्थान्तरित कर देना बेहतर विकल्प है।

5. भूस्खलन और मडफ्लो –यह गुरुत्वाकर्षण संचालित क्रियाओं के कारण मिट्टी, चट्टान, या अन्य मलबे को किसी भी प्रकार के सतह पर डाउनस्लोप को संदर्भित करता है। भूस्खलन के कारण परिवहन प्रणालियों में निरंतर व्यवधान, राजस्व का नुकसान होना, पशुधन की हानि, जानवरों के घरों की क्षति के साथ ही विद्युत, पानी, गैस और सीवेज लाइन के क्षतिग्रस्त होने की प्रबल संभावना होती है जो मानव एवं पशुधन के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव उालती है। क्षतिग्रस्त विद्युत तार और गैस पाईप लाइन से आग लगने की संभावना बनी रहती है। ढलानों और क्षेत्रों पर जहां भूस्खलन होते हैं, ग्राउंड कवर लगाना एक आवश्यक निवारक उपाय है। घरों और पशुधन की दीवारों को मजबूत किया जाना चाहिए।

READ MORE :  Advisories and Standard Operating Procedure (SOP) for African Swine Fever (ASF)

6. ज्वालामुखी विस्फोट- दुनियाभर में करीब 20 ज्वालामुखी है जो कभी भी विस्फोटित हो सकते हैं, जिससे मानव एवं पशुधन को बहुत अधिक क्षति होती है। ज्वालामुखी विस्फोट से उत्पन्न राख में हानिकारक रासायनिक पदार्थ और नुकिले काँच के टुकडे़ वहाँ के जीवों को विस्फोट के बाद सालभर बाद भी हानि पहुँचाते हैं। राख के तेज किनारों से आंख और त्वचा में जलन होती है, और दांत, खुर और कीट के पंखों के लिए अपघर्षक होते हैं । राख के अंतर्ग्रहण से श्वसन संबंधी समस्याएं और जठरांत्र संबंधी रुकावट होती हैं। राख और गैसें भोजन और पानी की आपूर्ति को नष्ट और दूषित कर देती हैं। अतः पशु सम्पदा को शीघ्रातिशीघ्र सुक्षित स्थानो पर स्थानान्तरित कर उचित उपचार एवं प्रबन्धन करना चाहिये।

7. मानव निर्मित तकनीकी खतरे -मानव निर्मित आपदाएं तब होती हैं जब विकिरण रिसाव, अग्नि इत्यादि जैसी कोई आकस्मिक स्थिति उत्पन्न होती है। जिसके परिणामस्वरूप मानव खाद्य आपूर्ति के साथ पर्यावरण भी प्रदूषित होता है। पशुधन को रेडियोधर्मिता, आग के स्रोतों से जानवरों को संरक्षित किया जाना चाहिए।

आपदा प्रभावित पशओं में हमेशा बीमारी के प्रकोप की संभावना होती है, जिसको व्यापक रूप से टीकाकरण कार्यक्रम से बचा जा सकता है। उचित स्वच्छता और स्वच्छता के साथ कीट नियंत्रण पर भी सावधानी बरतनी रखनी चाहिए। पशु चिकित्सकों को आपदा में समुचित प्रबंधन हेतु महत्पूर्ण भूमिका निभानी चाहिये जिससे राहत प्रयासों के दौरान पीड़ित जानवरों की सुरक्षा एवं उपचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर अपनी उपयोगित एवं सार्थकता सिद्ध कर सकें । पैरा-पशु चिकित्सा कर्मचारियों और सहायक कर्मचारियों के साथ पशु चिकित्सकों को बीमार, घायल जानवरों तक पहुंचने के लिए प्रभावित क्षेत्रों में अस्थायी बचाव शिविर स्थापित करने में मदद करनी चाहिए। नियंत्रण कक्षों में पशु चिकित्सा सहायता का आदान-प्रदान और समन्वय स्थापित करने में भी पशु चिकित्सकों का महत्वपूर्ण योगदान होता है।

सारांश-

एक अच्छी तरह से समन्वयित कार्य प्रणाली विकसित करके ही किसी भी प्रकार की आपदा से होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है। आपदा से पूर्व ही हमें आपदा प्रबंधन समूह बनाना चाहिए। आपदा प्रबन्धन विषय पर पर लोगों को जागरूक करने के लिये समय-समय पर प्रशिक्षण एवं गोष्ठी आयोजित करना चाहिये। जिससे हमारे किसान एवं पशुपालक भाईयों की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति सुदुढ़ होगी तथा देश की पोषण एवं खाद्य सुरक्षा के प्रति भी अपना योगदान दे सकेगें। किसी भी प्रकार की आपदा से बचने के लिये सरकारी एवं गैर-सरकारी प्रयास बहुत ही प्रभावशाली होते हैं। अतः आपदा के समय उचित प्रबंधन रणनीति अपनाकर हम अपने पशुधन एवं स्वयं की रक्षा कर सकते हैं जिससे हम और हमारा देश निरन्तर प्रगति के मार्ग पर अग्रसर हो सकेगौ।

 

Please follow and like us:
Follow by Email
Twitter

Visit Us
Follow Me
YOUTUBE

YOUTUBE
PINTEREST
LINKEDIN

Share
INSTAGRAM
SOCIALICON